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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका
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Wednesday, May 28, 2014

यात्रायें तो सपने जैसी होती हैं-हिन्दी चिंत्तन लेख(treval only as a as dream-hindi thought article)



      यात्रा और यंत्रणा-हिन्दी के यह दो शब्द स्वर की वजह से थोड़ा आपस में मेल खाते हैं मगर भाव की दृष्टि से इनका आपस में कोई संबंध नहीं है। यात्रा का उर्दू पर्यायवाची शब्द सफर है जिसे अंग्रेजी के सफर यानि कष्ट से जोड़कर कहा जाता है कि सफर तो सफर होता है। वैसे देखा जाये तो यात्रा का यंत्रणा शब्द को भाव से जोड़ा जाये तो भी बुरा नहीं है। 
      जब हम अपने घर से बाहर की यात्रा करने निकलते हैं तो लगता है कि अब बाहर वैसा सुख तो मिलने से रहा जैसा कि घर में मिल रहा है। यह सोच नकारात्मक लगती जरूर है पर यही प्रेरणादायक भी होती है। यात्रा का उद्देश्य सामाजिक, धार्मिक या आर्थिक लक्ष्य की पूर्ति करना  हो तो स्वतः ही यंत्रणा की बात छोटी लगती है। उस दिन हमें रात्रि को घर से बाहर से निकलते समय इस बात का आभास था कि हम दैनिक सुखों का त्याग कर जा रहे हैं पर अपना उद्देश्य उस भाव का हृदय से विलोपित कर रहा था। यात्रा की यंत्रणा तो हमेशा की तरह प्रारंभ हो गयी जब घर से स्टेशन तक ऑटो ढूंढने निकले।  ऑटो वाला अस्सी रुपये मांग रहा था और हमारा मानना था कि यह राशि साठ रुपये से अधिक नहीं होना चाहिए।  उस समय दूसरा ऑटो दिख नहीं रहा था इसलिये हमें झुकना पड़ा।  अर्थशास्त्र का विद्यार्थी होने के नाते  हमें मांग तथा आपूर्ति का नियम मालुम है इसलिये बीस रुपये ज्यादा देने की पीड़ा हजम कर गये।
      पूरी रात रेल में नींद नहीं आयी और इसलिये कोटा शहर में पूरा दिन सिर दर्द के साथ गुजरा।  यह तो गनीमत थी कि योगभ्यास की वजह से बीच बीच में आसनों से ऊर्जा का संचय करते रहे। नींद नहंी आयी इस पर भी विरोधाभास हो सकता है।  हमें लगता था कि हमें नींद  आयी थी पर सोच यही थी कि नहीं आयी।  यह सोच भी देह का संतुलन बिगाड़ रही थी। हुआ यूं कि हमने लगातार नींद नहीं ली थी।  रात को अनेक बार ऐसा लगता था कि हम अभी जगे हैं पर सोचते थे कि हम सोये ही नहीं हैै।
      भरी दोपहरिया में जब रोहिणी नक्षत्र प्रारंभ हो गया हो तब आसमान से आग बरसती है और सूर्य नारायण सिर पर इस तरह विराजते हैं कि बस अब भस्म कर देंगे।  देह में ंरोम रोम जल रहा हो तब दिमाग को शंात रखकर ही तनाव से बचा जा सकता है।  इधर गर्मियों में वातानुकूल और गर्म वातावरण के बीच हम झूलते रहे हैं इसलिये जुकाम तो बना ही हुआ है।  भरी दोपहरिया में हम नाक से जुकाम निकालकर बाहर फैंकते हैं।  कई बार गला खंखार का थूक से बाहर वह आ ही जाता है।  रात में अपने घर से लाया गया सात लीटर पानी चूक गया था।  स्टेशन पर ठंडा पानी पिया यह जानते हुए भी कि वह अंदर जुकाम की श्रीवृद्धि करेगा।
      आज सुबह घर लौटे।  रात भर बस में नींद के साथ वैसा ही खेल चला जैसा कि पहले रेल में चला था।  हमें यह यात्रा यंत्रणादायक तो नहीं लगी क्योंकि ऐसे समय में हमें अपनी योगाभ्यास की वजह से  दैहिक शक्ति का परीक्षण करने का अवसर मिल जाता है। देह नहीं थकती पर योगाभ्यास में बाधा की वजह से मन जरूर थक जाता है। इससे ज्यादा इंटरनेट से संपर्क कट जाने की बात मनोरंजन से दूर कर देती है।
      उस दिन पार्क में घूमते हुए एक सज्जन से मुलाकात हुई थी। वह पंद्रह दिन के पर्यटन से वापस आये थे।  कहने लगे कि ‘‘भई, जब हम बाहर से घूमकर थके हारे आते हैं और फिर पार्क मे घूमने का अवसर मिलता है  तो लगता है कि हमारा सारा प्रयास व्यर्थ हो गया।  आनंद तो यहां पार्क में घूमने पर ही मिलता है। हम दूसरी जगह जाते हैं तो जहां ठहरना हो तो  ऐसे पार्क में कहां मिलते हैं?’’
      हमें पता है कि घर के सुख से उकताये आदमी का मन ही उसे बाहर भगाता है। प्रातःकाल योगाभ्यास और सैर करने के बाद मन तृप्त हो जाता है इसलिये हमें बाहर भागने की प्रेरणा नहीं देता। जब आदमी बाहर सुख से उकताता है तो घर की याद सताती है। घर लौटकर वह यही सोचता है कि अपनी यात्रा तो उसने सपने की तरह बिताई।  आज हम यहां थे कल कहीें ओर थे। कल यहीं होंगे जहां हैं। इसका मतलब यह कि हम पांच दिन एक सपना देख रहे थे।
      हमारी यह यात्रा कोटा राजस्थान से जुड़ी थी। वहाँ  चंबल गार्डन और सात अजूबे देखे। हमने ऑटो वाले से कहा था कि सात अजूबे  चलोगो तो वह मुंह देखने लगा। हमने कहां सेवन वंडर जाना है। वह समझ गया।  इन दोनों जंगहों पर हमें पार्क अच्छे लगे पर इनमें जाने पर टिकिट लगता है। मतलब यह कि हम जैसे प्रतिदिन पार्क घूमने जाने वाले के लिये वहां के उद्यान सहायक नहीं है। दूसरी अच्छी चीजों की उपस्थिति हमें भाती नहीं है।  मन करता था कि इन उद्यानों में प्रतिदिन भ्रमण करें पर जब अपनी कॉलोनी के उद्यान में आये तो लगा कि यह कहीं बेहतर है।  कल जो देख रहे थे वह सपना था।  हां यात्रायें एक सपना ही होती है। उनकी स्मृतियां वैसे ही मस्तिष्क से विलोपित हो जाती हैं जैसे कि रात्रि की सपने भूला दिये जाते है।

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

Tuesday, May 13, 2014

प्राणायाम से मन पर नियंत्रण रहता है-पतंजलि योग साहित्य का आधार पर चिन्तन लेख (pranayam se mana par ninantran rahata hai-A hindi thougt based on patanjali yoga litrature)



  जकल भारतीय योग की पूरे विश्व में चर्चा है। यह अलग बात है कि अनेक पेशेवर लोगों ने इस पद्धति का लाभ उठाने के लिये इसका रूप विकृत करने की कोशिश की है। सच बात तो यह है कि योग साधना अंतमुर््खी विषय है जबकि अनेक योग शिक्षक उसे रंगीन बनाने का प्रयास कर रहे हैं।  इस योग के इतने नाम हो गये हैं कि ऐसा लगता है कि इसके अनेक रूप हैं।  जबकि सच्चाई यह है कि योग अपनी देह, मन और विचार स्थिर कर मौन साधना करना ही है।  हालांकि अनेक निष्काम योग शिक्षकों ने इस पर अनुंसधान कर इसे नया रूप दिया है  जिससे  योग साधना के मूल तत्व परिवर्तित नहीं होते वरन् व्यायाम भी अच्छा हो जाता है।  जबकि पेशेवर लोगों ने इसको आकर्षक विषय बनाने के साथ ही बहिमुर््खी बना दिया है।      
            तंजलि योग सूत्र एक प्रमाणिक कला और विज्ञान है। आज जब हम अपने देश में अस्वस्थ और मनोरोगों के शिकार लोगों की संख्या को देखते हैं तो इस पद्धति को  अपनाने की आवश्यकता अधिक अनुभव होती है। पतंजलि योग एक बृहद साहित्य है और इसमें केवल आसनों से शरीर को स्वस्थ ही नहीं रखने के साथ  ही प्राणायाम तथा ध्यान  योग से मन को भी प्रसन्न रखा जा सकता है। यह अंतिम सत्य है कि दवाईयां मनुष्य की बीमारियां दूर सकती हैं पर योग तो कभी बीमार ही नहीं पड़ने देता। योग साधना के नियमित अभ्यास से लाभ कि अनुभूति उसे करने पर ही की जा सकती है|


पतंजलि योग सूत्र में  कहा गया है
प्रच्छर्दनविधारणाभ्यां वा प्राणस्य।

     हिन्दी में भावार्थ-प्राणवायु को बाहर निकालने और अंदर रोकने के निरंतर अभ्यास चित्त निर्मल होता है।

विषयवती वा प्रवृत्तिरुपन्न मनसः स्थितिनिबन्धनी।।

हिन्दी में भावार्थ-विषयवाली प्रवृत्ति उत्पन्न होने पर भी मन पर नियंत्रण रहता है।
विशोका वा ज्योतिवस्ती।
हिन्दी में भावार्थ-इसके अलावा शोकरहित प्रवृत्ति से मन नियंत्रण में रहता है।
वीतरागविषयं वा चित्तम्।
हिन्दी में भावार्थ-वीतराग विषय आने पर भी मन नियंत्रण में रहता है।

     भारतीय योग दर्शन में प्राणायाम का बहुत महत्व है। योगासनों से जहां देह के विकार निकलते हैं वहीं प्राणायाम से मन तथा विचारों में शुद्धता आती है। जैसा कि स्वास्थ्य विशेषज्ञ बताते आ रहे हैं कि इस विश्व में मनोरोगियों का इतना अधिक प्रतिशत है कि उसका सही आंकलन करना संभव नहीं है। अनेक लोगों को तो यह भी पता नहीं कि वह मनोविकारों का शिकार है। इसका कारण यह है कि आधुनिक विकास में भौतिक सुविधाओं की अधिकता उपलब्धि और उपयेाग के कारण सामान्य मनुष्य का शरीर विकारों का शिकार हो रहा है वहीं मनोरंजन के नाम पर उसके सामने जो दृश्य प्रस्तुत किये जा रहे है वह मनोविकार पैदा करने वाले हैं।     ऐसी अनेक घटनायें  समाचार पत्रों और टीवी चैनलों पर आती हैं जिसमें किसी फिल्म या टीवी चैनल को देखकर उनके पात्रों जैसा अभिनय कुछ लोग अपनी जिंदगी में करना चाहते हैं। कई लोग तो अपनी जान गंवा देते हैं। यह तो वह उदाहरण सामने आते हैं पर इसके अलावा जिनकी मनस्थिति खराब होती है और उसका दुष्प्रभाव मनुष्य के सामान्य व्यवहार पर पड़ता है उसकी अनुभूति सहजता से नहीं हो जाता।
      प्राणायाम से मन और विचारों में जो दृढ़ता आती है उसकी कल्पना ही की जा सकती है मगर जो लोग प्राणायाम करते और कराते हैं वह जानते हैं कि आज के समय में प्राणायाम ऐसा ब्रह्मास्त्र है जिससे समाजको बहुत लाभ हो सकता है।
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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

Wednesday, May 7, 2014

दीनता के सौंदर्य से दीनबंधु प्रभावित होते हैं-रहीम दर्शन पर आधारित चिंत्तन लेख(dinta ke saundarya se deenbandhu prabhavit hote hain-rahim darshan)



            पाश्चात्य संस्कृति तथा शिक्षा के प्रभाव में हमारे यहां समाज सेवा करना एक फैशन बन गया है। जहां पहले लोग दान आदि जैसे काम धार्मिक भावना से ओतप्रोत होकर स्वभाविक रूप से करते थे वहीं अब स्थिति यह है कि समाज सेवा करने वाले एक हाथ से चंदा लेते हैं तो दूसरे हाथ से गरीबों और असहायों की मदद का दावा करते हैं। एक तरह से पूर्णकालिक पेशेवर समाज सेवकों की जमात बन गयी है जिनका दावा यह होता है कि वह निष्काम भाव से परमार्थ कर रहे हैं।  इतना ही नहीं यह समाज सेवक अपनी छवि एक देवपूरुष की बनाकर सम्मान भी प्राप्त करते हैं।  अपनी छवि के लिये चंदे के रूप में प्राप्त धन का उपयोग वह प्रचार माध्यमों में बनाये रखने के लिये भी करते हैं।  इतना ही नहीं उनका कोई व्यवसाय नहीं होता इसलिये वह इसी चंदे से अपना घर भी चलाते हैं।

कविवर रहीम कहते हैं
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दिव्य दीनता के रसहि, का जाने जग अंधु
भली बिचारी दीनता, दीनबंधु से बंधु
      हिंदी में भावार्थ-भगवान की भक्ति दीन भाव से करने पर जो रस और आनंद मिलता है उसे अहंकार में अंधे लोग नहीं समझ सकते। दीनता में जो सोंदर्य है उससे ही दीनबंधु आकर्षित होते हैं।
दीन सबन को लखत है, दीनहिं लखै न कोय
जो रहीम दीनहि लखै, दीनबंधु सम होय
      हिंदी में भावार्थ-जो दीन है वह सबकी तरफ देखता है पर उसे कोई नहीं देखता। जो दीन की ओर देखकर उस पर दया करता है उसके लिये वह भगवान तुल्य हो जाता है।

     पहले समाज की एक स्वचालित व्यवस्था थी जिसमें धनी व्यक्ति के लिये दान का कर्तव्य निश्चित किया गया ताकि जिनके पास धन नहीं है उन्हें प्राप्त होता रहे और समाज में समरसता का भाव बना रहे मगर  अब लोग दान के नाम पर नाक भौं सिकोड़ते हैं या फिर ढिंढोरा पीटकर देते हें जिससे उनको आर्थिक लाभ और सामाजिक प्रतिष्ठा मिले। कुछ धनिक और उनकी संतानों के लिये तो माया शक्ति प्रदर्शन का एक हथियार बन गयी है। जिनके पास धन है उनको समाज में दीन और दरिद्र की तकलीफों का ख्याल नहीं होता और न ही इस बात का विचार होता है कि वह उनकी तरफ अपेक्षित भाव से देख रहे हैं। माया उनको अंधा बना देती हैं और फिर इन्हीं दीनों में से कोई अपराधी बनकर उनकी इसी माया का हरण तो कर ही लेता है और कहीं न कहीं तो शारीरिक हानि भी पहुंचा देता हैं।
      एक बात धनिकों को याद रखना चाहिये कि दीन उनको देखते हैं और उनके व्यवहार से ही उन पर अच्छा या बुरा प्रभाव पड़ता है। ऐसे में अगर वह स्वयं ही उन पर दया करें तो उनके लिये भगवान बन जायेंगे क्योंकि दीन तो बिचारे सभी तरफ देखते हैं पर उनकी तरफ अगर कोई देखे तो उनका मन प्रसन्न हो जाता है।
      दान करने से आशय यह नहीं है कि कहीं भिखारियों को खाना खिलाया जाये या किसी मंदिर में दान डाला जाये। यह अपने आसपास ही निर्धन और जरूरतमंद लोगों लोगों की सहायत कर भी किया जा सकता है। किसी मजदूर से काम कराकर उसके मांगे गये मेहनताने से थोड़ा अधिक देकर या अपने घर की अनावश्यक पड़ी वस्तु उनको देखकर भी उनका मन जीता जा सकता है। यह संदेश साफ है कि अगर आप धनी है तो आप अपने आसपास के निर्धन लोगों पर कृपा करते रहें तभी आप भी अमन से रह पायेंगे वरन आपको स्वयं ही अकेलापन और असुरक्षा का अनुभव होगा। मतलब यह कि आप दीनबंधु बने तभी आप दीनबंधु को पा सकते हैं। दान देते समय भी अपने अंदर दीन भाव रखना चाहिये और भक्ति करते समय भी। तभी परमानंद की प्राप्त हो सकती है।
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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

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