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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका
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Tuesday, January 31, 2017

ट्रम्प के आतंकवादी प्रयासों के आशानुरूप परिणाम निकलने की संभावना कम ही है-हिन्दी संपादकीय (Dought in Trump efferd succes as Expetsion agisnt terrism-HindiEditorial)

                             भक्तों ने अभी ट्रम्प की सात मुस्लिम बाहुल्य देशों के शरणार्थियों के आगमन पर रोक तथा 9-11 के हमले बीच संबंध को समझा ही नहीं है। अमेरिका ने ईरान, इराक, सूडान, यमन, सोमालिया सीरिया तथा लीबिया पर यह प्रतिबंध लगाये हैं जबकि उसके देश में जो हमले हुए हैं उसमें इन देशों के नागरिक लिप्त नहीं पाये गये वरन् पाकिस्तान, तुर्की, अफगानिस्तान और सऊदी अरब और संयुक्त अरब  में पैदा लोगों ने वहां की आतंकवादी घटनाओं में तार जुड़े पाये गये। अमेरिका के प्रचार माध्यमों के आंकड़ों में भी यह बताया गया है कि इन सात देशों के बहुत कम नागरिक अमेरिका आ रहे थे। इन देशों के लोगों में अमेरिका विरोध की वैसी प्रवृत्ति भी नहीं देखी गया बल्कि अमेरिका ने इन्हीं देशों के राष्ट्राध्यक्षों को कभी समर्थन देकर उनको वहां का तानाशाह बनाया फिर उनसे रुष्ट होकर अपने हमले इस तरह किये कि ईरान को छोड़ सारे देश  अब लगभग तबाही झेल रहे हैं। दूसरी बात यह कि इन्हीं देशों में ईसाई आबादी भी है जो इन प्रतिबंधों का शिकार होगी-इसलिये इसे मुस्लिम विरोधी नीति मानना भी ठीक नहीं, यह बात ट्रंप ने भी कही है।
                                 यह भी बता दें इन देशों ने कभी अमेरिका के विरोध को कभी प्रायोजित किया हो इसके प्रमाण नहीं है। अमेरिक के विरोध में सक्रिय बौद्धिक तथा मानवाधिकार  संगठनों को इन देशों से किसी आर्थिक सहायता की संभावना ही नहीं दिखती वरन् जिन्हें ट्रम्प ने प्रतिबंध से मुक्त रखा है वही यह कर सकते हैं। यह संगठन इस समय इन सात देशों पर प्रतिबंध का विरोध कोई उनके प्रति सदाशयता दिखाने के लिये नहीं कर रहे वरन् उन्हें भय है कि कहीं उनके प्रायोजक देश कहीं इसकी चपेट में न आयें इसलिये इन प्रदर्शनों से दबाव बना रहे हैं। वह इसमें सफल भी हो गये हैं क्योंकि ट्रम्प प्रशासन अब आगे इस सूची को नहीं बढ़ायेगा-कम से कम पाकिस्तान, सऊदी अरब, तुर्की और संयुक्त अरब अमीरात का नाम तो नहीं आयेगा जैसे कि भक्त सोच रहे हैं।
                                                        ट्रम्प ने सात इस्लामिक देशों की यात्रा पर प्रतिबंध लगाया है इससे भक्त समूह को प्रसन्न होने की जरूरत नहीं है। आतंकवाद के विरुद्ध लड़ाई में इससे अमेरिका को मदद नहीं मिलने वाली क्योंकि उसने सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात और तुर्की के साथ ही पाकिस्तान पर कोई प्रतिबंध नहीं लगाया जिन पर  अपने धर्म के नाम पर आतंकवाद फैलाने आरोप लगते हैं। यमन, ईरान, इराक, सीरिया और लीबिया में शियाओं का प्रभाव है जिनके विरुद्ध सऊदी अरब बहावीवाद के रूप में आतंक का समर्थन करता है। आईएसआईएस शुद्ध रूप से सऊदी अरब की पैदाइश है। ऐसे में पूंजीवादी अमेरिका का पूंजीपति ट्रंप कभी अपने पांव पर कुल्हाड़ी नहीं मारेगा।  अफगानिस्तान पर नियंत्रण के लिये पाकिस्तान का साथ भी नहीं छोड़ेगा क्योंकि वहां से आर्थिक फायदा उठाना अमेरिका की भविष्य की योजना है।
                               ट्रम्प के विरोधियों के तर्कों को भी भक्तगण भावनात्मकता के आधार पर खारिज नहीं कर सकते क्योंकि उनका व्यवाहारिक पक्ष अत्यंत मजबूत है।  उल्टे कहीं ऐसा न हो जाये कि मीडिया के दबाव में कहीं ट्रम्प निरपेक्ष दिखने के प्रयास में अमेरिका के हिन्दूओं को भी परेशान न करने लगे-ऐसी आशंका लगती है। हालांकि भक्तों के लिये यह संतोष का विषय है भारतीय रणनीतिकारों ने कि सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात के साथ रणनीतिक मित्रता स्थापित कर ली है जो भविष्य में सहायक साबित होगी। ऐसे में भक्त निरपेक्ष भाव से देखते रहें क्योंकि राजनीति में त्वरित रूप से टिप्पणी करना हमेशा बुद्धिमानी नहीं होती।

Sunday, January 29, 2017

अमेरिका में अप्रवासी हिन्दूओं के सामने पहचान का संकट आ सकता है-हिन्दी संपादकीय (Profile Trouble may be Front of American Hindu-Hindi Editorial)

                भारत के समाचार चैनलों से हम बोर हो गये हैं इसलिये सीएनएन  और बीबीसी देख रहे हैं। वहां ट्रम्प ने सात इस्लामिक देशों पर यात्रा प्रतिबंध लगा दिया है-मतलब अमेरिकी वहां नहीं जायेगे और न वहां से लोग आयेंगे। यह देश हैं-लीबिया, ईरान, सोमालिया, सीरिया, यमन, इराक और सूडान। मजे की बात यह है कि इन देशों की हालत अमेरिकी हस्तक्षेप के बाद ही बिगड़ी है। जिस संयुक्त अरब अमीरात और सऊदी अरब पर आतंकवाद पर प्रश्रय का सीधा आरोप है उन्हें इसमें शामिल नहीं किया गया है। कभी कभी लगता है कि ट्रम्प भी इस्लामिक आतंकवाद के विरुद्ध दिखावटी सक्रियता दिखा रहे हैं। हमने यूट्यूब पर पाकिस्तान के एक चैनल पर भी एक चर्चा देखी उसमें एक विशेषज्ञ साफ कह रहा था कि ट्रम्प अपने व्यवसाय के लाभ के लिये काम कर रहा है।  उसने यह भी कहा कि सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात पर अमेरिका प्रतिबंध नहीं लगा सकता है क्योंकि  वहां के रीयल स्टेट में महंगे मकानों के खरीददार तो इन्हीं देशों से हैं-प्रसंगवश उसने ट्रम्प के रीयल स्टेट व्यवसाय का उल्लेख भी किया। इतना ही नहीं यमन में तो उसके मित्र देश सऊदीअरब ने ही हाहाकार मचा रखा है। दिलचस्प बात है कि सऊदीअरब उस बहावीवाद को प्रोत्साहित देता है जो कि इस्लामिक आतकवाद की जड़ है। वह शियाओं के विरुद्ध सरेआम युद्ध कर रहा है। उसी सऊदी अरब पर ट्रम्प प्रहार करने से बच रहा है। हमारा मानना है कि ट्रम्प का इस्लामिक आतंकवाद को मिटाने का सपना कभी पूरा नहीं होगा-अलबत्ता इस आड़ में अमेरिका आर्थिक लाभ उठाने की कोशिश करेगा। आगे राजनीति क्या रूप लेगी पता नहीं पर अभी तो अनुमान ही लगाया जा सकता है। वैसे ट्रम्प विरोधियों का तर्क जोरदार है कि उनका प्रतिबंध 9-11 के अपराधियों की जन्मभूमि पर सऊदी अरब लागू नहीं है।

                     वैसे भारत के रणनीतिकारों ने भी दूरदर्शिता का परिचय दिया है और सऊदी अरब तथा संयुक्त अरब अमीरात से अच्छे संबंध बनाकर अपनी वैश्विक भूमिका के लिये अब तैयार रहने का संकेत दिया है। हमने लगातार चर्चायें देखी। अमेरिका में रहने वाले भारतीयों के सामने समस्या आयेगी। वह यह कि वह अपने इंडियन छवि से अधिक हिन्दू छवि पर ही निर्भर होकर अपना बचाव कर पायेंगे।  अमेरिका में हो रही सामाजिक उथलपुथल में उनको निरपेक्ष तो रहना ही होगा। भारतीय रणनीतिकारों के सामने भी यह समस्या आयेगी कि वह ‘इंडियन’ की वकालत करें या ‘हिन्दू की। कालांतर में अमेरिका का संयुक्त अरबी अमीरात और सऊदी अरब से भी टकराव होगा क्योंकि फलीस्तीन पर ट्रम्प सीधे इजरायल के पक्ष में है।  चीन और रूस जैसे देश कब भारत का साथ छोड़ दें पता नहीं इसलिये भारत को इजरायल के साथ संबंध तो बनाने पड़ेंगे-संभव फलीस्तीन के विषय पर उदासीन नीति अपनानी पड़े। 
                                  डोनाल्ड ट्रम्प ने शरणार्थियों पर प्रतिबंध लगा दिया है। पाकिस्तान तथा अफगानिस्तान के लोगों का प्रवेश भी कठिन कर दिया है। इस पर यूरोप, ब्रिटेन तथा अन्य अनेक देश आपत्तियां कर रहे हैं। भारत के प्रचार माध्यमों में प्रगतिशील और जनवादियों का बोलबाला रहा है। स्थिति यह है कि एक बहुत पुराने लेखक ने भी एक बड़े समाचार पत्र में अमेरिका के प्रतिबंध में अरेबिक धर्म का नाम नहीं लिया। वजह यह है कि निरपेक्षों ने भारत में ऐसे हालत कर रखे हैं कि कोई भी हिन्दू धर्म के अलावा किसी की आलोचना कर ही नहीं सकता।  अब यह वोटों का मामला है या नोटों का हमें पता नहीं, पर अब इतना जरूर पता चल गया है कि भारत के कथित निरपेक्ष अमेरिका के कथित सभ्रांत समाज के सक्रिय अपने बौद्धिक आकाओं से प्रेरणा लेते थे। यहां से ही राष्ट्रवादियों को बदनाम करने के पत्र अमेरिका जाते थे। अब अमेरिका में ही इनके कथित बुद्धिजीवी आका संघर्ष कर रहे हैं तब यहां के निरपेक्षों के लिये यह संभव नहीं रहा कि यहां की असहिष्णुता का रोना रोयें।
                   बहरहाल  ट्रम्प की राह आसान नहीं है, वह इतना कमजोर भी नहीं है कि अरब जगत से प्रायोजित प्रचार माध्यमों के आगे झुक जाये। इसलिये आने वाला समय विश्व में उथल पुथल होगा। हम बारम्बार लिख रहे हैं कि भारतीय रणनीतिकारों के लिये भी राह आसान नहीं है क्योंकि वह अपनी निरपेक्ष छवि के साथ अमेरिका का साथ लंबे समय तक नहीं दे सकते। वैसे ट्रम्प अपने कारनामों से कई ऐसे मिथक ध्वस्त करने जा रहे हैं जिनके सहारे पूरे विश्व के बौद्धिक लोग समरसता का राग अलापते थे। आने वाले समय में पूरा विश्व उथलपुथल की राजनीति से जूझता नज़र आयेगा-इसमें संशय नहीं है।
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Wednesday, January 25, 2017

किसी आम भक्त फेसबुकिए को पद्म सम्मान मिलता तो हमें बहुत खुशी होती-हिन्दी लेख (If PadmaShri or Padmavibhushan prize Given to Comman Bhakt, we have been very Happy-HindiArticle)

                                            अंतर्जाल पर कुछ भक्त निष्काम भाव के साथ बरसों से सक्रिय हैं। इनमें से कुछ तो अपने वर्तमान इष्ट से मिल भी चुके हैं। हमारा मानना है कि वह गज़ब का लिखते हैं और पदम् पुरस्कार के हकदार भी हैं। आखिर उनमें क्या कमी है? हिन्दी, हिन्दू तथा हिन्दुत्व की सेवा में उन्होंने अंतर्जाल पर जिस समय प्रचार प्रसार का काम यह रास्ता चुना उस समय भक्त समूह से कोई पुराना या नया विद्वान नहीं चुन सकता था। हम बहुत देर तक प्रतीक्षा कर रहे थे कि शायद अंतर्जाल पर दस बरस से सक्रिय किसी भक्त को इस बार यह सम्मान मिलने की खबर दिख जाये पर नहीं मिली। अनेक भक्तों ने कुछ लोगों को पद्म सम्मान देने का मजाक भी उड़ाया है-इससे साफ दिखता है कि अपने ही दल से भक्त निराश हो रहे हैं। हमें पहले से ही इसकी आशंका थी। भक्तों के शिखर पुरुष हिन्दी, हिन्दू तथा हिन्दुस्तान के नाम उनका एक तरह से शोषण करते है। जब सत्ता से बाहर होते हैं तब जिन लोगों का विरोध करते हैं-उन पर आक्षेप करते हैं-फिर सिंहासन पर आते ही उन्हें सम्मानित करते हैं। अगर वह अपने ही किसी कम प्रसिद्ध पर अंतर्जाल पर सक्रिय भक्त को सम्मानित कर देते तो क्या बिगड़ता।
पद्म सम्मान के नाम पर पुराने तरीके की प्रणाली चल रही है।  सम्मान ही क्या प्रशासन की भी वैसी प्रणाली चल रही हैं।  ऐसा लगता है कि वर्तमान भक्तों को भी वैसी ही निराशा सतत झेलनी पड़ेगी जैसे राममंदिर आंदोलनकालीन लोगों ने झेली थी। वैसे भी विचाराधाराओं का तो नारा भर है वरना तो चुनावी राजनीति एक तरह से व्यवसाय हो गयी है। यही कारण है कि चेहरे बदलते हैं प्रणाली का चरित्र और चाल नहीं बदलती। मूर्धन्य भक्त विद्वान श्रीगोविंदाचार्य से हम कभी मिले नहीं है पर उनके एक बयान ने हमारी आंखें ऐसी खोली कि वह अपने राजसी चिंत्तन के द्वार खुल गये। उनके बयान पर लिखने का समय आ रहा है-यह अलग बात है कि बात में वह अपने ही उस बयान पर सफाई देते रहे पर यह प्रयास भी उनको हाशिए पर जाने से बचा नहीं पाया।
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                                     भक्तों से क्या कहें, हम भी इतने उकता गये हैं कि भारत के हिन्दी और अंग्रेजी के चैनल छोड़कर सीएनएन, बीबीसी के साथ अलजजीरा चैनल देखकर अंतर्राष्ट्रीय खबरों का आनंद लेते हैं। अब देश के पांच राज्यों से अधिक अमेरिका के नये नवेले राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प हमारी ज्यादा नज़र है जिनके आने से यूरोप ही नहीं ब्रिटेन भी थोड़ा परेशान दिखता है।  वैसे ट्रम्प ने सबसे पहले ब्रिटेन और इजरायल के राष्ट्रप्रमुखों से बात की है। भारत से भी उनकी जल्दी बातचीत होगी। ट्रम्प ने अब तक भले ही बहुत सारी बातें ऐसी की हैं जिससे लगता है कि विश्व में अपने देश के स्थापित वर्चस्व में कमी लायेंगे पर कालांतर में सच्चाईयां सामने आने पर उन्हें पुरानी नीति के बहुत सारा हिस्सा अपनाना पड़ सकता है।
 हमारी दृष्टि से भारत को अततः फलस्तीन के प्रति अपना समर्थन त्यागकर इजरायल से मित्रता करना ही पड़ेगी। चीन और रूस भले ही अरेबिक आतंकवाद का विरोध करें पर वहां के सत्ताधारी लोगों के प्रति उनका झुकाव साफ दिखता है। अमेरिका तथा रूस अपने हथियार और बारूद बेचने में ज्यादा रहते हैं।  अगर अमेरिका इस धंधे से पीछे हटता है तो रूस और चीन अपना बाज़ार बनायेंगे तब भारत के लिये समस्या आ सकती है।  ऐसे में इजरायल ही ऐसा देश बचता है तो जो भारत के साथ खड़ा रह सकता है। हालांकि यहूदी लाबी के दबदबे में रहने वाले अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रम्प के लिये मुश्किल होगा कि वह इजरायल को अकेला छोड़ दे। इजरायल जरूर चाहेगा कि अमेरिका अपना वर्चस्व अरब जगत पर बनाये रखे और तब रूस और चीन के लिये अपना पूर्ण वर्चस्व स्थापित करना कठिन होगा।
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Monday, January 23, 2017

ट्रम्प सरकार से भारत रणनीतिकारों को नये सिरे से संपर्क बनाने होंगे-हिन्दी संपादकीय (India must new Start with Trump Government-Hindi Editorial)


                              ट्रम्प हिन्दूओं के प्रशंसक है पर भारत में वर्चस्व तो धर्मनिरपेक्षों का है।  हिन्दूत्व की धारणाओं के साथ समस्या यह है कि स्वयं हिन्दू ही नहीं जानते कि उनका मूल स्वरूप क्या है? श्रीमद्भागवत गीता को हिन्दूओं का प्रमाणिक धार्मिक ग्रंथ माना जाता है जिसमें स्पष्टतः कहा गया है कि मनुष्य को सभी के प्रति समान दृष्टि रखना चाहिये-यहां तक कि मित्र और बैरी में भी भेद करने वाला अज्ञानी है। अगर ट्रम्प के वक्तव्यों का सार समझें तो हिन्दू धर्म उनके लिये मित्र है पर ऐसे में भारत के असली तथा नकली धर्मनिरपेक्ष दोनों प्रकार के लोगों के लिये समस्या खड़ी होगी।
               वैसे भी ट्रम्प की पार्टी भारत की अधिक समर्थक नहीं मानी जाती। भक्तगण आतंकवाद के विरुद्ध उसके संघर्ष के कारण आश्वस्त जरूर रहे हैं पर इधर ट्रम्प ने तो उसे सीधे धर्म से जोड़ दिया है।  अब भक्त तथा उनके इष्ट अलग जगह पर खड़े हैं।  भक्त हिन्दू धर्म की प्रधानता से खुश होंगे पर क्या इष्ट के लिये यह संभव है कि वास्तविक धर्मनिरपेक्ष होने का दावा करने के बाद अमेरिका के नवीन राष्ट्रपति के साथ आतंकवाद पर सामंजस्य बिठा सके।  ट्रम्प सरकार मूलतः ईसाई धर्म मानने वाली है-इस पर अलग से बहस हो सकती है। ट्रम्प स्वयं हिन्दू धर्म तथा हिन्दूओं के प्रशंसक हैं।  ऐसे में अपना धर्मनिरपेक्ष चेहरा लेकर भक्तों के इष्ट कैसे ट्रम्प के सामने आयेंगे। भारत के एक परिवारवादी दल का नेता तो पहले ही अमेरिका रणनीतिकारों के सामने ‘देश के लिये हिन्दू आतंकवाद सबसे बड़ा खतरा बता चुका  है पर क्या भक्तों के प्रवक्ताओं में यह साहस है कि वह अरेबिक विचारधारा का खतरा खुलकर बयान कर सकें?
               एक तो ट्रम्प का दल वैसे ही भारत के प्रति उपेक्षासन का भाव रख सकता है ऐसे में उनकी स्पष्टवादिता के सम्मुख हिन्दूत्व के प्रवक्ता कितना टिकेंगे यह देखने वाली बात होगी। एक बात तय रही कि ट्रम्प धर्मनिरपेक्ष शब्द से प्रभावित नहीं होंगे। उनके समक्ष एक दृढ़ हिन्दू की छवि ही टिक सकती है। ऐसे में भक्तों के इष्ट के सामने समस्या यह होगी कि वह अपनी किस छवि के साथ ट्रम्प से मिलें? वैसे भारतीय रणनीतिकार इस बात से तसल्ली कर रहे होंगे कि अभी तो अमेरिका के चीन और रूस के साथ संबंधों पर ही चर्चा हो रही है। भारत के बारे में खामोशी है।  पर्दे पर भारत की चर्चा से भारतीय रणनीतिकार घबड़ाते हैं क्योंकि उनको लगता है कि तब कश्मीर का मसला ज्यादा प्रचारित होता है-जिसका स्थाई हल ढूंढने की उनके पास शक्ति तो पर इच्छा शक्ति नहीं है क्योंकि ऐसे में ढेर सारी सुविधायें छिन सकती हैं जो धर्मनिरपेक्ष होने के कारण मिलती है। हमने ट्रम्प का उद्घाटन भाषण सुना तो यह बात समझ में आ गयी कि न केवल भारत वरन् भक्तों के रणनीतिकारों के सामने असुविधाजनक स्थिति आ गयी है यही कारण है कि वह ट्रम्प के अरेबिक धर्म से जुड़े आतंकवाद को समाप्त करने के दावे पर चुप बैठे हैं। न केवल प्रचार माध्यम मौन हैं पर भक्तों के अग्नि छाप नेताओं ने भी कुछ नहीं कहा। 
                               ट्रम्प ने देश  के प्रचार माध्यमों से ही सतत युद्ध घोषित किया है-भारत के अनेक कथित बुद्धिजीवी हमेशा ही असहिष्णुता के मामले में अमेरिका के प्रचार माध्यमों की तरफ समर्थन की टकटकी लगाये देखते थे-उनके लिये चिंता का विषय है क्योंकि वह अपने ही देश के भक्त समूह को असहिष्णु बताते थे जबकि उनसे ज्यादा तो अमेरिका में ही हल्ला मचा है। अनेक कथित सहिष्णुवादी लोग यहां व्याप्त असहिष्णुता को लेकर अमेरिका पत्राचार करते थे।  अब वह क्या मुंह लेकर वहां दिखायेंगे? सबसे बड़ी बात यह कि जिस अरेबिक धर्म की विचारधारा पर कथित हमले को लेकर यहां हौव्वा खड़ा करते थे उससे जुड़े आतंकवाद पर ट्रम्प ने खुला हमला बोल दिया है।  सबसे बड़ी बात यह कि अमेरिका की जिस सहिष्णु मूर्ति पर हमारे यह कथित बुद्धिजीवी मत्था टेकते थे वह अब खंडित हो गयी है। देखना यह है कि अब आगे भारत और अमेरिका के रिश्ते किस तरह बढ़ते हैं। भक्तगण एक बात से संतुष्ट हो सकते हैं कि अब उनके विरुद्ध कोई चिट्ठी अमेरिका में ट्रम्प के पास नहीं जाने वाली।
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Saturday, January 21, 2017

ट्रम्प से भारत तथा हिन्दूओं को अधिक अपेक्षा नहीं करना चाहिये-हिन्दी लेख (India And Hindu Must very Much Exept from Trump Government-Hindi Article)


                                          ट्रम्प को लेकर भक्तों का एक वर्ग बहुत प्रसन्न है कि उन्होंने एक धर्म का नाम लेकर उससे आतंकवाद जोड़कर उससे लड़ने की बात कही। उनको लगता है कि उन्हें अपने देश में व्याप्त आतंकवाद से छुटकारा मिल जायेगा।  हमें लगता है कि इन कुछ भक्तों को भ्रम है।  भक्त इधर फेसबुक पर तो खूब दहाड़ते हैं पर उनके प्रवक्ता टीवी चैनलों पर यह कहते हुए अपनी जान बचाते हैं कि आतंकवाद को किस्ी धर्म से नहीं जोड़ना चाहिये। अगर भक्त उछल रहे हैं तो पहले अपना आधिकारिक विचार बदल लें। ट्रम्प ने उस धर्म से जुड़े आतंकवाद को पूरी दुनियां से मिटाने की बात कही है पर भक्तों की आधिकारिक संस्थायें तथा प्रवक्ता तो यह मानते ही नहीं। यहां तक कि पाकिस्तान पर शाब्दिक  आक्रमण करते हुए भी उसके साथ वहां के कथित राजकीय धर्म का नाम नहीं लेते जिसकी आड़ लेकर खुलकर भारत को अपना दुश्मन कहता है। वह साफ कहता है कि हम हिन्दू धर्म के कारण भारत विरोधी हैं पर भक्तों के आधिकारिक प्रवक्ता वहां भी धर्मनिरपेक्षता का नाम लेकर बच निकलते हैं।
                 ट्रम्प सीधे आतंकवाद के धार्मिक रूप पर आक्रमण करेगा तब भारत क्या उसके साथ खड़ा रह पायेगा? बिल्कुल नहीं! अप्रत्यक्ष और सांकेतिक रूप से भारत भले ही अमेरिका का साथ दे प्रत्यक्ष़्ा रूप से जूझने के लिये जिस इच्छाशक्ति और मानसिक दृढ़ता की आवश्यकता है वह हमारे यहां नहीं दिखती। हालांकि अमेरिका के लिये भी कठिनाई आने वाली है। भारत कभी भी औपचारिक रूप से कश्मीर तथा अन्य स्थानों पर धार्मिक आतंकवाद की बात नहीं मानेगा।  जबकि ट्रंप के सलाहकार ऐसी अपेक्षा करेंगे।  इतना ही नहीं  यह भी हो सकता है कि अमेरिका अनेक ऐसे कदम उठाये जो कथित रूप से धार्मिक आतंकवाद के विरुद्ध हो तो भारत उनका खुलकर तो नहीं पर दबी आवाज में उसका विरोध करे। 
                          अमेरिका का  सबसे बड़ा आर्थिक मित्र सऊदीअरब सीधे अपने यहां स्थित धार्मिक स्थानों का लाभ उठाते हुए एक वैचारिक साम्राज्य पूरे विश्व में बनाये बैठा है। अमेरिका भी साम्राज्यवादी है पर वह केवल अब दिखावे का रह गया है-जैसा कि ट्रम्प ने भी माना है कि अमेरिका दूसरे देशों की रक्षा करता रहा पर अपने नागरिकों के रोजगार नहीं बचा सका। सऊदी अरब को अमेरिका पर इतना जबरदस्त आर्थिक प्रभाव है कि वह वहां के रणनीतिकारों को भी धमकाने लगा था जबकि वहां की सेना अब भी उसका सहारा है। अगर ट्रम्प अपने कथानुसान धार्मिक आतंकवाद के विरुद्ध मोर्चा खोलते हैं तो सऊदीअरब तथा पाकिस्तान उसके सामने खड़े होंगे। भारतीय रणनीतिकार भले ही पाकिस्तान के विरुद्ध जहर उगलें पर सीधे उसकी धार्मिक क्रूरता पर सवाल नहीं उठाते। अनाधिकारिक रूप से भले ही पाकिस्तान में कम होती हिन्दूओं की जनसंख्या पर सवाल उठते हों पर आधिकारिक बयानों में उससे बचा जाता है-ट्रम्प के रणनीतिकार चाहेंगे कि भारत खुलकर वैसे ही धार्मिक आतंकवाद का मामला उठाये जैसे वह उठा रहे हैं। तब लगता नहीं है कि भक्तों के शिखर पुरुष इसके लिये राजी हो। यही पैंच फंसेगा। 
                              हालांकि उसका रास्ता भक्तों के एक शिखर पुरुष ने निकाला था पर लगता है कि उसे तवज्जो नहीं दी गयी। वह रास्ता था पंथनिरपेक्षता का। इसमें व्यापक चर्चा की संभावनायें थीं। हमने इस पर लिखा था पर उसे किसी ने प्रचारित नहीं किया। अब जैसे जैसे 2019 आ रहा है भक्तों के पास से वह समय निकल गया है कि वह देश की नीतियों में कोई बड़ा बदलाव कर सकें। ऐसे में ट्रम्प से पाकिस्तान के प्रति अपनी नीति में बदलाव की आशा करना भी बेकार है जब आप उसके शाब्दिक आक्रमण के समय अपनी कथित धर्मनिरपेक्षता के बोझ तले दबे जाते हों-पंथनिरपेक्षता को लेकर आपके पास इतने तर्क भी नहीं है कि आप यहां बहस चला सकें। जो तर्क दे सकते हैं वह इतने मामूली लोग है कि भक्त उन्हें अपने बौद्धिक शिखर पुरुषों के तुल्य कुछ समझते ही नहीं। मूल बात यह है कि ट्रम्प एकदम नये हैं और उन्हें पाकिस्तान के प्रति भड़काने के लिये धर्म का नाम लेना जरूरी होगा पर यह भारत करेगा नहीं। ऐसे में यह आशा करना कि ट्रम्प पाकिस्तान की हालात खराब करेंगे। बस वह इतना ही कर पायेंगे कि उसे अपने यहां कोई गतिविधि न कर करने दें। अतः भारत को अब की बार ट्रम्प सरकार से ज्यादा अपेक्षा नहीं करना चाहिये। आम भक्त यकीनन यही चाहते हैं कि भारत खुलकर आगे आये पर उनकी संस्थायें और प्रवक्ता कभी खुलकर वह नहीं कर पायेंगे जैसा कि ट्रम्प सरकार अपेक्षा करेगी।
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Friday, January 20, 2017

जल्लीकुट्टू पर न्यायालयीन निर्णय का सम्मान होना चाहिये-हिन्दी संपादकीय (No Chelenge Court Verdict on jallikattu-Hindi Editorial)

         
             हमें लगता है तमिलनाडु की कथित परंपरा जल्लीकुट्टू पर भक्त समूह दिखावे की सहानुभूति दिखा रहा है। उच्चतम न्यायालय ने जल्लीकुट्टु पर रोक लगायी है तो तमिल नेता भक्तों के इष्ट से आशा कर रहे हैं कि वह अध्यादेश लाकर बैलों पर अनाचार की परंपरा जारी रखने में सहयोग करें।  भक्त चाहते हैं कि यह मामला लटका रहे क्योंकि आगे भी न्यायालय के कुछ निर्णय ऐसे आ सकते हैं जिसे लेकर धर्म और जातियों की रक्षा का विवाद सामने आ जाये तब उन पर अध्यादेश लाने का दबाव पड़ सकता है उस समय उन्हें अपनी इच्छा के विपरीत फिर अध्यादेश लाना पड़ें, उससे बचने के लिये  यह विवाद चलता रहे तो ठीक ही है।  मान लीजिये कुछ धार्मिक विषयों पर कोई निर्णय आ गया तब धर्मनिरपेक्ष हाहाकर करेंगे-जैसे एक बार कर चुके है-तब भक्त तर्क देंगे कि हम तो न्यायालय के निर्णय को बदलने वाला कोई अध्यादेश नहीं लायेंगे न ही कानून बनायेंगे।  जज्लीकुट्टी पर अध्यादेश लाने को मजबूर किया गया तो उसमें कुछ ऐसा पैंच फंसा देंगे कि धर्मनिरपेक्ष उसका विरोध जरूर करेंगे।  अब बैल बचाने के लिये मजबूर करोगे तो गाय  का विषय भी जोड़ देंगे।  बैलों को खेलने की इजाजत तो देंगे पर चोट पहुंचाने या काटने पर रोक लगा देंगे। फिर बैल के साथ गाय और बकरा भी जोड़ देंगे। मूलत तीनों गाय प्रजाति में ही मान जाते हैं।
तमिलनाडू की राजनीति  भक्तों के लिये कभी उत्साहवर्द्धक नहीं रही।  वहां से हिन्दी, हिन्दू और हिन्दुस्तान शब्द का ही विरोध होता रहा है।  वहां के जनमानस में अंग्रेजी से प्रेम तो  हिन्दी से चिढ़ भरने के साथ ही हिन्दू शब्द को आर्य सभ्यता से जोड़कर भ्रम फैलाया गया है। अंग्रेजी के इंडिया शब्द को संयुक्त राष्ट्र में हटाकर हिन्दुस्तान या भारत शब्द लिखवाने का भी वहां विरोध होता है। भक्तों न तमिल भाषा और संस्कृति से लगाव है पर जिस तरह उन्हें हिन्दी प्रतीकों के प्रति वहां उपेक्षा का भाव दिखता है उससे वह उदासीन हो जाते है। ऐसे में जलीकुट्टु के विवाद में भक्त समूह अपनी  रणनीति इस तरह रखेगा कि धर्मनिरपेक्षों में ही झगड़ा हो जाये ताकि उनके हृदय को ठंडक मिले।
भक्तों के इष्ट तथा उसके रणनीतिकारों का समूह इतना सीधा नहीं है कि वह अपने राजनीतिक लाभ के बिना कोई काम करे। तमिलनाडू में अपने लिये जगह तलाश रहा भक्त समूह अगर सरलता से जलीकूट्टू पर विरोधियों की सब मान लेता है तो कहना पड़ेगा कि उनके सूझबूझ की कमी है। शायद यही कारण है कि विवाद को बीच में ही लटका रखा है। परंपरा से सहमति दिखाकर शाब्दिक सहायता तो दी है पर भारतीय अध्यात्मिक दर्शन के अनेक पुरोधाओं से सुशोधित यह समूह उपेक्षासन भी करना जानता है।  इसलिये उसने अपने दोनों हाथों में लड्डू रखे हैं।  अध्यादेश लागू करने के लिये बाध्य किया तो ऐसा करेंगे कि तमिलनाडू वाले खुश होंगे पर उनके धर्मनिरपेक्ष साथी उत्तेजित हो जायेंगे। नहीं किया तो भविष्य में किसी अन्य मसले पर यह कहते हुए नहीं थकेंगे कि हम तो संविधान के अनुसार चलने वाले हैं-न्यायालय के निर्णय को पलटने वाला कोई अध्यादेश नहीं लायेंगे।  इस तरह आगे रोचक घटनायें हो सकती हैं जब भक्त अपने पुराने हिसाब चुकाने का अवसर पा जायें। भारतीय समाज के लिये दक्षिण दिशा तथा द्रविड़ सभ्यता का बहुत महत्व है पर बाहरी प्रभावों ने उसे उत्तर सभ्यता का विरोधी बना रखा है ऐसे में जल्लीकुट्टू की परंपरा पर भक्त समूह राजनीतिक दांवपैच जरूर खेल सकता है और उसमें गलत भी नही है।
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Saturday, January 14, 2017

इतिहास में डूबने की बजाय वर्तमान में तैरने की जरूरत समझें-हिन्दी लेख (To sink in History Better than swiming in current Topic-HindiArticle)

                                    भगतसिंह व गांधी जी इतिहास में दर्ज हैं-उनके नामों को न प्रचार की आवश्यकता है न ही स्मरण के लिये भीड़ एकतित्र करने की। दोनों ही गरीबी, बेबसी और गुलाम अभिव्यक्ति हटाने के लिये संघर्ष रत रहे। वह अमर है और उनके नामों को बार बार प्रचारित कर हमारा बौद्धिक समाज राज्य प्रबंध में अक्षम पर पदासीन शोभायमान खलनायकों की चर्चा से बचता है। वह इन्हीं पदासीन खलनायकों के सहारे जीवित है और नहीं चाहता कि जनमानस में उनकी चर्चा हो इसलिये कोई गांधीजी तो कोई भगतसिंह के नाम पर झंडा बुलंद किये हैं-वैसे तो चंद्रशेखर आजाद, अशफाकुल्ला, लोकमान्य तिलक, सुभाषचंद्र बसु तथा खुदीराम बसु जैसे महानायकों ने भी देश की आजादी की लड़ाई लड़ी पर राज्य प्रबंध में पदासीन खलनायकों ने अपनी छवि बचाने के लिये भगतसिंह और गांधीजी के नाम को ज्यादा प्रधानता दी। उनसे प्रायोजित बौद्धिक समाज भी इन दोनों महानुभावों की जयंती और पुण्यतिथि पर सक्रिय होकर समाज का ध्यान इतिहास के पीछे ले जाता है। वर्तमान में जहां उच्च पदों पर प्रबंध कौशल के सिद्धहस्त लोगों की आवश्यकता है वहां मूर्तिमान लोग बिठा दिये जाते हैं-जो अपना न सोचें, अपना न बोले, अपना न देखें-जो केवल अपने अनुचरों के मार्गदर्शन में अपनी सक्रियता सीमित रखें।
                   आजादी के बाद भी कथित रूप से अनेक अर्थशास्त्री और कुशल प्रबंधक हुए हैं पर राज्य की कार्यप्रणाली वही रही जो अंग्रेजों की थी-जिसमें निचले कर्मचारी को गुलाम और जनता को गुंगी असहाय मानकर व्यवहार करने का सिद्धांत अपनाया गया। आजादी के समय एक डॉलर की कीमत एक रुपया थी पर आज 70 के आसपास है-अब हम कैसे मान लें कि देश में कुशल राज्य प्रबंध तथा अर्थप्रणाली रही है।  अब यह कह सकते हैं कि उस समय तो लोगों के पास साइकिल नसीब नहीं थी पर आज तो कारें भी है-जवाब में हम आपको बतायेंगे यह विकास तो विश्वव्यापी है वैसे ही जैसे भ्रष्टाचार। अनेक देश ऐसे हैं जो  हमसे बाद में आजादी इतनी ही तरक्की कर गये हैं कि हम उनके आगे अभी भी पानी भरते हैं। दूसरी बात यह कि हमारे देश में प्राकृत्तिक साधनों के साथ ही मानवश्रम की प्रचुरता रही है ऐसे में वर्तमान विकास एक स्वाभाविक प्रक्रिया के तहत हुआ। अगर कोई इसका श्रेय ले रहा है तो उसे बताना  होगा कि अंग्रेजों की स्थापित व्यवस्था से अलग उसने स्वयं क्या सोचा और किया।
           अर्थशास्त्र में भारत की समस्याओं में अकुशल प्रबंध भारी मानी जाती है।  इस पर एक भी अर्थशास्त्री अपनी कलाकारी नहीं दिखा पाया। इधर हम पढ़ते रहते हैं कि अमुक महान अर्थशास्त्री ने यह योगदान दिया उसने वह दिया पर अकुशल प्रबंध के लिये किसे क्या किया कोई बताने वाला नहीं है। हर दिन किसी जन्मतिथि या पुण्यतिथि मनाकर प्रचार माध्यम अपने विज्ञापनों की सामग्री जुटाते हैं। इतिहास को चूसकर देश की जनता को भ्रमित करने का प्रयास अब भी जारी है।  वर्तमान में समाज की स्थिति जटिल हो गयी है। हम अगर उसकी व्याख्या करने बैठें तो इतनी कहानियां हो जायेंगी कि हम लिखते लिखते थक जायेंगें। बेहतर हो कि वर्तमान पर ज्यादा ध्यान लगायें। देश के हालात देखकर नहीं लगता कि आजादी के पास कोई ऐसा महानायक हुआ जिसने समाज में संतोष रस का लंबे समय तक प्रवाह किया हो।  तात्कालिक रूप से कुछ महान प्रयास करके अनेकों ने नाम बटोरे पर उससे समाज में लंबे समय तक सामान्य स्थिति रही हो ऐसा नहीं लगा-वरना हमने तो देश में आर्थिक, नैतिक और वैचारिक पतन की बहती धारा ही देखी है। यही कारण है कि हमें इतिहास सुहाता नहीं है।


Wednesday, January 11, 2017

नोटबंदी के पहले और बाद के अनुभव रोमांचित करते हैं-हिन्दी लेख (Interesting Experince before and afterDeMonetisation-HindiArticle)

         
                      जो लोग कभी कहते थे कि ‘हमें पैसे की कभी परवाह नहीं है’-नोटबंदी के बाद जब उनके श्रीमुख से हमने सुना कि ‘हमारे पास किसी को देने के लिये पैसे नहीं है’-तो उनकी बेबसी देखकर अच्छा लगा।  हमें तो खर्च पानी के लिये पैसे चाहिये थे वह तो आराम से मिल रहे थे पर चूंकि आर्थिक ढांचे का विस्तार ज्यादा नहीं कर पाये इसलिये सीमित दायरे में जितनी जरूरत थी काम चलता रहा।
            दरअसल उस समय चिंता इस बात की थी कि कहीं हमारे घर पर बीमारी का कोई बड़ा हमला न हो क्योंकि हमें आधुनिक चिकित्सालयों की पंचसितारा वसूली का अनुमान नहीं है-इधर उधर लोगों से सुनते रहते हैं।  हमने अभी तक सरकारी चिकित्सालयों का सहारा लिया है या फिर गली के निजी चिकित्सकों ने ही हमारे जुकाम, बुखार तथा घावों की मरम्मत की है।  पिछले उन्नीस वर्ष से योग साधना की कृपा से देह निर्बाध गति से चल रही है। एक बात हम मानते हैं कि आधुनिक चिकित्सा के पास किसी बीमारी का स्थाई इलाज नहीं है-हर बीमारी के लिये नियमित से जीवन पर्यंत गोलियां का इंतजाम जरूर हो हो जाता है। हर पल बीमारी होने का अहसास लिये लोग कैसे जिंदा रहते हैं-यह देखकर आश्चर्य होता है।
            समस्या बीमारी की नहीं है वरन् लोगों की है। किसी से कह दो कि ‘हम बीमार हैं’ तो कहता है कि किसी चिकित्सक को दिखाओ।  उन्नीस वर्ष पहले अपने ही दुष्कर्मों के कारण उच्च रक्तचाप का शिकार होना पड़ा था।  उस समय ढेर सारे टेस्ट कराये। दवाईयां लीं।  आखिर एक होम्योपैथिक चिकित्सक ने हमारा परीक्षण किया तो पर्चे पर लिखा ‘उच्च वायु विकार’।  हमारे लिये यह एक स्वाभाविक बीमारी थी। अतः साइकिल चलाने के साथ पैदल भी घूमने लगे।  फिर योग शिविर की शरण ली।  उसके बाद बुखार और जुकाम का रोग आता जाता है और उसका मुख्य कारण बाज़ार से खरीदी गयी खाद्य सामग्री का सेवन ही होना पाया है। जब तक बाज़ार से लायी खाद्य सामग्री नहीं लेते सब ठीक चलता है जब बीमार पड़ते हैं तो अपनी एक दो दिन पुरान इतिहास देखते हैं याद आता है कि शादी या बाज़ार का सामान इसके लिये जिम्मेदार है। चिकित्सक के पास न जाना पड़े इसलिये सुबह पैदल घूमने के साथ ही योग साधना का अभ्यास करते हैं।  हृदय में यह संकल्प घर कर गया है कि जब तक हम योग साधना करेंगे तब तक देह, मन और विचार के विकार हमें तंग नहीं कर सकते। इसलिये अपनी बीमारी की चर्चा किसी से करने में भी संकोच होता है।
            नोटबंदी के बाद समस्या यह थी कोई तेज बीमारी आ जाये और किसी निजी चिकित्सक के पास जायें तो समस्या भुगतान की थी।  सरकारी चिकित्सालयों की हालत देखकर अब वहां जाना अजीब लगता है। सबसे बड़ी बात यह कि वहां जाने पर समाज के लोग शर्मिंदा करते हैं कि ‘पैसा नहीं है क्या जो सरकारी अस्पताल गये।’
            हम नेताओं के श्रीमुख से बहुत सुनते हैं कि गरीब, मजदूर और बेबस का कल्याण करेंगे पर अगर उनसे पूछा जाये कि एक लंबे समय तक सरकारी अस्पतालों और स्कूलों की जो प्रतिष्ठा रही वह धूमिल कैसे हो गयी तो वह फर्जी विकास के दावे दिखायेंगे-नोटबंदी के बाद पता चल गया कि करचोरी करने वाले ही कालेधन से महंगाई बढ़ा रहे थे जिसे हमने विकास मान लिया था।
            हर व्यक्ति अरबपति होने का सपना पला रहा था।  जमीन और मकान के पीछे ऐसे पड़े थे जैसे मानो कोई विदेशी आकर उस पर कब्जा कर सकता है। उस पर पैसा लगाकर कब्जा कर अपने नाम का कब्जा लिखा लें ऐसा न हो कि कहीं कोई दूसरा आकर न हथिया ले।  जमीन और मकान की कीमतंें इतनी थी कि अनेक लोगों के लिये एक स्वपनलोक बन गया था जिसमें दाखिल होना सहज नहीं रहा था। एक समय था सरकारी स्कूल और अस्पताल अमीर और गरीब के लिये एक जैसा सहारा थे। अब विकास होते होते  अमीर और गरीब के बीच दूरियां बढ़ गयी हैं। सरकार अस्पताल या स्कूल में उपस्थिति गरीब तो निजी में अमीर होने का प्रमाण बना है।  नोटबंदी में गरीबों का रोना ऐसे लोग रो रहे थे जिन पर सरकारी स्कूलों और अस्पतालों की दुर्दशा ठीक करने का जिम्मा था।  वह बड़ी बेशरमी से बेबसों की बर्बादी पर मगरमच्छीय आंसु बहा रहे थे।
            नोटबंदी ने हमें समाज के उस करचोर वर्ग को नग्नावस्था में देखा जो अभी तक अदृश्य होकर अपना काम कर रहा था।  वह शर्म त्यागकर बाहर आया और अपना कालधन सफेद करने लगा।  अलबत्ता अब वह हमें दिखाई दिया और कम से कम उसे करचोरी की उपाधि तो दी ही जा सकती है। अब अगर हमें कोई अपनी पैसे का अहंकार दिखायेगा तो उससे यह तो पूछ ही सकते हैं कि ‘आखिर आयकर कितना चुकाते हो।’
            यकीन मानिए वह खामोश हो जायेगा।  हम आयकर देते हैं और यही बात हमारे लिये गर्व की है।  भगवान के बाद राजा का नंबर इसलिये आता है ताकि मनुष्य समुदाय में व्यवस्था बनी रहे। इसी व्यवस्था के लिये कर जरूरी है।  हम कर देते हैं तो कोई महान काम नहीं करते पर जो करचोरी कर अपना घर भर रहे हैं वह हमारी दृष्टि में महान अपराधी हैं। वह क्या सोचते हैं कि राज्य व्यवस्था का कर कोई दूसरा चुकाये और वह मुफतखोरी करते रहें।  वह यह भूलते हैं कि अगर राज्य व्यवस्था न रहे तो उनका सारा वैभव कुछ ही घंटों में मिट्टी में मिल जाये। उन्हें आभारी होना चाहिये उन लोगों का जो कर चुकाते हैं न कि उन्हें अपने वैभव का अहंकार दिखायें।

Sunday, January 8, 2017

अगर प्रबंध कौशल है तो मादक पदार्थों तथा सट्टे वाले क्रिकेट व्यापार पर रोक लगाकर दिखायें-हिन्दी संपादकीय #If the Are Good State manager so should Ban on Batting Cricket-Hindi Editorial)


                            हम शराब पीने का समर्थन नहीं करते पर एक योग व ज्ञान साधक के रूप में हमारा मानना है कि अपनी पंसद दूसरों पर थोपना अहंकार है। शराब न पीने के लिये प्रेरणा उत्पन्न करने का प्रयास करना चाहिये पर इसका आशय यह कतई नहीं है कि स्वयं पीने की नियमित आदत से मुक्त होने पर इतराना चाहिये।
               इधर कुछ दिन से अंतर्जाल पर कुछ लोग शराब पर प्रतिबंध लगाने को एक आदर्श कदम मानने लगे हैं। दरअसल शराब पर प्रतिबंध लगाना एक सहज कदम है पर उससे मुश्किल उसके अवैध उत्पादन तथा वितरण रोकना है-इससे जहरीली शराब बनने तथा राजस्व हानि दोनो की आशंका रहती है। गुजरात में शराब पर प्रतिबंध है पर वहां के अनुभवी बताते हैं कि वहां चाहे जहां शराब मिल सकती है-बस महंगे दाम चुकाने होते हैं। अभी बिहार की चर्चा भी खूब हो रही है पर वहां अवैध शराब बनने और बिकने के समाचार भी आते हैं।
                 शराब पर प्रतिबंध लगाने की वकालत करने वालों को हम यह भी बता दें कि इस समय देश में मादक द्रव्य पदार्थों की बिक्री और उनका सेवन जमकर हो रहा है। यह महंगेे तथा स्वास्थ्य के लिये भयावह होते हैं।  हम पंजाब में युवाओं के जिस नशे को लेकर चिंतित रहते हैं वह शराब नहीं वरन् पाकिस्तान से आने वाले यही मादक पदार्थ हैं।  वैसे पंजाब ही नहीं पूरा देश ऐसे नशों की जाल में फंसा है जिनका अवैध रूप से वितरण होता है। देखा जाये तो युवा कौम बुरी तरह से इसके जाल में फंसी है।
               इधर शराब के साथ ही तंबाकू का भी विरोध होता है। हम बता दें कि सादा तंबाकू का सेवन भी चूने के साथ होता है।  यह भी ठीक नहीं है पर इससे ज्यादा खतरनाक तो पाउच में बिकने वाले तंबाकू निर्मित पदार्थ हैं। उनके विज्ञापन भी बेधड़क दिखते हैं।  विशेषज्ञ उन पर ही प्रतिबंध की मांग करते हैं पर उसकी आड़ में सादा तंबाकू पर रोक लगाने की बात होती है। कुछ लोग मानते हैं कि सादा तंबाकू के साथ अगर सुपारी न खायी जाये तो वह अधिक कष्टकारक नहीं होती-पर इसका आशय यह नहीं कि हम उसका समर्थन करें पर इतना जरूर कहते हैं कि सादा तंबाकू का सेवन हमारे यहां सदियों से हो रहा है इसलिये उस पर रोक की बजाय पाउच वाले तंबाकू पर बैन लगाना चाहिये। 
              हमारा तो यह कहना है कि शराब तथा तंबाकू पर सेवन पर राजकीय प्रतिबंध लगाकर लोकप्रियता का सूत्र अपनाने वाले अगर मादक पदार्थों के वितरण व सेवन को रोककर बतायें तो हम माने कि वह कुशल प्रबंधक हैं। देश में इन खतरनाक मादक पदार्थों की बिक्री जमकर हो रही है। इतना ही नहीं मादक द्रव्य के सौदागर बहुत ताकतवर भी माने जाते हैं। अगर आप हमें कट्टर समझें तो आपत्ति नहीं है तब भी कहेंगे कि उच्च स्तरीय क्रिकेट भी सट्टे के लिये प्रेरक है उस पर भी प्रतिबंध लगा दिया जाये। न लगाया जाये तो उसका सीधा प्रसारण रोक दिया जाये।  हमने मादक द्रव्य पदार्थों के सेवन और सट्टे पर पैसा खर्च करने वालों के हाल देखें है।  शराब या सादा तंबाकू बंदी तो सरलता से लोकप्रियता दिलाने वाली है इसलिये कोई भी कर सकता है पर अगर प्रबंध का कौशल  और पराक्रम है तो तीव्र मादक पदार्थों पर सट्टे वाले क्रिकेट पर रोक लगाकर दिखायें।

Wednesday, January 4, 2017

सौदे के कालेरूप की प्रतीक्षा के लिये धवल मुद्रा के काले होने के इंतजार में-नोटबंदी पर सामयिक लेख (wait for white Currency will be Black Shap After DeMonetisation-Hindi Article on DeMonetisation

                               हम कोटा से सात नवंबर 2016 को रात रवाना हुए थे। बस स्टैंड पर एक युवती को अपनी मां से कहते सुना कि ‘पता नहीं किस सीरिज के नोट बंद हुए हैं, देखना पड़ेगा।’
             उसके शब्दों ने हमें हैरान कर दिया। हमें लगा कि कोई खास नंबर के नोट बंद हुए होंगें।  सुबह घर पहुंचकर अखबार देखा तो जब पूरी खबर देखी तब बात समझ में आयी। हमें लगा कि अब देश में उथलपुथल होगी।
                             नोटबंदी के बाद ग्वालियर से बाहर हमारी पहली यात्रा वृंदावन की हुई। रेल से लेकर घर ता आने के बीच कहीं लगा नहीं कि देश में मुद्रा की कमी चल रही है।  सात दिन तक भीड़ के बीच नोटबंदी की चर्चा तो सुनी पर किसी ने परेशानी बयान नहीं की।  वापसी में ऑटो वाला तो प्रधानमंत्री मोदी का ऐसा गुणगान कर रहा था जैसे मानो उसे पंख लग गये हों।  सबसे बड़ी बात जो हमें लगी कि अमीरों ने अपने प्रदर्शन से जो कुंठा सामान्यजनों में पैदा की वह अब समाप्त हो गयी है-हम देश को मनोवैज्ञानिक लाभ होने की बात पहले भी लिख चुके हैं। सामान्यजनों की रुचि इस बात में नहीं है कि बैंकों में कितना कालाधन आया बल्कि वह तो धनिक वर्ग के वैभव का मूल्य पतन देखकर खुश हो रहा है।
                      नोटबंदी ने प्रधानमंत्री मोदी को एक तरह से जननायक बना दिया है। अनेक बड़े अर्थशास्त्री भले आंकड़ों के खेल दिखाकर आलोचना में कुछ भी कहें पर हम जैसे जमीन के अर्थशास्त्री सामान्यजनों के मन के भाव पर दृष्टिपात करते हैं।  अभी सरकार कह रही है कि फरवरी के अंत तक स्थिति सामान्य होगी।  हम जैसे लोग चाहते हैं कि यह स्थिति यानि नकदी मुद्रा की सीमा अगले वर्ष तक बनी रहे तो मजा आ जाये।  बताया जाता है कि इस समय साढ़े आठ लाख करोड़ रुपये की मुद्रा प्रचलन में है और हमारे अनुसार यह पर्याप्त है।  अब नये नोट छापने की बजाय बैंकों से वर्तमान उपलब्ध मुद्रा को ही घुमाने फिराने को निर्देश दिया जाये तो देश के आर्थिक, सामाजिक और मानसिक स्थिति के लिये सबसे बेहतर रहेगा।
            बैंक तथा एटीएम से भीड़ नदारद है।  बड़े भुगतान एटीएम से खातों में किये जा सकते हैं।  ऐसे में वह कौन लोग हैं जो यह चाहते हैं कि पूरी तरह मुद्रा बाज़ार में आये और नकद भुगतान की सीमा समाप्त हो? उत्तर हमने खोज निकाला।  अनेक लेनदेन दो नंबर मेें किये जाते हैं ताकि राजस्व भुगतान से बचा जा सके।  खासतौर से भवन निर्माण व्यवसाय तो करचोरी का महाकुंुभ बन गया है।  इसका पता हमें तब चला जब हमारे एक परिचित ने एक निर्मित भवन खरीदने की इच्छा जताई।
               नाम तो पता नहीं पर वह किसी मध्यस्थ के पास हमें ले गये।  हमारे परिचित का पूरा धन एक नंबर का है।  दलाल से उन्होंने बात की तो उसने साफ कहा कि इस समय तो भवनों की कीमत गिरी हुई है पर बेचने वाले भी तैयार नहीं है। हमारे मित्र ने अपनी त्वरित इच्छा जताई तो उन्होंने एक 26 लाख की कीमत वाले भवन की कीमत 23 लाख बताई।  जब उनसे रजिस्ट्री का मूल्य पूछा गया तो वह बोले इसका आधा या कम ही समझ लो। हमारे मित्र ने बताया कि वह तो पूरा पैसा चैक से करेंगे।  तब उसने साफ मना कर दिया हमारे साथी  ने केवल चैक के भुगतान की बात दोहराई।  हमारे मित्र ने बताया कि वह अन्य मध्यस्थों से भी ऐसी ही बात कर चुके हैं।
             हमारा माथा ठनका। भवन की जो कीमत सरकारें रजिस्ट्री के लिये तय करती हैं उससे अधिक निर्माता वसूल करता है। रजिस्ट्री की कीमत वह चैक से ले सकता है पर उससे आगे वह खुलकर कालाधन मांग रहा है। यहां से हमारा चिंत्तन भी प्रारंभ हुआ।  आठ नवंबर से पूर्व देश में कुल 17 लाख करोड़ रुपये की मुद्रा प्रचलन में थी पर यह एक माध्यम थी।  अगर देश में समस्त नागरिकों के खातों में जमा रकम का अनुमान करें तो वह करोड़ करोड़ गुना भी हो सकती है पर सभी एक दिन ही एक समय में पूरी रकम नहीं निकालने जाते।  कोई जमा करता तो कोई दूसरा  निकालता है। इस तरक मुद्रा चक्र घूमता है तो पता नहीं चलता।  आठ नवंबर से नकदी निकालने की सीमा ने सारा गणित बिगाड़ दिया।  अनेक लोगों ने भूमि, भवन, सोना तथा शेयर में अपना पैसा लगा रखा है और आठ नवंबर से पूर्व वह उनके मूल्य पर इतराते थे।  विमुद्रीकरण ने उनकी हवा निकाल दी है। पहले जो पांच या दस करोड़ की संपत्ति इतराता था वह अब उसका वर्तमान मूल्य बतलाते हुए हकलाता है।  बताये तो तब जब बाज़ार में कोई खरीदने की चाहत वाला इंसान मिल जाये।
                    उस दिन एक टीवी  चैनल पर  भवन निर्माता मोदी जी के भाषण पर चर्चा करते हुए कह रहा था कि उन्होंने सब बताया पर यह नहीं स्पष्ट किया कि नकदी निकालने की सीमा कब खत्म होगी?  हमने मजदूर निकाल दिये क्योंकि उनको देने के लिये पैसा नहीं मिल पा रहा। फिर हमारा उद्धार तब होगा जब नये प्रोजेक्ट मिलेंगें।
                 वह सरासर झूठ बोल रहा था। भवन निर्माता इस बात का इंतजार कर रहे हैं कि नयी मुद्रा कब कालेधन का रूप ले ताकि उन्हें सरकारी कीमत से ज्यादा मूल्य मिले।  भवन निर्माण व्यवसायी तथा मध्यस्थ छह महीने तक सामान्य स्थिति अर्थात नयी मुद्रा के कालेधन में परिवर्तित होने की प्रतीक्षा कर रहे हैं।  मजदूरों का नाम तो वह ऐसे ही ले रहे हैं जैसे समाज सेवक उनका मत पाने के लिये करते हैं। 
             हमारे अनुसार प्रधानमंत्री श्रीमोदी को नोटबंदी के बाद की प्रक्रियाओं पर भी सतत नज़र रखना चाहिये ताकि कहीं अधिकारीगण इन कालेधनिकों के दबाव में उतनी मुद्रा न जारी कर दें जितनी पहले थी।  बाज़ार में दिख रही  छटपटाहट उन कालेधन वालों की है जो कि राजस्व चोरी कर अपनी वैभव खड़ा करते हैं। हम जैसे जमीनी अर्थशास्त्री तो अब यह अनुभव करने लगे हैं कि देश ने 70 सालों में कथित विकास कालेधन का ही था।  सरकार के राजस्व में भारी बढ़ोतरी उस अनुपात में नहीं देखी गयी जितना आर्थिक विकास होने का दावा किया जाता है।



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