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Sunday, January 26, 2014

राजमद मनुष्य को उन्मादी बना ही देता है-संत कबीर दर्शन पर आधारित चिंत्तन लेख(rajwad manushya ko unmadi bana he deta hai-sant kabir darshan)



      हमारे अध्यात्मिक महापुरुषों की शिक्षा को भले ही प्राचीन मानकर भुला दिया गया हो पर वह उसके सूत्र आज भी प्रासंगिक है।  हम नये वातावरण में नये सूत्र ढूंढते हैं पर इस बात को भूल जाते हैं प्रकृत्ति तथा जीव का मूल जीवन जिन तत्वों पर आधारित है वह कभी बदल नहीं सकते। हमने सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक तथा धार्मिक स्तर पर अनेक परिवर्तन देखे हैं और कहते हैं कि संसार बदल गया है।  अध्यात्मिक ज्ञान साधक ऐसा भ्रम कभी नहीं पालते। उन्हें पता होता है कि आजकल आधुनिकता के नाम पर पाखंड बढ़ गया है। स्थिति यह हो गयी है कि आर्थिक, राजनीतिक साहित्यक, धार्मिक, सामाजिक तथा कला संस्थाओं में ऐसे लोग शिखर पुरुष स्थापित हो गये हैं जो समाज के सामान्य मनुष्य को भेड़ों की तरह समझकर उनको अपना अहंकार दिखाते हैं।  ऐसे लोग बात तो समाज  के हित की करते हैं पर उनका मुख्य लक्ष्य अपने लिये पद, पैसा तथा प्रतिष्ठा जुटाना  होता है। स्थिति यह है कि मजदूर, गरीब तथा बेबस को भगवान मानकर उसकी सेवा का बीड़ा उठाते हैं और उनका यही पाखंड उन्हें शिखर पर भी पहुंचा देता है।  एक बार वहां पहुंचने के बाद ऐसे लोग अहंकारी हो जाते हैं। फिर तो वह अपने से छोटे लोगों से सम्मान करवाने के लिये कार्यक्रमों का आयोजन करते हैं।
संत कबीर कहते हैं कि
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जग में भक्त कहावई, चुकट चून नहिं देय।
सिष जोरू का ह्वै रहा, नाम गुरु का लेय।।
     सामान्य हिन्दी भाषा में भावार्थ-कुछ मनुष्य संसार में भला तो  दिखना चाहते हैं पर वह किसी थोड़ा चूना भी नहीं देसकते।  ऐसे लोगों के मस्तिष्क में तो परिवार के हित का ही भाव रहता पर अपने मुख से केवल परमात्मा का नाम लेते रहते हैं।
विद्यामद अरु गुनहूं मद, राजमद्द उनमद्द।
इतने मद कौ रद करै, लब पावे अनहद्द
     सामान्य हिन्दी में भावार्थ-विद्या के साथ  गुण का अहंकार तथा राजमद मनुष्य के अंदर उन्माद पैदा कर देता है।  इस तरह के मद से मुक्त होकर ही परमात्मा का मार्ग मिल सकता है।
      अनेक बुद्धिमान  यह देखकर दुःखी होते हैं कि पहले समाज का भले करने का वादा तथा दावा कर शिखर पर पहुंचने के बाद लोग उसे भूल जाते हैं। इतना ही नहीं समाज के सामान्य लोगों की दम पर पहुंचे ऐसे लोग विकट अहंकार भी दिखाते हैं।  ज्ञान साधकों के लिये यह दुःख विषय नहीं होता। पद, पैसे और प्रतिष्ठा के शिखर पर पहुंचा व्यक्ति उन्मादी हो ही जायगा यह वह जानते हैं। ऐसे विरले ही होते हैं जिनको यह अहंकार नहीं आता।  जिनको अर्थ, राजनीति, समाजसेवा, धर्म तथा कला के क्षेत्र में पहली बार शिखर मिलता है तो उनके भ्रम का तो कोई अंत नहीं होता। उन्हें लगता है कि उनका पद तो उनके जन्म के साथ ही जमीन पर आया था। उनमें यह विचार तक नहीं आता कि जिस पद पर वह आज आयें हैं उस पर पहले कोई दूसरा बैठा था।  ऐसे लोग समाज सेवा और भगवान भक्ति का जमकर पाखंड करते हैं पर उनका लक्ष्य केवल अपने लिये पद, पैसा और प्रतिष्ठा जुटाना ही होता है।
      सामान्य लोगों को यह बात समझ लेना चाहिये कि उनके लिये दाल रोटी खाओ, प्रभु के गुण गाओजैसी नीति का पालन करने के  अलावा कोई अन्य मार्ग नहीं होता। उन्हें पाखंडियों पर अपनी दृष्टि रखने और उन पर चर्चा कर अपना समय बर्बाद करने से बचना चाहिये।


दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

Thursday, January 23, 2014

संत चरणदास के दोहे-बेपरवाह मनुष्य ही संसार में सुखी रह सकता है(sant charandas ke dohe-beparvah manushya hi sansar mein sukhi rah sakta hai)



      इस संसार की माया की महिमा भी विचित्र है। जिसके पास धन कम है वह उसे पाने के लिये भटकता हुआ तकलीफ उठाता है तो जो धनवान है भी अधिक धन के लिये जूझता दिखता है।  माया के इस खेल में मनुष्य यह तय नहीं कर पाता कि उसे चाहिए क्या?  इस संसार में सबसे सरल काम है धन कमाने में लगे रहना।  अनेक लोग शासकीय सेवा से निवृत होने के बाद भी दूसरी जगह जाकर कमाना चाहते हैं भले ही उनका काम पेंशन से चल सकता है।  सच बात तो यह है कि अध्यात्मिक संस्कार और ज्ञान बचपन से नहीं मिले तो बड़ी आयु में सत्संग या भगवान भजन की प्रवृत्ति जाग ही नहीं सकती।  यही कारण है कि बड़ी आयु में भी मनुष्य सांसरिक विषयों में लिप्त रहकर समय काटना चाहता है।  यह अलग बात है कि प्रकृति तथा सामाजिक नियमों में चलते सांसरिक विषय उसे स्वतः छोड़ने लगते हैं तब अध्यात्मिक ज्ञान तथा संस्कारों से रहित मनुष्य चिढ़चिढ़ा हो जाता है।

संत चरणदास कहते हैं कि
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काहू से नहि राखिये, काहू विधि की चाह।
परम संतोषी हूजिये, रहिये बेपरवाह।।
        सामान्य हिन्दी में भावार्थ-किसी भी अन्य मनुष्य से किसी प्रकार की चाहत नहीं करना ही चाहिए।  अपने अंदर संतोष का भाव पालकर बेपरवाह मनुष्य ही इस संसार में सुखी रह सकता है।
चाह जगत की दास है, हरि अपना न करै।
चरनदासयों कहत हैं, व्याधा नाहि टरै।।
      सामान्य हिन्दी मे भावार्थ-मनुष्य के अंदर विचर रही इच्छायें उसे संसार का दास बना देती हैं और वह परमात्मा से दूर हो जाता है। इच्छायें पालने वाला मनुष्य हमेशा ही संकट में घिरा रहता है।

      हमारे यहां स्वतंत्रता का मतलब केवल भौतिक क्रियाओं में अपनायी  जाने वाली स्वैच्छिक प्रवृत्ति से है। कभी कोई नया रचनात्मक विचार करने की बजाय दूसरे के निर्मित पथ पर आगे बढ़ना सहज लगता है पर इससे मस्तिष्क में व्याप्त दासता के भाव का ही बोध होता है। जो जग कर रहा है वही हम कर रहे हैं तो फिर हमारे काम में नयापन क्या है? यह विचार करना ही मनुष्य को डरा देता है।  माया और विषयों का दास मनुष्य संपत्ति संग्रह के बाद भी प्रसन्न नहीं रह पाता।
      अतः जिन लोगों को प्रसन्नता चाहिये उन्हें अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति से अधिक संचय करने की प्रवृत्ति से बचना चाहिये। जीवन में सुख प्राप्त करने का सबसे अच्छा उपाय यही है कि माया के अधिक प्रभाव से बचते हुए लापरवाह हुआ जाये।

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

Saturday, January 18, 2014

पतंजलि योग साहित्य-दुःख की आशंकाओं को मन में स्थान न दें(patanjali yog sahitya-dukh ki aashankaon ko man mein sthan n den)



      मनुष्य का मन ही उसका वास्तविक स्वामी है। कभी वह प्रफुल्लित होता है कभी आत्मग्लानि को बोध से ग्रस्त होकर शांत बैठ जाता है। कभी आर्थिक, सामाजिक या रचना के क्षेत्र में अपनी भारी सफलता का सपने देखता है।  यही मन मनुष्य को भौतिक संपदा के संचय में इसलिये भी फंसाये रहता है कि कभी विपत्ति आ जाये तो उसका सामना माया की शक्ति से किया जाये।  हमारा अध्यात्मिक दर्शन कहता है कि खाने धन जरूरी है पर खाने के लिये बस दो रोटी चाहिये।  मनुष्य का मन भूख, बीमारी तथा दूसरे के आक्रमण को लेकर हमेशा चिंतित रहता है।  उसे लगता है कि पता नहीं कब कहां से दुःख आ जाये। इस तरह मन की यात्रा चलती है पर सामान्य मनुष्य इसे समझ नहीं पाता। संसार में सुख और दुःख आता जाता है पर मनुष्य का मानस हमेशा ही उसे संभावित आशंकाओं भयभीत रखता है।

महर्षि पतंजलि के योगशास्त्र में कहा गया है कि

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हेयं दुःखमनागतम्।।

हिन्दी में भावार्थ-जो दुःख आया नहीं है, वह हेय है।

      योग साधक और अध्यात्मिक ज्ञान के छात्र इस मन पर नियंत्रण करने की कला जानते हैं।  योग तथा ज्ञान साधक हमेशा ही सामने आने पर ही समस्या का निवारण करने के लिये तैयार रहते हैं। देह, मन तथा विचारों पर उनका नियंत्रण रहता है इसलिये वह संभावित दुःखों से दूर होकर अपनी जीवन यात्रा करते हैं।  देखा जाये तो अनेक लोग तो भविष्य की चिंताओं में अपनी देह, विचार तथा मन में बुढ़ापा लाते हैं।  एक बात तो यह है कि लोग अपने  अध्यात्मिक दर्शन का यह संदेश अपने मस्तिष्क में धारण नहीं करते कि समय कभी एक जैसा नहीं रहता।  दूसरी बात यह कि भगवान उठाता जरूर भूखा  है पर सुलाता नहीं है।  इसके बावजूद लोग यह भावना अपने मन में धारण किये रहते हैं कि कभी उनके सामने रोटी का संकट न आये इसलिये जमकर धन का संचय किया जाये।
      योग दर्शन की दृष्टि से जो दुःख आया नहीं है उसकी परवाह नहीं करना चाहिये।  धन या अन्न का संग्रह उतना ही करना जितना आवश्यक हो पर उसे देखकर मन में यह भाव भी नहीं लाना चाहिये कि वह भविष्य के किसी संकट के निवारण का साथी है। हमारे पास भंडार है यह सोच जहां आत्मविश्वास बढ़ाती है वहीं भविष्य की आशंका उससे अधिक तो देह का खून जलाती है।


दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

Sunday, January 12, 2014

आजकल समाज सेवा पेशे के रूप में की जाती है-हिन्दी अध्यात्मिक चिंत्तन (aajkal samaj seva peshe ke roop mein ki jaati hai-hindi ahdyatmik chinttan)



      हमारे देश में समाज सेवा एक पेशा हो गयी है।  अनेक कथित स्वयंसेवी संगठन इस देश में बन गये हैं जिनके कर्ताधर्ता प्रचार तो यह करते हैं कि सेवा भाव से इस क्षेत्र में आये हैं पर दरअसल वह दूसरों से चंदा लेकर अपना काम चलाते है। इतना ही नहीं वह चंदा तो लेते हैं समाज सेवा के नाम पर अपनी यात्राओं तथा रहने के लिये भी उसमें से पैसा लेते हैं।  अनेक संगठन अपनी ईमानदारी दिखाने के लिये खाते सार्वजनिक करते हैं और उसमें इसका उल्लेख भी रहता है कि उन्होंने सेवा करते हुए अपने निजी जीवन पर  भी खर्च किया। यह कर्ताधर्ता सेवा के लिये कहीं जाने पर अपने किये गये खर्च को भी सेवा कार्य का  हिस्सा मानते हैं।  इससे यह तो स्पष्ट होता है कि वह सेवा के नाम पर घूमने फिरने की नीयत रखते हैं। इतना ही नहीं अनेक बार प्रचार माध्यम अनेक सामाजिक संगठनों का प्रचार भी इस तरह करते हैं कि वह वास्तव में निस्वार्थ से ओतप्रोत लोगों का समूह है।
संत कबीर दास जी कहते हैं कि
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निज स्वारथ के कारनै, सेव करै संसार।
बिन स्वारथ भक्ति करै, सो भावे करतार।।
                        सामान्य हिन्दी में भावार्थ-संसार में स्वार्थ की वजह से सेवा की जाती है। बिना स्वार्थ तो भक्ति होती है जो परमात्मा की हो सकती है।
      आजकल इन कथित स्वयंसेवी संगठनों की बाढ़ आयी है और मजे की बात यह है कि इसके कर्ताधर्ता प्रचार कर स्वयं को महान साबित करने का प्रयास करते हैं, इसके विपरीत जो परंपरागत स्वयंसेवी संगठन या लोग हैं वह कभी भी इस तरह के प्रचार का काम नहीं करते।  वह अपने ही धन से लोगों को दान तथा सहायता देते हैं।  देखा जाये तो हमारा देश चल ही उन लोगों की वजह से जो निष्प्रयोजन दया करते हैं।  सेवा का मूल तत्व भी यही है। जब दूसरे से पैसा लेकर कोई काम करता है तो इसका सीधा आशय यही है कि वह व्यक्तिगत स्वार्थ से समाज सेवा करने वाला व्यक्ति है।  निष्काम समाज सेवी कभी अपने प्रयासों का प्रचार न करते हैं न उसका लाभ किसी पर प्रभाव डालते हैं।  इसके विपरीत पेशेवर समाज सेवी एक तरह से अपनी छवि का राजनीतिकरण भी करते हैं। चह चाहते हैं कि राजनीति क्षेत्र में वह एक समाज सेवी की तरह प्रशंसित हों।  ऐसे लोगों  का पहला लक्ष्य अपनी छवि चमकाना तथा धन संचय करना होता है।  इसलिये जिन लोगों को समाज सेवा करना चाहते हों उन्हें पहले अपने अध्यात्मिक दर्शन का अध्ययन अवश्य करना चाहिए।


दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

Tuesday, January 7, 2014

भर्तृहरि नीति शतक-मनस्वी पुरुष ही समाज का भला का सकते हैं(manaswi purush hi samaj ka bhala ka sakte hain)



      इस संसार में दो प्रकार के लोग होते हैं-एक भोगी तथा दूसरे योगी। भोगी लोग जीवन में विषयों में लिप्तता को ही सर्वोपरि मानते हैं। भोगी  लोगउपभोग के सामानों का संग्रह ही अपना लक्ष्य मानते हुए अपना जीवन उन्हीं को समर्पित कर देते हैं जबकि योगी लोग भौतिक सामानों का जीवन में आनंद उठाने का साधन मानकर समाज के लिये आदर्श स्थितियों का निर्माण करने में लगे रहते हैं। ज्ञानियों की दृष्टि में बिना सामानों के भी जीवन में उठाया जा सकता है। उल्टे अधिक सामानों का संग्रह चिंता तथा तनाव का कारण होता है। कुछ लोग स्वादिष्ट भोजन के चक्कर में अनेक प्रकार स्वांग रचते हैं जबकि योगी तथा ज्ञानी भोजन को देह पालने की दृष्टि से दवा के रूप में ग्रहण करते हैं।  

भर्तृहरि नीति शतक में कहा गया है कि
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क्वचित् पृथ्वीशय्यः क्वचिदपि च पर्वङ्कशयनः क्वच्छिाकाहारः क्वचिदपि च शाल्योदनरुचिः।
क्वचित्कन्धाधारी क्वचिदपि च दिव्याभवरधरोः मनस्वी कार्यार्थी न गपयति दुःखः न च सुखम्।।
     हिन्दी में भावार्थ-कभी प्रथ्वी पर सोना पड़े कभी पलंग पर मखमली बिछोने पर शयन का सौभाग्य मिले, कभी बढ़िया तो कभी सादा खाना मिले, जिनकी रुचि अपने लक्ष्य में रहती है वह कभी इन बातों की परवाह नहीं करते।  मनस्वी पुरुष दुःख सुख की चिंता में न पड़कर कभी सामान्य तो कभी दिव्य वस्त्र पहनकर  अपने जीवन मार्ग पर दृढ़ता पूर्वक बढ़ते हुए दूसरों के सामने अपना आदर्श प्रस्तुत करते हैं।

      सच बात तो यह है कि उपभोग की प्रवृत्ति मनुष्य को कायर बना देती है। वह किसी बड़े सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक अथवा सांस्कृतिक अभियान में लंबे समय तक सक्रिय नहीं रह पाता। इतना ही अधिक उपभोग मानसिक, वैचारिक तथा अध्यात्मिक से कमजोर भी बनाता है। हम इसे अपने देश में अनेक सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक तथा साहित्यक अभियानों का नेतृत्व करने वाले कथित  शीर्ष पुरुषों की क्षीण वैचारिक, मानसिक तथा अध्यात्मिक स्थिति को देखकर समझ सकते है। यह सभी कथित शीर्ष पुरुष बातें बड़ी बड़ी करते हैं पर किसी का अभियान लक्ष्य तक नहीं पहुंच पाता।  इसका कारण यह है कि जिनका जीवन सुविधाओं के साथ व्यतीत होता है वह अपने कथित अभियानों की वजह से लोकप्रियता भले ही प्राप्त कर लें पर उनमें इतनी क्षमता नहीं होती कि वह अपने सिद्धांतों या वादों को धरातल पर उतार सकें।  इसके लिये जिस त्याग भाव की आवश्यकता होती है वह केवल उन्हीं लोगों में हो सकता है जो सुविधायें मिलने की परवाह न करते हुए मनस्वी हो जाते हैं। 

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

Saturday, January 4, 2014

राजसी कर्म करने की कामना फल के मोह में ही की जाती हैं-हिन्दी चिंत्तन लेख rajsi kara karne ki kamna fal ke moh mein hi ki jaati hai-hindi chinttan lekh)



            हमारे देश में लोकतांत्रिक राज्य प्रणाली है जिसमें आमजनों के मत से चुने गये प्रतिनिधि राज्य कर्म पर नियंत्रण करते हैं।  इन्हें राजा या बादशाह अवश्य नहीं कहा जाता पर उनका काम उसी तरह का होता है। पदों के नाम अलग अलग होते हैं पर उन्हें राज्य कर्म में लगी व्यवस्था पर नियंत्रण का अधिकार प्राप्त होता है। पहले राजा की जिम्मेदारी होती थी कि वह प्रजा का पालन करे और वह इस जिम्मेदारी का अपनी योग्यता के अनुसार निभाते भी थे। उनमें कुछ योग्य थे तो कुछ आयोग्य। बहरहाल कम से कम उन पर प्रजा हित की प्रत्यक्ष जिम्मेदारी होती थी।
            लोकतांत्रिक प्रणाली में जनप्रतिनिधि के पास कोई प्रत्यक्ष काम करने का दायित्व नहीं होता वरन् संविधान के अनुसार राज्य व्यवस्था के लिये संस्थायें होती हैं जिनकी वह केवल देखभाल करता है। एक तो उस पर प्रजा हित का प्रत्यक्ष दायित्व नहीं होता दूसरे उनके पद पर कार्य करने की अवधि निश्चित होती है। उसके पूर्ण होने पर उनको फिर प्रजा के समक्ष जाना होता है।  जिन लोगों को राज्य कर्म में उच्च पद पर प्रतिष्ठित होना है उन्हें लोकतंत्र में जनमानस में अपनी छवि बनाये रखने के लिये तमाम तरह के स्वांग करने ही होते हैं। इससे प्रचार माध्यम उन्हें अपनी यहां स्थान देकर अपना व्यवसाय चलाने के लिये विज्ञापन भी जुटाते हैं। जनमानस में छवि बनाये रखने के प्रयास और जल कल्याण के लिये प्रत्यक्ष कार्य न करने की सुविधा का जो अच्छी तरह लाभ उठाये वही सर्वाधिक लोकप्रिय होता है। इस लोकतांत्रिक प्रणाली में  अगर जनहित का काम न हो या भ्रष्टाचार का प्रकरण हो तो दूसरे पर दोष डालना और अगर अच्छा हो जाये तो अपनी वाहवाही करना राज्य कर्म में उच्च पदों पर कार्यरत लोगों को सुविधाजनक लगता है।
            राज्य कर्म में लगे लोगों की प्रवृत्ति राजसी होती है।  जिसमें लोभ, क्रोध,  और अहंकार के साथ ही पद बचाये रखने का मोह और कामना गुण स्वयमेव उत्पन्न होते हैं।  हमारे यहां लोकतंत्र में आस्था रखने वाले राज्यकर्म में लोगों से सात्विक व्यवहार की आशा व्यर्थ ही करते हैं।  जिनके पास कोई राज्य कर्म करने के लिये नहीं है वह सात्विकता से यह काम करने का दावा करते है। जिनके पास है वह भी स्वयं को सात्विक प्रवृत्ति का साबित करने में लगे रहने हैं। इस तरह स्वांग लोकतंत्र में करना ही पड़ता है।  यह नहीं है कि राज्यकर्म में सात्विक लोग आते नहीं है पर वह ज्यादा समय तक अपना वास्तविक भाव नहीं बनाये रख पाते या फिर हट जाते हैं।

विदुर नीति में कहा गया है कि
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ऐश्वमदयापिष्ठा सदाः पानामदादयः।
ऐश्वर्यमदत्तो हि नापतित्वा विबुध्यते।।
            हिन्दी में भावार्थ-वैसे तो मादक पदार्थ के सेवन में नशा होता है पर उससे ज्यादा बुरा नशा वैभव का होता है। पद, पैसे तथा प्रतिष्ठा प्राप्त व्यक्ति भ्रष्ट हुए बिना नहीं रहता।
            अभी हाल ही में एक राज्य की विधानसभा के चुनावों में आम इंसानों को राजकीय कर्म में भागीदारी दिलाने का एक उच्च स्तरीय नाटक खेला गया। इस तरह के नाटक लोकतंत्र में जनमानस में अपनी छवि बनाने के लिये अत्यंत आवश्यक होते हैं इसलिये इन्हें गलत मानना भी नहीं चाहिये।  एक दल के लोगों को आमजन का प्रतीक माना गया। इस दल के लोगों ने चुनाव प्रचार के दौरान सत्ता में आने पर राजकीय भवन तथा वाहन न लेने की घोषणा की। दल अल्पमत में था और विधानसभा में अपना बहुमत साबित करना था।  उससे पूर्व तक इसके लोगों ने परिवहन के लिये आमजनों की सार्वजनिक सुविधाओं का उपयोग किया।  ऐसा प्रचार हुआ कि यह लोग आमजन के वास्तविक हितैषी है।  यह प्रचार  दूसरे दलों पर समर्थन देने के लिये दबाव बनाने के रूप में किया गया।  बहुमत मिला तो अगले दिन ही सभी का रूप बदल गया।  जिन प्रचार माध्यमों ने इनकी धवल छवि का प्रचार किया वही अब नाखुश दिख रहे हैं।
            हो सकता है कि इससे कुछ आम बुद्धिजीवी निराश हों पर ज्ञान साधकों के लिये इसमें कुछ नया नहीं है। राजसी कर्म की यही प्रवृत्ति है।  सच बात तो यह है कि जो राजसी कर्म श्रेष्ठता से संपन्न  करता है उसे उसका फल भी मिलता है। दूसरी बात यह कि राजसी कर्म हमेशा ही फल की कामना से किये भी जाते हैं। सात्विक प्रकृत्ति के लोग कभी भी राज्य कर्म करने का प्रयास नहीं करते इसका मतलब यह नही है कि वह राजसी कर्म करते ही नहीं है। राजसी प्रकृत्ति का राज्य कर्म एक हिस्सा भर है।  व्यापार, कला या साहित्य में भौतिक फल की कामना करना भी राजसी प्रकृत्ति का ही है।  सात्विक प्रकृत्ति के लोग अपनी भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति की सीमा तक इनमें लिप्त रहते भी हैं पर वह कभी इस तरह का दावा नहीं करते कि निस्वार्थ भाव से व्यापार कर रहे हैं।
            कहने का अभिप्राय यह है कि प्रचार माध्यमों में लोकतंत्र के चलते अनेक प्रकार के नाटकीय दृश्य देखने को मिलते हैं।  एक तरह से यह दृश्य जीवंत फिल्मों की तरह होते हैं जिनमें अभिनय करने वाले स्वयं को सात्विक प्रकृत्ति का दिखाने का प्रयास करते हैं। ज्ञान साधकों को उनके अभिनय का अनुमान होता है पर आमजन अपना हृदय इन दृश्यों और पात्रों में लगा बैठते हैं जो कि बाद में उन्हें निराश करते हैं।  भारतीय अध्यात्म दर्शन के राजसी कर्म में लोगों का इस तरह कार्य करना और फल लेना कोई आश्चर्य की बात नही होती। राजसी कर्म करने वाले बुरे नहीं होते पर उनके सात्विक दावों पर कभी यकीन नहीं करना चाहिए।

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 


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