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Monday, May 31, 2010

‘जीवन जीने की कला’ का मतलब है कि कभी विचलित न होना-हिन्दी लेख (meaning of art of living-hindi article

कथित रूप से जीने की कला सिखाने वाले एक संत के आश्रम पर गोली चलने की वारदात हुई है। टीवी चैनलों तथा समाचार पत्रों की जानकारी के अनुसार इस विषय पर आश्रम के अधिकारियों तथा जांच अधिकारियों के बीच मतभेद हैं। आश्रम के अधिकारी इसे इस तरह प्रचारित कर रहे हैं कि यह संत पर हमला है जबकि जांच अधिकारी कहते हैं कि संत को उस स्थान से निकले पांच मिनट पहले हुए थे और संत वहां से निकल गये थे। यह गोली सात सो फीट दूरी से चली थी। अब यह कहना कठिन है कि इस घटना की जांच में अन्य क्या नया आने वाला है।
संतों की महिमा एकदम निराली होती है और शायद यही कारण है कि भारतीय जनसमुदाय उनका पूजा करता है। भारतीय अध्यात्म ग्रंथों के प्रचार प्रसार तथा उनके ज्ञान को अक्षुण्ण बनाये रखने में अनेक संतों का योगदान है वरना श्रीमदभागवतगीता जैसा ग्रंथ आज भी प्रासंगिक नहीं बना रहता है।
मगर यह कलियुग है जिसके लिये कहा गया है कि ‘हंस चुनेगा दाना, कौआ मौती खायेगा’। यह स्थिति आज के संत समाज के अनेक सदस्यों में लागू होती है जो अल्पज्ञान तथा केवल भौतिक साधना की पूजा करते हुए भी समाज की प्रशंसा पाते हैं । कई तो ऐसे लोग हैं कि जिन्होंने पहनावा तो संतों का धारण कर लिया है पर उनका हृदय साहूकारों जैसा ही है। ज्ञान को रट लिया है पर उसको धारण अनेक संत नहीं कर पाये। हिन्दू समाज में संतों की उपस्थिति अब कोई मार्गदर्शक जैसी नहीं रही है। इसका एक कारण यह है कि सतों का व्यवसायिक तथा प्रबंध कौशल अब समाज के भक्ति भाव के आर्थिक् दोहन पर अधिक केंद्रित है जिसे आम जनता समझने लगी है। दूसरा यह कि अंग्रेजी शिक्षा पद्धति से शिक्षित बुद्धिजीवी अब संतों की असलियत को उजागर करने में झिझकते नहीं। बुद्धिजीवियों की संत समाज के प्रतिकूल अभिव्यक्तियां आम आदमी में चर्चित होती है। एक बात यह भी है कि पहले समाज में सारा बौद्धिक काम संतों और महात्माओं के भरोसे था जबकि अब आधुनिक शिक्षा प्राप्त कर यह काम ऐसे बुद्धिजीवी करने लगे हैं जो धार्मिक चोगा नहीं पहनते।
ऐसे अनेक बौद्धिक रूप से क्षमतावान लोग हैं जो भारतीय अध्यात्म के प्रति रुझान रखते हैं पर संतों जैसा पहनावा धारण नहीं करते। इनमें जो अध्यात्मिक ज्ञान के जानकार हैं वह तो इन कथित व्यवसायिक संतों को पूज्यनीय का दर्जा देने का ही विरोध करते हैं।
वैसे संत का आशय क्या है यह किसी के समझ में नहीं आया पर हम परंपरागत रूप से देखें तो संत केवल वही हैं जो निष्काम भाव से भक्ति में करते हैं और उसका प्रभाव इतना बढ़ जाता है कि अन्य सामान्य लोग उसने ज्ञान लेने उनके पास आते हैं। पहले ऐसे संत सामान्य कुटियाओं मे रहते थे-रहते तो आज भी कुटियाओं में कहते हैं यह अलग बात है कि वह संगममरमर की बनी होती हैं और उनके वातानुकूलित यंत्र लगे रहते हैं और नाम भी कुटिया या आश्रम रखा जाता है। सीधी बात कहें कि संत अब साहूकार, राजा तथा शिक्षक की संयुक्त भूमिका में आ गये हैं। नहीं रहे तो संत, क्योंकि जिस त्याग और तपस्या की अपेक्षा संतों से की जाती है वह अनेक में दिखाई नहीं देते। यही कारण है कि समाज में उनके प्रति सद्भावना अब वैसी नहीं रही जैसे पहले थी। ऐसे में आश्रम के व्यवसाय तथा व्यवस्था में अप्रिय प्रसंग संघर्ष का कारण बनते हैं पर उनको समूचे धर्म पर हमला कहना अनुचित है।
उपरोक्त आक्रमण को लेकर जिस तरह टीवी चैनलों ने भुनाने का प्रयास किया उसे बचा जाना चाहिए। भारतीय धर्म एक गोली से नष्ट नहीं होने वाला और न ही किसी एक आश्रम में गोली चलने से उसके आदर्श विचलित होने वाले हैं।
बात संतों की महिमा की है तो यकीनन कुछ संत वाकई संत भी हो सकते हैं चाहे भले ही उनके आश्रम आधुनिक साजसज्जा से सुसज्तित हों। इनमें एक योगाचार्य हैं जो योगसाधना का पर्याय बन गये हैं। यकीनन यह उनका व्यवसाय है पर फिर भी उनको संत कहने में कोई हर्ज नहीं। मुश्किल यह है कि यह संत हर धार्मिक विवाद पर बोलने लगते हैं और व्यवसायिक प्रचार माध्यम उनके बयानों को प्रकाशित करने के लिये आतुर रहते हैं। चूंकि यह हमला एक आश्रम था इसलिये उनसे भी बयान लिया गया। .32 पिस्तौल से निकली एक गोली को लेकर धर्म पर संकट दिखाने वाले टीवी चैनलों पर जब वह इस घटना पर बोल रहे थे तब लग रहा था कि यह भोले भाले संत किस चक्कर में पड़े गये। कुछ और भी संत बोल रहे थे तब लग रहा था कि कथित जीने की कला सिखाने वाले संत को यह लोग व्यर्थ ही प्रचार दे रहे हैं। जीवन जीने की कला सिखाने वाले कथित संत की लोकप्रियता से कहीं अधिक योगाचार्य की है और लोग उनकी बातों पर अभी भी यकीन करते हैं। कुछ अन्य संत कभी जिस तरह इस घटना को लेकर धर्म को लेकर चिंतित हैं उससे तो लगता है कि उनमें ज्ञान का अभाव है।
जहां तक जीवन जीने की कला का सवाल है तो पतंजलि योग दर्शन तथा श्रीमदभागवतगीता का संदेश इतना स्वर्णिम हैं कि वह कभी पुरातन नहीं पड़ता। इनके रचयिता अब रायल्टी लेने की लिये इस धरती पर मौजूद नहीं है इसलिये उसमें से अनेक बातें चुराकर लोग संत बन रहे हैं। वह स्वयं जीवन जीने की कला सीख लें जिसमें आदमी बिना ठगी किये परिश्रम के साथ दूसरों का निष्प्रयोजन भला करता है, तो यही बहुत है। जो संत अभी इस विषय पर बोल रहे हैं उनको पता होना चाहिए कि अभी तो जांच चल रही है। जांच अधिकारियों पर संदेह करना ठीक नहीं है। जीवन जीने की कला शीर्षक में आकर्षण बहुत है पर उसके बहुत व्यापक अर्थ हैं जिसमें अनावश्यक रूप से बात को बढ़ा कर प्रस्तुत न करना और जरा जरा सी बात पर विचलित न होना भी शामिल है। 
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Thursday, May 27, 2010

हिंदू धर्मं सन्देश-विषैले पदार्थ और विषयों से दूर रहना श्रेयस्कर

कौटिल्य के अर्थशास्त्र के अनुसार
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नित्यं जीवस्य च ग्लानिर्जायते विषदर्शनात्।
एषामन्यतमेनापि समश्नीयत्परीक्षितम्।
हिन्दी में भावार्थ-
प्रतिदिन विष को देखने से ही मन में ग्लानि हो जाती है इसलिये किसीके  सहयोग से भोजन की परीक्षा करें।
चकोरस्य विरज्येत नयने विषदर्शनात्।
सुव्यक्तं माघति क्रोंचो प्रियते कोकिलः किल।
हिन्दी में भावार्थ-
विष को देखने मात्र से चकोर पक्षी की आंख लाल हो जाती है और कोकिल तो मृत्यु के गाल में ही समाज जाता है।
वर्तमानं संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-कौटिल्य का अर्थशास्त्र राजाओं के लिये लिखा गया है पर एक बात याद रखने लायक है कि हमारे प्राचीन ग्रंथों में व्यंजना विद्या में ही विषय प्रस्तुत किया जाता है जिससे हर वर्ग के मनुष्य के लिये उसका कोई न कोई अर्थ निकले। उनके राजा और प्रजा के लिये समान अर्थ हैं पर उनका भाव प्रथक हो सकता है। हर मनुष्य कहीं न कहीं राजा या प्रमुख पद पर प्रतिष्ठत होता है। आखिर परिवार भी तो राज्य की तरह चलते हैं। यहां कौटिल्य महाराज के विष को अन्य विषयों के साथ व्यापक रूप में लेना चाहिये। वैसे आजकल तो अनेक जगह खानपान की चीजों में जिस तरह विष डाला जा रहा है उसे देखते हुए अत्यधिक सतर्कता के आवश्यकता है।
हम प्रतिदिन ऐसे समाचार पढ़ रहे हैं कि दुग्ध तथा खाद्य पदार्थों  में ऐसे रसायन मिलाये जा रहे हैं जो शरीर के लिए हानिकारक हैं और जिससे अनेक प्रकार की बीमारियाँ होती  हैं, अत: जहाँ तक हो सके बाज़ार की खुली वस्तुओं के सेवन से बचना चाहिए।
 अगर हम विष की बात करें तो  वह खाने के अलावा   अन्य सांसरिक विषयों से भी संबंधित  है। कुछ विषय विष प्रदान करते हैं-जैसे परनिंदा, ईर्ष्या तथा दूसरे का दुःख देकर मन में हंसना। कुछ ऐसे स्थान भी होते हैं जहां जाकर हमारा मन खराब होता है। उसी तरह कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जिनसे मिलने पर हमारे अंदर विकार पैदा होते हैं जिससे दुष्कर्म करने की प्रेरणा आती है। कहने का अभिप्राय यह है कि मन में विष पैदा करने वाले विषयों और व्यक्तियों  से संपर्क नहीं रखना चाहिये।
इसलिये समय समय पर आत्म मंथन अवश्य करते हुए यह देखना चाहिये कि कौनसे व्यक्ति, विषय या स्थान हमारी मनस्थिति को डांवाडोल करते हैं। जहां तक हो सके उनसे दूर रहें। प्रतिदिन उनसे संपर्क रखने से न केवल अपना मन कलुषित होता है जिससे जीवन में आचरण में कलुषिता आती है और जो अंततः कर्ता के लिये ही संकट का कारण बनती है। जहां मन में प्रसन्नता रूपी अमृत मिलता हो वहीं जाना चाहिये। जिससे हृदय में पवित्रता, निर्मलता तथा दृढ़ता का भाव बना रहे उन्हीं विषयों की संगति करना ही उचित है। जिनसे विष का अनुभव हो उनसे दूर रहना ही अच्छा है। तभी जीवन तनाव मुक्त रह सकता है।
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Saturday, May 15, 2010

पतंजलि योग दर्शन-स्थिर होकर सुख से बैठने का नाम आसन है (patanjali yog sahitya in hindi)

स्थिरसुखमासनम्।
हिन्दी में भावार्थ.
स्थिर होकर सुख से बैठने का नाम आसन है।
प्रयत्नशैथिल्यानन्तसमापतिभ्याम्।
हिन्दी में भावार्थ-
आसन के समय प्रयत्न रहित होने के साथ परमात्मा का स्मरण करने से ही वह सिद्ध होता है।
ततोद्वन्द्वानभिघातः।।
हिन्दी में भावार्थ-
आसनों से सांसरिक द्वंद्वों का आघात नहीं लगता।
तस्मिन् सति श्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेदः प्राणायामः।।
हिन्दी में भावार्थ-
आसन की सिद्धि हो जाने पर श्वास ग्रहण करने और छोड़ने की गति रुक जाती है उसे प्राणायाम कहा जाता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-योग साधना कोई सामान्य व्यायाम नहीं है बल्कि ऐसी कला है जिसे जीवन में हमेशा ही आनंद का अनुभव किया जा सकता है। सबसे पहली बात तो यह है कि हम सुखपूर्वक अपने मन और इंद्रियों का निग्रह कर बैठ सकें वही आसन है। इस दौरान अपने हाथ से कोई प्रयत्न न कर केवल परमात्मा का स्मरण करना चाहिये। उस समय अपनी श्वास को आते जाते एक दृष्टा की तरह देखें न कि कर्ता के रूप में स्थित हों। बीच बीच में उसे रोकें और फिर छोड़ें। इस प्राणायाम कहा जाता है। यह प्राणायाम मन और बुद्धि के विकारों को निकालने में सहायक होता है। इससे इतनी सिद्धि मिल जाती है कि आदमी गर्मीए सर्दी तथा वर्षा से उत्पन्न शारीरिक द्वंद्वों से दूर हो जाता है। इतना ही नहीं संसार में आने वाले अनेक मानसिक कष्टों को वह स्वाभाविक रूप से लेता है। दूसरे शब्दों में कहें तो वह दुःख और सुख के भाव से परमानन्द भाव को प्राप्त होता है।
इस संसार में दो ही मार्ग हैं जिन पर इंसान चलता है। एक तो है सहज योग का दूसरा असहज योग। हर इंसान योग करता है। एक वह हैं जो सांसरिक पदार्थों में मन को फंसाकर कष्ट उठाते हैं दूसरे उन पदार्थों से जुड़कर भी उनमें लिप्त नहीं होते। इसलिये कहा जाता है कि योग जीवन जीने की एक कला है और यह भी अन्य कलाओं की तरह अभ्यास करने पर ही प्राप्त होती है। जो सतत योगाभ्यास करते हैं उनके चेहरे और वाणी में तेज स्वत: आता है और उससे दूसरे लोग प्रभावित होते हैं। इसके अलावा जीवन में अपने दायित्वों का निर्वहन करने में सहजता का अनुभव होता  है।
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Thursday, May 13, 2010

भर्तृहरि नीति शतक-स्त्री तथा देवता एक ही होना चाहिए (woman and god-hindu dharma sandesh

एको देवः केशवो वा शिवो वा ह्येकं मित्रं भूपतिवां यतिवां।
एको वासः पत्तने वने वा ह्येकं भार्या सुन्दरी वा दरी वा।।
हिन्दी में भावार्थ-
मनुष्य को अपना आराध्य देव एक ही रखना चाहिये भले ही वह केशव हो या शिव। मित्र भी एक ही हो तो अच्छा है भले ही वह राजा हो या साधु। घर भी एक ही होना चाहिये भले ही वह जंगल में हो या शहर में। स्त्री भी एक होना चाहिये भले ही वह वह सुंदरी हो या अंधेरी गुफा जैसी।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-इस संसार में दुःख बहुत हैं पर सुख कम। भले लोग कम स्वार्थी अधिक हैं। इसलिये अपनी कामनाओं की सीमायें समझना चाहिये। हमारा अध्यात्मिक दर्शन तो एक ही निरंकार का प्रवर्तन करता है पर हमारे ऋषियों, मुनियों तथा विद्वानों साकार रूपों की कल्पना इसलिये की है ताकि सामान्य मनुष्य सहजता से ध्यान कर सके। सामन्य मनुष्य के लिये यह संभव नहीं हो पाता कि वह एकदम निरंकार की उपासना करे। इसलिये भगवान श्रीराम, श्रीकृष्ण, शिव तथा अन्य स्वरूपों की मूर्ति रूप में स्थापना की जाती है। मुख्य ध्येय तो ध्यान के द्वारा निरंकार से संपर्क करना होता है। ध्यान में पहले किसी एक स्वरूप को स्थापित कर निरंकार की तरफ जाना ही भक्ति की चरम सीमा है। अतः एक ही रूप को अपने मन में रखना चाहिये चाहे वह राम जी हो, कृष्ण जी हों या शिव जी।
उसी तरह मित्रों के संचय में भी लोभ नहीं करना चाहिये। दिखाने के लिये कई मित्र बन जाते हैं पर निभाने वाला कोई एक ही होता है। इसलिये अधिक मित्रता करने पर कोई भी भ्रम न पालें। अपने रहने के लिये घर भी एक होना चाहिये। वैसे अनेक लोग ऐसे हैं जो अधिक धन होने के कारण तीर्थो और पर्यटन स्थलों पर अपने मकान बनवाते हैं पर इससे वह अपने लिये मानसिक संकट ही मोल लेते हैं। आप जिस घर में रहते हैं उसे रोज देखकर चैन पा सकते हैं, पर अगर दूसरी जगह भी घर है तो वहां की चिंता हमेशा रहती है।
उसी तरह पत्नी भी एक होना चाहिये। हमारे अध्यात्मिक दर्शन की यही विशेषता है कि वह सांसरिक पदार्थों में अधिक मोह न पालने की बात कहता है। अधिक पत्नियां रखकर आदमी अपने लिये संकट मोल लेता है। कहीं तो लोग पत्नी के अलावा भी बाहर अपनी प्रेयसियां बनाते हैं पर ऐसे लोग कभी सुख नहीं पाते बल्कि अपनी चोरी पकड़े जाने का डर उन्हें हमेशा सताता है। अगर ऐसे लोग राजकीय कार्यों से जुड़े हैं तो विरोधी देश के लोग उनकी जानकारी एकत्रित कर उन्हें ब्लेकमेल भी कर सकते हैं। कहने का अभिप्राय यही है कि अपना इष्ट, घर, मित्र और भार्या एक ही होना चाहिये। अधिक संपर्क बनाने या संपति का सृजन करने से भी अपने मन में मोह तथा अहंकार का भाव पैदा होता है कालांतर में उसके बुरे परिणाम भी स्वयं को भोगने पड़ते हैं।
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Saturday, May 8, 2010

हिन्दू धर्म संदेश-धर्म रहित कार्य केवल मूर्ख आदमी ही करता है (moorkh aadmi karta hai dharma rahit karya-hindu dharma sandesh)

आधिव्याधिविपरीतयं अद्य श्वो वा विनाशिने।
कोहि नाम शरीराय धम्मपितं समाचरेत्।।
हिन्दी में भावार्थ-
तमाम तरह के दुःखों से भरे और कल नाश होने वाले इस शरीर के लिये धर्म रहित कार्य केवल कोई मूर्ख आदमी ही कर सकता है।

महावाताहृतभ्त्रान्ति मेघमालातिपेलवैः।
कष्टां नाम महात्मानो हियन्ते विषयारिभिः।।
हिन्दी में भावार्थ-
जिस तरह बादलों का समूह वायु की तीव्र गति से डांवाडोल होता है उसी तरह महात्मा लोग भी विषयरूपी शत्रुओं के प्रहार से विचलित हो ही जाते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-इस संसार के विषयों की भी अपनी महिमा है। मनुष्य देह में चाहे सामान्य व्यक्ति हो या योगी इन सांसरिक विषयों के चिंतन से बच नहीं सकते। जैसे ही उनका चिंतन शुरु हुआ नहीं कि आसक्ति घेर लेती है और तब सारा का सारा ज्ञान धरा रह जाता है। सामान्य मनुष्य हो या योगी विषयों से प्रवाहित तीव्र आसक्ति की वायु से उसी तरह डांवाडोल होते हैं जैसे संगठित बादलों का समूह तेज चलती हवा के झौंकों से विचलित हो जाते हैं।
किसी ज्ञान को रटने और धारण करने में अंतर है। यह शरीर नश्वर है तथा अनेक प्रकार के रोगाणु उसमें विराजमान हैं। ऐसे शरीर से अधर्म का काम करना मूर्खता है पर सबसे मुख्य बात यह है कि इस बात को समझते कितने लोग हैं? अनेक लोग धार्मिक संतों का प्रभाव देखकर उन जैसा बनने के लिये शब्द ज्ञान ग्रहण कर उसे दूसरों को सुनाने का अभ्यास करते हैं। जब वह अभ्यास करते हैं तो उनके अंदर यह एक व्यवसायिक गुण निर्मित हो ही जाता है कि वह दूसरे पर अपना प्रभाव कायम कर सकें, मगर ऐसे लोग केवल ज्ञान का बखान करने वाले होते हैं पर उस राह पर कभी चले नहीं होते। नतीजा यह होता है कि कभी न कभी उनको विषय घेर लेते हैं और तब वह इसी नश्वर देह के लिये अधर्म का काम करते हैं। यही कारण है कि अपने देश में बदनाम होने वाले संतों की भी कमी नहीं है।
यह जरूरी नहीं है कि सभी सन्यासी हमेशा ही ज्ञानी हों। उसी तरह यह भी कि सभी गृहस्थ अज्ञानी भी नहीं होते। जो तत्व ज्ञान को समझता है वह चाहे गृहस्थ ही क्यों न हो, योगियों और सन्यासियों की श्रेणियों में आता है। अपने सांसरिक कार्य करते हुए विषयों में आसक्ति न होना भी एक तरह से सन्यास है। दूसरी बात यह है कि सांसरिक विषयों की चर्चा करने वाले तथा संपत्ति संचय में कथित रूप से लोग सन्यासी नहीं हो सकते जैसा कि वह दावा करते हैं। सच बात तो यह है कि विषय उनको विचलित क्या करेंगे वह तो उनको हमेशा ही घेरे रहते हैं।
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Tuesday, May 4, 2010

विदुर दर्शन-सत्य से ही धर्म की रक्षा संभव (satya se hi dharma ki raksha sanbhav)

सत्येन रक्ष्यते धर्मो विद्या योगेन रक्ष्यते।
मृजया रक्ष्यते रूपं कुलं वृत्तेन रक्ष्यते।।
हिन्दी में भावार्थ-
सत्य से धर्म, योग से विद्या, सफाई से सुंदरता और सदाचार से कुल की रक्षा होती है। 


पर्जन्यनाथाः पशवो राजानो मन्त्रिबान्धवाः।।
पतयो बान्धवा स्त्रीणां ब्राह्मण वेदबान्धवा।।
हिन्दी में भावार्थ-
पशुओं के सहायक बादल, राजाओं के सहायक मंत्री, स्त्रियों के सहायक पति के साथ बंधु और विद्वानों का सहायक ज्ञान है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जीवन में ज्ञान का होना जरूरी है अन्यथा हम अपने पास मौजूद व्यक्तियों, वस्तुओं तथा उपलब्धियों का सही उपयोग नहीं कर सकते। एक बात याद रखना चाहिये कि हमारे साथ जो लोग होते हैं उनका महत्व होता है।  अंधेरे में तीर चलाने से कुछ नहीं होता, इसलिये जीवन के सत्य को समझ लेना चाहिये। राजाओं के सहायक मंत्री होते हैं। इसका आशय साफ है कि अपने मित्र और सलाहकार के चयन में हर आदमी को सतर्कता बरतना चाहिये।
स्त्रियों की स्वतंत्रता बुरी नहीं है पर उन्हें यह समझ लेना चाहिये कि उनकी रक्षा उसके परिवार के पुरुष सदस्य ही कर सकते हैं।  उनको बाहर के व्यक्तियों से यह अपेक्षा नहीं करना चाहिये कि वह उनकी रक्षा करेंगे भले ही चाहे वह कितना भी दावा करें।  हम अक्सर ऐसी वारदातें देखते हैं जिसमें स्त्रियों के साथ धोखा होता है और इनमें अधिकतर उनमें अपने ही  लोग होते हैं। इनमें भी अधिक संख्या उनकी होती है  जो परिवार के बाहर के होने के बावजूद उनसे निकटता प्राप्त करते हैं।  स्त्रियों के मामले में यह भी दिखाई देता है कि उनके साथ विश्वासघात अपने ही करते हैं पर इनमें अधिकतर संख्या  उन लोगों की होती है जो बाहर के होने के साथ  अपने बनने का नाटक हुए   उनको धर्म और चरित्र पथ से भ्रष्ट भी करते हैं।
हम लोगों का यह भ्रम होता है कि बादल हमारे लिये बरस रहे हैं।  जब बादल नहीं बरसते तब तमाम तरह के धार्मिक कर्मकांड किये जाते हैं। बरसते हैं तो धर्म के ठेकेदार अनेक प्रकार के दावे करते हैं जबकि सच्चाई यह है कि बादल धरती पर स्थित पेड़ पौद्यों तथा पशुओं के रक्षक हैं और इसलिये उनका तो बरसना ही है।
आजकल भारतीय योग साधना का प्रचार हो रहा है। दरअसल यह योग साधना न केवल स्वास्थ्य के लिये उपयुक्त है बल्कि उससे हमारी विद्या तथा ज्ञान की रक्षा भी होती है। इसलिये जो लोग चाहते हैं कि उनके बच्चे प्रतिभाशाली हों उन्हें चाहिये कि वह इसके लिये उनको प्रेरित करें।  आजकल कठिन प्रतियोगिता का समय है और ऐसे में योग साधना ही एक ऐसा उपाय दिखती है जिससे उनकी प्रतिभा को सोने जैसी चमक मिल सकती है। सच बात तो यह है कि इस संसार में खुश रहने के लिये योग साधना के अलावा कोई अन्य उपाय है इस पर विश्वास करना कठिन है। 
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