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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका
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Saturday, August 28, 2010

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-मन तो जल के समान चंचल है (man jal ke saman chanchal hai-hindu dharma sandesh)

जलान्तश्वन्द्रवशं जीवनं खलु देहिनाम्
तथा विद्यमति ज्ञात्वा शशवत्कल्याणमाचारेत्।।
हिन्दी में भावार्थ-
पानी के के भीतर लहलहाते हुए चंद्रमा के बिम्ब के समान चंचल स्वभाव ही समस्त जीवों का जीवन है। यह विचार ज्ञान लोग निरंतर सत्कर्म में लिप्त रहते हैं।
सतः शीलोपसम्पन्नानकस्मादेव दुज्र्जनः।
अन्तः प्रविश्य दहति शुष्कवृक्षानिवालः।।
हिन्दी में भावार्थ-
पर्वत के समान दृढ़ चरित्र वाले सत्पुरुषों के अंतःकरण में दुर्जन भाव प्रविष्ट होकर अग्नि के समान उनको जला कर नष्ट कर डालता है। यह भाव सज्जन व्यक्ति के लिये आत्मघाती होता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-समस्त जीवों की देह पंचतत्वों के संयोग से निर्मित होती है और मन उसकी एक ऐसी प्रकृत्ति है जो उसका संचालन करती है। पानी से भी पतले इस मन की चाल विरले ही ज्ञानी देख पाते हैं। अपने जीवन में कार्यरत रहते हुए हमारे मन में अनेक विचार आते हैं-वह अच्छे भी हो सकते हैं और बुरे भी। दरअसल हर जीव को उसका मन चलाता है पर वह यह भ्रम पालता है कि स्वयं चल रहा है। इस मन में काम, क्रोध, लोभ, लालच और घृणा के भाव स्वाभाविक रूप से विचरते रहते हैं। अगर वहां सत्विचारों की स्थापना करनी है तो उसके लिये यह आवश्यक है कि योगासन, ध्यान, मंत्रजाप और नाम स्मरण किया जाये। कहना आसान है पर करना कठिन है। मुख्य बात है कि संकल्प मनुष्य किस प्रकार का करता है। जो मनुष्य दृढ चरित्र के होते हैं वह मन में आये विचार का अवलोकन करते हैं और जिनको ज्ञान नहीं है वह उसी राह चलते हैं जहां मन प्रेरित करता है।
यह मन इतना चंचल होता है कि अनेक बार सज्जन आदमी को भी दुर्जन बना देता है। यह उन्हीं सज्जन लोगों के साथ होता है जो स्वाभाविक रूप से भले होते हैं पर उनके पास अध्यात्मिक ज्ञान नहीं रहता। जब उनके अंदर दुर्जन भाव का प्रवेश होता है तब वह अपराध कर बैठते हैं।
अतः योगाभ्यास तथा सत्संग में निरंतर लगे रहना चाहिये ताकि अपने अंदर ज्ञान का प्रादुर्भाव हो और सज्जन प्रकृत्ति होने के बावजूद कभी किसी भी स्थिति में मन में उत्पन्न कुविचार मार्ग से विचलित न कर सकें। यदि अपने मन पर नियंत्रण किया जाये तो सारे संसार पर नियंत्रण किया जा सकता है और अगर उससे हार गये तो किसी से भी जीतना संभव नहीं है।
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संकलक,लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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Monday, August 23, 2010

बड़ों के जाल में क्यों फंस जाते हो-हिन्दी शायरी ( khas insanon ka jaal-hindi shayari)

हिन्दू, मुस्लिम, सिख और ईसाई में क्यों तुम बंट जाते हो,
पुराने नुस्खे हैं राजाओं के, तुम प्रजा होकर क्यों फंस जाते हो।
नस्ल पूछे बिना रेत पांव जला देती, जल कर देता है शीतल
बोझ उठाये कंधे पर अपना, तुम क्यों सवाल किये जाते हो।
धर्म, जाति और भाषा के गुटों की इस पुरानी जंग में,
अपनी अकेली जिंदगी को क्यों उलझाये जाते हो,
इंसान और इंसानियत का नारा भी एक धोखा है,
आदतें है सभी की अलग अलग क्यों भूल जाते हो।
इंसानों में भी होते हैं आम और खास शख्सियत के मालिक,
ओ आम इंसानो! तुम क्यों बड़ों के जाल में फंस जाते हो।
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Saturday, August 14, 2010

श्रीगुरुवाणी-दहेज में हरि का नाम मांगे वही श्रेष्ठ पुत्री (hari ka nam mange vah shreshth purti-shri guruvani

‘हरि प्रभ मेरे बाबुला, हरि देवहु दान में दाजो।’
हिन्दी में भावार्थ-
श्री गुरुग्रंथ साहिब में दहेज प्रथा का आलोचना करते हुए कहा गया है कि वह पुत्रियां प्रशंसनीय हैं जो दहेज में अपने पिता से हरि के नाम का दान मांगती हैं।
दहेज प्रथा पर ही प्रहार करते हुए यह भी कहा गया है कि
होर मनमुख दाज जि रखि दिखलाहि,सु कूड़ि अहंकार कच पाजो
इसका आशय यह है कि ऐसा दहेज दिया जाना चाहिए जिससे मन का सुख मिले और जो सभी को दिखलाया जा सके। ऐसा दहेज देने से क्या लाभ जिससे अहंकार और आडम्बर ही दिखाई दे।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-हमारे यहां विवाद एक धार्मिक संस्कार माना जाता है मगर जब लोग रिश्ते तय करते हैं तो इस तरह लगता है जैसे कि व्यापार कर रहे हों। धर्म और रीति के नाम पर लड़की की शादी में दान देने की पंरपरा को लोगों ने पुत्र पैदा करने के दाम वसूल करने की नीति में बदल दिया है। भले ही लोग यह दावा करते हों कि हमारी विवाह परंपरा श्रेष्ठ है पर इसके निर्वहन के समय पैसे का खेल खेलने का जो प्रयास होता है वह सीधी धर्म के विरुद्ध लगता है। इस पर श्रीगुरुनानक जी जो अपनी बात कही है वह सचमुच में भारतीय धर्म की परंपरा का प्रतीक है।
दहेज हमारे समाज की सबसे बड़ी बुराई है। चाहे कोई भी समाज हो वह इस प्रथा से मुक्त नहीं है। अक्सर हम दावा करते हैं कि हमारे यहां सभी धर्मों का सम्मान होता है और हमारे देश के लोगों का यह गुण है कि वह विचारधारा को अपने यहां समाहित कर लेते हैं। इस बात पर केवल इसलिये ही यकीन किया जाता है क्योंकि यह लड़की वालों से दहेज वसूलने की प्रथा उन धर्म के लोगों में भी बनी रहती है जो विदेश में निर्मित हुए और दहेज लेने देने की बात उनकी रीति का हिस्सा नहीं है। कहने का आशय यह है कि दहेज लेने और देने को हम यह मानते हैं कि यह ऐसे संस्कार हैं जो मिटने नहीं चाहे कोई भी धर्म हो? समाज कथित रूप से इसी पर इतराता है।
इस प्रथा के दुष्परिणामों पर बहुत कम लोग विचार करते हैं। इतना ही नहीं आधुनिक अर्थशास्त्र की भी इस पर नज़र नहीं है क्योंकि यह दहेज प्रथा हमारे यहां भ्रष्टाचार और बेईमानी का कारण है और इस तथ्य पर कोई भी नहीं देख पाता। अधिकतर लोग अपनी बेटियों की शादी अच्छे घर में करने के लिये ढेर सारा दहेज देते हैं इसलिये उसके संग्रह की चिंता उनको नैतिकता और ईमानदारी के पथ से विचलित कर देती है। केवल दहेज देने की चिंता ही नहीं लेने की चिंता में भी आदमी अपने यहां धन संग्रह करता है ताकि उसकी धन संपदा देखकर बेटे की शादी में अच्छा दहेज मिले। यह दहेज प्रथा हमारी अध्यात्मिक विरासत की सबसे बड़ी शत्रु हैं और इससे बचना चाहिये। यह अलग बात है कि अध्यात्मिक, धर्म और समाज सेवा के शिखर पुरुष ही अपने बेटे बेटियों की शादी कर समाज को चिढ़ाते हैं।
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Saturday, August 7, 2010

भर्तृहरि नीति दर्शन-मदिरा से भरी आंखों को न देखा होता तो संसार पार हो जाता (hindu dharma sandesh-kuleenta,vivek aur kam vasna)

तावन्महत्तवं पाण्डितयं केलीनत्वं विवेकता।
यावज्जवलति नांगेषु हतः पंचेषु पावकः।।
हिन्दी में भावार्थ-
किसी भी मनुष्य में सज्जनता, कुलीनता, तथा विवेक का भाव तभी तक रहता है जब उसके हृदय में कामदेव की ज्वाला नहीं धधकी होती। कामदेव का हमला होने पर पर सारे अच्छे भाव नष्ट हो जाते है।
संसार! तव पर्यन्तपदवी न दवीयसी।
अन्तरा दुस्तराः न स्युर्यदि ते मदिरेक्षणा।।
हिन्दी में भावार्थ-
यहां भर्तृहरि महाराज कहते हैं कि ‘ओ संसार, तुझे पार पाना कोई कठिन काम नहीं था अगर मदिरा से भरी आखों में न देखा होता।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या- किसी मनुष्य को देवता नहीं समझना चाहिये क्योंकि पंच तत्वों से बनी इस देह में राक्षस भी रहता है। अगर कोई मनुष्य सात्विक कर्म में लिप्त है तो उसकी परीक्षा लेने का प्रयास भी नहीं करना चाहिए।  श्रीमद्भागवत गीता में कहा गया है कि ‘गुण ही गुणों में बरतते है’, और ‘इंद्रियां ही इंद्रियों बरत रहीं है’। इसका आशय यह है कि इस देह में मौजूद तत्व कब किसे अपने प्रभाव में लाकर मार्ग से भटका दें यह कहना कठिन है। इतना जरूर है कि तत्व ज्ञान इस बात को जानते हैं तो मार्ग से भटकते हैं और भटक जायें तो अपने किये पर पश्चाताप करते हैं इसके विरुद्ध अज्ञानी लोग बजाय पश्चाताप करने के अपनी झूठी सफाई देने लगते हैं।
श्रीमद्भागवत गीता में लिखा हुआ है कि ‘गुण ही गुणों में बरतते है।’ इस सूत्र में बहुत बड़ा विज्ञान दर्शन अंतर्निहित हैं। इस संसार में जितने भी देहधारी जीव हैं सभी को रोटी और काम की भूख का भाव घेरे रहता है अलबत्ता पशु पक्षी कभी इसे छिपाते नहीं पर मनुष्यों में कुछ लोग अपने को सचरित्र दिखने के लिये अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण का झूठा दावा करते है। सच तो यह है कि पंचतत्वों से बनी इस देह मे तन और मन दोनों प्रकार की भूख लगती है। भूख चाहे रोटी की हो या कामवासना की चरम पर आने पर मनुष्य की बुद्धि और विवेक को नष्ट कर देती है। मनुष्य चाहे या नहीं उसे अपनी भूख को शांत रखने का प्रयास करना पड़ता है। जो लोग दिखावा नहीं  करते वह तो सामान्य रूप से रहते हैं पर जिनको इंद्रिय विेजेता दिखना है वह ढेर सार नाटकबाजी करते हैं। देखा यह गया है कि ऐसे ही नाटकबाज धर्म के व्यापार में अधिक लिप्त हैं और उन पर ही यौन शोषण के आरोप लगते हैं क्योंकि वह स्वयं को सिद्ध दिखाने के लिये छिपकर अपनी भूख मिटाने का प्रयास करते हैं और अंतत: उनका रास्ता अपराध की ओर जाता है।
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