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Thursday, April 28, 2011

दहेज प्रथा हिन्दू धर्म की रक्षा में सबसे अधिक बाधक-हिन्दी धार्मिक चिंत्तन (hindi dharma aur dahej pratha or dowri sistem-hindi dharmik chittan)

                    भारत में कन्या शिशु की गर्भ में ही भ्रुण हत्या एक भारी चिंता का विषय बनने लगा है। इससे समाज में लिंग संतुलन बिगड़ गया है जिसके भयानक परिणाम सामने आ रहे हैं। सामाजिक विशेषज्ञ बरसों से इस बात की चेतावनी देते आ रहे हैं कि इससे समाज में स्त्रियों के विरुद्ध अपराध बढ़ेगा। अब यह चेतावनी साक्षात प्रकट होने लगी है। ऐसे अनेक प्रकरण सामने आ रहे हैं जिसमें लड़कियों के साथ सामूहिक बलात्कार कर उनकी हत्या कर दी जाती है। स्थिति इतनी बदतर हो गयी है कि बड़ी आयु की महिलायें भी अपने पुत्र या पुत्री की आयु वर्ग के अपराधियों का शिकार होने लगी है। हम अगर कन्या भ्रुण हत्या को अगर एक समस्या समझते हैं तो अपने आपको धोखा देते हैं। दरअसल यह सामाजिक समस्याओं का विस्तार है। इनमें दहेज प्रथा शामिल है। लोग दहेज प्रथा समस्या के दुष्परिणामों के बृहद स्वरूप को नहीं समझते। जहां अमीर आदमी अपनी लड़कियों को ढेर सारा दहेज देते हैं तो गरीब भी कन्या को दान करने के लिये लालायित रहता है। यह लालसा समाज में प्रतिष्ठा अर्जित करने के अहंकार भाव से उपजती है। दहेज के विषय पर हमारे अनेक विद्वान अपनी असहमति देते आये है। दरअसल एक समय अपनी औकात के अनुसार अपनी पुत्री को विवाह के समय भेंट आदि देकर माता पिता घर से विदा करते थे पर अब यह परंपरा पुत्रों के लिये विवाद के समय उनके माता पिता का अधिकार बन गयी है।
               इस विषय पर गुरुवाणी में कहा गया है कि
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'होर मनमुख दाज जि रखि दिखलाहि,सु कूड़ि अहंकार कच पाजो'
                "लड़की के विवाह में ऐसा दहेज दिया जाना चाहिए जिससे मन का सुख मिले और जो सभी को दिखलाया जा सके। ऐसा दहेज देने से क्या लाभ जिससे अहंकार और आडम्बर ही दिखाई दे।"
                  अब पुत्र के माता पिता उसकी शादी में खुल्लम खुला सौदेबाजी करते हैं। कथित प्राचीन संस्कारों के नाम पर आधुनिक सुविधा और साधन की मांग करते हैं। नतीजा यह है कि समाज अब अपने बच्चों की शादी करने तक ही लक्ष्य बनाकर सिमट गया है। यही कारण है कि संचय की प्रवृत्ति बढ़ी है और लोग अनाप शनाप ढंग से पैसा बनाकर शादी के अवसर उसका प्रदर्शन करते हैं। देखा जाये तो किसी की शादी स्मरणीय नहीं बन पाती पर उसे इस योग्य बनाने के लिये पूरा समाज जुट जाता है। शादी में दिया गया सामान एक दिन पुराना पड़ जाता है। भोजन में परोसे गये पकवान तो एक घंटे के अंदर ही पेट में कचड़े के रूप में परिवर्तित हो जाते हैं मगर पूरा समाज एक भ्रम को स्मरणीय सत्य बनाने के लिये अपना पूरा जीवन नष्ट कर डालता है। दहेज प्रथा एक ऐसा शाप बन गयी है जिससे भारतीय लोग वरदान की तरह ग्रहण करते हैं। जब पुत्र पैदा होता है तो माता पिता के भी माता पिता प्रसन्न होते हैं और लड़की के जन्म पर पूरा खानदान नाकभौ सिकोड़ लेता है। इसी कारण समाज में कन्या भ्रुण हत्या एक फैशन बन गयी है। अगर दहेज प्रथा समाज ने निजात नहीं पायी तो पूर्णता से संस्कृति नष्ट हो जायेगी। फिर किसी समय हमारी धार्मिक परंपरा तथा सभ्यता इतिहास का विषय होगी।
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संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
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Tuesday, April 26, 2011

भर्तृहरि नीति शतक-जहर फैलाने वालों की प्रशंसा न करें (jahar failane valon kee prashansa na karen-bhratrihari niti shatak)

                   उच्च पदस्थ, धनवानों तथा बलिष्ठ लोगों को समाज में सम्मान से देखा जाता है और इसलिये उनसे मित्रता करने की होड़ लगी रहती है। जब समाज में सब कुछ सहज ढंग से चलता था तो जीवन के उतार चढ़ाव के साथ लोगों का स्तर ऊपर और नीचे होता था फिर भी अपने व्यवहार से लोगों का दिल जीतने वाले लोग अपने भौतिक पतन के बावजूद सम्मान पाते थे। बढ़ती आबादी के साथ राज्य करने के तौर तरीके बदले। समाज में राज्य का हस्तक्षेप इतना बढ़ा गया कि अर्थ, राजनीति तथा सांस्कृतिक क्षेत्र में राजनीति का दबाव काम करने लगा है। इससे समाज में लोकप्रियता दिलाने वाले क्षेत्रों में राज्य के माध्यम से सफलता पाने के संक्षिप्त मार्ग चुनने की प्रक्रिया लोग अपनाने लगे। स्थिति यह हो गयी है कि योग्यता न होने के बावजूद केवल जुगाड़ के दम पर समाज में लोकप्रियता प्राप्त कर लेते हैं। दुष्ट लोग जनकल्याण का कार्य करने लगे है। हालत यह हो गयी है कि दुष्टता और सज्जनता के बीच पतला अंतर रह गया है जिसे समझना कठिन है। व्यक्तिगत जीवन में झांकना निजी स्वतंत्रा में हस्तक्षेप माना जाता है पर सच यही है कि जिनका आचरण भ्रष्ट है वही आजकल उत्कृष्ट स्थानों पर विराजमान हो गये है। उनसे समाज का भला हो सकने की आशा करना स्वयं को ही धोखा देना है।
                   इस विषय में भर्तृहरि महाराज कहते हैं कि
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               आरंभगुर्वी क्षयिणी क्रमेण लघ्वी पुरा वृद्धिमति च पश्चात्।
             दिनस्य पूर्वाद्र्धपराद्र्ध-भिन्ना छायेव मैत्री खलसज्जनानाम्।।
              "जिस तरह दिन की शुरूआत में छाया बढ़ती हुई जाती है और फिर उत्तरार्द्ध में धीरे-धीरे कम होती जाती है। ठीक उसी तरह सज्जन और दुष्ट की मित्रता होती है।"
               दुर्जनः परिहर्तवयो विद्ययाऽलङ्कृतोऽपि सन्।
               मणिनाः भूषितः सर्पः किमसौ न भयंकर।।
"इसका आशय यह है कि कोई दुर्जन व्यक्ति विद्वान भी हो तो उसका साथ छोड़ देना चाहिए। विषधर में मणि होती है पर इससे उससे उसका भयंकर रूप प्रिय नहीं हो जाता।"
           कभी कभी तो ऐसा लगता है कि विद्वता के शिखर पर भी वही लोग विराजमान हो गये हैें जो इधर उधर के विचार पढ़कर अपनी जुबां से सभाओं में सुनाते हैं। कुछ तो विदेशी किताबों के अनुवाद कर अपने विचार इस तरह व्यक्त करते हैं जैसे कि उनका अनुवादक होना ही उनकी विद्वता का प्रमाण है। उनके चाटुकार वाह वाह करते हैं। परिणाम यह हुआ है कि अब लोग कहने लगे हैं कि शैक्षणिक, साहित्यक तथा धार्मिक क्षेत्रों में अब नया चिंतन तो हो नहीं रहा उल्टे लोग अध्ययन और मनन की प्रक्रिया से ही परे हो रहे हैं। जैसे गुरु होंगे वैसे ही तो उनके शिष्य होंगे। शिक्षा देने वालों के पास अपना चिंतन नहीं है और जो उनकी संगत करते हैं उनको भी रटने की आदत हो जाती है। ज्ञान की बात सभी करते हैं पर व्यवहार में लाना तो विरलों के लिऐ ही संभव हो गया है।
            अब तो यह हालत हो गयी है की अनेक लोगों को मिलने वाले पुरस्कारों पर ही लोग हंसते हैं। जिनको समाज के लिये अमृतमय बताया जाता है उनके व्यवसाय ही विष बेचना है। सम्मानित होने से वह कोई अमृत सृजक नहीं बन जाते। इससे हमारे समाज की विश्व में स्थिति तो खराब होती है युवाओं में गलत संदेश जाता है। फिल्मों में ऐसे गीतों को नंबर बताकर उनको इनाम दिये जाते हैं जिनका घर में गाना ही अपराध जैसा लगता है। फिल्म और टीवी में माध्यम से समाज में विष अमृत कर बेचा जा रहा है। ऐसे में भारतीय अध्यात्म दर्शन से ही यह आशा रह जाती है क्योंकि वह समाज में ज्ञान का प्रकाश फैलाये रहता है।
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Friday, April 22, 2011

अवाच्यो तु या स्त्री स्वादसम्बद्धा य योनितः।
भोभवत्पूर्वकं त्वनेमभिभाषेत धर्मवित्।।
                  "धर्म का ज्ञान रखने वाले को चाहिए कि वह दूसरे ज्ञानी को कभी भी नाम से संबोधित न करे भले ही वह उससे छोटी आयु का क्यों न हो। उसको हमेशा सम्मान से संबोधित करना चाहिए।"
यो न वेत्यभिवादस्य विप्रः प्रत्यभिवादनम्।
नाभिवाद्य स विदुषा यथा शूर्दस्तथैव सः।।
               "जो अभिवादन का उत्तर देना नहीं जानता उसे प्रणाम नहीं करना क्योंकि वह इस सम्मान के अयोग्य होता है"
                       वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या  -हमेशा मीठी वाणी में बोलकर दूसरों को प्रसन्न करना चाहिए। अपने से बड़ों का सम्मान करना हमारा धर्म है। निसंदेह इस संसार में विनम्र व्यवहार से मनुष्य विजय प्राप्त करता है। मगर इस संसार में ही लोग भी दो प्रकार के होते हैं-एक आसुरी संपदा तो दूसरे दैवीय संपदा लेकर उत्पन्न होते हैं, यह बात भी ध्यान रखने योग्य हैं। कुछ लोग ऐसे भी हैं जो विनम्र व्यवहार को कायरता और उदारता को कमजोरी समझकर दुर्व्यवहार करने पर आमादा हो जाते हैं। ऐसे लोगों को दंडित करना भी हमारा धर्म है।
                  इसलिये जो लोग अभिवादन का उत्तर न देते हों या अहंकारवश मजाक उड़ाते हों उनका कभी स्वयं अभिवादन नहीं करना चाहिए। जहां तक हो सके उनके सामने आने से बचना चाहिए। इस संसार में आसुरी संपदा लेकर उत्पन्न हुए कुछ लोग ऐसे हैं जिनका अभिवादन करने पर सिवाय अपमान के कुछ नहीं मिलता। उनका अभिवादन करना तो दूर उनके चेहरे की तरफ दृष्टि नहीं डालना चाहिए।
                    उसी तरह दैवीय संपदा लेकर उत्पन्न सहृदयजनों का सम्मान करना भी आवश्यक है भले ही आयु में वह छोटे क्यों न हों? सच बात तो यह है कि योग्यता, प्रतिभा तथा सज्जनता के गुणों होने के लिये आयु का छोटा या बड़ा होना जिम्मेदार नहीं है। अनेक लोग बड़ी आयु होने पर भी अपना विवेक नहीं खोते। अतः अपने से कम आयु के व्यक्ति की योग्यता देखकर उसका सम्मान करना चाहिए। सामने आने पर उसे पहले अभिवादन करना भी अच्छी बात है। उस समय पहले अभिवादन करने में संकुचित मानसिकता नहीं दिखाना चाहिए। इसके  अलावा जो लोग अभिवादन का उचित ढंग से उत्तर नहीं देते उनकी तरफ देखना भी नहीं चाहिए  
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संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
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Saturday, April 16, 2011

कबीर के दोहे-जब देह पार्थिव हो जाती है तक कुल की मर्यादा का क्या होता है (deh aur kul ki maryada-kabir das ke hindi dohe)

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते है  
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दुनिया के धोखे मुआ, चल कुटुंब की कानि
तब कुल की क्या लाज है, जब ले धरा पसानि
"यह दुनियां एक धोखा है जिसमें आदमी केवल अपने परिवार के पालन पोषण के लिये हर समय जुटा रहता है। वह इस बात का विचार नहीं करता कि जब उसका शरीर निर्जीव होकर इस धरती पर पड़ा रहेगा तब उसके कुल शान का क्या होगा?"
कुल करनी के कारनै, हंसा गया बिगोय
तब कुल काको लाजि, चारि पांव का होय
"अपने परिवार की मर्यादा के लिये आदमी ने अपने आपको बिगाड़ लिया वरना वह तो हंस था। उस कुल की मर्यादा का तब क्या होगा जब परमार्थ और सत्संग के बिना जब भविष्य में उसे पशु बनना पड़ेगा।"
                                  वर्तमान  सन्दर्भ में संपादकीय व्याख्या-मनुष्य मन को हंस भी कहा जाता है पर उसे कोई उड़ने दे  तभी उसे  समझा जा सकता है। हर कोई अपने विचार और लक्ष्यों का दायरा संकीर्ण कर लेता है। अपने और परिवार के हित के आगे उसे कुछ नहीं सूझता। कई लोग मन में शांति न होने की बात कहते हैं पर उसके पाने लिये कोई यत्न नहीं करते। हमेशा स्वार्थ सिद्धि में डूबा मन   एकरसता से ऊब जाता है पर बुद्धि परमार्थ के लिए प्रेरित नहीं होती। अगर थोड़ा परमार्थ भी कर लें तो एक सुख का अनुभव होता है।
                              परमार्थ का यह आशय कतई नहीं है कि अपना सर्वस्व लुटा दें बल्कि हम किसी सुपात्र व्यक्ति की सहायता करने के साथ  किसी बेबस का सहारा बने। वैसे लुटाने को लोग लाखों लुटा रहे हैं। अपने परिवार के नाम प्याऊ या किसी मंदिर में बैच या पंखा लगवाकर उस पर अपने परिवार का परिचय अंकित करवा देते हैं और स्वयं ही दानी होने का प्रमाणपत्र ग्रहण करते हैं। इससे मन को शांति नहीं मिलती। दूसरों से दिखावा कर सकते हो पर अपने आप से वह संभव नहीं है। हम हर जगह अपने कुल की परिवार की प्रतिष्ठा लिये घूमते हैं पर अपनी आत्मा से कभी परिचित नहीं होते। इसके लिये जरूरी है कि समय निकालकर भक्ति और संत्संग के कार्यों में बिना किसी दिखावे के निष्काम भाव से सम्मिलित हों। कामना के साथ दान या भक्ति करने से मन को कभी शांति नहीं मिलती। उस पर अगर कुल प्रतिष्ठा किए रक्षा का विचार में में आ जाए तो फिर मनुष्य अपना जीवन ही नारकीय हो जाता है।  दूसरी बात यह ही कि इस संसार का पालनहार तो परमात्मा है तब हम अपने परिवार को पालने का दावा कर स्वयं   को धोखा देते हैं।  परिवार का भरण पोषण तो पशु भी करते हैं और मनुष्य ने भी यही किया तो कौनसा तीर मार लिया।
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संकलक,लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ' भारतदीप',ग्वालियर 

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Sunday, April 10, 2011

श्रीगुरुवाणी-सच्चे भक्त का व्यवहार निराला होता है (bhakt ka vyavahar-shri guruwani)

‘भगता की चाल निराली।
चाला निराली भगताह केरी, विखम मारगि चलणा।
लबु लोभु अहंकारु तजि तृस्ना, बहुतु नाही बोलणा।।
हिन्दी में भावार्थ-
श्रीगुरुवाणी के अनुसार भगवान के भक्त की चाल निराली होती है। सद्गुरु के प्रति उसकी यह अनन्य भक्ति उसे ऐसे विषम मार्ग पर चलने में भी सहायता करती है जो आम इंसान के लिए असहज होते हैं। वह लोभ, अहंकार तथा कामनाओं का त्याग कर देता है। कभी अधिक नहीं बोलता।
‘जै को सिखु, गुरु सेती सनमुखु हौवे।
होवै त सनमुखु सिखु कोई, जीअहु रहै गुरु नालै।।
हिन्दी में भावार्थ-
श्रीगुरुवाणी के अनुसार जो सिख गुरु के समक्ष उपस्थित होता है और चाहता है कि उनके समक्ष कभी शर्मिंदा न होना पड़े तो तो उसके लिये यह आवश्यक है कि गुरु को हमेशा प्रणाम कर सत्कर्म करता रहे।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-वैसे तो सभी लोग भक्ति करते हैं पर जिनके मन में ईश्वर के प्रति अगाध निष्ठा है उनकी चाल आम इंसानों से अलग हो जाती है। वह दुःख सुख और मान अपमान में सम रहते हैं। वह अपने जीवन में अनेक ऐसे कष्टों का सहजता से समाना कर लेते हैं जो सामान्य इंसान के लिये कठिन काम होता है। इसलिये कहा जाता है कि भक्ति में शक्ति होती है। जब तक यह देह है तब तक सांसरिक संकट तो आते ही रहेंगे। उसके साथ ही सुख के पल भी आते हैं पर सामान्य मनुष्य केवल उनको ही चाहता है। मगर संसार का नियम है। सूरज डूबता है तो अंधेरा होता है और वह फिर सुबह होती है। संसार का यह निमय मनुष्य की देह पर भी लागू होता है। यह सत्य भक्त जान लेते हैं। उनको पता होता है कि अगर अच्छा वक्त नहीं रहा तो यह खराब भी नहीं रहेगा। इसलिये वह सहज हो जाते हैं। इसके विपरीत जो भक्ति और प्रार्थना से दूर रहते हैं वह अध्यात्मिक ज्ञान नहीं समझ पाते इसलिये थोड़े कष्ट या बीमारा में हाहाकार मचा देते हैं जो अंततः मानसिक रूप से तोड़ देता है। इसके विपरीत भक्त लोग हमेशा ही अपनी मस्ती में मस्त रहते हैं।
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Thursday, April 7, 2011

बुरी आदतें कष्टदायक होती हैं-हिन्दू धार्मिक चिंत्तन (buri aadat kashta ka karan-hindu dharmik lekh)

मनुष्य अगर योगसाधना, अध्यात्मिक अध्ययन तथा दान आदि करे तो उसके व्यक्तित्व में चार चांद लग जाते हैं पर इसके लिये आवश्यक है कि वह सहज भाव के मार्ग का अनुसरण करे। सहज भाव मार्ग दिखने में बड़ा कठिन तथा अनाकर्षक है क्योंकि इसके लिये अच्छी आदतों का होना जरूरी है जो अपने अंदर डालने में कठिनाई आती है। सहज मार्ग में त्याग के भाव की प्रधानता है जबकि मनुष्य कुछ पाकर सुख चाहता है। त्याग के भाव के विपरीत यह मनुष्य का स्वभाव है कि वह व्यसनों की तरफ आकर्षित होता है क्योंकि वह त्वरित रूप से सुख देते हैं। शराब, तंबाकु, जुआ तथा मनोरंजक दृश्य देखकर मनुष्य बहुत जल्दी सुख पा लेता है यह अलग बात है कि कालांतर में वह तकलीफदेह होने के साथ ही उकताने वाले भी होते हैं, मगर तब तक मनुष्य अपनी शारीरिक तथा मानसिक शक्ति गंवा चुका होता है और तब अध्यात्मिक मार्ग अपनाना उसके लिये कठिन होता है।
व्यसनों के विषय पर महाराज कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में कहा है कि
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यस्माद्धि व्यसति श्रेयस्तस्माद्धयसमुच्यते।
व्यसन्योऽयो व्रजति तस्मात्तपरिवर्जयेत्।।
‘‘जिसका नाम व्यसन है उससे सारे कल्याण दूर हो जाते हैं। व्यसन से पुरुष का पतन होता है इस कारण उसे त्याग दे।’’
आजकल तंबाकु के पाउचों का सेवन जिस तरह हो रहा है उसे देखकर यह कहना कठिन है कि युवाओं में कितने युवा हैं। विभिन्न विषैले रसायनों से बने यह पाउच युवावस्था में ही फेफड़ों, दिल तथा शरीर के अंगों में विकृतियां लाते हैं। यह सब चिकित्सकों का कहना है न कि कोई अनुमान! शराब तो अब सांस्कृतिक कार्यक्रमों का एक भाग हो गयी है। उससे भी बड़ी बात यह कि अब तो मंदिर आदि के निर्माण के लिये पैसा जुटाने के लिये नृत्य और गीत के कार्यक्रम आयोेजित किये जाते हैं। इस तरह पूरा समाज ही व्यसनों में जाल में फंसा है। ऐसे में यह आशा करना कि धर्म का राज्य होगा एक तरह से मूर्खता है।
ऐसे में सात्विक पुरुषों को चाहिए कि वह अपनी योगसाधना, ध्यान तथा पूजा पाठ एकांत में करके ही इस बात पर संतोष करें कि वह अपना धर्म निर्वाह कर रहे हैं। इसके लिये संगत मिलने की अपेक्षा तो कतई न करें।
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Saturday, April 2, 2011

झगड़े की बजाय संधि करना भी एक तरह से आसन-हिन्दू धार्मिक लेख (sandhi karna bhee aasan-hindu dharmik lekh)

यदावगच्छेदायत्वयामाधिक्यं ध्रृवमात्मनः।
तदा त्वेचाल्पिकां पीर्डा तदा सन्धि समाश्चयेत्।।
"
भविष्य में अच्छी संभावना हो तो वर्तमान में विरोधियों और शत्रुओं से भी संधि कर लेना चाहिए। "
क्षीणस्य चैव क्रमशो दैवात् पूर्वकृतेन वा।
मित्रस्य चानुरोधेन द्विविधं स्मृतमासनम्।।
"
जब शक्ति क्षीण हो जाने पर या अपनी गलतियों के कारण चुप बैठना तथा मित्रों की बात का सम्मान करते हुए उनसे विवाद न करना यह दो प्रकार के शांत आसन हैं।"
यदावगच्छेदायत्वयामाधिक्यं ध्रृवमात्मनः।
तदा त्वेचाल्पिकां पीर्डा तदा सन्धि समाश्चयेत्।।
"
भविष्य में अच्छी संभावना हो तो वर्तमान में विरोधियों और शत्रुओं से भी संधि कर लेना चाहिए।"

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-किसी भी मनुष्य के जीवन में दुःख, सुख, आशा और निराशा के दौर आते हैं। आवेश और आल्हाद के चरम भाव पर पहुंचने के बाद किसी भी मनुष्य का अपने पर से नियंत्रण समाप्त हो जाता है। भावावेश में आदमी कुछ नहीं सोच पाता। मनु महाराज के अनुसार मनुष्य को अपने विवेक पर सदैव नियंत्रण करना चाहिये। जब शक्ति क्षीण हो या अपने से कोई गलती हो जाये तब मन शांत होने लगता है और ऐसा करना श्रेयस्कर भी है। अनेक बार मित्रों से वाद विवाद हो जाने पर उनके गलत होने पर भी शांत बैठना एक तरह से आसन है। यह आसन विवेकपूर्ण मनुष्य स्वयं ही अपनाता है जबकि अज्ञानी आदमी मज़बूरीवश ऐसा करता है। जिनके पास ज्ञान है वह घटना से पहले ही अपने मन में शांति धारण करते हैं जिससे उनको सुख मिलता है जबकि अविवेकी मनुष्य बाध्यता वश ऐसा करते हुए दुःख पाते हैं।
जीवन में ऐसे अनेक तनावपूर्ण क्षण आते हैं जब आक्रामक होने का मन करता है पर उस समय अपनी स्थिति पर विचार करना  चाहिए। अगर ऐसा लगता है कि भविष्य में अच्छी आशा है तब बेहतर है कि शत्रु और विरोधी से संधि कर लें क्योंकि समय के साथ यहां सब बदलता है इसलिये अपने भाव में सकारात्मक भाव रखते स्थितियों में बदलाव की आशा रखना चाहिए। कहने का अभिप्राय यह है कि हमेशा ही शांत होकर अपना काम करना चाहिए। शांत रहना भी एक तरह से आसन है। यही  कारण  है  कि महान लोग सहजता के जीवन व्यतीत करने का सन्देश देते हैं।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ''भारतदीप', ग्वालियर 
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