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Saturday, April 25, 2009

चाणक्य नीति:कुसंस्कारी लोगों के साथ भोजन करने वाले विद्वानों के यश नहीं मिलता

नीति विशारद चाणक्य कहते हैं कि
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अर्थार्थीतांश्चय ये शूद्रन्नभोजिनः।
त द्विजः कि करिष्यन्ति निर्विषा इन पन्नगाः।।


हिंदी में भावार्थ- नीति विशारद चाणक्य कहते हैं कि अर्थोपासक विद्वान समाज के लिये किसी काम के नहीं है। वह विद्वान जो असंस्कारी लोगों के साथ भोजन करते हैं उनको यश नहीं मिल पता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या- इस देश का अध्यात्मिक ज्ञान सदेशों के अनमोल खजाने से भरा पड़ा है। उसका कारण यह है कि प्राचीन विद्वान अर्थ के नहीं बल्कि ज्ञान के उपासक थे। उन्होंने अपनी तपस्या से सत्य के तत्व का पता लगाया और इस समाज में प्रचारित किया। आज भी विद्वानों की कमी नहीं है पर प्रचार में उन विद्वानों को ही नाम चमकता है जो कि अर्थोपासक हैं। यही कारण है कि हम कहीं भी जाते हैं तो सतही प्रवचन सुनने को मिलते हैं। कथित साधु संत सकाम भक्ति का प्रचार कर अपने भोले भक्तों को स्वर्ग का मार्ग दिखाते हैं। यह साधु लोग न केवल धन के लिये कार्य करते हैं बल्कि असंस्कारी लोगों से आर्थिक लेनदेने भी करते हैं। कई बार तो देखा गया है कि समाज के असंस्कारी लोग इनके स्वयं दर्शन करते हैं और उनके दर्शन करवाने का भक्तों से ठेका भी लेते हैं। यही कारण है कि हमारे देश में अध्यात्मिक चर्चा तो बहुत होती है पर ज्ञान के मामले में हम सभी पैदल हैं।
समाज के लिये निष्काम भाव से कार्य करते हुए जो विद्वान सात्विक लोगों के उठते बैठते हैं वही ऐसी रचनायें कर पाते हैं जो समाज में बदलाव लाती हैं। असंस्कारी लोगों को ज्ञान दिया जाये तो उनमें अहंकार आ जाता है और वह अपने धन बल के सहारे भीड़ जुटाकर वहां अपनी शेखी बघारते हैं। इसलिये कहा जाता है कि अध्यात्म और ज्ञान चर्चा केवल ऐसे लोगों के बीच की जानी चाहिये जो सात्विक हों पर कथित साधु संत तो सार्वजनिक रूप से ज्ञान चर्चा कर व्यवसाय कर रहे हैं। वह अपने प्रवचनों में ही यह दावा करते नजर आते हैं कि हमने अमुक आदमी को ठीक कर दिया, अमुक को ज्ञानी बना दिया।
अतः हमेशा ही अध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करने के लये ऐसे लोगों को गुरु बनाना चाहिये जो एकांत साधना करते हों और अर्थोपासक न हों। उनका उद्देश्य निष्काम भाव से समाज में सामंजस्य स्थापित करना हो।
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Friday, April 24, 2009

कबीर के दोहे: कुल की मर्यादा के वहम में दुनिया डूब जाती है

पथ से बूढ़ी प्रथमी, झूठे कुल की लार
अलघ बिसारियो भेष में बूढ़े काली धार

संत कबीरदास जी का कहना है कि पूरी दुनियां पुरानी परंपराओं और कुल की मर्यादा का वहम पालकर डूब जाती है। परमात्मा को भुलाकर आदमी उनके पीछे घूमते हुए एक दिन इस दुनियां से विदा हो जाता है।
चतुराई हरि ना मिलै, ए बातां की बात
एक निस प्रेमी निराधार का गाहक गोपीनाथ

संत कबीरदास जी का आशय यह है कि चुतराई करने से परमात्मा की प्राप्ति नहीं होती। निष्काम भक्ति से उनको प्राप्त किया जा सकता है। वह निस्वाथी भक्त को ही पंसद करते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-लोग अपने गुरुओं के पास जाते हैं तो वह कथित रूप से उनको परमात्मा प्राप्ति का उपाय बताते हैं। उपाय थोड़ा बड़ा या लंबा होता है तो भक्त के आग्रह पर उसे छोटा कर दिया जाता है। उनसे कहा जाता है कि ‘अगर यह नहीं होता तो इतना कर लो’ या एक घंटे नहीं जाप कर सकते तो पांच मिनट ही कर लो‘। यह सब ढोंग है। सच तो यह है कि परमात्मा का प्राप्ति निष्काम भक्ति से ही की जा सकती हैं। अपना काम करते हुए उसका स्मरण हर पल करने से ही ऐसी भक्ति प्राप्ति की जा सकती है। यह नहीं कि सुबह अगरबती जलाकर चले गये और फिर दिन भर उसका स्मरण नहीं किया। इस जीवन में देह की क्षुधा शांत करने के लिये जैसे हर पल काम करना पड़ता है वैसे ही आत्मा की शांति के लिये उसका स्मरण करना चाहिये। परमात्मा की प्राप्ति का कोई शार्टकट नहीं है। उसका नाम हर पल लेते हुए अपना काम करना चाहिये तभी सच्ची भक्ति प्राप्ति हो सकती है।
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Thursday, April 23, 2009

संत कबीर के दोहे: छिपकर लड़ने वाला बहादुर नहीं होता

तीर तुपक सों जो लड़ैं, सो तो सूरा नाहिं
सूरा सोइ सराहिये, बांटि बांटि धन खांहि

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि जो अस्त्र शस्त्र से लड़ते है। उनको वीर नहीं कहा जा सकता है। सच्चे शूरवीर तो हैं जो आपस में मिल बैठकर खाते हैं। वह जो भी कमाते हैं उसे समान रूप से आपस में बांटते हैं।
कबीर तो सांचै मतै, सहै जू सनमुख वार
कायर अनी चुभाय के, पीछे झखै अपार


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहत हैं कि सच्चा वीर तो वह है जो सामने आकर लड़ता है पर जो कायर है वर पीठ पीछे से वार करता है।



वर्तमान सन्दर्भ में संपादकीय व्याख्या-शूरवीर हमेशा उसे ही माना जाता है जो अस्त्र शस्त्र का उपयोग करता है। उनमें भी वही वीर है जो सामने से वार करता है पर जो कायर हैं वह पीठ पीछे वार करते हैं। वैसे अस्त्र शस्त्र से लड़ने में भी साहस की आवश्यकता कहां होती है। अगर अस्त्र शस्त्र हाथ में हों तो वेसे भी मनुष्य के मन में दुस्साहस आ ही जाता है और कोई भी उपयोग कर सकता है। कुछ लोग कहते हैं कि हथियार रखने से क्या होता है उसे चलाने के लिये साहस भी होना चाहिये-विशेषज्ञ मानते हैं कि अगर लोहे से बना कोई हथियार मनुष्य के हाथ में हो तो उसमें आक्रामता आ ही जाती है।

असली साहस तो अपने कमाये धन का दूसरे के साथ बांटकर खाने में दिखाना चाहिये। आदमी जब धन कमाता है तो उसके प्रति उसका मोह इतना हो जाता है कि वह उसे किसी को थोड़ा देने में भी हिचकता है। मिलकर बांटने की बात तो छोडि़ये अपनी रोटी का छोटा टुकड़ा देने में भी आदमी की जान जाती है।

हमारे प्राचीन मनीषियों ने दान की महिमा को इसलिये प्रतिपादित किया कि समाज में सामाजिक समरसता का भाव रहे। हमारे अध्यात्म में इतना तक कहा गया है कि किसी को दान देते हुए आंखें नीची करना चाहिये ताकि दूसरे को हमारा अहंकार नहीं दिखाई दे और उसके अंदर अपने प्रति कुंठा भाव न उत्पन्न हो। मगर अब तो समाज कल्याण की बात राज्य के भरोसे छोड़ दी गयी है और वही लोग जन कल्याण के लिये मैदान में उतर रहे हैं जिनको उससे कुछ आर्थिक फायदा है। यह लोग कायर होते हैं क्योंकि दान और कल्याण क लिये प्राप्त धन का वह हरण करते हैं।

कलुषित तरीके से प्राप्त धन का भी वह दान करने का साहस नहीं कर पाते। अपने धन देने में सभी का हृदय कांपने लगता है। सच है कि जो दानी है वही सच्चा शूरवीर है। वह भी सच्चा वीर है जो अस्त्र शस्त्र लेकर कहकर सामने से प्रहार करता है पर आजकल तो कायरों की पूरी फौज है जो पीठ पीछे से वार करती है। चोर और डकैतों द्वारा किये गये और अपराध और निरंतर बम धमाकों की बढ़ती घटनायें इस बात का प्रमाण हैं।
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Tuesday, April 21, 2009

भर्तृहरि नीति शतक: ब्रह्म ज्ञान हो तो कैसे भी कपड़े पहनो क्या फर्क पड़ता है?

जीर्णाः कन्था ततः किं सितमलपटं पट्टसूत्रं ततः किं
एका भार्या ततः किं हयकरिसुगणैरावृतो वा ततः किं
भक्तं भुक्तं ततः किं कदशनमथवा वासरान्ते ततः किं
व्यक्तज्योतिर्नवांतर्मथितभवभयं वैभवं वा ततः किम्

हिंदी में भावार्थ-तन पर फटा कपड़ा पहना या चमकदार इससे कोई अंतर नहीं पड़ता। घर में एक पत्नी हो या अनेक, हाथी घोड़े हों या न हों, भोजन रूखा-सूखा मिले या पकवान खायें-इन बातों से कोई अंतर नहीं पड़ता। सबसे बड़ा है ब्रह्मज्ञान जो मोक्ष दिलाता है।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या- पश्चिमी संस्कृति के प्रभाव ने हमारे देश में भौतिकवाद को प्रोत्साहन दिया है और अब तो पढ़े लिखे हों या नहीं सभी सुख सुविधाओं को जाल में फंसते जा रहे हैं। भारतीय अध्यात्म ज्ञान के बारे में जानते सभी हैं पर उसे धारण करना लोगों को अब पिछड़ापन दिखाई देता है। नतीजा यह है कि समाज में आपसी रिश्ते एक औपचारिकता बनकर रहे गये हैं। अमीर गरीब की के बीच में अगर भौतिक रूप से दूरी होती तो कोई बात नहीं पर यहां तो मानसिक रूप से सभी एक दूसरे से परे हो जा रहे हैं। जिसके पास सुख साधन हैं वह अहंकार में झूलकर गरीब रिश्तेदार को हेय दृष्टि से देखता है तो फिर गरीब भी अब किसी अमीर पर संकट देखकर उसके प्रति सहानुभूति नहीं दिखाता। हम जिस कथित संस्कृति और संस्कार की दुहाई देते नहीं अघाते वह केवल नारे बनकर रहे गये हैं और धरातल पर उनका अस्तित्व नहीं रह गया है।

जिसके पास धन है वह इस बात से संतुष्ट नहीं होता कि लोग उसका सम्मान इसकी वजह से करते हैं बल्कि वह उसका समाज में प्रदर्शन करता है। धनी लोग अपने इसी प्रदर्शन से समाज में जिस वैमनस्य की धारा प्रवाहित करते हैं उसके परिणाम स्वरूप सभी समाज और समूह नाम भर के रहे गये हैं और उसके सदस्यों की एकता केवल दिखावा बनकर रह गयी है।

जिस तत्वज्ञान की वजह से हमें विश्व में अध्यात्म गुरु माना जाता है उसे स्वयं ही विस्मृत कर हम भारी भूल कर रहे हैं। शरीर पर कपड़े कितने चमकदार हों पर अगर हमारी वाणी में ओज और चेहरे पर तेज नहीं हो तो उसका कोई प्रभाव नहीं होता। काम चलने को तो दो रोटी से भी चल जाये पर जीभ का स्वाद ऐसा है कि अभक्ष्य और अपच भोजन को ग्रहण कर अपने शरीर में बीमारियों को आमंत्रित करना होता है। सोचने वाली बात यह है कि अपना पेट तो पशु भी भर लेते हैं फिर अगर हम ऐसा करते हैं तो कौनासा तीर मार लेते हैंं। मनुष्य जीवन में भक्ति और ज्ञान प्राप्त करने की सुविधा मिलती है पर उसका उपयोग नहीं कर हम उसे ऐसे ही नष्ट कर डालते हैं। ऐसे में वह ज्ञानी धन्य है जो दाल रोटी खाकर पेट भरते हुए भगवान भजन और ज्ञान प्राप्त करने के लिये समय निकालते हैं।
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Thursday, April 16, 2009

संत कबीर के दोहे: ध्यान साधना वहां करो जहाँ दूसरा व्यक्ति न हो

चर्चा करु तब चौहटे, ज्ञान करो तब दोय
ध्यान करो तब एकिला, और न दूजा कोय

संत श्री कबीरदास जी का कथन है जब ज्ञान चर्चा चौराहै पर करो पर जब उसका अध्ययन करना हो तो दो लोगों की बीच में ही ठीक है। ज्ञान के बारे में जब ध्यान, चिंतन और मनन करना हो तो उसे एकांत में ही रहे जहां कोई दूसरा व्यक्ति न हो।
अष्ट सिद्धि नव निधि लौं, सबही मोह की खान
त्याग मोह की वासना, कहैं कबीर सुजान

संत श्री कबीरदास का कथन है कि आठों सिद्धियां और नवों निधियां तो मोह की खान है। अतः इस मोह को त्याग करना ही श्रेयस्कर है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-हम लोग अक्सर यह कहते हैं कि अमुक संत सिद्ध है और उसकी शरण लेना चाहिए या वह तो बहुत पहुंचे हुए हैं। कई कथित संत और साधु अपने लिये बकायदा विज्ञापन करते हैं जैसे कि बहुत बड़े सिद्ध हों। यह सब ढोंग हैं। अनेक लोग मंत्रों आदि के द्वारा काम सिद्ध करने का दावा करते हैं। यह सब मोह से उपजा भ्रम है। सिद्धियां और निधियों की आड़ में अनेक लोग धंधा कर रहे हैं। सिद्धि केवल मन की शांति के रूप में ही है बाकी तो दुनियां चलती है। माया का भंडार पास में हो पर अगर मन अशांत हो तो वह भी व्यर्थ नजर आता है। इस प्रकार की मानसिक शांति लिये तत्व ज्ञान होना चाहिये। वैसे तो इसके लिये गुरु का होना जरूरी है पर न मिले तो किसी समक+क्ष व्यक्ति के साथ बैठकर स्वाध्याय करना चाहिये। उसके बाद अकेले ध्यान में बैठकर अपने द्वारा ग्रहण तत्व पर विचार करना ही ठीक है। हां, उसकी चर्चा चार लोगों के करने में कोई बुराई नहीं है। इस चर्चा से न केवल अपने दिमाग में मौजूद ज्ञान का पूर्नस्मरण हो जाता है और वह पुष्ट भी होता है।

हम जो ज्ञान प्राप्त करें उससे अपने आपको सिद्ध मान लेना मूर्खता है क्योंकि तत्व ज्ञान का रूप अत्यंत सूक्ष्म है पर उसका विस्तार इतना दिया जाता है कि लोग उसका लाभ व्यवसायिक रूप से उठाते हैं। अनेक सिद्धियों और निधियों का प्रचार इस तरह किया जाता है जैसे वह दुनियां में रह मर्ज की दवा हैं। इनसे दूर होकर अपने स्वाध्याय, ध्यान और ज्ञान से अपने मन के विकार दूर करते रहना चाहिये।
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Wednesday, April 15, 2009

रहीम के दोहे: उत्तम पुरूष को देखकर दिल खुश हो जाता है

कविवर रहीम कहते हैं
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उत्तम जाती ब्राह्मनी, देखत चित्त लुभाय
परम पाप पल में हरत, परसत वाके पाय


ज्ञानी मनुष्य की पहचान तो स्वतः ही उसके गुणों और लक्षणों से हो जाती है। ब्रह्मज्ञानी का चेहरा मात्र देखते ही आदमी का चित्त आनन्द विभोर हो उठता है। ऐसे ब्रह्मज्ञानी के दर्शन मात्र से पाप परे हो जाते हैं और उसके चरणों कें शीश झुकाने का मन करता है।
वर्तमान संदभ में संपादकीय व्याख्या-यह बिल्कुल सत्य बात है कि आदमी के चेहरे पर वही भाव स्वतः रहते हैं जो उसके मन में विद्यमान हैं। किसी प्रकार के ज्ञान और विज्ञान में श्रेष्ठता का भाव प्रदर्शन करना व्यर्थ है। आदमी के गुण स्वतः ही दूसरों के सामने प्रकट होते हैंं। दूसरे के अंदर अगर झांकना हो तो उसके चेहरे को पढ़ें। कई बार ऐसा होता है कि हम दूसरों के कहने में आकर किसी को श्रेष्ठ समझ बैठते हैं यह देखने का प्रयास ही नहीं करते कि उस व्यक्ति का आचरण कैसा है या उसमें वह गुण है भी कि नहीं जिसका बखान किया जा रहा है।

अनेक गुरु ऐसे हैं जो रटारटाया ज्ञान तो बताते हैं पर उनके चेहरे देखकर नहीं लगता कि वह कोई ब्रह्मज्ञानी हैं। योग साधना,ध्यान और धार्मिक ग्रंथों से चिंतन और मनन से ज्ञान प्राप्त होता है और जिसने वह धारण कर लिया उसका चेहरा स्वतः खिल उठता है और अगर नहीं खिला तो इसका आशय यह है कि मन में भी तेज नहीं है। इसलिये किसी के कहने में आकर कोई गुरु नहीं बनाना चाहिये। जिन लोगों में ज्ञान है तो उनका चेहरा ही बता देता है और उनका आचरण और व्यवहार उसे पुष्ट भी करता है। अतः ऐसे लोगों को ही अपना गुरु बनाना चाहिये।
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Monday, April 13, 2009

मनुस्मृति: इन्द्रियों पर नियंत्रण भी है एक तरह से यज्ञ

तानेके महायज्ञान्यज्ञशास्त्रविदो जनाः।
अनीहमानाः सततमिंिद्रयेघ्वेव जुह्नति।।

हिंदी में भावार्थ-शास्त्रों के ज्ञाता कुछ गृहस्थ उनमें वर्णित यज्ञों को नहीं करते पर अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण रखते हैं। उनके लिये नेत्र,नासिका,जीभ,त्वचा तथा कान पर संयम रखना ही पवित्र पंच यज्ञ है।
ज्ञानेनैवापरे विप्राः यजन्ते तैर्मखैःसदा।
ज्ञानमुलां क्रियामेषां पश्चन्तो ज्ञानचक्षुक्षा।।

हिंदी में भावार्थ-कुछ विद्वान लाग अपनी सभी क्रियाओं को अपने ज्ञान चक्षुओं से हुए एक तरह से ज्ञान यज्ञ करते हैं। वह अपने ज्ञान द्वारा ही यज्ञानुष्ठान करते हैं। उनकी दृष्टि में ज्ञान यज्ञ ही महत्वपूर्ण होता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-अपने देश में तमाम तरह के भौतिक पदार्थों से यज्ञा हवन करने की परंपरा हैं। इसकी आड़ में अनेक प्रकार के अंधविश्वास भी पनपे हैं। यह यही है कि यज्ञ हवन से वातावरण में व्याप्त विषाक्त कीटाणु नष्ट होते हैं जिससे उसमें सुधार आता है। पदार्थों की सुगंध से नासिका का कई बार अच्छा भी लगता है पर यह भौतिक या द्रव्य यज्ञ ही सभी कुछ नहीं है। सबसे बड़ा यज्ञ तो ज्ञान यज्ञ है। श्रीगीता में भी ज्ञान यज्ञ को सबसे अधिक महत्वपूर्ण बताया गया है। ज्ञान यज्ञ का आशय यह है कि अपने अंदर मौजूद परमात्मा क अंश आत्मा को पहचानना तथा जीवन के यथार्थ को पहचानते हुए अपने कर्म करते रहना। निष्काम भाव से उनमें रत रहते हुए निष्प्रयोजन दया करना।

हमारे देश में अनेक धर्म गुरु अपने प्रवचनों में भौतिक पदार्थ से होने वाले द्रव्य यज्ञों का प्रचार करते हैं क्योकि वह स्वयं ही जीवन में मूलतत्व को नहीं जानते। इस प्रकार के भौतिक तथा द्रव्य यज्ञ केवल उन्हीं लोगों को शोभा देते हैं जो सांसरिक कर्म से परे रहते हैं। गृहस्थ को तो ज्ञान यज्ञ करना ही चाहिये। यह यज्ञ इस प्रकार है
1. आखों से बेहतर वस्तुओं को देखने का प्रयास करें। बुरे, दिल को दुःखाने या डराने वाले दृश्यों से आंखें फेर लें। आजकल टीवी पर आदमी को रुलाने और भावुक करने वाले दृश्य दिखाये जाते हैं उससे परहेज करेंं तो ही अच्छा।
2.नासिका से अच्छी गंध ग्रहण करने का प्रयास करें। आजकल सौंदर्य प्रसाधनों की कुछ गंधें हमे अच्छी लगती है पर कई बार वह सिर को चकराने लगती हैं। यह देखना चाहिये कि जो गंधे तैयार की गयी हैं वह प्राकृतिक पदार्थों से तैयार की गयी है कि रसायनों से।
3.जीभ को स्वादिष्ट लगने वाले अनेक पदार्थ पेट के लिये हानिकारक होते हैं इसलिये यह देखना चाहिये कि कहीं हम उनको उदरस्थ तो नहीं कर रहे। दूसरा यह भी अपनी जीभ से हम जो शब्द बाहर निकालते हैं उससे दूसरे को दुःख न पहुंचे।
4.अपनी त्वचा को ऐसे पदार्थ न लगायें जो उसे जला देते हैं।
5.अपने कानों से अच्छी चर्चा सुनने का प्रयास करें। टीवी पर चीखने चिल्लाने की आवाजों से हमारे दिमाग पर कोई अच्छा असर नहीं पड़ता। तेज संगीत सुनने से भी हृदय पर कोई अच्छा प्रभाव नहीं पड़ता। वही वाणी और ंसगीत सुनना चाहिये जो मद्धिम हो और उससे हृदय में प्रसन्नता का भाव पैदा होता है।

कहने का तात्पर्य यह है कि अपनी पंचेंद्रियों पर नियंत्रण कर ज्ञानी गृहस्थ पंच यज्ञ करते हैं।
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Sunday, April 12, 2009

रहीम संदेश: नाले का पानी समुद्र से अधिक सम्मान पाता है (rahim ke dohe)

धनि रहीम जल पंक को, लघु जिय पियत अघाय
उदधि बड़ाई कौन है, जगत पिआसौ जाय

कविवर रहीम कहते हैं कि गंदे स्थान पर पड़ा जल भी धन्य है जिसे छोटे जीव पीकर तृप्त तो हो जाते हैं। उस समंदर की प्रशंसा कौन करता है जिसके पास जाकर भी कोई उसका पानी नहीं पी सकता।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-अगर आज के संसार में सामाजिक तथा आर्थिक ढांचे को देखें तो समाज में अमीर और गरीब का अंतर बहुत बढ़ गया है। इसके साथ ही धनियों और समाज के श्रेष्ठ वर्ग के लोगों की संवेदनायें भी एक तरह से मर गयी हैं। वह अपने आत्म प्रचार के लिये बहुत सारा धन व्यय करते हैं पर अपने निकटस्थ अल्प धन वालों के साथ उनका व्यवहार अत्यंत शुष्क रहता है। श्रमिक,गरीब, मजदूर तथा मध्यम वर्ग के बुद्धिजीवी लोग दिखने के लिये समाज का हिस्सा दिख रहे हैं पर उनके मन के आक्रोश को धनिक तथा श्रेष्ठ वर्ग के लोग नहीं समझ सकते । क्रिकेट और फिल्मी सितारों पर अनाप शनाप खर्च करने वाला श्रेष्ठ वर्ग अपने ही अधीनस्थ कर्मचारियों के लिये जेब खाली बताता है। विश्व भर में आतंकवाद फैला है। जिसके पास बंदूक है उसके आगे सब घुटने टेक देते हैं। आपने सुना होगा कि कई बड़े शहरों में अपराधी सुरक्षाकर वसूल करते हैं। फिल्मी सितारों, क्रिकेट खिलाडि़यों और कथित संतों के साथ अपने फोटो खिंचवाने वाले धनिक और श्रेष्ठ वर्ग के लोग इस बात को नहीं जानते कि उनके नीचे स्थित वर्ग के लोगों की उनसे बिल्कुल सहानुभूति नहीं है। प्रचार माध्यमों में निरंतर अपनी फोटो देखने के आदी हो चुके श्रेष्ठ वर्ग के लोग भले ही यह सोचते हों कि आम आदमी में उनके लिये सम्मान है पर सच यह है कि आर्थिक और सामाजिक रूप से कमजोर लोग उनसे अब बहुत चिढ़ते हैं। वह उनके लिये उस समंदर की तरह है जिसके पास जाकर भी दया रूपी पानी मिलने की आस वह नहीं करते।

पहले जो अमीर थे वह धार्मिक स्थानों पर धर्मशालाएं बनवाते थे ताकि वहां आने वाले गरीब लोग रह सकें। अब बड़े बड़े होटल बन गये हैं जिनके पास से गरीब आदमी गुजर जाता है यह सोचकर कि वहां रुकने लायक उसकी औकात नहीं है। गर्मियों में अनेक स्थालों पर धनिक और दानी लोग प्याऊ खुलवाते थे पर अब पुराने प्याऊ सभी जगह बंद हो गये हैं। उनकी जगह पानी के कारखानों की बोतलों और पाउचों को महंगे दामों पर खरीदना पड़ता है। हर चीज का व्यवसायीकरण हो गया है। इससे गरीब,मजदूर,श्रमिक तथा मध्यम वर्ग के बौद्धिक वर्ग में जो विद्रोह है उसे समझने के लिये विशिष्ट वर्ग तैयार नहीं है। सभी हथियार नहीं उठाते पर कुछ युवक भ्रमित होकर उठा लेते हैं-दूसरे शब्दों में कहें तो आतंकवाद भी समाज से उपजी निराशा का परिणाम है।
प्रयोजन सहित दया कर प्रचार करने में अपनी प्रतिष्ठा समझने वाले विशिष्ट वर्ग अध्यात्म में भी बहुत रूचि दिखाते हुए कथित साधु संतों की शरण में जाकर अपने धार्मिक होने का प्रमाण अपने ये निचले तबके को देता है पर निष्प्रयोजन दया का भाव नहीं रखना चाहता।

इसके बावजूद कुछ लोग हैं जो अधिक धनी या प्रसिद्ध नहंी है पर वह समाज के काम आते हैं। भले ही अखबार या टीवी में उनका नाम नहीं आता पर अपने क्षेत्र में निकटस्थ लोगों में लोकप्रिय होते हैं। उनका सम्मान करने वालों की संख्या बहुत कम होती है पर वह विशिष्ट वर्ग के लोगों के मुकाबले कहीं अधिक हृदय में स्थान बनाते हैं।
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Saturday, April 11, 2009

भर्तृहरि नीति शतक: कुछ भी पास नहीं है पर कामना फ़िर भी साथ लगी है (hindu darshan)

राजा भर्तृहरि कहते हैं कि
भिक्षाशनं तदपि नीरसमेकवरं शय्या च भूः परिजनो निजदेहमात्रम्
वस्त्रं विशीर्णशतखण्डमयी च कन्था हा हा! तथापि विषया न परित्यजन्ति

हिंदी में भावार्थ- भिक्षा में मांग कर लायी वस्तु है वह भी एक बार मिली और उसमें कोई रस भी नहीं है। विश्राम करने के लिये अपनी देह को बस जमीन ही मिलती है। आत्मीयजन और सेवक के नाम पर बस एक अपनी देह है। ओढ़ने के लिये पुराना वस्त्र है जो तमाम जगह से फटा हुआ है। हा! हा! फिर भी विषयों में लिप्त होने की इच्छा पीछा नहीं छोड़ती।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या- आदमी अमीर हो या गरीब लोगों की विषयों में लिप्तता विद्वानों को दर्शनीय और हास्यास्पद लगती हैं। जिसके पास धन है वह भी उससे प्राप्त होने वाले सुख को लेकर इच्छायें करता हैं-जैसे बड़ा और आकर्षक भवन हो, अनेक महिला ओर पुरुष मित्र हों, समाज पर नियत्रंण करने वाली संस्थाओं पर अपनाप्रभाव हो और हर व्यक्ति हमारा अभिवादन करे। इसके बावजूद भी धनी को चैन नहीं पड़ता। वह अपनी शक्ति का प्रमाण स्वयं ही पाने के लिये समाज में उपद्रव भी फैला देता है यह देखने के लिये कहीं समाज उसकी पकड़ से बाहर तो नहीं हो रहा है। धनिक लोगोंं की यह फितरत होती है कि वह समाज में छोटे और गरीब आदमी को आपस में लड़ाकर फिर पंचायत करने लगते हैं। मतलब उनके अंदर स्वयं को देवता कहलाने की इच्छा बनी रहती है।
धनिकों की बात क्या जिसके पास कुछ भी नहीं है वह भी राजा बनने की इच्छा करता है। उसे पता है कि अब कोई रातों रात अमीर नहीं बनता पर वह बनना चाहता है। तन पर कपड़ फटे हुए हैं, खाने का यह हाल है कि लोग दया कर स्वतः ही प्रदान करते हैं और सोने के लिये उसके पास जमीन ही होती है। ऐसे में भी यही सोचता है कि वह किसी तरह अमीर बने। आजकल तो आधुनिक प्रचार माध्यमों द्वारा गरीब और निम्न श्रेणी के परिवारों के बच्चों को भ्रमित किया जा रहा है उसके परिणाम स्वरूप जो उनमें विद्रोह पैदा हो रहा है उसका आंकलन कोई नहीं करता।
फिल्मों की कहानियों में जो पात्र प्रदर्शित होते हैं उनकी कल्पना में आम युवक बहक जाते हैं। हर कोई लड़का फिल्म अभिनेत्रियों जैसी पत्नी चाहता है और हर लड़की पति के रूप में अभिनेता की कल्पना करती है। हालत यह है कि पैंतालीस साल के अभिनेता 16 वर्ष की लड़कियों के ख्वाब में बसे हुए है तो वहीं अड़तीस साल की अभिनेत्री की फोटो को अठारह साल का लड़का पर्स में रखकर घूमता है। बस वह उमर की धारा मेंे बह रहे हैं पर उसमें अमीर और गरीब दोनों प्रकार के युवक शामिल है। कुल मिलाकर यह है कि इच्छायें और सपने आदमी का किसी भी हालत में पीछा नहीं छोड़ते।
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Friday, April 10, 2009

भर्तृहरि नीति शतक: कवियों ने किया है नारी देह का घृणित वर्णन (poet and woman, hindi darshan)

स्तनौ मांसग्रन्थी कनककलशावित्यूपमिती मुखं श्लेष्मागारं तदपि च शशांकेन तुलितम्।
स्रवमूलक्लिन्नं करिवरकरस्र्धि जघनंमुहूर्निद्यं रूपं कविजन विशेषैर्गुरुकृतिम्

हिंदी में भावार्थ-मांस पिण्ड से बनी नारी देह का कवियों ने बहुत घृणित ढंग से वर्णन किया है। वह खंखारने और थूकने के लिये जो मुख उपयोग में आता है उसकी तुलना चंद्रमा से करते हैं जो कि निंदनीय है।
अजानन्दाहात्भ्यं पततु शालभे दीपदहने स मीनोऽप्यज्ञानाद्वडियुतमश्नातु पिशितम्।
विजानंतोऽप्येतेवयमिह विषज्जालजटिलाः न मुंजचामः कामानहह गहनो मोह महिमा

हिंदी में भावार्थ-अपने अज्ञान के कारण पंतगा दीपक की लौ की तरफ आकर्षित होकर उसमें प्रवेश कर प्राण गंवा देता है और मछली कांटे में फंस जाती है पर मनुष्य तो इस संसार में भोग विलास के में यह जानते हुए भी लिप्त होता है कि उसका परिणाम अच्छा नहीं होगा।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-देखा जाये तो स्त्री के प्रति कवियों के मन में आकर्षण सदियों से है। वह उसकी देह की व्याख्या कर उसे बहुत सुंदर प्रतिपादित करते हैं जबकि देखा जाये तो स्त्री और पुरुष दोनों की देह मांस पिंड से ही बनी है। इस देह के साथ अच्छाई और बुराई दोनों ही समान रूप से जुड़ी हैं।
प्रत्येक मनुष्य की देह में विकार होते हैं। इतना ही नहीं हम अपने मुख से मिठाई खायें या करेला उनको हमारी देह के अंग ही कचड़े के रूप में परिवर्तित कर देते हैं। वह कचड़ा जब निष्कासन अंगों से बाहर आता है तो हम ही उसे देखना नहीं चाहते। कहने का तात्पर्य यह है कि यह देह मांस के पिंड से बनी है पर स्त्री की देह पर अनेक रसिक कवि ऐसी टिप्पणियां लिखते हैं जो हास्यास्पद और निंदनीय है। यह परंपरा आज भी चली आ रही है। हमारे यहां सूफी भक्ति की भी परंपरा शुरु हुई है पर उसमें गीत इस तरह लिखे गये जैसे वह निरंकार ईश्वर के लिये गाये जा रहे हैं पर उसे दैहिक प्रेम करने वाले लोग अपने संदर्भ में लेते हैं। फिल्मों में कई ऐसे गीत हैं जिनका सृजन तो निरंकार के लिये किया जाता है पर दृश्य में नायक या नायिक दिखाई देती है।
पतंगा अपने अज्ञान के कारण दीपक की लौ में जलकर भस्म होता है पर उसे भी प्रेम का प्रतीक बना दिया गया है। एक तरह से रसिक कवि न केवल स्वयं ही अज्ञानता के अंधेरे में होते हैं बल्कि अपनी कविताओं से दूसरे लोगों को भी भ्रमित करते हैं।
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Thursday, April 9, 2009

भर्तृहरि दर्शन-चाँद और सूरज भटकते हैं तो फ़िर इंसान की बिसात ही क्या (hindu darshan and thought on sun and moon)

राजा भर्तृहरि कहते हैं कि
येनवाम्बरखण्डेद संवीतो निशि चन्द्रमाः
तेनैव च दिवा भनुरहो दौर्गत्यमेतयोः


हिंदी में भावार्थ-इस सृष्टि के आधारों में एक चंद्रमा पूरी रात इधर से उधर भटकता है तो दूसरा सूर्य आकाश में दिन भर मारा मारा समस्त दिशाओं का भ्रमण करता है। ज्योतिष शास्त्र में इस पृथ्वी के सिरमौर माने जाने वाले इन दोनों महानुभावों को भी ऐसी दुर्गति देखनी पड़ती है।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-अमीर हो या गरीब सभी को अपने हाल पर रोना आता है। कोई अपने जीवन में प्रसन्नता का अनुभव नहीं करता। एक रोटी मिली तो दूसरी चाहिये। दूसरी मिली तो तीसरी। दिन में पेट भर गया तो फिर रात के भोजन की तलाश मन में पैदा होती है। रात को खाना खाया कि अगले दिन की चिंता शुरु हो जाती है। आशय यह है कि पेट भरा है पर फिर भी अगले समय का भोजना पाने और उसे बनाने की तैयारी प्रारंभ हो जाती है। आदमी की भौतिक साधनों की हवस भी कम नहीं होती। एक फ्रिज मिल गया तो रंगीन टीवी की चाहत! वह भी पूरी हुई तो कंप्यूटर पाने की भावना बलवती है। स्कूटर है तो मोटर साइकिल खरीदने की इच्छा और वह मिल गयी तो कार के लिये मोह जागता है।
इंसान भागता जाता है। इस अंधी दौड़ में दौड़ते दौड़ते हुए थक जाता है तो अपनी दुर्गति का रोना रोता है। इस देह के साथ कर्म तो करना ही है। आदमी मन की शांति की तलाश करता है पर उसका मार्ग पर कभी नहीं चलना चाहता। भक्ति और ज्ञान में संलग्न रहना उसे समय बरबाद करना लगता है। हां, मानसिक अशांति से अपने शरीर को गलाना शायद सभी को अच्छा लगता है। अगर आदमी इस सृष्टि में उत्पन्न हुआ है तो उसे कर्म करना ही है। देखा जाये तो सभी को अपने जीवन में परिक्रमा करनी पड़ती हैं। इंसान नौकरी या व्यवसाय अपने और परिवार के पेट पालने और भौतिक सुख सुविधा पाने के इरादे से करता है। यह जीवन भी परिक्रमा की तरह है जैसे सूर्य और चंद्रमा करते हैं। जब उनकी हालत ऐसेी है तो फिर हमें अपने कष्टों पर अधिक चिंता क्यों करना चाहिये?
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Wednesday, April 8, 2009

भर्तृहरि नीति शतक: बड़ी आयु में अच्छे कम की आदत नहीं पड़ती (age of men, hindu dharshan)

यावत्स्वस्थमिदं शरीरमरुजं यावच्च दूरे जरा यावच्चेंिद्रयशक्तिरप्रतिहता यावत्क्षयो नायुषः।
आत्मश्रेयसि तावदेव विदुषा कार्यः प्रयत्नो महान् संदीप्ते भवने तु कुपखननं प्रत्युद्यम कीदृशः

हिंदी में भावार्थ- जब शरीर स्वस्थ है, वृद्धावस्था परे है, इंद्रियां सही ढंग से काम कर रही हैं और आयु भी ढलान पर नहीं है विद्वान और ज्ञानी लोग तभी तक अपनी भलाई का काम प्रारंभ कर देते हैं। घर में आग लगने पर कुंआ खोदने का प्रयास करने से कोई लाभ नहीं होता।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-भर्तृहरि महाराज का यहां आशय यह है कि जब तक हम शारीरिक रूप से सक्षम हैं तभी तक ही अपने मोक्ष के लिये कार्य कर सकते हैं। इसके लिये आवश्यक है कि प्रारंभ से ही मन, वचन, और शरीर से हम भगवान के प्रति सच्ची श्रद्धा रखें। कुछ लोग यह कहते हैं कि अभी तो हम सक्षम हैं इसलिये भगवान की भक्ति क्यों करें? जब रिटायर हो जायेंग्रे या बुढ़ापा आ जायेगा तभी भगवान की भक्ति करेंगे। सच बात तो यह है कि भगवान की भक्ति या साधना की आदत बचपन से ही न पड़े तो पचपन में भी नहीं पड़ सकती। कुछ लोग अपने बच्चों को इसलिये अध्यात्मिक चर्चाओंे में जाने के लिये प्रेरित नहीं करते कि कहीं वह इस संसार से विरक्त होकर उन्हें छोड़ न जाये जबकि यह उनका भ्रम होता है। सच बात तो यह है कि भारतीय अध्यात्म ज्ञान किसी भी आदमी को जीवन से सन्यास होने के लिये नहीं बल्कि मन से सन्यासी होने की प्रेरित करता है। सांसरिक कर्तव्यों का निर्वहन करते हुए उसके फल की कामना से परे रहना कोई दैहिक सन्यास नहीं होता।

हमारा अध्यात्मिक ज्ञान तो यह कहता है कि आदमी अपने स्वभाव वश अपने नित्यप्रति के कर्तव्य तो वैसे ही करता है पर भगवान की भक्ति और साधना के लिये उसे स्वयं को प्रवृत्त करने के लिये प्रयास करना होता है। एक तो उसमें मन नहीं लगता फिर उससे मिलने वाली मन की शांति का पैमाना धन के रूप में दृश्यव्य नहीं होता इसलिये भगवान की भक्ति और साधना में मन लगाना कोई आसान काम नहीं रह जाता। बुढ़ापे आने पर जब इंद्रियां शिथिल हो जाती हैं तब मोह और बढ़ जाता है ऐसे में भक्ति और साधना की आदत डालना संभव नहीं है। सच बात तो यह है कि योगसाधना, ध्यान, मंत्रजाप और भक्ति में अपना ध्यान युवावस्था में ही लगाया जाये तो फिर बुढ़ापे में भी बुढ़ापे जैसा भाव नहीं रहता। अगर युवावस्था में ही यह आदत नहीं डाली तो बुढ़ापे में तो नयी आदत डालना संभव ही नहीं है।
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Tuesday, April 7, 2009

कबीर के दोहे: ज्ञान को ह्रदय में धारण नहीं किया तो क्या लाभ?

सीखे सुनै विचार ले, ताहि शब्द सुख देय
बिना समझै शब्द गहै, कछु न लोहा लेय

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि जो व्यक्ति अपने गुरूजनों से शब्द सीखकर उसे अपने हृदय में धारण कर उनका सदुपयोग करता है वही जीवन का आनंद उठा सकता है पर जो केवल उन शब्दों को रटता है उसका कभी उद्धार नहीं हो सकता।

सीतलता तब जानिये, समता रहै समाय
विघ छोड़ै निरबिस रहै, सक दिन दूखा जाय

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि अपने अंदर तभी शीतलता की अनुभूति हो सकती है जब हर स्थिति के लिए हृदय में समान भाव आ जाये। भले ही अपने काम में विघ्न-बाधा आती रहे और सभी दिन दुःख रहे तब भी आदमी के मन में शांति हो-यह तभी संभव है जब वह अपने अंतर्मन में सभी स्थितियों के लिए समान भाव रखता हो।

यही बड़ाई शब्द की, जैसे चुम्बक भाय
बिना शब्द नहिं ऊबरै, केता करै उपाय

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते है कि उसी शब्द के प्रभाव की प्रशंसा की जाती है जो सभी लोगों के हृदय में चुंबक की तरह प्रभाव डालता है। जो मधुर वचन नहीं बोलते या रूखा बोलते हैं वह कभी भी अपने जीवन के संकटों से कभी उबर नहीं सकते।
वर्त्तमान सन्दर्भ में संपादकीय व्याख्या-कुछ लोग थोडा ज्ञान प्राप्त कर फिर उसे बघारना शुरू कर देते हैं।कुछ लोगों तो ऐसे भी हैं जिन्होंने भारतीय अध्यात्म ग्रंथों का अध्ययन इसलिए किया ताकि वह गुरु बन कर अपनी पूजा करा सकें। ऐसे लोगों को उस अध्यात्म ज्ञान से कोइ संबंध नहीं है जो वास्तव में ह्रदय को शांत और समभाव में स्थित रखने में सहायक होता है। ऐसे कथित गुरुओं ने ज्ञान को रट जरूर लिया है पर धारण नहीं किया इसलिए ही उनके शिष्यों पर भी उनका प्रभाव नज़र नहीं आता। उनके वाणी से निकले शब्द तात्कालिक रूप से जरूर प्रभाव डालते हैं पर श्रोता के ह्रदय की गहराई में नहीं उतरते क्योंकि वह कथित वक्ताओं के ह्रदय की गहराई से वह शब्द निकल कर नहीं आते। आजकल के गुरुओं का नाम बहुत है पर उनका प्रभाव समाज पर नहीं दिखता।
शब्द लिखे जाएँ या बोले, उनका प्रभाव तभी होता है जब वह श्रोता या लेखक से उत्पन्न होता है। यह तभी संभव है जब उसने अपना अध्ययन,चिंतन और मनन गहराई से किया हो।
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Sunday, April 5, 2009

भर्तृहरि संदेश: घमंडी पैसे वालों से उम्मीद क्यों करते हो? (hindu dharm and thought on rich men)

राजा भर्तृहरि कहते हैं कि
किं कन्दाः कन्दरेभ्यः प्रलयमुपगता निर्झरा वा गिरिभ्यः
प्रघ्वस्ता तरुभ्यः सरसफलभृतो वल्कलिन्यश्च शाखाः।
वीक्ष्यन्ते यन्मुखानि प्रस्भमपगतप्रश्रयाणां खलानां
दुःखाप्तसवल्पवित्तस्मय पवनवशान्नर्तितभ्रुलतानि ।।


हिंदी में भावार्थ- वन और पर्वतों पर क्या फल और अन्य खाद्य सामग्री नष्ट हो गयी है या पहाड़ों से निकलने वाले पानी के झरने बहना बंद हो गये हैं? क्या वृक्षों से रस वाले फलों की शाखायें नहीं रहीं हैं। उनसे तो तन ढंकने के लिये वल्कल वस्त्र भी प्राप्त होते हैं। ऐसा क्या कारण है कि गरीब लोग उन अहंकारी और दुष्ट लोगों की और मुख ताकते हैं जिन्होंनें थोड़ा धन अर्जित कर लिया हैं।

वर्तमान संदर्भ में संक्षिप्त संपादकीय व्याख्या-यह तो प्रकृति का ही कुछ रहस्य है कि माया सभी के पास समान नहीं रहती। जन्म तो सभी एक तरह से लेते हैं पर माया के आधार पर ही गरीब और अमीर का श्रेणी तय होती है। वैसे प्रकृति ने इतना सभी कुछ बनाया है कि आदमी अगर आग न भी जलाये तो भी उसक पेट भरने का काम चल जाये। तमाम तरह के रसीले फल पेड़ पर लगते हैं पहाड़ों से निकलने वाले झरने पानी देते हैं पर मनुष्य का मन भटकता है केवल उन भौतिक पदार्थों में जो न खाने के काम आते हैं न पीने के। सोना चांदी रुपया और तमाम तरह के अन्य पदार्थ वह संग्रह करता है जो केवल मन के तात्कालिक संतोष के लिये होते हैं। जिनके पास थोड़ा धन आ जाता है गरीब आदमी उसकी तरफ ही ताकता है कि काश इतना धन मुझे भी प्राप्त होता। या वह इस प्रयास में रहता है कि उस धनी से उसका संपर्क बना जाये ताकि समाज में उसका सम्मान बने भले ही उससे कोई आर्थिक लाभ न हो-जरूरत पड़ने पर सहायता की भी आशा वह करता है।
ऐसे विचार हमारे अज्ञान का परिचायक होते हैं। हमें इस प्रकृति की तरफ देखना चाहिये जिसने इतना सब बनाया है कि कोई आदमी दूसरे की सहायता न करे तो भी उसका काम चल जाये। ऐसे में धनिक लोगों की तरफ मूंह ताक कर अपने अंदर कुंठा नहीं पालना चाहिये।
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Saturday, April 4, 2009

समाजों के बीच विभाजन रेखा को मिटाना जरूरी-आलेख (hindi article and sahitya)

भारत के किसी भी भाग में जाकर वहां रह रहे किसी ऐसे आदमी से बात करिये जिस पर अपने परिवार के पालन पोषण और रक्षा का जिम्मा है। उससे सवाल करिये कि क्या वह अपने समाज से विपत्ति के समय सहायता की आशा करता है तो उसका जवाब होगा ‘‘नहीं’
उससे पूछिये कि ‘क्या वह अपने समाज के शीर्षस्थ लोगों से कभी किसी प्रकार के सहयोग या रक्षा की आशा करता है? तब भी उसका जवाब होगा ‘नहीं’’।

यह आश्चर्य की बात है कि इस देश में एक भी आदमी अपनी भाषा,धर्म,जाति,और क्षेत्र के नाम पर बने हुए समूहों के प्रति एक सीमित सद्भाव रखता है वह भी भविष्य में किसी प्रकार बच्चों आदि के विवाह के समय। सामान्य आदमी अपने कार्य के सिलसिले में प्रतिदिन अपने से पृथक समूहों और समुदायों के संपर्क में आता है पर उस समय उसका ध्यान केवल अपने काम तक ही सीमित रहता है न तो उसके दिमाग में अपने समूह का ध्यान रहता है न ही दूसरे का। शायद उसे कभी अपने समूहों या समाज याद भी न आये-क्योंकि लोग आपस बातचीत में भी किसी के समूह में रुचि नहंी दिखाते- पर कहीं न कहीं कुछ लोग ऐसे होते हैं जो इन समूहों को नाम लेकर चर्चा करते हैं क्योंकि उनके अपने स्वार्थ होते हैं।
आजकल तो दूसरी स्थिति है कि प्रचार माध्यमों में विभिन्न समूहों और समाजों के आपसी झगड़ों का जमकर प्रचार हो रहा है। अगर न ध्यान हो तो भी आदमी के सामने उनके नाम आ जाते हैं। कितनी मजे की बात है कि जितनी एकता की बात की जाती है उतनी समाजों के बीच विभाजन रेखा बढ़ती जाती है। अब यह समझना कठिन है कि यह विभाजन रेखा कहीं इसलिये तो नहीं बढ़ाई जा रही कि एकता की बात करते रहना चाहिये या वास्तव में एकता की बात इसलिये की जा रही है कि क्योंकि विभाजन रेखा बढ़ रही है।

पिछले एक डेढ़ वर्ष से विभिन्न समाजों, जातियों,भाषाओं,धर्मों और क्षेत्रों के बीच जिस तरह तनाव बढ़ रहा है वह आश्चर्य का विषय है। इधर भारत की प्रगति की चर्चा हो रही है-अभी भारत ने चंद्रयान छोड़ा है और उसके कारण विज्ञान जगत मं उसका रुतबा बढ़ा है-उधर ऐसे विवाद बढ़ते जा रहे हैं। पहले अनेक घटनाओं में विदेशी हाथ होने का संदेह किया जाता था पर अब तो ऐसा लगता है कि इस देश के ही कुछ लोग भी अब सक्रिय है। सबसे बड़ी बात यह है कि अब तो कोई विदेशी हाथ की बात अब कम ही हो रही है अंंदरूनी संघर्ष में कुछ लोग खुलेआम सक्रिय हैं। विदेशी हस्तक्षेप की संभावना को तो अब नकारा भी नहीं जा सकता-क्योंकि भारत के बढ़ती ताकत कई अन्य देशों के लिये ईष्र्या का विषय है।

वैसे तो पूरे विश्व में उथल पुथल है पर भारत में कुछ अधिक ही लग रही है। पहले कहा जाता था कि भारत में जाति,भाषा,धर्म,और क्षेत्रों के नाम बने समूहों के आपसी तनावों की वजह से विकास हीं हो रहा है क्योंकि लोग अपनी अशिक्षा के वजह से इन झगड़ों में फंसे रहते हैं पर अब तो उल्टी ही हालत लग रही है। जिन लोगों को हम अशिक्षित और गंवार कहते हैं वह तो चुप बैठे हैं पर जो पढ़े लिखे हैं वही ऐसे झगड़े का काम रहे हैं। आखिर यह शिक्षा किस काम की?
दरअसल हमारे देश की शिक्षा तो गुलाम पैदा करती है और नौकरी के लिये आदमी इधर से उधर भाग रहे हैं। इतनी नौकरियां हैं नहीं जितनी लोग ढूंढ रहे हैं और इसलिये बेरोजगार युवकों में कुंठा बढ़ रही है और वह उन्हीं समूहों और समाजों के आधार पर चल रहे संघर्षों में शामिल हो जाते हैं जिनसे वह स्वयं नफरत करते हैं।
सच तो यह है कि जाति,भाषा,धर्म,और क्षेत्रों के नाम पर बने समूहों का अस्तित्व शायद अभी तक समाप्त ही हो जाता पर लगता है कि कुछ लोग अंग्रेजों की फूट डालो और राज करो की नीति पर चलते हुए उनको बनाये रखना चाहते हैं। यही कारण है कि वर्तमान युग में अस्तित्व हीन हो चुके समाज और समूह केवल नाम से चल रहे हैं। सभी लोग धन कमाने में लगे हैं-सभी को अपने लिये रोटी के साथ सुख साधन भी चाहिये-किसी को अपने समाज या समूह से कोई मतलब नहीं है पर कुछ लोग ऐसे हैं जो ऐसे द्वंद्वों से लाभ उठाते हैं। यह लाभ सीधे आर्थिक रूप से होता है या धुमाफिराकर यह अलग बात है पर उसी के लिये यह सब कर रहे है। ऐसे में भारत की प्रगति से चिढ़ने वाले अन्य देश भी अप्रत्यक्ष या प्रत्यक्ष रूप से लाभ दे सकते हैं।

अक्सर विदेशी हाथ में पाकिस्तान का नाम लिया जाता है पर वह तो केवल मुहरा है। अभी तक पश्चिम देश उसकी पीठ पर हाथ रखे हुए थे और अब जिस तरह चीन इस तरफ बढ़ा है वह ध्यान देने योग्य है। ऐसे में देश के बुद्धिजीवी वर्ग को गहनता से विचार करना चाहिये कि देश की स्थिति में जो इस तरह के उतार-चढ़ाव हैं उसकी वजह क्या है? जबकि हो रहा है उसका उल्टा! सभी बुद्धिजीवी हमेशा की तरह अपने पक्षों की बात ही आंखें बंद कर रख रहे हैं। गहन चिंतन और मनन का अभाव है। वह अपने आसपास चल रही घटनाओं को अनदेखा करते हैं जबकि उनका प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से हमारे देश की स्थिति पर प्रभाव पड़ता है। अगर देश के अंदरूनी विषयों पर ही विचार करते हुए वादविवाद करते रहेंगे और बाहरी घटनाओं का अध्ययन नहीं करेंगे तो शायद तब सच ढूंढना कठिन होगा कि आखिर क्या कोई अन्य देश हैं जो हमारे देश को अस्थिर करना चाहते हैं। इसलिये बुद्धिजीवी वर्ग को देश में एकता और सद्भाव बनाये रखने के लिये काम करना चाहिये। शेष अगले अंक में।
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Friday, April 3, 2009

रामायण में दिया गया है अहिंसा का संदेश (ram, ramayan, sita, aritcle on hindu dharm)

अपने वन प्रवास के दौरान सुतीक्षण के आश्रम से निकलकर जब श्री राम अपनी धर्म पत्नी सीताजी और भ्राता लक्ष्मण में साथ आगे चले। अपने पति द्वारा राक्षसों के वध करने के प्रतिज्ञा से वह दुखी थीं इसलिए उन्होने इससे हटने के लिए उनसे हिंसा छोड़ने का आग्रह किया और निम्नलिखित कथा सुनाई

पूर्वकाल की बात है किसी पवित्र वन में जहाँ मृग और पक्षी बडे आनंद से रहते एक सत्यवादी एवं पवित्र तपस्वी निवास करते थे। उन्हीं की तपस्या में विघ्न डालने के लिए शचिपति इन्द्र किसी योद्धा का रूप धारण कर हाथ में तलवार एक दिन उनके आश्रम पर आये। उन्होने मुनि के आश्रम में अपना उतम खड्ग रख दिया। पवित्र तपस्या में लगे हुए मुनि को धरोहर के रूप में वह खड्ग दे दिया। उस शस्त्र को पाकर मुनि उस धरोहर की रक्षा में लग गए, वे अपने विश्वास की रक्षा के लिए वन में विचरते समय भी उसे अपने साथ रखते थे। धरोहर की रक्षा में तत्पर रहने वाले वे मुनि फल-मूल लेने के लिए जहाँ-कहीं भी जाते, उस खड्ग की साथ लिए बिना नहीं जाते। तप ही जिनका धन था उस मुनि ने प्रतिदिन शस्त्र ढोते रहने के कारण क्रमश: तपस्या का निश्चय छोड़कर अपनी बुद्धि को क्रूरतापूर्ण बना लिया। फिर तो अधर्म ने उन्हें आकृष्ट कर लिया। वे मुनि प्रमादवश रोद्र कर्म में तत्पर हो गये और उस शस्त्र के सहवास से नरक जाना पडा।

इस प्रकार शास्त्र का संयोग होने के कारण पूर्वकाल में उन तपस्वी मुनि को ऐसी दुर्दशा भोगनी पडी। जैसे आग का संयोग ईंधन के जलाने का कारण होता है उसी प्रकार शस्त्रों का संयोग शस्त्रधारी के हृदय में विकार का उत्पादक कहा गया है।

आगे सीता जी कहतीं हैं कि-'मेरे मन में आपके प्रति जो स्नेह और विशेष आदर है उसके कारण मैं आपको उस प्राचीन घटना की याद दिलाती हूँ तथा यह शिक्षा भी देती हूँ कि आपको धनुष लेकर किसी तरह बिना बिः के ही वन में रहने वाले राक्षसों के वध का विचार नहीं करना चाहिए। आपका बिना किसी अपराध के किसी को मारना संसार के लोग अच्छा नहीं समझेंगे। अपने मन और इन्दिर्यों को वश में रखने वाले वीरों के लिए वन में धनुष धारण करने का इतना प्रयोजन है कि वे संकट में पड़े हुए प्राणियों की रक्षा करें।''

अरण्यकाण्ड के नौवें सर्ग से लिए गया यह वृतांत इस उद्देश्य से प्रस्तुत किया गया है कि लोग अस्त्रों-शस्त्रों को शौक के लिए अपने पास भी रखते है और उसके जो परिणाम आते हैं वह बहुत भयावह होते हैं ।

Thursday, April 2, 2009

कबीर के दोहे: काजल कालापन और मोती सफेदी नहीं त्यागता (kabir ke dohe-kajal and moti)

दुक्ख महल को ढाहने, सुक्ख महल रहु जाय
अभि अन्तर है उनमुनी, तामें रहो समाय


संत कबीरदास जी के अनुसार इस संसार में रहना है तो दुख के महल को गिराकर सुख महल में रहो। यह तभी संभव है जब जो हमारे अंदर आत्मा है उसमें ही समा जायें।

काजल तजै न श्यामता, मुक्ता तर्ज न श्वेत
दुर्जन तजै न कुटिलता, सज्जन तजै न हेत


आशय यह है कि जिस तरह काजल अपना कालापन और मोती अपनी सफेदी को नहीं त्यागता वेसे ही दुर्जन अपनी कुटिलता और सज्जन अपनी सज्ज्नता नहीं त्यागता।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-देने वाला परमात्मा है और जो कर्म करता है उसे उसका परिणा मिलता ही है। फिर भी आदमी में अपना अहंकार है कि 'मैं कर्ता हूं।' वह अपने देह से किये गये कर्म से प्राप्त माया के भंडार को ही अपना फल समझता है और बस उसकी वृद्धि में ही अपना जीवन धन्य समझता है और भक्ति भाव को वह केवल एक समय पास काम मानता है। कितना बड़ा भ्रम मनुष्य में है यह अगर हम अपना आत्म मंथन करें तो समझ में आ जायेगा। हम कहीं दुकान कर रहे हैं या नौकरी उससे जो आय होती है वह फल नहीं होता। वह जो पैसा प्राप्त होता है उससे अपने और परिवार की आवश्यकताओं की पूर्ति पर ही व्यय करते हैं। वह पैसा प्राप्त करना तो हमारे ही कर्म का हिस्सा है। कहीं से मजदूरी या वेतन प्राप्त होता है वह भला कैसे फल हो सकता है जबकि उसे प्राप्त करना भी हमारा कर्तव्य है ताकि हम अपनी इस देह का और साथ ही अपने परिवार का भरण भोषण कर सकें। इसलिये माया की प्राप्त को फल समझना एक तरह से दुःख का महल है और उसे एक सामान्य कर्म मानते हुए उसे त्याग कर देना चाहिये। भगवान की भक्ति करना ही सुख के महल में रहना है।

अगर हमें यह अनुभूति हो जाये कि अमुक व्यक्ति के मूल स्वभाव में ही दुष्टता का भाव है तो उसे त्याग देना चाहिये। यह मानकर चले कि यहां कोई भी अपना स्वभाव नहीं बदल सकता। जिसत तरह काजल अपनी कालापन और मोती आपनी सफेदी नहीं छोड़ सकता वैसे ही जिनके मूल में दुष्टता का भाव है वह उसे नहीं छोड़ सकता। उसी तरह जिन में हमें सज्जनता का भाव लगता है उनका साथ भी कभी नहीं छोड़ना चाहिये।
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