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Sunday, September 29, 2013

विदुर नीति-दूसरे के आक्रोशित वचन पर क्षमा की नीति अपनायें(vidur neeti-doosre ke akroshit vacha par kshama ki neeti apnayen)



            शक्ति की पहचान किसी पर आक्रमण करने से नहीं वरन् सहनशीलता दिखाने पर होती है। हमारे देश में थोड़ी थोड़ी बात पर विवाद होने पर भारी हिंसा हो जाती है। इतना ही नहीं भाषा, जाति, धर्म, तथा क्षेत्र के नाम पर बने समूहों में अनेक बार आपसी संघर्ष हो जाते हैं।  इन समूहों के शिखर पुरुषों आपस में उठते बैठते हैं पर अवसर आने पर इस तरह लड़ते हैं जैसे कि उनका पूरा जीवन ही अपने समूहों के कल्याण के लिये अर्पित हो।  दरअसल यह उनका पाखंड होता है। इस तरह वह विभिन्न समूहों को आपस में लड़ाकर आम जन की स्थिति कमजोर करते हैं।  इससे वह डर जाता है और अपने ही शिखर पुरुषों के प्रति वफादार बना रहता है।  ऐसे शिखर पुरुष हमेशा ही फूट डालो और राज्य करोकूटनीति का सहारा लेते हैंे।  वह जानते हैं कि लोगों में अपनी जाति, भाषा, धर्म और क्षेत्र को लेकर एक विशेष प्रकार का पूर्वाग्रह रहता है और वह अपने समूहों के सम्मान का मिथ्या अहंकार पालते हैं।  समूहों के अंतर्गत भले ही सदस्यों के आपसी विवाद होते हैं पर किसी अन्य समूह के सदस्य से विवाद हो जाये तो वह सामूहिक संघर्ष में बदलने का प्रयास इन्हीं शिखर पुरुषों के माध्यम से किया जाता है।  यही कारण है कि प्राचीन समय से भारत एक विभाजित राष्ट्र रहा।  राजाओं के मध्य छोटी छोटी बातों पर संघर्ष होते रहते थे जिसके कारण धीरे धीरे विदेशी आक्रांता यहां स्थापित होते गये।
            हमारे देश में अहिंसा के सिद्धांत का प्रचार अनेक महापुरुषों ने किया है। इसका कारण यह है कि प्राचीन काल में इस तरह के हिंसक सामूहिक संघर्ष होते रहे हैं।  खासतौर से जब भाषा, संस्कृति और धर्म एक हों पर क्षेत्रों के राजा प्रथक हों तब लोगों के बीच इस तरह के विवाद होते ही रहे होंगे। राजसी प्रवृत्ति अहंकार के भाव को जन्म देती है और वही हिंसा के परिणाम की सृजक है।  अहंकार वश आदमी अपने ही समूह में दूसरे लोगों  को अपने आगे कुछ नहीं समझता और सामूहिक विषय हो तो एक समूह दूसरे को अपने से हेय प्रमाणित करने के लिये पूरी शक्ति लगा देता  है।  कहने का अभिप्राय यह है कि व्यक्तिगत और सामूहिक रूप से  एक दूसरे को अपमानित करने का प्रयास का अवसर मिलने पर उसका उपयोग करने से   कोई नहीं चूकता। यही कारण है कि हमारे देश की छवि ऐसे संघर्षों के कारण विश्व में कभी अच्छी नहीं  रही।
विदुरनीति में कहा गया है कि
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आक्रुश्यमानो नाक्रोशेन्मन्युरेव तितिक्षतः।
आक्रोष्टारं निर्दहति सुकुतं चास्य विन्दवि।।
          हिन्दी में भावार्थ-कोई मनुष्य दूसरे के आक्रोशित वचन बोलने पर भी  उसे क्षमा कर दे तो  रुका हुआ प्रतिआक्रोश उस दूसरे व्यक्ति को जला डालता है। उसके सारे पुण्य नष्ट हो जाते हैं।
नाक्रोशी स्यान्नवमानी परस्य मित्रद्रोही नोत नीचोपसेवी।
न चाभिमानी न च हीनवृत्तो रूक्षां वांच रुषर्ती वर्जयीत।।
          हिन्दी में भावार्थ-दूसरे के प्रति न आक्रोशित वचन कहें न किसी का अपमान करें। न मित्रों से द्रोह करें तथा नीच पुरुषों की कतई सेवा न करें। सदाचार से हीन एंव अभिमान न हो। रुखी तथा रोष भरी वाणी का परित्याग करें।
            हमारे देश में आज भी हालत कोई बेहतर नहीं है।  राजशाही की बजाय लोकतंत्र की व्यवस्था स्थापित हो गयी पर इसके बावजूद सामूहिक संघर्ष होते रहते हैं।  इसका कारण यही है कि लोग मौका मिलने पर  अपना आक्रोश तो व्यक्त करते हैं पर दूसरे का समझ नहीं पाते।  एक आक्रोशित वचन कहता है तो दूसरा उससे भी ज्यादा आक्रामक होकर बोलता है।  इस प्रवृत्ति का त्याग कर देना चाहिये।  जब कोई एक आदमी के साथ दूसरा बदतमीजी करता है और वह खामोश रहता है तो बदतमीज आदमी को ही उसका पाप पीछे लगकर दंड देता है।  हालांकि दूसरे का अपमान झेलने में सहनशीलता की शक्ति होना आवश्यक है। यह शक्ति बाहर प्रत्यक्ष प्रहार नहीं करती वरन् अप्रत्यक्ष रूप से इसका प्रभाव दिखाई देता है।
            इस क्षमा प्रवृत्ति के साथ ही  यह भी निश्चय करना चाहिये कि कभी किसी का अपमान नहीं करेंगे। न ही मित्रों के साथ विश्वासघात करेंगे और न ही नीच पुरुषों के सेवा करेंगे तो जो अंततः समाज के लिये घातक होते हैं।  इस तरह हम समाज के सुधरने की बजाय स्वयं ही सुधर जायें यही हमारे लिये अच्छा है।

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 


Sunday, September 22, 2013

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-बुद्धिमान क्लेश के समय भी अपना जीवन शुद्ध रखे(kautilya ka arthsharta-buddhiman klish ke samay bhi apna jiwan shuddh rakhen)



                        सांसरिक जीवन में उतार चढ़ाव आते ही रहते हैं। हम जब पैदल मार्ग पर चलते हैं तब कहीं सड़क अत्यंत सपाट होती है तो कहीं गड्ढे होते हैं। कहीं घास आती है तो कहंी पत्थर पांव के लिये संकट पैदा करते हैं।  हमारा जीवन भी इस तरह का है। अगर अपने प्राचीन ग्रंथों का हम निरंतर अभ्यास करते रहें तो मानसिक रूप से परिपक्वता आती है। इस संसार में सदैव कोई विषय अपने अनुकूल नहीं होता। इतना अवश्य है कि हम अगर अध्यात्मिक रूप से दृढ़ हैं तो उन विषयों के प्रतिकूल होने पर सहजता से अपने अनुकूल बना सकते हैं या फिर ऐसा होने तक हम अपने प्रयास जारी रख सकते हैं।  दूसरी बात यह भी है कि प्रकृति के अनुसार हर काम के पूरे होने का एक निश्चित समय होता है।  अज्ञानी मनुष्य उतावले रहते हैं और वह अपने काम को अपने अनुकूल समय पर पूरा करने के लिये तंत्र मंत्र तथा अनुष्ठानो के चक्कर पड़ जाते हैं।  यही कारण है कि हमारे देश में धर्म के नाम पर अनेक प्रकार के पाखंडी सिद्ध बन गये हैं। ऐसे कथित सिद्धों की संगत मनुष्य को डरपोक तथा लालची बना देती है जो कथित दैवीय प्रकोप के भय से ग्रसित रहते हैं।  इतना ही नहीं इन तांत्रिकों के चक्कर में आदमी इतना अज्ञानी हो जाता है कि वह तंत्र मंत्र तथा अनुष्ठान को अपना स्वाभाविक कर्म मानकर करता है।  उसके अंदर धर्म और अधर्म की पहचान ही नहीं रहती।
कौटिल्य के अर्थशास्त्र में कहा गया है कि
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अपां प्रवाहो गांङ्गो वा समुद्रं प्राप्य तद्रसः।
भवत्यपेयस्तद्विद्वान्न्श्रयेदशुभात्कम्।।
                        हिन्दी में भावार्थ-गंगाजल जब समुद्र में मिलता है तो वह पीने योग्य नहीं रह जाता। ज्ञानी को चाहिये कि वह अशुभ लक्षणों वाले लोगों का आश्रय न ले अन्यथा उसकी स्थिति भी समुद्र में मिले गंगाजल की तरह हो जायेगी।
किल्श्यन्नाप हि मेघावी शुद्ध जीवनमाचरेत्।
तेनेह श्लाध्यतामेति लोकेश्चयश्चन हीयते।।
                        हिन्दी में भावार्थ-बुद्धिमान को चाहे क्लेश में भी रहे पर अपना जीवन शुद्ध रखे इससे उसकी प्रशंसा होती है। लोकों में अपयश नहीं होता।
                        हमारे देश में अनेक ज्ञानी अपनी दुकान लगाये बैठे हैं। यह ज्ञानी चुटकुलों और कहानियों के सहारे भीड़ जुटाकर कमाई करते हैं। इतना ही नहीं उस धन से न केवल अपने लिये राजमहलनुमा आश्रम बनाते हैं बल्कि दूसरों को अपने काम स्वयं करने की सलाह देने वाले ये गुरु अपने यहां सारे कामों के लिये कर्मचारी भी रखते हैं।  एक तरह से वह धर्म के नाम पर कपंनियां चलाते हैं यह अलग बात है कि उन्हें धर्म की आड़ में अनेक प्रकार की कर रियायत मिलती है।  मूल बात यह है कि हमें अध्यात्मिक ज्ञान के लिये स्वयं पर ही निर्भर होना चाहिये। दूसरी बात यह भी है कि ज्ञान होना ही पर्याप्त नहीं है बल्कि उसे धारण भी करना चाहिये।  यही बुद्धिमानी की निशानी है। बुद्धिमान व्यक्ति तनाव का समय होने पर भी अपनी मर्यादा नहीं छोड़ता।  यही कारण है कि बुरा समय निकल जाने के बाद वह प्रतिष्ठा प्राप्त करता है।  लोग उसके पराक्रम, प्रयास तथा प्रतिबद्धता देखकर उसकी प्रशंसा करते हैं।

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 


Sunday, September 15, 2013

मनुस्मृति के आधार पर चिंत्तन-बालक यदि अनाचार होतो उसे भी कड़ा दंड देना चाहिये( thought article based on manu smriti-balak yadi anachari ho to use bhee kada dan dena chahiye)




                        हमारे देश में यह देखा गया है कि अनेक नाबालिग युवक बलात्कार और हत्या के आरोप में लिप्त पाये जा रहे हैं।  हमारे देश में किशोर अपराधियों के लिये अलग से कानून है पर उसकी व्याख्या अनेक आम लोगों की समझ में नहीं आती। क्या किसी युवक की आयु अट्ठारह वर्ष से तीन, चार, या छह माह से कम हो तो उसका अपराध इसलिये कम हो जाता है कि वह बालिग नहीं है। प्रकृति का ऐसा कौनसा नियम है कि अट्ठारह वर्ष होने पर व्यक्ति को पूर्ण ज्ञान हो जाता है, अगर उसकी यह आयु एक महीने या पंद्रह दिन भी कम हो तो इसका मतलब यह है कि वह पूर्ण ज्ञानी नहीं है। हास्यास्पद तो बात तब होगी जब किसी ने बालिग होने के एक दिन पहले अपराध किया हो और उस पर किशोरो के अपराध वाले कानून के तहत मुकदमा चले। दूसरी बात यह है कि बुद्धि का कौनसा पैमाना है कि यह मान लिया जाये कि मनुष्य सोलह वर्ष की आयु में कम ज्ञानी और अट्ठारह वर्ष होने पूर्ण ज्ञानी हो जाता है।
                        अभी एक मामला सामने आया जिसमें एक सामूहिक बलात्कार तथा हत्या के आरोप में एक नाबालिग होने के बात सामने आयी।  हैरानी की बात यह है कि इसी नाबालिग ने ही सबसे बड़ा अपराध में बढ़चढ़कर भाग लिया था पर उसे किशोर न्याय के नियमों के अनुसार हल्की सजा दी गयी।  उसके सहअपराधियों ने स्पष्ट किया कि हमें उकसाने तथा सर्वाधिक अपराध करने में उसी का हाथ है।  जब मामला सामने आया तो पता नहीं जांच एजेंसियां उम्र का विषय क्यों लेकर बैठ गयीं? दूसरी बात यह कि उसकी आयु की जांच स्वास्थ्य विशेषज्ञों से ही कराने की बात कही गयी, पर पता नहीं वह हुई कि नहीं- कहीं पढ़ा या सुना था बाद में इस बारे में कोई खबर नहीं मिली।  हमारा मानना है कि इस प्रकरण को मनोवैज्ञानिकों के पास भी भेजा जाये। वही जांच करें कि उस कथित नाबालिग की बौद्धिक आयु क्या है? जिन लोगों का जांच और अभियोजन काम काम है उन्हें मनोविज्ञानिक आधार भी लेना चाहिये।  यह कानून में नहीं लिखा है पर यह भी कहां लिखा है कि अपराध जघन्य होने पर बौद्धिक आयु का परीक्षण नहीं होगा अथवा अपराध की प्रकृत्ति देखकर यह निर्णय नहीं होगा कि यह अपराध करना ही बालिग होने का प्रमाण है। खासतौर से तब जब नाबालिग अपराधी पर पहले भी अपराधिक प्रकरण दर्ज होने की बात सामने आती हो-यह भी कहीं हमने पढ़ा या सुना था।  एक अध्यात्मिक ज्ञान साधक होने के आधार पर हमारी यह राय है कि अपराध की प्रकृत्ति देखा जाना चाहिये।  अगर दिन या माह की कमी से अपराध की प्रकृत्ति करे कम माना जायेगा तो न्याय में विसंगतियां अवश्य आयेंगी।
मनुस्मति में कहा गया है कि
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गुरुं वा बालबुद्धौ वा ब्राह्म्ण वा बहुतश्रुतम।
अतितायिनमायांन्तं हन्यादेवाविचारवन्।।
हिन्दी में भावार्थ-यदि गुरु, बालक, वृद्ध या विद्वान या बहुचर्चित मनुष्य अत्याचारी हो तो उसे मृत्युदंड दिया जाना चाहिये।     
परस्य पत्न्या पुरुषः सम्भाषां योजयन् रहः।
पूर्वामाक्षारितो दोषैः प्राप्नुयात्पूर्वसाहसम्।।
                        हिन्दी में भावार्थ-जो मनुष्य पहले से ही कुख्यात हो और परायी स्त्री से अकेेले में मिलने का प्रयास करता हो उसे भी कड़ा दंड देना चाहिये।
                        हमारे देश में पश्चिमी सभ्यता के अनुसार कानून बनते हैं। इतना ही नहीं जघन्य अपराधियों के लिये मानव अधिकारों जैसे प्रश्न उठाये जाते हैं।  यह माना जाता है कि सभी मनुष्य दैवीय प्रकृत्ति के हैं और अगर किसी से गलती हो जाये तो उसे सुधारा जा सकता है। इसके विपरीत हमारा अध्यात्मिक दर्शन मानता है कि आसुरी प्रकृत्ति के लोगों को कभी सुधारा नहीं जा सकता। भारतीय क्षेत्र की प्रकृत्ति ऐसी है कि यहां यदि आदमी दैवीय प्रकृत्ति  का है तो वह छोटे अपराध करने से भी डरता है और आसुरी है तो सिवाय अपराध के उसे कुछ नहीं सूझता।  यही कारण है कि मनुस्मृति में अपराधों के लिये कड़े दंड का प्रावधान किया गया है। दूसरी बात यह भी है कि अपराध और अत्याचार में अंतर होता है। अपराध हो तो किसी नाबालिग  पर पश्चिमी आधार पर बने कानून के अनुसार मामला चले हम इसका प्रतिवाद नहीं करते पर जब अत्याचार का मामला हो तब कम से कम हमने अध्यात्मिक दर्शन के आधार पर इसका समर्थन करना थोड़ अजीब लगता है।  हमारा यह तो मानना है कि बालिग की आयु अट्ठारह वर्ष ही रहे। किशोर कानून भी बना है तो बुरी बात नहीं है पर जघन्य अपराध के समय इस विषय की अनदेखी करते हुए अपराधियों को न्यायालय के समक्ष पेश करना चाहिये।  हमारे देश के न्यायाधीशों में इतनी विद्वता है कि वह इस बात को समझेंगे मगर उनके सामने अभियोजन पक्ष को ही मामला लाना होता है वह स्वयं कोई ऐसा आदेश नहीं दे सकते।  अगर देंगे तो तमाम तरह के विवाद खड़े कर न्यायालयों पर टिप्पणियां करने वाले कथित मानवाधिकार कार्यकर्ता भी इस देश में कम नहीं है। इन कार्यकर्ताओं का मुख्य लक्ष्य चर्चित मामलों में अपनी टांग फंसाकर प्रचार पाना होता है। यही कार्यकर्ता मनुस्मृति को भी अप्रासंगिक मानते हैं क्योंकि उनको अपने प्रसंगों के माध्यमों से प्रचार तथा लोकप्रियता मिलती है।          

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 


Sunday, September 8, 2013

विदुर नीति-पुरूष में शील प्रधान होता है(vidur neeti-purush mein sheel pradhan hota hai)



       अगर हम आज देश के हालात देखें तो भारी निराशा हाथ लगती है।  सभी लोग देश में व्याप्त भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, महंगाई तथा अपराध कम  के लिये कमर कसने की बात तो करते हैं पर फिर भी कोई बड़ा अभियान इसके लिये छेड़ा नहीं जा पाता।   विगत समय में एक भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन हुआ था पर उसकी परिणति अत्यंत निराशाजनक ढंग से हुई।  इसका कारण यह है कि हमारा देश अब सामाजिक रूप से शक्तिशाली नहीं रहा।  समस्त प्राचीन सामाजिक संस्थायें ध्वस्त हो गयी हैं।  जो बची हैं वह निष्काम रहने की बजाय अपने साथ आर्थिक, राजनीतिक तथा प्रचार करने की कामना के साथ कार्यरत हैं।  ईमानदारी की बात यह है कि समाज, अर्थ, कला साहित्य, पत्रकारिता, राजनीति, फिल्म और धर्म के क्षेत्रों में शिखर पर बैठे लोगों ने कांच के महल बना लिये हैं और इसलिये कोई किसी पर पत्थर फैंकने का सामर्थ्य नहीं रखते।
            हमारे देश में अनेक विद्वान क्रांति की बातें करते हैं। समाज में बदलाव का नारा लगाते हुए थकते नहीं है। विचारधाराओं में बंटे यह विद्वान समाज को बदल तो नहीं पाये पर उसे तोड़ डालने में सफल हो गये हैं। आज स्थिति यह है कि नैतिकता, पवित्रता, विचारशीलता तथा कार्यक्षमता के आधार पर हमार समाज का आधार अत्यंत  कमजोर हो गय गया है। जब किसी शिखर पुरुष के निजी आचरण की बात होती है तो हमारे देश के  बौद्धिक वर्ग के लेाग उसके सार्वजनिक जीवन की प्रशंसा तो करना चाहते हैं पर निजी आचरण पर चर्चा करने से बचते है क्योंकि देखा यह जा रहा है कि बहुत कम ऐसे बड़े लोग हैं जिनका निजी चरित्र बेदाग हैं। इतना ही नहीं हमारे देश के कुछ सामाजिक विद्वान तो यह मानते हैं कि लड़की का चरित्र मिट्टी के बर्तन की तरह है एक बार टूटा तो फिर उसके जीवन का आधार कमजोर हेाता है जबकि लड़के का चरित्र पीतल के बर्तन की तरह जो गंदा होने या टूटने पर फिर से संवर सकता है।  हमारा अध्यात्मिक दर्शन इसे स्वीकार नहंी करता।

विदुर नीति में कहा गया है कि
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शीलं प्रधानं पुरुषे तद् यस्येह प्रणश्यति।
न तस्य जीवितेनार्थो न धनेन न बन्धुभिः।।
                        हिन्दी में भावार्थ-किसी पुरुष में उसका शील ही प्रधान होता है। वह नष्ट हो तो फिर पुरुष का जीवन, धन और बंधुओं से कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता।
आत्मानमेव प्रथमं द्वेष्यरूपेण बीजायेत्।
ततोऽमात्यानमित्रांश्च न मोघं विजिगीषते।
                        हिन्दी में भावार्थ-जो मनुष्य इंद्रियों के साथ ही मन को भी शत्रु मानकर जीत लेता है वही बाहरी शत्रुओं को जीतने में सफलता प्राप्त कर सकता है।

                        हमारे दर्शन के अनुसार जिस पुरुष का चरित्र शुद्ध है वही पवित्र विचार रखने के साथ ही अनैतिकता से लड़ने का सामर्थ्य रखता है।  जिसका चरित्र कमजोर है उसे स्वयं का पता होता है इसलिये वह कभी किसी अस्वच्छ चरित्र, अपवित्र विचारवान तथा अधर्म के लिये तत्पर दुष्टों से लड़ने का साहस नहीं दिखाते।  इतना ही नहीं अब तो यह भी देखा गया है कि दुष्ट प्रवृत्ति के लोगों को समाज के कथित शिखर पुरुष अपनी स्वच्छ छवि के पीछे छिपाते हैं। अनेक लोगों को तो इसके विपरीत कहना है कि समाज के शिखरों पर कथित रूप से स्वच्छ छवि वाले चेहरे लाने वाले वही लोेग हैं जिनको अपने चरित्र पर लगे दागों की वजह से प्रतिष्ठा वाले शिखर पदों पर बैठना संभव नहीं लगता।  स्थिति यह है कि अर्थ, धर्म, कला, साहित्य, फिल्म तथा धर्म के क्षेत्र के शिखरों पर बैठे लोग दुष्टों को संरक्षण देने या उनसे पाने के लिये लालायति रहते हैं।  यही कारण है कि हमारे देश में अब विश्वास का संकट पैदा हो गया है। किस पर यकीन करें या नहीं लोग अब इस बात को  लेकर द्वंद्व में रहने लगे हैं।  प्रचार माध्यमों में हमारे अनेक प्रकार के शत्रु बताये जाते हैं पर सच यह है कि हमारा सबसे बड़ा शत्रु हमारे चरित्र का ही संकट है।  हम देश की विश्व में प्रतिष्ठा भी देखना चाहते हैं और विदेशीमुद्रा पर आश्रित हैं। हमारा देश भारी कर्ज के साथ सांस ले रहा है।
      हमारे देश में अध्यात्म के नाम पर मनोरंजन बिकता है इसलिये उसके वास्तविक संदेशों का ज्ञान किसी को नहीं है। सच बात तो यह है कि हमें अपने अध्यात्मिक दर्शन के साथ जुड़े रहें और इस बात पर विचार न करें कि हमारा समाज किधर जा रहा है बल्कि हम यह तय करें कि हमें कहां जाना है?

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 


Sunday, September 1, 2013

मनु स्मृति-स्वस्थ लोग ही प्रजाहित का काम कर सकते हैं (swasth log he prajahit ka kama kar sakte hain, jo fit hai vahi hit hai-manu smriti ke aadhar par chinttan)



                        हमारे दर्शन के अनुसार पूर्णतः स्वस्थ होने पर ही किसी मनुष्य को राजसी कर्म करना चाहिये। ऐसे में जिन लोगों पर राज्य का भार है उनको प्रजा हित के लिये अधिक ही परिश्रम करना होता है इसलिये उनका पूर्णतः स्वस्थ होना आवश्यक है।  आधुनिक लोकतंत्र ने पूरे विश्व में राज्य व्यवस्थाओं में इस नीति का पालन नहीं किया जा रहा है। आज तो सभी देशों में यही देखा जाता है कि चुनाव में कौन जीत सकता है? चुनाव जीतने की योग्यता और क्षमता ही राज्यपद पाने का एक आधार बन गयी है।  ऐसे में अनेक देशों के राज्य प्रमुख शासन में आने के बाद जनता में अपनी लोकप्रियता खो देते हैं। दूसरी बात यह भी है कि पद की अवधि पांच या छह साल होती है उसमें राज्य पद पर प्रतिष्ठित होने पर व्यक्ति की चिंतायें प्रजा हित से अधिक अपने चुनाव के लिये चंदा देने वालों का उधार चुकाने या फिर अगले चुनाव में फिर अपना पद बरबकरार रहने की होती है।  कुछ समय विपक्षियों का सामना करने तो बाकी समय जनता के सामने नये वादे करते रहने में लग जाता है।
                        अनेक देशों के राज्य प्रमुख शारीरिक, मानसिक तथा वैचारिक दृष्टि से अस्वस्थ होने के बावजूद सत्ता रस पीते रहते हैं। राज्य के अधिकारी भी अपनी नौकरी चलाते हुए केवल राज्य प्रमुख की कुर्सी बचाये रखने में अपना हित समझते हैं। विश्व प्रसिद्ध चिंत्तक कार्लमार्क्स ने अपने पूंजी नामक पुस्तक में इन पूंजीपतियों के हाथ लग चुकी व्यवस्थाओं की चर्चा बहुत की है।  यह अलग बात है कि उसके अनुयायियों ने भी अपने शासित राष्ट्रों में शारीरिक, मानसिक तथा वैचारिक दृष्टि से बीमार लोगों को उच्च पदों पर बैठाये रखा और बेबस जनता तानाशाही की वजह से उनको ढोती रही।  वामपंथी व्यवस्था में बौद्धिकों को वैचारिक मध्यस्थ बन कर मजे लूटने की सुविधा मिलती है इसलिये वह जनहित की बातें बहुत करते हैं पर अपने शिखर पुरुषों की शारीरिक, मानसिक तथा वैचारिक अस्वस्थता को निजी विषय बताते हैं।  मजे की बात यही है कि यही वामपंथी बौद्धिक मध्यस्था मनुस्मृति का जमकर विरोध करते हैं।
मनुस्मृति में कहा गया है कि
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अमात्यंमुख्यं धर्मज्ञं प्राज्ञं दान्तं कुलोद्भवम्।
स्थापयेदासने तस्मिन् खिन्नः कार्येक्षणे नृणाम्।।
                        हिन्दी में भावार्थ-जब राज्य प्रमुख अपने खराब स्वास्थ्य की वजह से प्रजाहित के कार्यों का निरीक्षण करने में असमर्थ हो तब उसे अपना कार्यभार किसी बुद्धिमान, जितेन्द्रिय, सभ्य तथा शिष्ट पुरुष को सौंप देना चाहिये।
विक्रोशन्त्यो यस्य राष्ट्राद्धियन्ते दस्युभिः प्रजाः।
सम्पतश्यतः सभृत्यस्य मृतः स न तु जीवति।।
                        हिन्दी में भावार्थ-उस राजा या राज्य प्रमुख को जीवित रहते हुए भी मृत समझना चाहिये जिसके अधिकारियों के सामने ही डाकुओं से लूटी जाती प्रजा हाहाकर मदद मांगती है पर वह उसे बचाते ही नहंी है।
                        सामान्य सिद्धांत तो यही है कि अस्वथ्यता की स्थिति में राज्य प्रमुख किसी गुणी आदमी को अपना पदभार सौप दे पर होता यह है कि वामपंथी विचारक शिखर पर बैठे पुरुष को अपने अनुकूल पाते हैं तो वह उसकी जगह किसी दूसरे को स्वीकार नहंी करते। दूसरी बात यह है कि आजकल के राज्य प्रमुखों में इतनी मानवीय चतुराई तो होती है कि वह अपने बाद के दावेदारों को आपस में लड़ाये रखते है ताकि कोई उसकी जगह कोई दूसरा नहीं ले सके। अनेक जगह तो राज्य प्रमुख इस तरह की व्यवस्था कर देते हैं कि उनके बाद उनके परिवार के सदस्यों को ही जगह मिले। वामपंथियों के सबसे बड़े गढ़ चीन में भी अब शासन में परिवारवाद आ गया है।  वामपंथियों ने शायद इसलिये ही हमेशा मनुस्मृति का विरोध किया है ताकि उसकी सच्चाई से आम लोग अवगत न हों और उनका छद्म समाज सुधार का अभियान चलता रहे।
                        हम आजकल पूरी विश्व अर्थव्यवस्था चरमराने की बात करते हैं। उसका मुख्य कारण यही है कि अनेक महत्वपूर्ण देशों का शासन पुराने राजनीतिक सिद्धांतों की अनदेखी कर चलाया जा रहा है। स्थिति यह है कि तानाशाही व्यवस्था हो या लोकतांत्रिक सत्य कहने का अर्थ अपने लिये शत्रुओं का निर्माण करना होता है। अपनी आलोचना सहन करने के लिये पर्याप्त प्राणशक्ति बहुत कम लोगों में रह गयी है। इसका मुख्य कारण शारीरिक, मानसिक तथा वैचारिक अस्वस्थता ही है।

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 


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