जो लोग कभी कहते थे कि ‘हमें पैसे की कभी परवाह नहीं है’-नोटबंदी
के बाद जब उनके श्रीमुख से हमने सुना कि ‘हमारे पास किसी को देने के लिये पैसे नहीं
है’-तो उनकी बेबसी देखकर अच्छा लगा। हमें तो
खर्च पानी के लिये पैसे चाहिये थे वह तो आराम से मिल रहे थे पर चूंकि आर्थिक ढांचे
का विस्तार ज्यादा नहीं कर पाये इसलिये सीमित दायरे में जितनी जरूरत थी काम चलता रहा।
दरअसल
उस समय चिंता इस बात की थी कि कहीं हमारे घर पर बीमारी का कोई बड़ा हमला न हो क्योंकि
हमें आधुनिक चिकित्सालयों की पंचसितारा वसूली का अनुमान नहीं है-इधर उधर लोगों से सुनते
रहते हैं। हमने अभी तक सरकारी चिकित्सालयों
का सहारा लिया है या फिर गली के निजी चिकित्सकों ने ही हमारे जुकाम, बुखार तथा घावों
की मरम्मत की है। पिछले उन्नीस वर्ष से योग
साधना की कृपा से देह निर्बाध गति से चल रही है। एक बात हम मानते हैं कि आधुनिक चिकित्सा
के पास किसी बीमारी का स्थाई इलाज नहीं है-हर बीमारी के लिये नियमित से जीवन पर्यंत
गोलियां का इंतजाम जरूर हो हो जाता है। हर पल बीमारी होने का अहसास लिये लोग कैसे जिंदा
रहते हैं-यह देखकर आश्चर्य होता है।
समस्या
बीमारी की नहीं है वरन् लोगों की है। किसी से कह दो कि ‘हम बीमार हैं’ तो कहता है कि
किसी चिकित्सक को दिखाओ। उन्नीस वर्ष पहले
अपने ही दुष्कर्मों के कारण उच्च रक्तचाप का शिकार होना पड़ा था। उस समय ढेर सारे टेस्ट कराये। दवाईयां लीं। आखिर एक होम्योपैथिक चिकित्सक ने हमारा परीक्षण
किया तो पर्चे पर लिखा ‘उच्च वायु विकार’।
हमारे लिये यह एक स्वाभाविक बीमारी थी। अतः साइकिल चलाने के साथ पैदल भी घूमने
लगे। फिर योग शिविर की शरण ली। उसके बाद बुखार और जुकाम का रोग आता जाता है और
उसका मुख्य कारण बाज़ार से खरीदी गयी खाद्य सामग्री का सेवन ही होना पाया है। जब तक
बाज़ार से लायी खाद्य सामग्री नहीं लेते सब ठीक चलता है जब बीमार पड़ते हैं तो अपनी
एक दो दिन पुरान इतिहास देखते हैं याद आता है कि शादी या बाज़ार का सामान इसके लिये
जिम्मेदार है। चिकित्सक के पास न जाना पड़े इसलिये सुबह पैदल घूमने के साथ ही योग साधना
का अभ्यास करते हैं। हृदय में यह संकल्प घर
कर गया है कि जब तक हम योग साधना करेंगे तब तक देह, मन और विचार के विकार हमें तंग
नहीं कर सकते। इसलिये अपनी बीमारी की चर्चा किसी से करने में भी संकोच होता है।
नोटबंदी
के बाद समस्या यह थी कोई तेज बीमारी आ जाये और किसी निजी चिकित्सक के पास जायें तो
समस्या भुगतान की थी। सरकारी चिकित्सालयों
की हालत देखकर अब वहां जाना अजीब लगता है। सबसे बड़ी बात यह कि वहां जाने पर समाज के
लोग शर्मिंदा करते हैं कि ‘पैसा नहीं है क्या जो सरकारी अस्पताल गये।’
हम नेताओं
के श्रीमुख से बहुत सुनते हैं कि गरीब, मजदूर और बेबस का कल्याण करेंगे पर अगर उनसे
पूछा जाये कि एक लंबे समय तक सरकारी अस्पतालों और स्कूलों की जो प्रतिष्ठा रही वह धूमिल
कैसे हो गयी तो वह फर्जी विकास के दावे दिखायेंगे-नोटबंदी के बाद पता चल गया कि करचोरी
करने वाले ही कालेधन से महंगाई बढ़ा रहे थे जिसे हमने विकास मान लिया था।
हर व्यक्ति
अरबपति होने का सपना पला रहा था। जमीन और मकान
के पीछे ऐसे पड़े थे जैसे मानो कोई विदेशी आकर उस पर कब्जा कर सकता है। उस पर पैसा
लगाकर कब्जा कर अपने नाम का कब्जा लिखा लें ऐसा न हो कि कहीं कोई दूसरा आकर न हथिया
ले। जमीन और मकान की कीमतंें इतनी थी कि अनेक
लोगों के लिये एक स्वपनलोक बन गया था जिसमें दाखिल होना सहज नहीं रहा था। एक समय था
सरकारी स्कूल और अस्पताल अमीर और गरीब के लिये एक जैसा सहारा थे। अब विकास होते होते अमीर और गरीब के बीच दूरियां बढ़ गयी हैं। सरकार
अस्पताल या स्कूल में उपस्थिति गरीब तो निजी में अमीर होने का प्रमाण बना है। नोटबंदी में गरीबों का रोना ऐसे लोग रो रहे थे जिन
पर सरकारी स्कूलों और अस्पतालों की दुर्दशा ठीक करने का जिम्मा था। वह बड़ी बेशरमी से बेबसों की बर्बादी पर मगरमच्छीय
आंसु बहा रहे थे।
नोटबंदी
ने हमें समाज के उस करचोर वर्ग को नग्नावस्था में देखा जो अभी तक अदृश्य होकर अपना
काम कर रहा था। वह शर्म त्यागकर बाहर आया और
अपना कालधन सफेद करने लगा। अलबत्ता अब वह हमें
दिखाई दिया और कम से कम उसे करचोरी की उपाधि तो दी ही जा सकती है। अब अगर हमें कोई
अपनी पैसे का अहंकार दिखायेगा तो उससे यह तो पूछ ही सकते हैं कि ‘आखिर आयकर कितना चुकाते
हो।’
यकीन
मानिए वह खामोश हो जायेगा। हम आयकर देते हैं
और यही बात हमारे लिये गर्व की है। भगवान के
बाद राजा का नंबर इसलिये आता है ताकि मनुष्य समुदाय में व्यवस्था बनी रहे। इसी व्यवस्था
के लिये कर जरूरी है। हम कर देते हैं तो कोई
महान काम नहीं करते पर जो करचोरी कर अपना घर भर रहे हैं वह हमारी दृष्टि में महान अपराधी
हैं। वह क्या सोचते हैं कि राज्य व्यवस्था का कर कोई दूसरा चुकाये और वह मुफतखोरी करते
रहें। वह यह भूलते हैं कि अगर राज्य व्यवस्था
न रहे तो उनका सारा वैभव कुछ ही घंटों में मिट्टी में मिल जाये। उन्हें आभारी होना
चाहिये उन लोगों का जो कर चुकाते हैं न कि उन्हें अपने वैभव का अहंकार दिखायें।
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