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Tuesday, December 30, 2014

शक्तिशाली देश चाहते हो तो मनोरंजन और व्यसनों के दासत्व से मुक्ति पाओ-कौटिल्य के अर्थशास्त्र के आधार पर चिंत्तन लेख(shaktishali desh chahte ho to manoranjan aur vyasaon ke dasatva se mukti pao-A Hindu hindu religion thought based on kautilya ka arthshastra)



                             भारत एक विशाल प्राकृतिक संपन्न देश है। विश्व में क्षेत्रफल की दृष्टि से अनेक बड़े देश हैं पर उनमें प्राकृतिक और मानवीय संसाधन की दृष्टि से अनेक दोष हैं। भारत में सभी प्रकार के खनिज पाये जाते हैं तो जलसंपदा भी यहां बहुत है।  उनके दोहन के लिये जनसंपदा भी कम नहंी है। अनेक देश बड़े हैं और उनकी उनके पास प्राकृत्तिक संपदा भी बहुत है पर जनसंख्या अधिक नहीं है जिससे वह उसका पूर्ण दोहन नहीं कर पाते।  अनेक देशों का क्षेत्रफल बड़ा है पर वहां जमीन में न पानी है  और न ही खनिज संपदा।  उन बड़े  देशों में संपन्नता है पर भारत जैसा अध्यात्मिक ज्ञान नहंी है। भारत विश्व मे अपने अध्यात्मिक ज्ञान के कारण भी जाना जाता है।  यही कारण है कि भारत के विरोधी राष्ट्र उस पर शासन करने के लिये यहां भेदनीति अपनाते हैं। अध्यात्मिक ज्ञान के कारण  आम भारतीय धर्मभीरु व्यक्ति  बौद्धिक रूप से दृढ़ होता है इसलिये यहां के समाज पर शासन सहज नहीं है।  यही कारण है कि यहां नये मानसिक भौतिक तथा मानसिक व्यसन निर्यात किये जाते हैं।
                             कार्ल मार्क्स ने कहा था कि धर्म अफीम की तरह होता है।  यह पाश्चात्य विचाराधाराओं पर पूर्णतः सही लगता है भारत में धर्म निजी नियंत्रण बनाये रखना वाला सिद्धांत है।  भारत में विदेशी विचाराधाराओं की तरह मार्क्सवाद भी आया है।  इसके मानने वाले समाज सेवा को व्यसन की तरह करते हैं।  उन्हें भारतीय अध्यात्मिक दर्शन अफीम का तत्व लगता है।  इतना ही नहीं मार्क्स के शिष्य हर विदेशी राजनीतिक, धार्मिक तथा सामाजिक विचार को भारतीय विचाराधाराओं से  श्रेष्ठ मानते हैं।  अंग्रेंजोें ने भारत को गुलाम बनाये रखने के लिये ऐसी शिक्षा पद्धति अपनाई कि आज हर शिक्षार्थी नौकरी यानि गुलामी के लिये तत्पर रहता है।  उससे भी काम न चला तो क्रिकेट जैसा खेल थोप दिया। भारत की बुद्धि का हरण उन्होंने इस कदर किया कि फिल्म और क्रिकेट के नायक यहां भगवत्स्वरूप प्रचारित हो रहे हैं।  प्रचार माध्यम उनकी आड़ में ढेर सारी आय अर्जित कर रहे हैं। धर्म, अर्थ और समाज सेवा के क्षेत्र में सक्रिय शिखर पुरुष धनार्जन के नशे में लग ेहुए हैं तो आम लोग मनोरंजन के दास हो गये हैं।

कौटिल्य के अर्थशास्त्र में कहा गया है कि

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स्फीतं त्रीणि बलं शक्यमाधातुं पानवर्त्मनि।

हृस्वप्रयासव्यायामादितिसैन्यं समुत्पतेत्।।

            हिन्दी में भावार्थ-शत्रु की सेना अगर बल में अधिक हो तो उसे मद्यपान के व्यसन में लगाकर  व्यायाम में लग होने पर उसे आक्रमण कर दें।

                              अभी हाल ही में भारत में बढ़ते मादक द्रव्य पर समाचार आये थे।  चार दिन चर्चा चली पर नतीजा वही ढाक के तीन पात!  अंग्रेजों ने यहां शासन कर यह समझ लिया था कि यहां का अध्यात्मिक ज्ञान जितना प्रबल उतना ही यहा लोग मानसिक रूप से कमजोर है।  उनकी कमजोरियों पर  अनुसंधान के कारण ही यहां के ऋषि, मुनि और तपस्वियों ने महान ज्ञान स्थापित किया। इस ज्ञान के रहते भारतीयों पर शासन कठिन है इसलिये उन्होंने विदेशी विचारधाराऐं यहां प्रवाहित कीं।  अंग्रेजों ने इसलिये ही अपनी शिक्षा पद्धति, खेल तथा मनोरंजन के साधन के रूप में स्थापित किया ताकि यहां से जाने के बाद भी उनका प्रभाव बना रहे।  इधर यह भी चर्चा होती रही कि फिल्मों के प्रदर्शन, क्रिकेट में सट्टे और मादक द्रव्यों से आतंकवादी संगठन पैसा अर्जित कर रहे हैं फिर भी हमारे देश के लोग मनोरंजन के दासत्व से मुक्त नहीं हो पा  रहे।  एक तरह से मद्यपान-फिल्म, क्रिकेट और मादक द्रव्य-इस देश पर विदेशी कब्जा हो गया है। हमारा मानना है कि अगर हमारे देश के लोग कम से कम दो वर्ष फिल्म, क्रिकेट और मादक द्रव्यों से दूर रहें तो यहां वातावरण अत्यंत सहज हो जायेगा।  भारत को व्यसनों में धकेलने वाले तब निराश हो कर चुप हो जायेंगे।

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
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Wednesday, December 24, 2014

महापुरुष विश्व रत्न होते हैं-हिन्दी चिंत्तन लेख(mahapurush vishwaratna hote hain-hindi thought article)



            यह विचित्र बात है कि जब भी किसी शासकीय पुरस्कार की बात आती है विवाद प्रारंभ हो जाते हैं। देश में केंद्र तथा राज्य सरकारें साहित्य कला तथा खेल के क्षेत्र में पुरस्कार देती रहती हैं।  यह पुरस्कार सम्मानीय लोगों को उनके क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के रूप में दे दिया जाता है-सिद्धांतः ऐसा माना जाता है। यह अलग बात है कि बाद में उन पर अनेक प्रकार के विवाद प्रारंभ हो जाते हैं। हमारे यहां अनेक निजी प्रतिष्ठानों की तरफ से भी प्रदान किये जाने वाले-खासतौर से साहित्य और पत्रकारिता के पुरस्कार-विशुद्ध रूप से प्रबंध कौशल से निर्धारित होते हैं।
            सात वर्ष पूर्व हमारे अध्यात्मिक ब्लॉग पर एक बार एक ब्लॉग मित्र ने टिप्पणी करते हुए कहा था कि मनुस्मृति पर लिखने के बाद यह आशा आप कभी न करें कि आपका कभी सम्मान नहीं होगा।  हमें हसंी आ गयी।  जब युवावस्था में लिखते थे तो सम्मान की चाह होती थी पर अंतर्जाल पर लिखना प्रारंभ करते समय सम्मान का मोह समाप्त हो चुका था।  हम तो यही मानकर चलते हैं कि दो लोग भी हमारा पढ़कर प्रसन्न हुए तो वही हमारा सम्मान है।  स्थानीय स्तर पर हमसे सम्मान लेने के सर्शत प्रस्ताव आये पर उनमें हमारी रुचि नहीं रही।  इधर अध्ययन चिंत्तन और मनन की सतत प्रक्रिया के साथ ही योगाभ्यास ने हमारे इस दृष्टिकोण को मजबूत कर दिया कि हमारी अपनी सोच भी कम अनोखी नहीं है।  यह लेख हम आत्मप्रवंचन के लिये नहीं लिख रहे वरन् अभी भारत रत्न के लिये श्रीअटल बिहारी वाजपेयी और श्री मदन मोहल मालवीय का नाम चयनित होने पर विवाद हो रहा है।  इस पर जारी चर्चाओं में अनेक लोग कुछ ऐसे महापुरुषों को भारत रत्न न देने पर प्रश्न उठा रहे हैं जो विश्व रत्न हैं-यथा, श्रीगुरू नानक देव, संत कबीर, कविवर रहीम, संत विवेकानद आदि। इस पर केवल हंसा ही जा सकता है।
            वैसे तो श्रीअटल बिहारी वाजपेयी और स्वर्गीय मदन मोहन मालवीय को भारत रत्न का विरोध करना ही नहीं चाहिये अगर करना ही है तो ऐसे महापुरुषों का नाम नहीं लेना चाहिये जिनकी छवि अध्यात्मिक रूप से इतनी उज्जवल हो कि उन्हें पूरा विश्व ही रत्न मानता है।  इस चर्चा में प्रगतिशील और जनवादी विद्वानों का दर्द सामने आ ही गया है क्योंकि उनकी दृष्टि से यह दोनों महानुभाव दक्षिणपंथियों के नायक हैं। उनके लिये सबसे ज्यादा दर्दनाक तो इनके साथ जुड़े हिन्दु तत्व जुड़ा होना है जिसे दक्षिण पंथ का पर्याय माना जाता है।  यही वजह है कि कथित प्रगतिशील और जनवादी विद्वानों में मन में यह टीस तो होगी कि आगामी पांच वर्ष उन्हें अपनी विचारधारा के लिये केंद्रीय सम्मान की आशा छोड़नी पड़ेगी। यह टीस उनके रचनाकर्म को प्रभावित कर सकती है क्योंकि निष्काम कर्म के सिद्धांत की उनको समझ नहीं है जो कि श्रीमद्भागवत गीता उनकी दृष्टि से अध्ययन के लिये वर्जित ग्रंथ है।
            माननीय श्री अटल बिहारी वाजपेयी हमारे ग्वालियर शहर में ही जन्मे हैं इस कारण उनसे हमारा स्वाभाविक लगाव है।  बाल्यकाल में हमने जिन दो नेताओं का नाम हमने सुना था उनमें एक थे स्वर्गीय प्रधान मंत्री श्री जवाहर लाल नेहरु अैार जनसंघ के नेता श्री अटल बिहारी वाजपेयी।  श्री लालकृष्ण आडवाणी के हम सहभाषी जातीय समुदाय से हैं पर उनका  नाम कम से कम दस वर्ष बाद सुना था। हमारे कुल परिवार के सभी वरिष्ठ सदस्य अटल बिहारी का नाम श्रद्धा से लेते थे।  अनेक लोगों को यह भ्रम है कि सिंधी भाषी होने के कारण इस भाषा जाति के सदस्य इन दोनों महानुभावों की पार्टी के समर्थक रहे हैं पर ऐसी सोच अज्ञान का प्रमाण ही है। यही कारण है कि हम जातिवाद के आधार पर किसी समीकरण पर विचार नहीं करते जैसा कि दूसरे लोग बताते हैं। दरअसल अटल बिहारी की भाषण शैली ऐसी रही है कि उनको किसी भी जाति या भाषा के लोग आत्मीय समझने लगते हैं और यही गुण उनको रत्न रूप प्रदान करता है।



दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
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Thursday, December 18, 2014

कृत्रिम धार्मिक विचाराधारायें नस्लीय भेदभाव से लड़ने की प्रेरक नहीं-पेशावर हमले पर विशेष हिन्दी लेख(kritrim dharmik vichardharaen nasliy bhedbhav se ladne ki prerak nahin-A Hindi artcile on peshawar terrist atack)



            पेशावर में सैन्य स्कूल पर हमले में घायल एक बालक ने पलंग पर सोते हुए दिये गये साक्षात्कार में कहा-‘‘मैं बदला लूंगा। उनकी पूरी नस्ल मिटा दूंगा।
            वह बालक था जिसमें ऐसे विचार आप नहीं आ सकते।  उसके विचारों में कहीं न कहीं उसके परिवार की सोच परिलक्षित हो रही थी। तय बात है कि उसके माता पिता, दादा दादी, नाना नानी अथवा चाचा चाची में किसी विशेष नस्ल के प्रति दुराग्रह रहा होगा जो उसकी जुबान में प्रकट हो रहा था।  जब वह नस्ल मिटाने की बात कर रहा था तो वह जानता था कि वह जिन्होंने उस पर हमला किया वह किसी दूसरी नस्ल जाति, भाषा या क्षेत्र से जुड़े हैं।  भारतीय प्रचार माध्यम तथा यहां के विद्वान उसके इस वचन से दृष्टि ज्यादा देर तक नहीं रख पाये पर सच यह है कि धार्मिक विचाराधाराऐं क्षेत्र, जाति, भाषा तथा व्यवसायिक आधारों पर बने सामाजिक उपविभाजनों की सत्यता से परे नहीं ले सकीं हैं यह अब प्रमाणित हो गया है।
            मध्य एशिया में आतंकवादियों से निकाह न करने पर 150 महिलाओं को मार दिया गया।  यह खबर पाकिस्तान के पेशावर में आतंकी हमले में 141 बच्चों को मारने की घटना के तत्काल बाद हुई।  दोनों ही घटनाओं में मरने और मारने वाले एक ही धार्मिक विचाराधारा से जुड़े थे-यह तथ्य सतही बौद्धिक चिंत्तन करने वालों के लिये महत्वपूर्ण नहीं हो सकता पर तत्व ज्ञान के साधक इसमें बहुत कुछ देख सकते हैं।  कथित धार्मिक विचाराधाराऐं आकाश से प्रकट बताकर लोगों पर थोपी जाती हैं जबकि धरती पर रहने वाले सभी जीवों की मानसिकता दूसरी होती है।  हम कहते हैं कि सर्वशक्तिमान ने संसार बनाया है तो याद रखें उसने यहां विभिन्न प्रकार के जलचर, नभचर और थलचर जीवों की रचना की है। आकाश में उड़ने वाले सभी कबूतर नहीं होते वरन, कौआ, चिड़िया, गिद्द तथा उल्लू भी होते हैं। सभी धरती पर आते हैं।  जलचरों में मगरमच्छ भी होते हैं तो मछलियां भी वहां विचरती हैं। जलचर भी कभी धरती पर चले आते हैं।  थलचरों को धरती पर विचरना ही है पर उनमें भी नस्ल होती है-गोरे, काले और गेहुए रंग के चेहरे ही नस्ल की पहचान होते हैं यह आवश्यक नहीं है।  वरन् जलवायु से भी उनमें नस्लीय वैविधता आती है जिसे जानने के लिये तत्व ज्ञान और विज्ञान के सूत्रों की जरूरी है।
            दो नस्लें तो स्पष्ट रूप से ही होती हैं-असुर और दैवीय।  उसके बाद जलवायु के आधार पर विभाजन होते हैं। फिर भाषा, जाति, तथा क्षेत्र के विभाजन भी सामने आते हैं।  कृत्रिम धार्मिक विचाराधाराओं के आधार पर मनुष्य जाति को समूहबद्ध करने की योजनायें काम नहीं करतीं यह अब तय हो गया है। हम यहां धार्मिक विचारधाराओं के आधार पर समूहों को देखने की कोशिश की चर्चा कर रहे हैं जिनके आधार पर मनुष्य समाज को संचालित करने के प्रयास नाकाम हो चुके हैं।  इसके विपरीत इन धार्मिक विचाराधाराओं की रेत में आज के विद्वान शुतुरमुर्ग की तरह  नस्लीय अहंकार की वजह से चल रहे संघर्षों से मुंह छिपा रहे हैं।
            प्रचार माध्यमों में हमलावरों के घटना से पूर्व का चि़त्र देखने से पता चलता है कि वह पाकिस्तान की कथित आधुनिक सभ्रांत सभ्यता से अलग वह प्राचीन पद्धति से जीने वाले लोग हैं। कहने को वह भी पाकिस्तान की राजकीय तौर से मान्यता प्राप्त धार्मिक विचाराधारा को मानने वाले थे पर कहीं न कहीं उनके अंदर अपने साथ अन्याय, भेदभाव तथा सामान्य जीवन सुविधाओं के अभाव के प्रति एक असंतोष था जो इस हमले में रूप में प्रकट हुआ। हमलावरों के समर्थक कहते हैं कि यह वजीरिस्तान में में पाक सेना की हमले का जवाब हैं जिसमें हमारे बच्चे मर रहे हैं।  स्पष्टतः पाकिस्तान के दूर दराज के उन इलाकों पर मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की नजर नहीं गयी जहां पाकिस्तान का पंजाब में रहने वाला सभ्रांत वर्ग अपना सम्राज्य बनाये रखने के लिये अपनी शक्ति का उपयोग धर्म तथा राज्य के नाम पर कर रहा है। पाकिस्तान में एक तरह से नस्लीय युद्ध चल रहा है।  अगर बालक किसी नस्ल को मिटाने की बात कर रहा है तो कहीं न कहीं वह समूचे पाकिस्तान के सभ्रांत वर्ग मे मौजूद विचार को ही प्रकट कर रहा है जिसके अंदर नस्लीय भाव मौजूद है।
            इससे एक बात तय हो गयी कि मनुष्य की दैहिक आवश्यकताओं की पूर्ति उसका सबसे बड़ा ध्येय होता है। उसमें बाधा पड़ने पर उसमें नाराजगी आती है और तब वह प्रतिकूल होकर कदम उठाता ही है।  भारतीय अध्यात्मिक दर्शन में मनुष्य की पहचान बताई गयी है।  यही कारण है कि विश्व में सत्य की निकट सबसे अधिक हमारी ही विचाराधारा मानी जाती है। पाकिस्तान का अस्तित्व चूंकि भारत और यहां से प्रवाहित धर्मों का विरोध पर ही टिका है इसलिये उससे किसी सार्थक बदलाव की आशा करना ही व्यर्थ है। वैसे भी पाकिस्तान एक देश नहीं वरन् विभिन्न नस्लीय समुदायों और भाषाओं के समूहों पर टिका है जिसने धार्मिक विचाराधारा के आधार पर एकरूप बनने का निरर्थक प्रयास किया है।
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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
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Thursday, December 11, 2014

श्रीगीता के सैद्धांतिक अध्ययन के साथ व्यवहारिक प्रयोग भी आवश्यक-श्रीमद्भागवत् गीता के प्रकट्य के 5151 वर्ष पूर्ण होने पर विशेष लेख(shri geea ke saiddhantik adhyayan ke sath vyvaharik bhi avashyak prayog bhi avashyak-shrimadabhagwat geeta ke prakatya ke 5151 varsh poorn hone par vishesh lekh,special article on shri madbhagavat geeta complete 5151 eyar)



            श्रीमद्भागवत्गीता ग्रंथ की रचना के 5151 वर्ष पूरे हो गये हैं ऐसा कुछ विद्वानों ने बताया है। कम से कम एक बात तो समाज ने मान ली कि भगवान श्रीकृष्ण का लीलाकाल इससे अधिक पुराना नहीं।  इधर कुछ ज्योतिष और खगोल शास्त्रियों ने भी मिलकर भगवान श्रीराम के लीला काल को सात हजार वर्ष पुराना प्रमाणित करने का प्रयास किया है।  यह भी माना जा रहा है कि भारत श्रीलंका के बीच निर्मित रामसेतु  भी स्वाभाविक रूप से बना है।  भारतीय अध्यात्म के दो महानायकों के बारे में खोज चलना कोई आश्चर्यजनक बात नहीं है। रामायण में जहां भगवान श्री राम ने सामाजिक मर्यादा का ज्ञान कराया तो महाभारत में भगवान श्रीकृष्ण ने जीवन के रहस्यों से परिचय कराया।  यह अलग बात है कि भगवान श्रीराम और कृष्ण के प्रति आस्था दिखाकर अपने लिये अर्थसिद्ध करने वाले ठेकेदारों की हमारे देश में कमी नहीं है।
            आजकल हमारे देश में विश्व गुरु के रूप में पुनः प्रतिष्ठत करने का नारा चल रहा है।  हमारी दृष्टि से तो रामायण, महाभारत, श्रीमद्भागवत तथा श्रीमद्भागवत गीता तथा प्राचीन ग्रंथों   की उपस्थिति तथा उनकी वैश्विक स्वीकार्यता के कारण हमें यह श्रेय वैसे भी मिलता है।  यह अलग बात है कि हमने स्वयं ही पाश्चात्य में सृजित संस्कृति, साहित्य और साधनों को अपना इष्ट मानकर उनसे विरक्ति कर ली है पर इसके बावजूद हमारा विश्व गुरु का पद बना हुआ है।  जरूरत हमें अपनी पुरानी राह चलने की है।  श्रीमद्भागवत गीता के अनुसार हमें विज्ञान का भी ज्ञाता होना ही चाहिये। केवल ज्ञान के शब्दकोष के सहारे जीवन गुजारना से नीरसता आती है।  हमने नये विज्ञान पर अपनी पूरी बुद्धि निछावर कर दी है और ज्ञान को धारण करने का संकल्प त्याग ही दिया है।
            श्रीगीता के ज्ञान साधकों के लिये यह ग्रंथ ही वास्तविक गुरू होता है। कुछ लोग मानते  हैं कि पाश्चात्य सभ्यता-जिसे हम अंग्रेजी भी कहते हैं- अत्यंत व्यापक दृष्टिकोण वाली है और उसने भारत में आकर समाज सुधार किया है। हमारा विचार इससे विपरीत है।  हमारा मानना है कि जब यहां परिवहन के साधन सीमित थे तब भी लोग मध्य एशिया तक यहां से गये और वहां ये आये।  उस समय कोई परिवहन के तीव्रगति वाले साधन नहीं थे तब भी लोगों का भ्रमण बिना वीजा और पासपोर्ट के होता था।  भारत में पुर्तगााली, फ्रांसिसी और अंग्रेजों के आने के बाद संकीर्णता ही बढ़ी है हमारा ऐसा मानना है।  मनुष्य का मन आकाश में उड़ने को करता है। नहीं उड़ पाता तो दूर तक जाने की इच्छा तो होती है।  पाश्चात्य सभ्यता के प्रभाव से हुआ यह कि अब अमृतसर से लाहौर और मुंबई से कराची जाने जाने के लिये वीजा और पासपोर्ट चाहिये जबकि कभी उन्मुक्त भाव से आना जाना हो सकता था।
            श्रीमद्भागवत गीता आत्म संयम रखने की ऐसी कला सिखाती है जिसे जीवन उन्मुक्त भाव से व्यतीत किया जा सकता है वरना  त्रिगुणमयी माया इस तरह फंसाये रहती है कि आदमी विषयों को छोड़ता और पकड़ता रहता है। जब मन विषयों से तंग होता है तो फिर मनोरंजन के लिये भी वही विषय चुनता है जिनसे दूर होना चाहिये। श्रीमद्भागवत गीता के ज्ञान का सैद्धांतिक अर्थ सभी जानते हैं वह उसे व्यवहार में कैसे लाया जाये यह कला सभी को नहीं आती। सीधी बात कहें तो ज्ञान होना और उसे धारण करना दो प्रथक विषय हैं।  जब तक  श्रीगीता के संदेशों का व्यवहारिक प्रयोग नहीं करेंगे तब तक तत्वज्ञान समझ में नहीं आ सकता।  जिस तरह विज्ञान के सभी छात्र सिद्धांत तो समझ लेते हैं पर व्यवहारिक प्रयोग में उनकी योग्यता परिलक्षित होती है।  इस पर गीता तो ज्ञान के साथ ही विज्ञान के संदेशों से भी भरी हुई है उसे व्यवहार में लाकर ही बेहतर ढंग से समझा जा सकता है। ऐसा महान पवित्र ग्रंथ को किसी सांसरिक पुरुष की महत्व के बखान या प्रचार की सहायता की आवश्यकता नहीं होती वरन् सांसरिक विषयों में में लिप्त लोगों को ही उसके ज्ञान समझने की आवश्यकता है। श्रीमद्भागवत गीता का महत्व बखान करने का अर्थ यह कदापि नही है कि प्रचारक उसका ज्ञान भी समझते हैं।  भगवान श्रीकृष्ण ने श्री गीता के संदेशों को अपने ही भक्त में सुनाने का प्रतिबंध भी इसलिये ही लगाया हुआ है क्योंकि यह केवल उनके समझ में ही आ सकती है। 5151 वर्ष पूर्व सृजित गीता के संदेश प्रारंभ में पढ़ने पर उकताहट आ सकती है पर जब इसका ज्ञान व्यवहारिक प्रयोगों के साथ मस्तिष्क धारण करता है तब इसका हर  श्लोक रुचिकर लगता है। इतना ही नहीं अगर श्रीमद्भागवत गीता का अगर रोज अध्ययन किया जाये तो ऐसा लगता है कि हर बार नयी बात सामने आ रही है।  इसका ज्ञाता क्षेत्रज्ञ भी कहलाता है। पश्चिमी विज्ञान अभी तक प्रकृति का पूरा क्षेत्र नहीं जान  सका है पर जो श्रीगीता पढ़ लेगा वह पूरी सृष्टि का सत्य जान लेगा।  भगवान श्रीकृष्ण के प्रति भक्ति के भाव तथा ज्ञान धारण करने के संकल्प के साथ पढ़ने पर ही श्रीमद्भागवत गीता का महत्व समझ में आ सकता है। तब उसका प्रचार करने की आवश्यकता ही नहीं रह जाती।
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Saturday, November 29, 2014

कांच का महत्व न समझे उसे हीरा दिखाना व्यर्थ-हिन्दी चिंत्तन लेख(kanch ka mahatva n samjhje use heera dikhana vyarth-hindi chinntan article)



            यह आश्चर्य की बात है कि संसार के जितने भी कथित धर्म हैं उनसे जुड़े प्राचीन ग्रंथों के प्रचारक लोगों के बीच ज्ञान इस तरह बेचते हैं जैसे कि धर्म का ज्ञान कोई बाज़ार में बेचने का विषय या वस्तु हो।  हम अगर भारतीय अध्यात्म दर्शन की बात करें तो उसमें ज्ञानी से आशय केवल अच्छे शब्द समूह या वाक्यों से संबद्ध व्यक्ति होना नहीं है।  ज्ञानी वह माना जाता है जिसकी क्रियाओं से यह पता चलता है कि वह ज्ञान पर आधारित हैं।  व्यवहार, विचार, वक्तव्य तथा विचार से यह अपने आप पता चल जाता है कि कोई व्यक्ति ज्ञानी है या नहीं।  इतना ही नहीं ज्ञान भी उस व्यक्ति को दिया जाता है जिसमें गेय करने का सामर्थ्य हो। इसके साथ ही जो इच्छुक हो उसे ज्ञान दिया जाता है।
            भारतीय अध्यात्मिक परंपरा में गुरुकुल और सत्संग परंपरा ज्ञानार्जन का साधन मानी जाती है जिसमें साधक स्वयं उपस्थित होता है।  अब पाश्चात्य पंरपरा अपनाने के चलते हमारे देश में भी अनेक ज्ञान के व्यवसायी सार्वजनिक सभायें करनें लगे हैं।  अपने प्रवचनों में मनोंरजन की भाषा बोलते हैं।  भारत में विदेश से आयातित विचाराधारायें समस्त मनुष्यों को देवता बनाने का ऐसा सपना लेकर आती हैं जो असंभव है। इसमें ज्ञान का विषय व्यक्ति की गेय करने की क्षमता तथा उसकी इच्छा का आंकलन कतई नहीं किया जाता।  इतना ही नहीं अनेक विचाराधाराओं के प्रवर्तक तो व्यक्ति को अपना समूह त्याग कर नये समूह में आने की प्रेरणा यह कहकर देते हैं कि उन्हें सर्वशक्तिमान का सदियों से आकाश या परलोक में  स्थापित   श्रेष्ठ स्थान मिल जायेगा।
संत कबीर दास ने कहा है कि
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जो जैसा उनमान का, तैसा तासों बोल।
पोता को गाहक नहीं, हीरा गांठि न खोल।।
            हिन्दी में भावार्थ-अपने संपर्क में आने वाले मनुष्य की प्रवृत्ति देखकर व्यवहार करना  चाहिये। जिसे कांच की पहचान न हो उसके सामने अपने हीरे का प्रदर्शन करना व्यर्थ है।
एक ही बार परिखए, न वा बारम्बार।
बालू तौहु किरकिरी, जो छानै सौ बार।।
            हिन्दी में भावार्थ-किसी व्यक्ति या विषय की परख एक बार ही करना ठीक है। बार बार किसी को अवसर देना ठीक नहीं है।  रेत को सौ बार छाने पर वह हमेशा किरकिरी ही रहेगी।
            हम देख रहे हैं कि पश्चिम से कोई भी भाषा, संस्कृति, संस्कार तथा सामाजिक विचाराधारा ऐसी नहीं आयी जो दोषमुक्त हो।  यह अलग बात है कि आधुनिक दिखने की चाहत में हमारा सभ्रांत वर्ग उसके पीछे भाग रहा है।  हम देख रहे हैं कि हमारा समाज इसी कारण विरोधाभासी संस्कृति के जाल में फंस गया है। यही कारण है कि हमारे यहां जितना ज्ञान का प्रचार हो रहा है उतना समाज निर्माण होता दिख नहीं रहा।  जिस तरह का धर्ममय वातावरण सतह पर दिख रहा है उस दृष्टि से तो भ्रष्टाचार, अनाचार और व्याभिचार के घटनायें होना ही नहीं चाहिये पर वह तो बढ़ती जा रही हैं।  तय बात है कि हमारे पेशेवर धार्मिक ठेकेदार ऐसे लोगों के सामने ज्ञानं बांच रहे हैं जिनके लिये शब्द केवल क्षणिक मनोंरजन के लिये होते हैं न कि जीवन सुधारने के लिये उपयोग किया जाता है।


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Sunday, November 23, 2014

इतिहास बदलता है, अध्यात्मिक ज्ञान के सिद्धांत नहीं-संतों के हिसंक होने पर चिंत्तन लेख(ithas badalta hai,adhnatmik darshan nahin-hindi thoght article)



            विषयों में निर्लिप्त भाव अपनाने से आशय क्या है? हमने आज तक अनेक कथित विद्वानों को सुना पर लगता नहीं है कि वह इसे समझे जो दूसरे को समझा पायें। हमने श्रीमद्भागवत गीता का अध्ययन कर यह समझा है कि किसी व्यक्ति, विषय वस्तु के संपर्क में आना बुरा नहीं है वरन् निरंतर उसका स्मरण करना ही लिप्तता है। श्रीमद्भागवत गीता में गृहस्थ धर्म का पालन करने हुए भी योग प्राप्ति संभव बताई गयी है।  ऐसे में यह संभव नहीं है कि विषयों से संपर्क न रखना ही निर्लिप्त भाव माना जाये। हमारे अनुसार तो लिप्तता का आश लिपटने से है। अपने दैहिक आवश्कता की पूर्ति के बाद संबंधित विषय से विमुख होना ही निर्लिप्पता है।  मुख्य बात यह है कि हम अपनी इंद्रियों का सांसरिक विषयों से संपर्क तो  रोक नहीं सकते  पर हम अपने मस्तिष्क में निरंतर भौतिक संसार के चिंत्तन से परे रहकर निर्लिप्त रह सकते हैं।
            हमने पशु पक्षियों का जीवन देखा होगा।  पेट भरने के बाद बचे भोजन का पशु पक्षी  त्याग कर देते हैं, पर मनुष्य उसे बचाकर रख देता है-यह लिप्तता का भाव है। सिंह एक बार किसी मृग कर शिकार कर लेता है तो उसके पास चाहे कितने भी अन्य मृग विचरण करें वह उनसे मुंह फेर लेता है।  गाय को एक बार रोटी दे दी जाये तो वह उस दरवाजे का त्याग कर चली जाती है।  चिड़िया जमीन पर रखे दानों का सेवन करती है पर पेट भर जाने पर वह उसे छोड़ जाती है।  कोई भी पशु पक्षी संग्रह नहीं करता यही उसका निर्लिप्त भाव है। अनेक पशु पक्षी अपने बच्चे के युवा होने पर उसका त्याग कर देते हैं। कभी कभी तो यह लगता है कि वह बच्चे उनकी स्मृति से ही बाहर हो गये हैं।  मनुष्य ही नहीं वरन् सृष्टि के समस्त जीवों में अपनी संतान के प्रति लगाव देखा जाता है मगर अन्य जीव अधिक समय तक न संतान साथ रखते हैं न वह रहती है।  पशु पक्षियों का यही उन्मुक्त भाव निर्लिप्त भाव है।
            सांसरिक विषयों से देह के भरण पोषण से अधिक संपर्क रखना तो ठीक पर उनका निंरतर चिंत्तन करने से उपभोग के प्रति अनेक प्रकार  की अनेक नयी  कामनायें मन में पैदा होती हैं। इनमें से कई पूर्ण होती है तो कई में नाकामी हाथ आती है।  नाकामी से क्रोध और क्रोध से मूढ़ भाव पैदा होता है। मूढ़ भाव से ज्ञान शक्ति का हृास होता है और उसके बाद मनुष्य अपनी स्थिति से गिर जाता है।
            हम अक्सर यह कहते हैं कि ज्ञानी कभी पतन को प्राप्त नहीं होता पर सच यह है कि भौतिकता या माया का जाल इतना विकट है कि बड़े से बड़ा ज्ञानी भी उसमें फंस सकता है। ज्ञान किसके पास कितना है यह प्रश्न महत्वपूर्ण नहीं है बल्कि यह देखना चाहिये कि उसमें धारणा शक्ति कितनी है।  जब मनुष्य सांसरिक विषयों में अत्यंत रुचि के साथ जुड़ता है तब उसके पास तत्व ज्ञान कितना भी हो धारणा शक्ति के हृास के साथ वह पतन की तरफ जाता ही है।
            अभी हाल ही में एक कथित संत ऐसे ही मायावी जाल में फंस गया।  हमने उसके प्रवचन सुने। सच बात तो यह कि उसमें ज्ञान की कोई कमी नहीं थी।  उसने अनेक प्रकार के उपाय कर बड़ा आश्रम बनाया। उस आश्रम में उसने अपने भक्तों के रहने, खाने और सत्संग के लिये बढ़िया सुविधा बनायी। ज्ञान में कमी नहीं थी पर अपनी या दूसरे की देह का चिंत्तन अंततः एक सांसरिक विषय है।  आश्रम के लिये तमाम चिंत्तायें उन संत के मन में रही होंगी। इतना ही नहीं जब भक्तों के सुविधा के लिये चिंता करेंगे तो अपने लिये भी क्या कम रखते होंगे? न्यायालय के एक प्रकरण में निंरतर उपस्थित नहीं रहे तो उनके विरुद्ध अवमानना का नया विषय उपस्थित हो गया। इधर सांसरिक विषयों में भारी उपलब्धि का अहंकार उनके मन में आने से न्यायालय की शक्ति का ज्ञान लुप्त हो गया होगा।  परिणाम यह हुआ कि न्यायालयीन आदेश पर पुलिस ने आश्रम घेरा।  उनके कथित शिष्यों ने प्रहरियों पर हमला कर दिया।  आपाधापी में छह अन्य लोग भी मर गये। अब उन कथित संत को  पुराने प्रकरण से अधिक तो नये प्रकरण भारी पड़ने वाले हैं। हमारे प्रचार माध्यम संतों के ज्ञान और कार्यों पर प्रश्न उठा रहे हैं।  यह कैसे हुआ? संत ने ही इसका जवाब भी दिया किमेरी बुद्धि भ्रष्ट हो गयी थी?’’
            वास्तव में यह एक ऐसे ज्ञानी की स्वीक्रोक्ति है जिससे लोभ और लालच ने अपराध के मार्ग पर पहुुंचा दिया।  हमारा तो पहले से ही निष्कर्ष था कि उनके पास ज्ञान हमेशा ही रहा है पर लगता है कि सांसरिक विषयों ने उनकी धारण शक्ति को क्षीण कर दिया। इसी घटना के परिप्रेक्ष्य में हमारा यह भी निष्कर्ष है कि प्रथ्वी के भूगोल और जीव की प्रकृत्ति में कोई बदलाव नहीं होता। इतिहास बदल जाता है हम उससे भ्रमित हो जाते है।  रामायण में श्रीसीता ने श्रीराम जी को एक कथा सुनाई थी जो इससे मिलती जुलती है। सतयुग में  एक महान तपस्वी थे।  उनके तप से इंद्र व्यथित हो उठे। उनको लगा कि यह तो उनका सिंहासन ही हर लेगा।  एक दिन वह एक योगी का रूप धर कर उस तपस्वी के पास आये और उन्हें अपना फरसा हाथ में देकर बोले-हम तपस्या करने जा रहे हैं जब तक लौटकर आयें आप इसकी रक्षा करें।’’
            परोपकार में तत्पर रहने वाला वह तपस्वी प्रसन्न हो गया और इंद्र चले गये। अब तपस्वी का मन तो उस फरसे में ही रहने लगा।  स्थिति यह कि ध्यान में भी वह फरसा बसने लगा।  एक दिन जिज्ञासावश उन्होंने अपने हाथ में उठाकर देखा तो उन्हें लगा कि अपनी रक्षा के लिये यह अत्यंत उपयुक्त है। बस फिर क्या तो इस तरह के चिंत्तन में ऐसा फंसे कि  धीमे धीमे हिंसा में ही लीन हो गये और अंततः उनको उसका दंड भोगना ही पड़ा।
            हमने इन कथित संत और रामायणकालीन उस तपस्वी के जीवन में समानता देखी और यह माना कि अध्यात्मिक दर्शन की दृष्टि से प्रथ्वी का भूगोल और जीव की स्वाभाविक प्रकृत्तियां नहीं बदलती यह अलग बात है कि एतिहासिक घटनायें पात्र का नाम बदलकर प्रस्तुत होती हैं।


दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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Sunday, November 16, 2014

पेशेवर संतों का धर्म से अधिक संबंध नहीं दिखता-विशेष हिन्दी रविवारीय लेख(peshewar santon ka dharm se adhik sambandh nahin dikhta-special hindi ravivariya article or hindi lekh)




           
            भारतीय अध्यात्मिक दर्शन तथा धर्म को  आमजन की निष्क्रियता से अधिक कथित साधु, संतों और योगियों की अति सक्रियता ने किया है। श्रीमद्भागवत गीता के दर्शन से काम, क्रोध , लोभ, मोह तथा अहंकार छोड़ने का उपदेश देने वाले इन पेशेवर अध्यात्मिक ने जितना संसास के विषयों का उपभोग किया है उतना तो आमजन भी नहीं करते।  एक बात यह हम आपको बता दें कि श्रीमद्भागवत गीता में कोई भी चीज छोड़ने या पकड़ने को नहीं कहा गया है।  त्रिगुणमयी माया में बंधी देह के साथ मन, बुद्धि और अहंकार की प्रकृत्तियों का चक्र बताया गया है।  कर्म के भेद बताये गये हैं।  इन कर्मों की प्रकृत्तियां क्या हैं यह तो बताया गया है पर साथ ही यह स्पष्ट कर दिया है कि उनके बिना अपनी इस संसार में कोई गति नहीं है।  दूसरी बात यह कि काम, क्रोध, मोह, लोभ तथा अहंकार जैसे दोष इस देह के रहते छूट ही नहीं सकते। अलबत्ता तत्वज्ञान से उनके जाल में फंसकर संकट से बचने का उपाय किया जा सकता है।  भारत के कथित संत समाज, अर्थ, प्रकृत्ति तथा विज्ञान से भरे श्रीगीता के वचनों को रटते हैं पर स्वयं समझ नहीं पाते। हम अहंकार की बात बता दें। किसी व्यापारी ने दुकान खोली। वह तत्वज्ञानी है पर अपने यहां रखे सामान के स्वामी होने का बोध उसे रखना ही पड़ेगा ताकि उसके लिये वह ग्राहकों से मूल्य ले सके।  स्वामी होने का यह बोध अहं की ऐसी सीमा है जहां तक उसे जाना ही होगा।  ग्राहक से पैसा लेना और उसे वस्तु देना एक सहज सांसरिक प्रक्रिया है। जहां व्यापारी इस प्रक्र्रिया को स्वयं प्रेरणा से संपन्न समझेगा वहां से अहंकार की वह सीमा प्रारंभ होती है जो दोष पैदा करती है।    उसी तरह काम, क्रोध, लोभ तथा मोह भी त्याज्य नहीं वरन् नियंत्रण योग्य हैं।  आप पूरी गीता पढ़ लें वहां कुछ छोड़ने या पकड़ने के लिये नहीं कहा गया।  आप किस कर्म से क्या बनते हैं-इसकी पहचान श्रीगीता के अध्ययन करने पर ही हो सकती है।
            हमारे देश में अनेक व्यवसायिक संत अपने सांसरिक अपराधों की वजह से जेल यात्रा पर जाते हैं तो उनके अनुयायी विलाप करते हैं। आजकल एक संत की चर्चा है।  सरकारी नौकरी से निकाले गये यह संत आजकल अपने तीना लाख भक्तों की वजह से भगवान बने फिर रहे हैं।  पीछे भारतीय संविधान के रक्षक लगे हैं। उनके कुछ ऐसे अपराध हैं जिसकी वजह से उन्हें जेल भेजा जा सकता है। उनके हमने प्रवचन सुने।  मोह, माया, क्रोध, लोभ तथा अहंकार के जाल में आमजन की अपेक्षा अधिक बुरी तरह यह संत फंसे दिखते हैं।  उनके शिष्य अपने भगवान की रक्षा के लिये बंदूकें ताने खड़े हैं। टीवी पर पूरा दृश्य देखकर कहीं से भी भारतीय धर्म और अध्यात्म का संबंध इससे  नहीं दिखाई देता।  टीवी चैनल पर चल रही बहस में अनेक विद्वान इन संत के कृत्यों का भारतीय धर्म तथा अध्यात्म के संदर्भ में इसलिये अध्ययन कर रहे हैं क्योंकि वह प्राचीन ग्रंथों की बात करते हैं।  इस तरह के प्रवचन तो हमारे देश में कदम कदम पर करने वाले मिल जायेंगे।  अनेक लोग तो इन्हीं प्रवचनों से अपनी रोजी रोटी चलाते हैं-कुछ ज्यादा हिट हुए तो महलनुमा आश्रम बनाने के साथ ही अधिकारीनुमा शिष्य उनके संचालन में नियुक्त करते हैं।
            ऐसा सदियों से चल रहा है। अनेक लोग तो केवल इसलिये धर्म व्यवसाय में आ जाते हैं क्योंकि उन्होंने अपने समय में इसके सहारे समाज में चमक कायम करने वाले लोगों की छवि देखकर वैसा बनने का मन बनाया होता है।  धर्म का अर्थ समझने से अधिक उसे विक्रय की वस्तु बनाने की उनकी ही इच्छा होती है।  सभी सफल नहीं होते जो सफल होते हैं वह राजसी ठाठबाट से रहते हैं।  असफल लोग भी अधिक नहीं तो रोज की रोटी का इंतजाम कर ही लेते हैं। मध्यम रूप से सफल लोग सुविधायुक्त आश्रम आदि बनाकर जीवन बिता देते हैं।
            दरअसल हम यहां श्रीमद्भागवत गीता तथा गुरुग्रंथ साहिब दोनों की चर्चा करना चाहेंगें। श्रीकृष्णजी ने अपने अगले जन्म की बात कहीं नहीं कही बल्कि यह कहा कि जो इस ग्रंथ का अध्ययन करेगा वह इस संसार में सहजता से विचरण करेगा। उन्होंने गुरू सेवा की बात कहीं मगर उसके लिये जो अध्यात्मिक ज्ञान दे। वह न मिले तो श्रीगीता का अध्ययन कर भी जीवन संवारा जा सकता है।  उसी तरह सिख पंथ के  दसवें गुरू श्री गोविंद सिंह जी ने भी गुरूग्रंथ साहिब को ही  गुरु मानने की प्रेरणा दी। उन्होंने एक तरह से गुरू की दैहिक पंरपरा का समापन किया।  गुरूग्रंथ साहिब भी श्रीगीता की तरह एक दैवीय ग्रंथ है-यह भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान साधक मानते हैं।  इधर जब हम अपने देश विशेषतः पंजाब तथा हरियाणा के क्षेत्र की अध्यात्मिक तथा धार्मिक स्थिति की तरफ देखते हैं वहां दैहिक गुरु की पंरपरा बनी हुई है।  अनेक  ऐसे पंथ इसी क्षेत्र से निकलकर आये हैं जो मूलतः सिख धर्म से प्रभावित दिखते हैं पर उनके अनुयायी पवित्र ग्रंथों को गुरु मानकर चलने में असहज अनुभव करते हैं।  उन्हें लगता है कोई दैहिक गुरू उन्हें कर्ण प्रिय शब्द कहकर बहलाये।  ऐसे स्थान बनाये जिसका पर्यटन की तरह इस्तेमाल किया जा सके। सच बात तो यह है कि यह अनुयायी धर्म से अधिक उससे मन बहलाने में अधिक रुचि रखते हैं।  इसी भाव का लाभ पेशेवर संत उठाते हैं।
            इन पेशेवरों से आदर्श स्थापित करने की आशा करना उसी तरह ही व्यर्थ  जैसे किसी दुकानदार से अपनी वस्तु बिना लाभ के मिलने की करते हैं। जो लोग ऐसे गुरुओं के अनुयायी नहीं है वह धर्म के नाम पर तमाशे से दुःखी होते हैं उन्हें ऐसी घटनाओं पर अधिक नहीं सोचना चाहिये।
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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
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Saturday, November 8, 2014

संसार में सभी लोगों की बुद्धि एक समान होती है-श्रीगुरू ग्रंथ साहिब के आधार पर चिंत्तन लेख(sansar mein sabhi logon ki buddhi ek saman hotee hai-A religion thought article based on shri guru granth sahib)



            इस संसार में सभी व्यक्ति एक ही प्रकार के होते हैं। संसार के सभी जीवों की आदते अपनी देह के अनुसार बन ही जाती हैं।  इसका कारण यह है कि हमारी पंचेन्द्रियां रूप, रस, स्पर्श, सुगंध तथा तथा स्वर के साथ समान रूप से संपर्क में आती हैं। यह अलग बात है कि अपने कर्म तथा भक्ति के अनुसार ही मनुष्य सात्विक, राजसी तथा तामसी प्रवृत्तियों का हो जाता है। आमतौर से तामसी प्रवृत्ति से निष्क्रियता और सात्विक प्रकृत्ति से सीमित सक्रियता  का भाव आता है जबकि राजसी प्रकृत्ति के लोग अधिक सक्रिय दिखते हैं।  कि कोई  व्यक्ति सात्विक प्रकृत्ति का है इसका प्रमाण केवल एक ही बात हो सकती है कि उसके आचरण में अधिक उपभोग का अभाव दिखता हैं।  ऐसे लोग संख्या में अत्यंत कम होते हैं।
            वरना तो अधिकतर लोगों मे काम, का्रेध, लोभ, मोह तथा अहंकार का भाव अधिक रहता है।  विद्वान अक्सर कहते हैं कि इन दोषों का त्याग किया जाना चाहिये पर सत्य यह भी है कि जब तक यह पांचों क्रियायें देह से जुड़ी हैं  इनके साथ सीमित संपर्क रखा जाये तो ये ही गुण  अधिक  सक्रियत से दोष बन जाते हैं।

श्रीगुरुग्रंथ साहिब में कहा गया है कि
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एक सुरति जेते है जीअ।
सुरति विहूणा कोइ न कीअ।
जेहि सुरति तेहा तिन राहु
लेखा इको आवहु जाहु।।
काहे जीअ करहि चतुराई।
लेवैं देवैं न ढिल न पाई।।
तेरे जीअ जीआ का तोहि।
कित कउ साहिब आवहि रोहि।
जे तू साहिब आवहि रोहि।
तू ओना का तेरे ओहि।।

            हिन्दी में भावार्थ-संसार के सभी जीव एक ही तरह सूझ के साथ जीते हैं। कोई बिना सूझ के नहीं बना है।  जिस तरह की जैसी सूझ है वैसे ही कर्म करता है। सभी जीव लेनदेन में चतुंराई दिखाते हैं। एक पैसा लेने में ढील नहीं दिखाते। ऐसे में हे परमात्मा आप उन पर उन पर क्यों क्रोध करोगे? आप तो उनके भी स्वामी हो।

            अनेंक लोग यह कहते हैं कि इस संसार में कामी, का्रेधी, लालची, मोह तथा अहंकारी समाज के शिखर पर पहुंुच जाते हैं तो सरल भाव का आदमी हमेशा ही पिछड़ा रहता है।  अनेक लोग तो परमात्मा पर आक्षेप करते हुए भ्रष्टाचार, अपराध और आचरणहीन व्यापार करते हुए धनवान हो जाते जबकि सज्जन आदमी हमेशा ही संषर्घ करता रहता है।  यह उनका अज्ञान है।  इस ंसंसार के सभी लोग परमात्मा की कृपा से मनुष्य योनि में हैं।  देव और दैत्य उसी के बनाये हैं।  अपने कर्मों के अनुसार ही सभी सुख दुःख भी भोगते हैं।   
              धनी कहें निर्धन सुखी और निर्धन कहे धनी सुखी है पर सच यह है कि जिसने जीवन में परमात्मा के नाम का स्मरण करना सीख लिया वह हर स्थिति में प्रसन्न चित रहता है।  सभी लोग एक दूसरे के बाह्य रूप देखकर अपनी राय बनाते हैं पर अंतर्मन की हलचल किसी को दिखाई नहीं देती। आचरणहीनता से धन कमाने वालों के महल भी नरक तो ईमानदारी से कमाने वाले की कुटिया भी स्वर्ग जैसी बन जाती है। यही ईमानदारी सात्विकता की पहचान है।
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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
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Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
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