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Thursday, December 9, 2010

कानून की छत के नीचे-हिन्दी कविता (kanoon ki chhat ke neeche-hindi poem)

कानून की छत के नीचे
कुछ इंसानों का झुंड शांति से खड़ा है,
ऊपर हैं कुछ लोग जिनका कद बड़ा है।
सीढ़ियों पर लगी है एक तख्ती
यहां आम इंसान का प्रवेश वर्जित है,
कैसे ऊपर जाने की पात्रता पायें
सोच रहा है हर कोई
जो कानून की छत के नीचे
आम इंसानों की भीड़ में खड़ा है।
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भीड़ में चमकने की ख्वाहिश
इंसान को अंधा बना देती है,
अपना अक्स नहीं देख पाते कुछ लोग
पर दूसरों को अपना रुतवा दिखाने की चाहत
उनको खूंखार बना देती है।
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संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

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Saturday, December 4, 2010

श्री गुरू ग्रन्थ साहिब से-लोभवश परमात्मा की भक्ति करने का लाभ नहीं

फरीदा जा लबहु त नेहु किआ लबु त कूढ़ा नेहु।
किचरु झति लघाइअै छप्पर लुटै मेहु।
हिन्दी में भावार्थ-
संत फरीद के अनुसार अगर परमात्मा की भक्ति लालच या लोभवश की जाती है तो वह सच्ची नहीं है। एक तरह से बहुत बड़ा झूठ है। ठीक वैसे ही जैसे टूटे हुए छप्पर से पानी बह जाता है वैसा ही हश्र कामना सहित भक्ति का होता है।

दिनु रैणि सभ सुहावणे पिआरे जितु जपीअै हरि नाउ।’
हिन्दी में भावार्थ-
श्री गुरुवाणी में संत फरीद की इस रचना के अनुसार जब मनुष्य ईश्वर के नाम का स्मरण हृदय से करता है तो उसके लिए सभी दिन और रातें सुहावनी हो जाती हैं।
माइआ कारनि बिदिआ बेयहु जनमु अबिरथा जाइ।
हिन्दी में भावार्थ-
श्री गुरुग्रंथ साहिब के अनुसार पैसे के लिए विद्या बेचने वालों जन्म व्यर्थ जाता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-श्रीगुरुग्रंथ साहिब के अनेक संत कवियों की रचनायें शामिल हैं जिसमें संत फरीद का नाम भी आता है। इन सभी संत कवियों ने निष्काम भक्ति के लाभ बताये हैं। दरअसल मनुष्य कामनाओं के साथ हमेशा जीता है और इस कारण पैदा होनी वाली एकरसता अंततः मन में भारी ऊब तथा खीज पैदा करती है। कई लोग मूड बदलने के लिये कहीं पर्यटन तथा पिकनिक के लिये जाते हैं पर फिर लौटते हैं तो वही असंतोष जीवन को घेर लेता है जिसके साथ जी रहे हैं।
अपने मन का मार्ग बदलने के लिये निष्काम होना जरूरी है इसके लिये परमात्मा का नाम स्मरण करना एक श्रेष्ठ मार्ग हैं। मुश्किल यह है कि अज्ञानी मनुष्य भक्ति में कामना रखकर ही चल पड़ता है और इससे उसको कोई लाभ नहीं मिलता। इतना ही नहंी अनेक लोग तो ज्ञान प्राप्त कर उसे बेचकर अपने मन को संतोष देने का प्रयास करते हैं। ऐसे ढोंगी भले ही समाज में पुजते हैं पर मन तो उनका भी संताप से भरा रहता है। निष्काम भक्ति तभी संभव है जब अपने मन को केवल नाम स्मरण में यह सोचकर लगाया जाये कि उससे कोई भौतिक लाभ हो या नहीं पर शांति मिलनी चाहिए।
सच तो यह है कि नाम लेने से भगवान भले न मिलते हों पर मन को संतोष तो मिल ही जाता है जो कि भगवान प्राप्ति की अनुभूति वाला भी भाव है।
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संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
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Sunday, November 21, 2010

श्रीगुरुनानक देव के जन्म दिन प्रकाश पर्व का महत्व-हिन्दी लेख (shri gurunanak birth day or janama din and prakash parva-hindi lekh)

आज सारे देश में गुंरुनानकजी का जन्म दिन प्रकाश पर्व के रूप में मनाया जा रहा है। जहां तक उनके जीवन चरित्र पर चर्चा का प्रश्न है तो उसके बारे में सभी जानते हैं। उनके नाम पर सिख धर्म की स्थापना हुई और सच बात तो यह है कि अनेक समाज विशेषज्ञ पूरी सिख कौम को एक विशेष कौम मानते हुए उसके सभी सदस्यों को सम्मान तथा विश्वास से देखते हैं। कहा जाता है कि सिख धर्म की स्थापना ही हिन्दू संस्कृति की स्थापना के लिए हुई थी। कालांतर में सब बदल गया और राजनीतिक छपकपट के चलते अब सिख और हिन्दू धर्म को अलग अलग माना जाता है।
इसके बावजूद यह सच है कि गुरुनानक इस देश के ऐसे आदर्श पुरुष माने जाते हैं जिन्होंने पूरे भारतीय समाज को एक ऐसा मार्ग दिखाया जिसका यह लाभ हुआ कि लोगों के अंधविश्वासों तथा रूढ़िवादिता के विरुद्ध एक जागरुक समाज खड़ा हुआ। श्रीगुरुनानक देव ने भारतीय समाज में व्याप्त बलि, दहेज तथा अन्य कुप्रथाओं का खुलकर विरोध किया गया। देखा जाये तो भारतीय समाज में सुधार लाने वाले वह ऐसे आधुनिक महापुरुष थे जिनका हर संदेश प्रमाणिक है। वह एक मस्तमौला तथा अध्यात्मिक प्रवृत्ति के महापुरुष थे। उनके व्यक्तित्व की कल्पना ही मन में रोमांच प्रदान करती है। ऐसे महापुरुष को कोटि कोटि प्रणाम।
इस अवसर पर अपने सारे ब्लाग लेखक मित्रों तथा पाठकों हार्दिक बधाई।
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संकलक एवं संपादक-दीपक राज  कुकरेजा " भारतदीप",ग्वालियर 
author, writer and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
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Friday, November 5, 2010

धार्मिक विचार-अपने ऊपर निर्भर काम ही शुरू करें

मनुष्य स्वभाव से ही अहंकारी होता है ऐसे में जब उसे कहीं अपने व्यक्तित्व के कमजोर होने की अनुभूति पर वह हताश होता है। आजकल लोगों ने अपनी जरूरतें इतनी बढ़ा ली हैं कि उसके लिये उनको दूसरों की सहायता लेनी पड़ती है जो कालांतर में उनके स्वाभिमान पर आघात पहुंचाती है। जब कोई मनुष्य अपना काम दूसरे पर छोड़ता है तब उसे इस बात का ज्ञान नहीं होता कि उसका बदला भी उसे चुकाना है। ऐसे में जब उसे प्रत्युत्तर में काम करना या दाम देना होता है तब उसका दम फूलने लगता है। शायद इसलिये कहा गया है कि अपना हाथ जगन्नाथ। इसलिये जहां तक हो सके दूसरों पर निर्भर होने वाला काम शुरु ही नहीं करना चाहिए। मनु स्मृति में अनेक ऐसी बातें कही गयी हैं जो आज भी प्रेरणा देती हैं
सर्वे परवशं दुःखं सर्वमात्मवशं सुखम्।
एतद्विद्यात्समासेन लक्षणं सुखदुःखयोः।।
हिन्दी में भावार्थ-
जो कार्य दूसरे के अधीन है वह दुःखदायी होता है। जिस काम पर अपना पूरी तरह से नियंत्रण हो उसी से ही सुख मिलता है। यही सुख और दुःख का लक्षण है।
यत्कर्मकुर्वतोऽस्य स्यात्परितोषोऽन्तरात्मनः।
तत्प्रयतनेन कुर्वीत विपरीतं तु वर्जयेत्।
हिन्दी में भावार्थ-
जिस काम को करने से मन और अंतरात्मा को शांति मिलती हो वही करना चाहिए। जिससे इसके विपरीत स्थिति हो तो उस काम को त्याग देना चाहिए।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जब भी हमारे सामने कोई कार्य उपस्थित होता है तो उसके परिणामों, प्रकृति तथा स्वरूप पर अवश्य विचार करना चाहिए। कभी कोई कार्य दबाव या परप्रेरणा से नहीं करना चाहिऐ। इसके अलावा जो कार्य पूरे या आंशिक रूप से दूसरे पर निर्भर हो उसे अपने हाथ में न लें तो ही अच्छा। क्योंकि तब लक्ष्य की प्राप्ति दूसरे की गतिविधि पर निर्भर हो जाती है। अनेक बार ऐसा भी होता है कि दूसरा आदमी अगर अंदर ही अंदर द्वेष रखता है तो वह जानबूझकर उस काम का अपना पूरा या आंशिक दायित्व नहीं निभाता तब अपना लक्ष्य या अभियान संकट में पड़ जाता है।
इसके अलावा किसी भी कार्य को करते हुए इस बात पर भी विचार करना चाहिए कि उससे अपने मन और अंतरात्मा को संतोष मिलेगा या नहीं। जिस काम को करने से मन और अंतरात्मा में क्लेश होता हो उससे करने का विचार ही छोड़ दें तो ही अच्छा होगा। कहने का अभिप्राय यह है कि अपने हाथ से किये जाने वाले कार्यों पर विचार करना चाहिए ताकि उनके परिणामों को लेकर बाद में पछताना न पड़े। बुद्धिमान व्यक्ति किसी भी काम को करने से पहले उसके हर पहलू पर विचार कर लेते हैं।
अनेक बार हम दूसरों के कहने पर या किसी कि कामयाबी को देखकर वैसा ही काम करने लग जाते हैं। यह देखने का प्रयास ही नहीं करती कि उसने यह सब किया कैसे? ऐसे बिना सोचे काम करने का परिणाम कभी ठीक नहीं होता।
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संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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Saturday, October 30, 2010

कबीर दास के दोहे-भक्ति करने से मान न मिलने पर मूर्ख दुःखी होते हैं (kabir das-bhaki aur samman)

मान बड़ाई ऊरमी, ये जग का व्यवहार।
दीन गरीबी बन्दगी, सतगुरु का उपकार।।
संत शिरोमणि कबीरदास का कहना है कि जिस तरह दुनियां का व्यवहार है उससे देखकर तो यही आभास होता है कि मान और बड़ाई दुःख का कारण है। सतगुरु की शरण लेकर उनकी कृपा से जो गरीब असहाय की सहायता करता है, वही सुखी है।

मान बड़ाई देखि कर, भक्ति करै संसार।
जब देखैं कछु हीनता, अवगुन धरै गंवार।
संत कबीरदास जी कहते हैं कि दूसरों की देखादेखी कुछ लोग सम्मान पाने के लिये परमात्मा की भक्ति करने लगते हैं पर जब वह नहीं मिलता वह मूर्खों की तरह इस संसार में ही दोष निकालने लगते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-इस संसार में ऐसे अनेक लोग हैं जो अपनी धार्मिक छबि बनाये रखने के लिये भक्ति का दिखावा करते हैं। इनमें से कुछ तो ऐसे हैं जो गुरु बनकर अपने लिये शिष्य समुदाय का निर्माण कर अपनी रोजी रोटी चलाते हैं। ऐसे दिखावे की भक्ति करने वाले अनेक लोग हैं। इसके विपरीत जो भगवान की वास्तव में भक्ति करते हैं वह उसका प्रयार नहीं करते न ही अपना ज्ञान बघारते हैं।
भक्त और ज्ञानी की पहचान यह है कि वह कभी अपनी भक्ति और ज्ञान शक्ति का बखान नहीं करते बल्कि निर्लिप्त भाव से समाज सेवा करते हुए अपना जीवन यापन करते हैं। अपनी सच्ची भक्ति और ज्ञान के कारण कुछ लोग महापुरुषों की श्रेणी में आ जाते हैं उनको देखकर अन्य लोग भी यही प्रयास करते हैं कि उनकी पूजा हो। यह केवल अज्ञान का प्रमाण है अलबत्ता अपने देश में धार्मिक प्रवचन एक व्यवसाय के रूप में चलता रहा है। इस कारण तोते की तरह किताबों को रटकर लोगों को सुनाते हुए खूब कमाते हैं। उनको देखकर कुछ लोग यह सोचते हुए भक्ति का दिखावा करते हैं कि शायद उनको भी ऐसा ही स्वरूप प्राप्त हो। अनेक लोग संतों की सेवा में इसलिये जाते हैं कि हो सकता है कि इससे उनको किसी दिन उनकी गद्दी प्राप्त हो जाये। ऐसे में भक्ति और ज्ञान तो एक अलग विषय हो जाता है और वह मठाधीशी के चक्कर में राजनीति करने लगते हैं। किताबों को रटने की वजह से उनको शब्द ज्ञान याद तो रहता है ऐसे में वह थोड़ा बहुत प्रवचन भी कर लेते हैं पर उनकी भक्ति और ज्ञान प्रमाणिक नहीं है। वैसे भी अपने पौराणिक ग्रंथों का अध्ययन हर आदमी इतना तो कर ही लेता है कि उसे सारी कथायें याद रहती हैं। नहीं भी अध्ययन करे तो इधर उधर सुनकर उसे बहुत सारी कथायें याद आ ही जाती हैं। । किसी आदमी ने वह भी नहीं किया हो तो अपने अध्यात्मिक दर्शन के कुछ सूक्ष्म सत्य-निष्काम कर्म करो, परोपकार करो, दया करो और माता पिता की सेवा करे जैसे जुमले- सुनाते हुए श्रोताओं और दर्शकों की कल्पित कहानियों से मनोरंजन करता है। उनको सम्मानित होते देख अन्य लोग भक्ति में जुट जाते हैं यह अलग बात है कि कामना सहित यह भक्ति किसी को भौतिक फल दिलाती है किसी को नहीं।
फिर भक्ति हो या ज्ञानार्जन अगर कामना सहित किया जाये और सफलता न मिले तो आदमी संसार में दोष ढूंढने लगता है। यह केवल भक्ति या ज्ञान के विषय में नहीं है बल्कि साहित्य और कला के विषयों में भी यही होता है। आदमी आत्ममुग्ध होकर अपना काम शुरु करता है पर जब उसे सफलता नहीं मिलती तो वह निराश हो जाता है। निष्कर्ष यह है कि सम्मान पाने का मोह आदमी के लिये दुःख का कारण बनता है। एक बात याद रखें सम्मान पाने की चाह पूरी नहीं हुई तो दुःख तो होगा और अगर पूरी भी हो गयी तो अपमान भी हो सकता है। जहां सुख है वहां दुःख भी है। जहां आशा है वहां निराशा भी है। जहां सम्मान है वहां अपमान भी है। अगर सम्मान मिल गया तो चार लोग आपके दोष निकालकर अपमान भी कर सकते हैं।
इसलिये अच्छा यही है कि अपने कर्म निष्काम भाव से करें। इस संसार में निर्विवाद सम्मान पाने का बस एक ही तरीका है कि आप गरीब को धन और अशिक्षित को शिक्षा प्रदान करें। प्रयोजन रहित दया करें। ऐसे काम बहुत कम लोग करते हैं। जो सभी कर रहे हैं उसे आप भी करें तो कैसा सम्मान होगा? सम्मान तो उसी  कार्य करने पर  ही संभव मिलना संभव   है जो दूसरे लोग न करते हों।  अपना और अपने परिवार का भरण पोषण तो सभी करते हैं पर परमार्थ करने वालों को ही सम्मान मिलता है यह बात याद रखें।
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संकलक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा  'भारतदीप',ग्वालियर मध्यप्रदेश
editor and writer-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep[,Gwalior Madhya Pradesh
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Friday, October 1, 2010

अयोध्या में राम मंदिर प्रचार माध्यमों ने खूब भुनाया-हिन्दी लेख (ram mandir in ayodhya and hindi media-hindi article)

कभी कभी तो ऐसा लगता है कि आम लोगों का ध्यान अन्य विषयों से हटाकर राष्ट्र या समाज की तरफ लगाने के लिये ज्वलंत मुद्दे फिक्स होते हैं। नयी दुनियां में आधुनिक लोकतंत्र में समाज सेवकों, सौदागरों तथा प्रचार प्रबंधकों का संगठित समूह लोगों को बहलाये रखने के लिये अपने साथ किराये के बुद्धिजीवी भी रखने भी लगा है जो अपने से संबंधित विषय का कोई ज्वलंत मुद्दा सामने आने पर संगठित प्रचार माध्यमों में अपनी बात कहने के लिये सजधजकर आते है। जिस तरह राजनीति, व्यवसाय, फिल्मों के साथ ही कला साहित्य के क्षेत्र में में व्यक्तिवाद तथा वंशवाद का बोलबाला प्रारंभ हो गया है। वंशवाद और व्यक्तिवाद अब बौद्धिक क्षेत्र में भी स्थापित किया जा रहा है।
प्रसंग रामजन्म भूमि के संबंध में अदालती फैसले का है। जिस पर भारतीय प्रचार माध्यम पुराने चेहरों को सामने लाकर उनकी प्रतिक्रिया जानने का प्रयास करते रहे। इतना ही नहीं एक चैनल में एक प्रतिष्ठित वकील के पुत्र वकील को ही न्यायिक समीक्षा के लिये बुलवा लिया। उन महाशय ने अपने विचार रखे भी पर तब ऐसा लग लगा कि अपने वकील पिता की वजह से वह उस समय कैमरे के सामने हैं। वरना दूसरे विद्वान वकीलों की कमी है क्या?
कुछ मुद्दों को ज्वलंत बनाये रखने के लिये प्रचार माध्यम सक्रिय रहते हैं। अयोध्या के राम मंदिर पर अदालत के फैसला एक महत्वपूर्ण घटना थी पर कई बरसों तक चले इस प्रसंग में अदालत के बाहर कुछ लोगों ने इससे लोगों की भगवान राम से जुड़ी भावनाओं को उबारे रखा ताकि उनकी लोकप्रियता बनी रहे। आधुनिक लोकतंत्र में यह सब होता है पर सवाल यह है कि अपने देश के समाज सेवा, व्यापार, प्रचार तथा कला समूहों के शिखर पुरुष अपनी बढ़ती उम्र के साथ रूढ़ता का शिकार हो रहे हैं। वह नयी उम्र के युवाओं को अवसर देने की बात तो करते हैं पर उसका दायर अपने परिवार और रिश्तेदारों से आगे नहीं जाता। रामजन्मभूमि के विषय में प्रचार चैनलों में बूढ़े, थके और निरंतर उबाने वाले चेहरों की उपस्थिति इस बात को दर्शाती है कि अदालत में चलने और वही निर्णायक स्थिति में पहुंचने वाले इस मुद्दे पर अनावश्यक रूप से सार्वजनिक बहसें और विवाद हुए। जिसमें आम इंसानों का समय बर्बाद हुआ तो प्रचार माध्यमों ने विज्ञापनों से खूब कमाया।
प्रचार चैनलों के लोग बार बार नयी पीढ़ी की दुहाई देते रहे। उनका कहना था कि 1992 के बाद यह देश बदल गया है। आज की नई पीढ़ी इस तरह के विवाद नहीं चाहती। वह आधुनिक भारत चाहती है। कई चैनल संयमित समाचार देने का दावा कर देश में बनी शांति का श्रेय भी खुद लेते रहे। देश में शांति रही इसका पूरा श्रेय अदालत तथा जजों को जाता है जिन्होंने इतना संतुलित फैसला दिया न कि किसी अन्य व्यक्ति या सस्था को। नयी पीढ़ी को राम जन्मभूमि में दिलचस्पी नहीं है यह सोचना भी गलत है। नयी पीढ़ी राम से दूर हो रही है यह सोचने वाले अंधेरे दिखाकर रौशनी बेचने वाले हैं। पश्चिमी विकास में रची बसी नयी पीढ़ी अध्यात्मिक विषय में दिलचस्पी नहीं लेती ऐसे लोग मंदिरों में नहीं जाते और जाते हैं तो आंखें बंद किये रहते हैं। वहां युवक युवतियों का उतना ही प्रतिशत आता है जितना जनसंख्या में है। देश में कोई धार्मिक उन्माद नहीं था तो इसलिये कि हर उम्र के लोग अब अनेक ऐसे सच इन्हीं प्रचार माध्यमों से जान गये हैं जो पहले छिपाये जाते थे। देश में अब उन्माद नहीं फैलाया जा सकता क्योंकि आम आदमी-इसे आयु वर्ग में बांटना गलत है-इसके पक्ष में नहीं था। जब उन्माद फैला था तब आम आदमी के पास संचार माध्यम इतनी मात्रा में उपलब्ध नहीं थे। कहने का मतलब यह है कि यह दावा कि नयी पीढ़ी के लोग अध्यात्म ज्ञान या धर्म में रुचि नहीं रखते यह वजह शांति की वजह नहीं है बल्कि वह सब जानने लगे हैं कि किस तरह आजकल सभी जगह फिक्सिंग होने लगी है। आखिर अदालत में चलने वाले एक मामले की लंबे समय तक हुई सार्वजनिक बहस किस बात को दर्शाती है? कैसे लोग बातचीत के माध्यम से विवादित मुद्दों पर फैसला करने की बात कहकर अपने विचार व्यक्त करते हैं और अदालत की उपस्थिति छिपाने का प्रयास करते हैं यह समझने की अब जरूरत नहीं है। विज्ञापन के बीच में समय पास करने के लिये कोई विषय प्रचार माध्यमों को चाहिऐ और इसके लिये उन्होंने तोते के रूप में बुद्धिजीवी पाल रखे हैं जो रटी रटाई बात करते हैं।
एक चैनल में बाबा रामदेव आये। बहुत सुखद लगा। यकीनन वह प्रायोजित तोते नहीं है यह बात साफ लगी। उनके आने से पहले दो धर्मों के ठेकेदार वहां बहस कर रहे थे। वही पुरानी बातें। बाबा रामदेव ने कहा कि ‘बाबर एक आक्रमणकारी था और देश को एक भी आदमी उसके नाम के साथ खड़ा नहीं देखा जा सकता। और तो और ओरंगजेब ने भी इतने बरस राज्य किया पर उसकी कौम के लोग उसके नाम के साथ अब खड़े होने की बात नहीं करते। जहां तक राम की बात है तो वह सभी धर्मो के लोगों के घट घट के वासी है और कोई उनके नाम का विरोध कर ही नहीं सकता।’
उनकी बात का किसी ने जवाब नहीं दिया। उस बहस में ऐसा लगा कि जैसे बाज़ार के तयशुदा तोतों के बीच कोई बाहरी आदमी आ गया है तब लगने लगा कि योग की वजह से प्रतिष्ठत  हो चुके बाबा रामदेव को बुलाना एक मजबूरी थी क्योंकि चैनल वालों को भी पता है कि उनके तोता बुद्धिजीवियों के सहारे कार्यक्रम अधिक नहीं चल सकते।
कुछ प्रचार प्रबंधकों को अफसोस है कि कहीं इस मुद्दे का पटाक्षेप होने से उनका घाटा न हो जाये क्योंकि इससे उनका अनेक बार अच्छा समय पास हो जाता था। सच बात तो यह है कि अब इस मद्दे की हवा ही निकल गयी है। हालांकि अभी उच्च न्यायालय का फैसला है और सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा अभी बाकी है पर माननीय ज़जों ने अपने परिश्रम, विवेक और सदाशयता उपयोग कर जो निर्णय दिया है उससे देश के आम नागरिकों ने चैन की सांस ली है।
आखिरी बात यह है कि प्रचार माध्यम कल सहमे हुए लग रहे थे। बार बार यह कहना कि यह अंतिम फैसला नहीं है बल्कि आगे यह मामला सर्वोच्च न्यायालय में भी जा सकता है, उनके डरपोक होने का प्रमाण है। साथ ही यह भी दर्शाता है कि बड़े शहरों के बाहर वह आम जनता को नहीं जानते। कभी राम जन्म भूमि पर घर घर चर्चा होती थी क्योंकि सीमित प्रचार माध्यम सच से हटकर उकसाने की बात करते थे। दूसरा यह भी कि समाज में चेतना का अभाव था। अब अनेक प्रकार के संचार माध्यमों उनके पास है। सबसे बड़ी बात यह कि इंटरनेट और अनेक टीवी चैनलों ने समाज में लोगों की रुचियों के अनुसार उसेे विभक्त कर दिया है और किसी एक विषय को लेकर उसे संगठित करना अब समाज के ठेकेदारों के लिए दुरुह कार्य हो गया है। ऐसे में राममंदिर या बाबरी मस्जिद के नाम पर समुदायों को संगठित करने का प्रयास यूं भी जोखिम भरा हो सकता था कि कहीं वह निष्फल न हो जाये। इससे अनेक शिखर पुरुषों की पोल खुल जाती। राम मंदिर पर आगे क्या होगा? हम जैसा आम ब्लाग लेखक भविष्यवाणी नहीं कर सकता पर अब इसकी हवा निकल गयी है और अदालत के फैसले का पालन कर ही शिखर पुरुष अपनी प्रतिष्ठा बचा सकते हैं। प्रचार माध्यमों ने भी इस विषय पर संयमित खबरें इसलिये दी क्योंकि उनको मिलने वाले विज्ञापनों के उत्पाद बाज़ार में बिकते हैं। उनके विज्ञापनदाता इधर कॉमलवेल्थ और उधर आस्ट्रेलिया भारत क्रिकेट टेस्ट से भी जुड़े हैं। देश में तनाव होगा तो हानि उनके राजस्व की होगी।
जय श्री राम जय श्री कृष्ण
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Saturday, September 25, 2010

संत कबीर दास-हाथी पर चढ़कर चंवर डुलवाने वाले नरक में जाते हैं (hathi par chadhne wale-sant kabir das ke dohe)

हाथी चढि के जो फिरै, ऊपर चंवर ढुराय
लोग कहैं सुख भोगवे, सीधे दोजख जाय

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि तो हाथी पर चढ़कर अपने ऊपर चंवर डुलवाते हैं और लोग समझते हैं कि वह सुख भोग रहे तो यह उनका भ्रम है वह तो अपने अभिमान के कारण सीधे नरक में जाते हैं।
बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जोरे बड़ मति नांहि
जैसे फूल उजाड़ को, मिथ्या हो झड़ जांहि
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि आदमी धन, पद और सम्मान पाकर बड़ा हुआ तो भी क्या अगर उसके पास अपनी मति नहीं है। वह ऐसे ही है जैसे बियावन उजड़े जंगल में फूल खिल कर बिना किसी के काम आये मुरझा जाता है।
वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-समय ने ऐसी करवट ली है कि इस समय धर्म और जनकल्याण के नाम पर भी व्यवसाय हो गया है। इस मायावी दुनियां में यह पता ही नहीं लगता कि सत्य और माया है क्या? जिसे देखो भौतिकता की तरफ भाग रहा है। क्या साधु और क्या भक्त सब दिखावे की भक्ति में लगे हैं। राजा तो क्या संत भी अपने ऊपर चंवर डुलवाते हैं। उनको देखकर लोग वाह-वाह करते हैं। सोचते हैं हां, राजा और संत को इस तरह रहना चाहिये। सत्य तो यह है कि इस तरह तो वह भी लोग भी भ्रम में हो जाते हैं और उनमें अहंकार आ जाता है और दिखावे के लिये सभी धर्म करते हैं और फिर अपनी मायावी दुनियां में अपना रंग भी दिखाते हैं। ऐसे लोग पुण्य नहीं पाप में लिप्त है और उन्हें भगवान भक्ति से मिलने वाला सुख नहीं मिलता और वह अपने किये का दंड भोगते हैं।
यह शाश्वत सत्य है कि भक्ति का आनंद त्याग में है और मोह अनेक पापों को जन्म देता है। सच्ची भक्ति तो एकांत में होती है न कि ढोल नगाड़े बजाकर उसका प्रचार किया जाता है। हम जिन्हें बड़ा व्यक्ति या भक्त कहते हैं उनके पास अपना ज्ञान और बुद्धि कैसी है यह नहीं देखते। बड़ा आदमी वही है जो अपनी संपत्ति से वास्तव में छोटे लोगों का भला करता है न कि उसका दिखावा। आपने देखा होगा कि कई बड़े लोग अनेक कार्यक्रम गरीबों की भलाई के लिये करते हैं और फिर उसकी आय किन्हीं कल्याण संस्थाओं को देते हैं। यह सिर्फ नाटकबाजी है। वह लोग अपने को बड़ा आदमी सबित करने के लिये ही ऐसा करते हैं उनका और कोई इसके पीछे जनकल्याण करने का भाव नहीं होता।
कभी कभी तो लगता है कि जनकल्याण का नारा देने वाले लोग बड़े पद पर प्रतिष्ठत हो गये हैं पर लगता नहीं कि उनके पास अपनी मति है क्योंकि वह दूसरों की राय लेकर काम करने आदी हो गये हैं। ऐसे लोगों के लिये कल्याण तो बस दिखावा है वह तो उसके नाम पर सुख तथा एश्वर्य प्राप्त करने में ही अपने को धन्य समझते हैं। ऐसे कथित धर्म के सौदागर बहुत दिखाई देते हैं जिनका न तो स्वयं का ज्ञान प्रमाणिक होता है और न ही वह ही वह लोभ और लालच की प्रवृत्ति से परे रहते हैं। उनकी शरण लेने से मनुष्य का न तो उद्धार होता है और न मन का संताप दूर होता है। इसलिए न केवल धन संपदा के मोह से बल्कि उनको प्राप्त करने वाले बड़े लोगों को लेकर कोइ भ्रम अपने अन्दर नहीं रखना चाहिये।
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Wednesday, September 22, 2010

हिन्दू धर्म संदेश-अभक्ष्य पदार्थों को ग्रहण करना ही अनुचित

शब्दश्चातोऽकामकारे।।
हिन्दी में भावार्थ-
इच्छानुसार अभक्ष्य भोजन करना निषेध ही है।

सर्वानन्नुमतिश्च प्राणात्ययेतद्दर्शनात्।।
हिन्दी में भावार्थ-
अन्न बिना प्राण न रहने की आशंका होने पर ही सब प्रकार के अन्न भक्षण करने की अनुमति है।
आबधाच्च
हिन्दी में भावार्थ-
वैसे आपातकाल में भी आचार का त्याग नहीं करना चाहिए।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-आजकल फास्ट फूड के सेवन की प्रवृत्ति बढ़ रही है जिसे स्वास्थ्य विशेषज्ञ अच्छा नहीं मानते। इसके अलावा तंबाकू की रसायन युक्त पुड़िया की आज की युवा पीढ़ी भक्त हो गयी है जो कि हर दृष्टि से खतरनाक है। समस्या यह है कि यह सब लोग अपनी इच्छानुसार कर रहे हैं। देश का उच्च तथा उच्च मध्यम वर्ग घर में खाने की बजाय बाहर के भोजन करने को उत्सुक रहता है। परिणाम यह है कि देश के अंदर अस्वस्थ लोगों की भीड़ बढ़ती जा रही है। अब स्थिति यह है कि हर बड़े शहर में फाइव स्टार चिकित्सालय खुल गये हैं जिनमें अपने स्वस्थ जीवन की तलाश करने वाले लोगों की भारी भीड़ रहती है। शीतल पेयों को पीना फैशन हो गया है। गर्मी के अवसर पर लोग सादा पानी पीने की बजाय शीतल पेयों से प्यास बुझाते हैं जिससे अनेक प्रकार की बीमारियां होती हैं।
कहने का आशय यह है कि पूरे विश्व में अपने अध्यात्मिक ज्ञान की पहचान रखने वाला भारतीय समाज फैशन की वजह से अंधे रास्ते पर चल रहा है। जिन भक्ष्य पदार्थों तथा अशुद्ध पेयों के सेवन से परे रहना चाहिए उनको फैशन बना लिया है यह जाने बिना कि उनका उपयोग तभी करना चाहिये जब भक्ष्य पदार्थ तथा शुद्ध पेय उपलब्ध न हों। हमारे देश पर प्रकृति की विशेष कृपा है इसलिये ही यहां आज भी भूजल स्तर अन्य देशों से अधिक है। अनेक प्रकार के खनिज पदार्थ तथा प्रकृति संपदा उपलब्ध हैं। हम प्रकृति के आभारी होने की बजाय उससे दूर जा रहे हैं। जिसके कारण हम स्वर्ग में रहते हुए भी नरक के होने का आभास करते हैं। मनुष्य होकर भी पशु पक्षियों की तरह बाध्य होकर फैशन की मार झेल रहे हैं। अतः अपने खान पान को लेकर सजग होना चाहिये ताकि हमारी आने वाली पीढ़ियां स्वस्थ और सजग रहें। वैसे भी एक बात याद रखना चाहिए कि हम अपने खाने और पीने के दौरान जो पदार्थ लेते हैं उनमें दोष होने पर हमारे शरीर में भी दोष उत्पन्न होता है अर्थात हम बीमार पड़ते हैं।
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संकलक लेखक  एवं संपादक-दीपक भारतदीप
http://teradipak.blogspot.com

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Saturday, September 11, 2010

हिन्दू धर्म संदेश-तप बल के अलावा उद्धार को कोई अन्य मार्ग नहीं (tapbal se uddhar-hindu dharma sandesh)

महाराज भर्तृहरि के अनुसार 
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दुराराध्याश्चामी तुरगचलचित्ताः क्षितिभुजो वयं तु स्थूलेच्छाः सुमहति फले बद्धमनसः।
जरा देहं मृत्युर्हरति दयितं जीवितमिदं सखे नान्यच्छ्रेयो जगति विदुषेऽन्यत्र तपसः।।
हिन्दी में भावार्थ-
राजाओं का चित तो घोड़े की गति से इधर उधर भागता इसलिये उनको भला कब तक प्रसन्न रखा जा सकता है। हमारे अंदर भी ऊंचे ऊंचे पद पाने की लालसा हैं। इधर शरीर को बुढ़ापा घेर रहा है। ऐसे में लगता है कि विवेकवान पुरुषों के लिये तप बल के अलावा अन्य कोई उद्धार का मार्ग नहीं है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या- मनुष्य का यह मूल स्वभाव है कि वह हमेशा  ही अपने लिये मान पाना चाहता है और इसलिये ही धन संग्रह करने के साथ प्रतिष्ठा अर्जित करने के लिये पूरा जीवना गुज़ार देता है।  उच्च पद पाने की उसमें महत्वाकांक्षा हमेशा बलवती रहती है और इसलिये ही अवने अपने से उच्च लोगों की चाटुकारित करने को हमेशा तैयार रहता है।
इस संसार में धनी, उच्च पदस्थ, तथा बाहुबली आदमी की कितनी भी सेवा कर लीजिये पर उनको प्रसन्न नहीं किया जा सकता क्योंकि उनका मन तो घोड़े की तरह दौड़ता है। उनकी सेवा में रत इंसान को लगता है कि स्वामी उनकी तरफ देख रहा है पर सच तो यह है कि राजसी लोगों के पास ढेर सारे सेवक होते हैं और उनमें किसी को वह विशिष्ट नहीं मानते। इतना ही नहीं अगर उनकी सेवा कोई ऐसा व्यक्ति करे जो उनके यहां कार्यरत न हो, उसको लेकर भी उनके मन में यह शंका उत्पन्न होती है कि वह भविष्य में हमारी सेवा पाने का प्रयास कर रहा है।
किसी आदमी को एक पद मिल गया तो फिर उससे बड़े पद की चाहत उसमें होने लगती है। वह भी मिल गया तो फिर उससे ऊंचे पद की आस करने लगता है। यह इच्छा अनंत है और इसका कहीं अंत नहीं है। आदमी अपने भौतिक लक्ष्यों की पूर्ति में लगा रहता कि उसे बुढ़ापा घेर लेता है। ऐसे में तो केवल एक ही बात उचित लगती है कि अपना समय सत्संग, भक्ति तथा अध्यात्मिक ज्ञान ग्रहण करने में भी बिताना चाहिये ताकि तत्व ज्ञान होने पर इस संसार में दुःख तथा मानसिक संताप से छुटाकारा पाया जा सके।
संकलक,लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा 'भारतदीप', ग्वालियर 
editor and writter-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep
http://anant-shabd.blogspot.com------------------------

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Thursday, September 2, 2010

मान बड़ाई ऊरमी, ये जग का व्यवहार।
दीन गरीबी बन्दगी, सतगुरु का उपकार।।
मान बड़ाई देखि कर, भक्ति करै संसार।
जब देखैं कछु हीनता, अवगुन धरै गंवार।
संत कबीरदास जी कहते हैं कि दूसरों की देखादेखी कुछ लोग सम्मान पाने के लिये परमात्मा की भक्ति करने लगते हैं पर जब वह नहीं मिलता वह मूर्खों की तरह इस संसार में ही दोष निकालने लगते हैं।
संत शिरोमणि कबीरदास का कहना है कि जिस तरह दुनियां का व्यवहार है उससे देखकर तो यही आभास होता है कि मान और बड़ाई दुःख का कारण है। सतगुरु की शरण लेकर उनकी कृपा से जो गरीब असहाय की सहायता करता है, वही सुखी है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-इस संसार में ऐसे अनेक लोग हैं जो अपनी धार्मिक छबि बनाये रखने के लिये भक्ति का दिखावा करते हैं। इनमें से कुछ तो ऐसे हैं जो गुरु बनकर अपने लिये शिष्य समुदाय का निर्माण कर अपनी रोजी रोटी चलाते हैं। ऐसे दिखावे की भक्ति करने वाले अनेक लोग हैं। इसके विपरीत जो भगवान की वास्तव में भक्ति करते हैं वह उसका प्रयार नहीं करते न ही अपना ज्ञान बघारते हैं।
भक्त और ज्ञानी की पहचान यह है कि वह कभी अपनी भक्ति और ज्ञान शक्ति का बखान नहीं करते बल्कि निर्लिप्त भाव से समाज सेवा करते हुए अपना जीवन यापन करते हैं। अपनी सच्ची भक्ति और ज्ञान के कारण कुछ लोग महापुरुषों की श्रेणी में आ जाते हैं उनको देखकर अन्य लोग भी यही प्रयास करते हैं कि उनकी पूजा हो। यह केवल अज्ञान का प्रमाण है अलबत्ता अपने देश में धार्मिक प्रवचन एक व्यवसाय के रूप में चलता रहा है। इस कारण तोते की तरह किताबों को रटकर लोगों को सुनाते हुए खूब कमाते हैं। उनको देखकर कुछ लोग यह सोचते हुए भक्ति का दिखावा करते हैं कि शायद उनको भी ऐसा ही स्वरूप प्राप्त हो। अनेक लोग संतों की सेवा में इसलिये जाते हैं कि हो सकता है कि इससे उनको किसी दिन उनकी गद्दी प्राप्त हो जाये। ऐसे में भक्ति और ज्ञान तो एक अलग विषय हो जाता है और वह मठाधीशी के चक्कर में राजनीति करने लगते हैं। किताबों को रटने की वजह से उनको शब्द ज्ञान याद तो रहता है ऐसे में वह थोड़ा बहुत प्रवचन भी कर लेते हैं पर उनकी भक्ति और ज्ञान प्रमाणिक नहीं है। वैसे भी अपने पौराणिक ग्रंथों का अध्ययन हर आदमी इतना तो कर ही लेता है कि उसे सारी कथायें याद रहती हैं। नहीं भी अध्ययन करे तो इधर उधर सुनकर उसे बहुत सारी कथायें याद आ ही जाती हैं। । किसी आदमी ने वह भी नहीं किया हो तो अपने अध्यात्मिक दर्शन के कुछ सूक्ष्म सत्य-निष्काम कर्म करो, परोपकार करो, दया करो और माता पिता की सेवा करे जैसे जुमले- सुनाते हुए श्रोताओं और दर्शकों की कल्पित कहानियों से मनोरंजन करता है। उनको सम्मानित होते देख अन्य लोग भक्ति में जुट जाते हैं यह अलग बात है कि कामना सहित यह भक्ति किसी को भौतिक फल दिलाती है किसी को नहीं।
फिर भक्ति हो या ज्ञानार्जन अगर कामना सहित किया जाये और सफलता न मिले तो आदमी संसार में दोष ढूंढने लगता है। यह केवल भक्ति या ज्ञान के विषय में नहीं है बल्कि साहित्य और कला के विषयों में भी यही होता है। आदमी आत्ममुग्ध होकर अपना काम शुरु करता है पर जब उसे सफलता नहीं मिलती तो वह निराश हो जाता है। निष्कर्ष यह है कि सम्मान पाने का मोह आदमी के लिये दुःख का कारण बनता है। एक बात याद रखें सम्मान पाने की चाह पूरी नहीं हुई तो दुःख तो होगा और अगर पूरी भी हो गयी तो अपमान भी हो सकता है। जहां सुख है वहां दुःख भी है। जहां आशा है वहां निराशा भी है। जहां सम्मान है वहां अपमान भी है। अगर सम्मान मिल गया तो चार लोग आपके दोष निकालकर अपमान भी कर सकते हैं।
इसलिये अच्छा यही है कि अपने कर्म निष्काम भाव से करें। इस संसार में निर्विवाद सम्मान पाने का बस एक ही तरीका है कि आप गरीब को धन और अशिक्षित को शिक्षा प्रदान करें। प्रयोजन रहित दया करें। ऐसे काम बहुत कम लोग करते हैं। जो सभी कर रहे हैं उसे आप भी करें तो कैसा सम्मान होगा? सम्मान तो उसी में ही संभव है जो दूसरे लोग न करते हों।  वैसे भी अपने काम में निष्काम भाव से लगे रहने से उसमें सफलता मिलती है तो समाज स्वयं ही सम्मान करता है।
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संकलक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा 'भारतदीप',Gwalior
editor-Deepak raj kukreja 'Bharatdeep'
http://deepkraj.blogspot.com

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Saturday, August 28, 2010

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-मन तो जल के समान चंचल है (man jal ke saman chanchal hai-hindu dharma sandesh)

जलान्तश्वन्द्रवशं जीवनं खलु देहिनाम्
तथा विद्यमति ज्ञात्वा शशवत्कल्याणमाचारेत्।।
हिन्दी में भावार्थ-
पानी के के भीतर लहलहाते हुए चंद्रमा के बिम्ब के समान चंचल स्वभाव ही समस्त जीवों का जीवन है। यह विचार ज्ञान लोग निरंतर सत्कर्म में लिप्त रहते हैं।
सतः शीलोपसम्पन्नानकस्मादेव दुज्र्जनः।
अन्तः प्रविश्य दहति शुष्कवृक्षानिवालः।।
हिन्दी में भावार्थ-
पर्वत के समान दृढ़ चरित्र वाले सत्पुरुषों के अंतःकरण में दुर्जन भाव प्रविष्ट होकर अग्नि के समान उनको जला कर नष्ट कर डालता है। यह भाव सज्जन व्यक्ति के लिये आत्मघाती होता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-समस्त जीवों की देह पंचतत्वों के संयोग से निर्मित होती है और मन उसकी एक ऐसी प्रकृत्ति है जो उसका संचालन करती है। पानी से भी पतले इस मन की चाल विरले ही ज्ञानी देख पाते हैं। अपने जीवन में कार्यरत रहते हुए हमारे मन में अनेक विचार आते हैं-वह अच्छे भी हो सकते हैं और बुरे भी। दरअसल हर जीव को उसका मन चलाता है पर वह यह भ्रम पालता है कि स्वयं चल रहा है। इस मन में काम, क्रोध, लोभ, लालच और घृणा के भाव स्वाभाविक रूप से विचरते रहते हैं। अगर वहां सत्विचारों की स्थापना करनी है तो उसके लिये यह आवश्यक है कि योगासन, ध्यान, मंत्रजाप और नाम स्मरण किया जाये। कहना आसान है पर करना कठिन है। मुख्य बात है कि संकल्प मनुष्य किस प्रकार का करता है। जो मनुष्य दृढ चरित्र के होते हैं वह मन में आये विचार का अवलोकन करते हैं और जिनको ज्ञान नहीं है वह उसी राह चलते हैं जहां मन प्रेरित करता है।
यह मन इतना चंचल होता है कि अनेक बार सज्जन आदमी को भी दुर्जन बना देता है। यह उन्हीं सज्जन लोगों के साथ होता है जो स्वाभाविक रूप से भले होते हैं पर उनके पास अध्यात्मिक ज्ञान नहीं रहता। जब उनके अंदर दुर्जन भाव का प्रवेश होता है तब वह अपराध कर बैठते हैं।
अतः योगाभ्यास तथा सत्संग में निरंतर लगे रहना चाहिये ताकि अपने अंदर ज्ञान का प्रादुर्भाव हो और सज्जन प्रकृत्ति होने के बावजूद कभी किसी भी स्थिति में मन में उत्पन्न कुविचार मार्ग से विचलित न कर सकें। यदि अपने मन पर नियंत्रण किया जाये तो सारे संसार पर नियंत्रण किया जा सकता है और अगर उससे हार गये तो किसी से भी जीतना संभव नहीं है।
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संकलक,लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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Monday, August 23, 2010

बड़ों के जाल में क्यों फंस जाते हो-हिन्दी शायरी ( khas insanon ka jaal-hindi shayari)

हिन्दू, मुस्लिम, सिख और ईसाई में क्यों तुम बंट जाते हो,
पुराने नुस्खे हैं राजाओं के, तुम प्रजा होकर क्यों फंस जाते हो।
नस्ल पूछे बिना रेत पांव जला देती, जल कर देता है शीतल
बोझ उठाये कंधे पर अपना, तुम क्यों सवाल किये जाते हो।
धर्म, जाति और भाषा के गुटों की इस पुरानी जंग में,
अपनी अकेली जिंदगी को क्यों उलझाये जाते हो,
इंसान और इंसानियत का नारा भी एक धोखा है,
आदतें है सभी की अलग अलग क्यों भूल जाते हो।
इंसानों में भी होते हैं आम और खास शख्सियत के मालिक,
ओ आम इंसानो! तुम क्यों बड़ों के जाल में फंस जाते हो।
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संकलक,लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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Saturday, August 14, 2010

श्रीगुरुवाणी-दहेज में हरि का नाम मांगे वही श्रेष्ठ पुत्री (hari ka nam mange vah shreshth purti-shri guruvani

‘हरि प्रभ मेरे बाबुला, हरि देवहु दान में दाजो।’
हिन्दी में भावार्थ-
श्री गुरुग्रंथ साहिब में दहेज प्रथा का आलोचना करते हुए कहा गया है कि वह पुत्रियां प्रशंसनीय हैं जो दहेज में अपने पिता से हरि के नाम का दान मांगती हैं।
दहेज प्रथा पर ही प्रहार करते हुए यह भी कहा गया है कि
होर मनमुख दाज जि रखि दिखलाहि,सु कूड़ि अहंकार कच पाजो
इसका आशय यह है कि ऐसा दहेज दिया जाना चाहिए जिससे मन का सुख मिले और जो सभी को दिखलाया जा सके। ऐसा दहेज देने से क्या लाभ जिससे अहंकार और आडम्बर ही दिखाई दे।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-हमारे यहां विवाद एक धार्मिक संस्कार माना जाता है मगर जब लोग रिश्ते तय करते हैं तो इस तरह लगता है जैसे कि व्यापार कर रहे हों। धर्म और रीति के नाम पर लड़की की शादी में दान देने की पंरपरा को लोगों ने पुत्र पैदा करने के दाम वसूल करने की नीति में बदल दिया है। भले ही लोग यह दावा करते हों कि हमारी विवाह परंपरा श्रेष्ठ है पर इसके निर्वहन के समय पैसे का खेल खेलने का जो प्रयास होता है वह सीधी धर्म के विरुद्ध लगता है। इस पर श्रीगुरुनानक जी जो अपनी बात कही है वह सचमुच में भारतीय धर्म की परंपरा का प्रतीक है।
दहेज हमारे समाज की सबसे बड़ी बुराई है। चाहे कोई भी समाज हो वह इस प्रथा से मुक्त नहीं है। अक्सर हम दावा करते हैं कि हमारे यहां सभी धर्मों का सम्मान होता है और हमारे देश के लोगों का यह गुण है कि वह विचारधारा को अपने यहां समाहित कर लेते हैं। इस बात पर केवल इसलिये ही यकीन किया जाता है क्योंकि यह लड़की वालों से दहेज वसूलने की प्रथा उन धर्म के लोगों में भी बनी रहती है जो विदेश में निर्मित हुए और दहेज लेने देने की बात उनकी रीति का हिस्सा नहीं है। कहने का आशय यह है कि दहेज लेने और देने को हम यह मानते हैं कि यह ऐसे संस्कार हैं जो मिटने नहीं चाहे कोई भी धर्म हो? समाज कथित रूप से इसी पर इतराता है।
इस प्रथा के दुष्परिणामों पर बहुत कम लोग विचार करते हैं। इतना ही नहीं आधुनिक अर्थशास्त्र की भी इस पर नज़र नहीं है क्योंकि यह दहेज प्रथा हमारे यहां भ्रष्टाचार और बेईमानी का कारण है और इस तथ्य पर कोई भी नहीं देख पाता। अधिकतर लोग अपनी बेटियों की शादी अच्छे घर में करने के लिये ढेर सारा दहेज देते हैं इसलिये उसके संग्रह की चिंता उनको नैतिकता और ईमानदारी के पथ से विचलित कर देती है। केवल दहेज देने की चिंता ही नहीं लेने की चिंता में भी आदमी अपने यहां धन संग्रह करता है ताकि उसकी धन संपदा देखकर बेटे की शादी में अच्छा दहेज मिले। यह दहेज प्रथा हमारी अध्यात्मिक विरासत की सबसे बड़ी शत्रु हैं और इससे बचना चाहिये। यह अलग बात है कि अध्यात्मिक, धर्म और समाज सेवा के शिखर पुरुष ही अपने बेटे बेटियों की शादी कर समाज को चिढ़ाते हैं।
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Saturday, August 7, 2010

भर्तृहरि नीति दर्शन-मदिरा से भरी आंखों को न देखा होता तो संसार पार हो जाता (hindu dharma sandesh-kuleenta,vivek aur kam vasna)

तावन्महत्तवं पाण्डितयं केलीनत्वं विवेकता।
यावज्जवलति नांगेषु हतः पंचेषु पावकः।।
हिन्दी में भावार्थ-
किसी भी मनुष्य में सज्जनता, कुलीनता, तथा विवेक का भाव तभी तक रहता है जब उसके हृदय में कामदेव की ज्वाला नहीं धधकी होती। कामदेव का हमला होने पर पर सारे अच्छे भाव नष्ट हो जाते है।
संसार! तव पर्यन्तपदवी न दवीयसी।
अन्तरा दुस्तराः न स्युर्यदि ते मदिरेक्षणा।।
हिन्दी में भावार्थ-
यहां भर्तृहरि महाराज कहते हैं कि ‘ओ संसार, तुझे पार पाना कोई कठिन काम नहीं था अगर मदिरा से भरी आखों में न देखा होता।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या- किसी मनुष्य को देवता नहीं समझना चाहिये क्योंकि पंच तत्वों से बनी इस देह में राक्षस भी रहता है। अगर कोई मनुष्य सात्विक कर्म में लिप्त है तो उसकी परीक्षा लेने का प्रयास भी नहीं करना चाहिए।  श्रीमद्भागवत गीता में कहा गया है कि ‘गुण ही गुणों में बरतते है’, और ‘इंद्रियां ही इंद्रियों बरत रहीं है’। इसका आशय यह है कि इस देह में मौजूद तत्व कब किसे अपने प्रभाव में लाकर मार्ग से भटका दें यह कहना कठिन है। इतना जरूर है कि तत्व ज्ञान इस बात को जानते हैं तो मार्ग से भटकते हैं और भटक जायें तो अपने किये पर पश्चाताप करते हैं इसके विरुद्ध अज्ञानी लोग बजाय पश्चाताप करने के अपनी झूठी सफाई देने लगते हैं।
श्रीमद्भागवत गीता में लिखा हुआ है कि ‘गुण ही गुणों में बरतते है।’ इस सूत्र में बहुत बड़ा विज्ञान दर्शन अंतर्निहित हैं। इस संसार में जितने भी देहधारी जीव हैं सभी को रोटी और काम की भूख का भाव घेरे रहता है अलबत्ता पशु पक्षी कभी इसे छिपाते नहीं पर मनुष्यों में कुछ लोग अपने को सचरित्र दिखने के लिये अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण का झूठा दावा करते है। सच तो यह है कि पंचतत्वों से बनी इस देह मे तन और मन दोनों प्रकार की भूख लगती है। भूख चाहे रोटी की हो या कामवासना की चरम पर आने पर मनुष्य की बुद्धि और विवेक को नष्ट कर देती है। मनुष्य चाहे या नहीं उसे अपनी भूख को शांत रखने का प्रयास करना पड़ता है। जो लोग दिखावा नहीं  करते वह तो सामान्य रूप से रहते हैं पर जिनको इंद्रिय विेजेता दिखना है वह ढेर सार नाटकबाजी करते हैं। देखा यह गया है कि ऐसे ही नाटकबाज धर्म के व्यापार में अधिक लिप्त हैं और उन पर ही यौन शोषण के आरोप लगते हैं क्योंकि वह स्वयं को सिद्ध दिखाने के लिये छिपकर अपनी भूख मिटाने का प्रयास करते हैं और अंतत: उनका रास्ता अपराध की ओर जाता है।
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Saturday, July 24, 2010

रहीम के दोहे-समय के अनुसार बदलाव आता है (rahim ke dohe-samay aur badlav)

मनुष्य जब संकट में होता है तब उसका धैर्य जवाब देता है और लगता है कि वह कभी खत्म होने वाला नहीं है। यह सोच अज्ञान के कारण ही आती है। जिस तरह पृथ्वी, सूर्य और चंद्रमा अपनी धुरी पर घूमते हुए रात्रि और दिन लाते हैं वैसे ही समय के अनुसार सब बदलता है। आदमी के सुख के पल कट जाते हैं तो उसे पता नहीं लगता पर दुःख के समय वह तमाम तरह के ऐसे कदम उठाता है जिससे उसकी परेशानी बढ़ जाती है। अतः विवेकी मनुष्य सुख के समय तो अधिक प्रसन्न होते हैं और न ही दुःक्ष के समय विचलित। समय की अपनी महिमा है और वह अपने अनुसार सुख दुःख लाकर निकलता है।
समय पाय फल होत है, समय पाय झरि जाय
सदा रहे नहिं एक सौ, का रहीम पछिताय
कविवर रहीम कहते हैं कि समय आने पर अपने अच्छे कर्मों के फल की प्राप्ति अवश्य होती है। वह सदा कभी एक जैसा नहीं रहता इसीलिये कभी बुरा समय आता है तो भयभीत या परेशान होने की आवश्यकता नहीं है।
समय परे ओछे बचन, सब के सहे रहीम
सभा दुसासन पट गहे, गदा लिए रहे भीम
कविवर रहीम कहते हैं कि बुरा समय आने पर तुच्छ और नीच वचनों का सहना करना पड़ा। जैसे भरी सभा में देशासन ने द्रोपदी का चीर हरण किया और शक्तिशाली भीम अपनी गदा हाथ में लिए रहे पर द्रोपदी की रक्षा नहीं कर सके।
वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-जीवन में सभी के पास कभी न कभी अच्छा समय आता है ऐसे में अपना काम करते रहने के अलावा और कोई चारा नहीं है। आजकल लोग जीवन में बहुत जल्दी सफलता हासिल करने को बहुत आतुर रहते हैं और कुछ को मिल भी जाती है पर सभी के लिये यह संभव नहीं है।
कई लोग जल्दी सफलता हासिल करने के लिये ऐसे मार्ग पर चले जाते हैं वहां उन्हें शुरूआत में बहुत अच्छा लगता है पर बाद में वह पछताते है।
यह सही है कि कुछ लोगों के लिये जीवन का संघर्ष बहुत लंबा होता है पर उन्हें अपना धीरज नहीं खोना चाहिए। कई बार ऐसा लगता है कि हमें जीवन में किसी क्षेत्र मे सफलता नहीं मिलेगी पर सत्य तो यह है कि आदमी को अपने अच्छे कर्मों का फल एक दिन अवश्य मिलता है।
जिस तरह दिन रात हैं और धूप छांव है वैसे ही जीवन में समय का फेर आता है। कभी दुःख तो कभी सुख की अनुभूति के साथ ही जीवन आगे बढ़ता है। जब आदमी तकलीफ में होता है तो संसार वाले उसका मजाक बनाते हुए कटु वचन तक कहते हैं। जब आदमी शक्तिशाली होता है तब सभी उसके सामने नतमस्तक होते हैं। ऐसे में जीवन में आये हर पल को सहजता से स्वीकार करना चाहिए।
संकलक,लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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Saturday, July 17, 2010

मनु स्मृति संदेश-आर्थिक अपराधों के लिये कड़ा दंड देना चाहिए (arthik apradh ke liye dand-manu smriti)

जब हम आज देश की स्थिति पर नज़र डालते हैं तो मन में व्यथा पैदा होती है। इसका कारण यह है कि देश में भ्रष्टाचार, हिंसा तथा आर्थिक अपराध की घटनायें बहुत बढ़ गयी हैं। इसका कारण यह है कि अब किसी को कानून का भय नहीं रहा है और अपराध तथा हिंसा में लिप्त लोग खुलेआम अपना काम करते हैं। अनेक जगह तो अपराधों में भी आदर्श की बातें ढूंढी जाती है। अनेक प्रकार के नये कानून बनाये जाते हैं पर उनका प्रभाव कभी सकारात्मक रूप से दिखाई दे ऐसा नहीं होता। ऐसे में अब आवश्यकता इस बात की है कि कानून लागू करने वाली संस्थायें दृढ़ता से अपना काम करें और उनको किसी भी प्रकार से हस्तक्षेप से दूर रहना चाहिए।
राज्ञः प्रख्यातभाण्डानि प्रतिधिद्धानि यानि च।
तानि निर्हरतो लोभार्त्स्वहारं हरेन्नृपः।।
हिन्दी में भावार्थ-
अगर राज्य का कोई बेईमान व्यवसायी राजा के निजी पात्रों व विक्रय के लिये प्रतिबंधित पात्रों को लोभवश दूसरे स्थान पर जाकर व्यापार करता है तो उसकी सारी संपत्ति अपने नियंत्रण में कर लेना चाहिए।
शुल्कस्थानं परिहन्नकाले क्रयविक्रयी।
मिथ्यावादी संस्थानदाष्योऽष्टगुणमत्ंययम्।
हिन्दी में भावार्थ-
यदि कोई व्यवसायी या व्यक्ति कर न देकर अपना धना बचाता है, छिपकर चोरी की वस्तुओं को खरीदता और बेचता है, मोल भाव करता है एवं माप तौल में दुष्टता दिखाता है तो उस पर बचाये गये धन का आठ गुना दंड देना चाहिये।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-यह देखकर आश्चर्य होता है कि भारत के प्राचीन ग्रंथों का जमकर विरोध होता है। देश में जिस तरह व्यवसाय और अपराध का घालमेल हो गया है उसे देखकर तो ऐसा लगता है जैसे कि तस्करी, करचोरी तथा अन्य गंदे धंधे करने वाले लोग अपने ही चेले चपाटों से इन ग्रंथों विरोध कराते हैं क्योंकि उनमें अपराध के लिये कड़े दंड का प्रावधान है। राज्य द्वारा प्रतिबंधित वस्तुओं का व्यापार तथा कर चोरी करने वालों के लिये यह दंड डराने का काम करते हैं। जिस तरह आजादी के बाद देश में अपराधिक व्यापार बढ़ा है और गंदे धंधों में पैसा अधिक आने लगा है उसे देखकर लगता है कि जैसे धनवानों और बुद्धिमान लोगों का एक गठजोड़ बन गया है जो आधुनिक सभ्यता के नाम पर मानवीय दंडों की अपने ढंग से व्याख्या करता है।
तस्करी, जुआ, सट्टा तथा अवैध शराब के कारोबार करने वालों के पास जमकर धन आता है। इसके अलावा करचोरों के लिये तो पूरा विश्व स्वर्ग हो गया है। उदारीकरण के नाम पर एक देश से दूसरे देश में धन लगता है जिनके बारे आर्थिक विशेषज्ञ यह संदेह करते हैं कि वह अपराध से ही अर्जित है। विदेशी धन का अर्जन की स्त्रोत कोई नहीं पूछता और समझदार व्यवसायी अपने देश में विनिवेश करता नहीं है। आधुनिक सभ्यता में अवैध व्यापार तथा धन की प्रधानता हो गयी है इसका कारण यही है कि मानवता के नाम पर अनेक अपराधों को हल्का मान लिया गया है तो समाज सेवा और धर्म के नाम पर छूट भी दी जाने लगी है। जिनके पास धन है उनके पास बुद्धिजीवी चाटुकारों की सेना भी है जो भारतीय धर्म ग्रंथों में वर्णित कठोर दंडों से भयभीत अपने स्वामियों को खुश करने के लिये उसके कुछ ऐसे श्लोकों और दोहों का विरोधी करती है जो समय के अनुसार अप्रासंगिक हो गये हैं और समाज में उनकी चर्चा भी कोई नहीं करता।
मनुस्मृति का विरोध तो जमकर होता है। जैसे जैसे समाज में अवैध धनिकों की संख्या बढ़ रही है वैसे वैसे ही भारत के वेदों के साथ ही मनुस्मृति का विरोध बढ़ रहा है। स्पष्टतः यह ऐसे धनिकों के बुद्धिजीवियों द्वारा प्रायोजित है जो तस्करी, करचोरी, तथा सट्टा जुआ तथा अन्य कारोबार से जमकर धन कमा रहे हैं। ऐसे में स्वतंत्र और मौलिक बुद्धिजीवियों का यह दायित्व बनता है कि वह अपने प्राचीन धर्म ग्रंथों के अप्रासंगिक विषयों को छोड़कर वर्तमान में भी महत्व रखने वाले तथ्यों को मानस पटल पर स्थापित करने का प्रयास करें। यह जरूरी नहीं कि मनुस्मृति या वेदों का विरोध करने वाले सभी प्रायोजत हों पर इतना तय है कि उनमें ऐसे कुछ लोग सक्रिय हो सकते हैं जो जाने अनजाने उनका हित साधते हों।
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Saturday, July 10, 2010

संत कबीर वाणी-परिवार की मर्यादा ने मनुष्य को बिगाड़ दिया (parivar ki maryada-kabir vani)

इस संसार में अनेक प्रकार के जीव हैं और सभी के लिये प्रकृति ने भोजन पानी का इंतजाम किया है। मनुष्य भी उनमें एक है पर जितनी बुद्धि उसमें अधिक है उतना ही वह भ्रमित होता है। लोग दावा करते हैं कि वह अपने कर्म से अपना परिवार पाल रहे हैं पर यह नहीं जानते कि वह तो केवल कारण है वरना कर्ता तो परमात्मा ही है। इसी भ्रम में मनुष्य जीवन गुजार लेता है पर उस परमात्मा का स्मरण नहीं करता जिसे उसे मनुष्य योनि प्रदान की है।
कुल करनी के कारनै, हंसा गया बिगोय
तब कुल काको लाजि, चारि पांव का होय
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि अपने परिवार की मर्यादा के लिये आदमी ने अपने आपको बिगाड़ लिया वरना वह तो हंस था। उस कुल की मर्यादा का तब क्या होगा जब परमार्थ और सत्संग के बिना जब भविष्य में उसे पशु बनना पड़ेगा।
दुनिया के धोखे मुआ, चल कुटुंब की कानि
तब कुल की क्या लाज है, जब ले धरा पसानि
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते है यह दुनियां एक धोखा है जिसमें आदमी केवल अपने परिवार के पालन पोषण के लिये हर समय जुटा रहता है। वह इस बात का विचार नहीं करता कि जब उसका शरीर निर्जीव होकर इस धरती पर पड़ा रहेगा तब उसके कुल शान का क्या होगा?
वर्तमान  सन्दर्भ में संपादकीय व्याख्या-मनुष्य मन को हंस भी कहा जाता है पर उसे कोई उड़ने दे  तभी उसे  समझा जा सकता है। हर कोई अपने विचार और लक्ष्यों का दायरा संकीर्ण कर लेता है। अपने और परिवार के हित के आगे उसे कुछ नहीं सूझता। कई लोग मन में शांति न होने की बात कहते हैं पर उसके पाने लिये कोई यत्न नहीं करते। मन एकरसता से ऊब जाता है। स्वार्थ सिद्धि में डूबा मन   एकरसता से ऊब जाता है पर बुद्धि परमार्थ के लिए प्रेरित नहीं होती। अगर थोड़ा परमार्थ भी कर लें तो एक सुख का अनुभव होता है। परमार्थ का यह आशय कतई नहीं है कि अपना सर्वस्व लुटा दें बल्कि हम किसी सुपात्र व्यक्ति की सहायता करने के साथ  किसी बेबस का सहारा बने। वैसे लुटाने को लोग लाखों लुटा रहे हैं। अपने परिवार के नाम प्याऊ या किसी मंदिर में बैच या पंखा लगवाकर उस पर अपने परिवार का परिचय अंकित करवा देते हैं और स्वयं ही दानी होने का प्रमाणपत्र ग्रहण करते हैं। इससे मन को शांति नहीं मिलती। दूसरों से दिखावा कर सकते हो पर अपने आप से वह संभव नहीं है। हम हर जगह अपने कुल की परिवार की प्रतिष्ठा लिये घूमते हैं पर अपनी आत्मा से कभी परिचित नहीं होते। इसके लिये जरूरी है कि समय निकालकर भक्ति और संत्संग के कार्यों में बिना किसी दिखावे के निष्काम भाव से सम्मिलित हों। कामना के साथ दान या भक्ति करने से मन को कभी शांति नहीं मिलती। उस पर अगर कुल प्रतिष्ठा किए रक्षा का विचार में में आ जाए तो फिर मनुष्य अपना जीवन ही नारकीय हो जाता है।  दूसरी बात यह ही कि इस संसार का पालनहार तो परमात्मा है तब हम अपने परिवार को पालने का दावा कर सवयं को धोखा देते हैं । 
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Wednesday, July 7, 2010

पहरेदार और कातिल-हास्य कविताएँ (paharedar aur qatil-hasya kavitaen)

खज़ाने की सलामती का जिम्मा हैं जिन पर
वही उसे लुटा रहे हैं,
लुटेरों की महफिल में भी
अपने लोगों को जुटा रहे हैं।
दलालों के ठगने से दर्द नहीं होता
यहां तो पहरेदार ही
कातिलों के लिये मजबूरों को उठा रहे हैं।
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जिंदा लोगों की जिंदगी के
जज़्बातों से खेलना व्यापार के लिये जरूरी है,
इसलिये मरने वालों पर आंसु बहाना
सौदागरों की मजबूरी है।
ज़माने का यही रिवाज है
जिंदा प्यासे इंसान को पानी कोई पिलाता नहीं
जन्नत में बैठे पुरखों के लिये
लुटाते लोग समंदर
कोई नहीं जानता जिसके बारे में
धरती से उसकी कितनी दूरी है।
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कवि लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,ग्वालियर
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Wednesday, June 23, 2010

चाणक्य दर्शन-धीरज हो तो गरीबी का दर्द नहीं होता

अधमा धनमिच्छन्ति मानं च मध्यमाः।
उत्तमा मानमिच्छन्ति मानो हि महतां धनम्।।
हिंदी में भावार्थ-
अधम प्रकृत्ति का मनुष्य केवल धन की कामना करता है जबकि मध्यम प्रकृत्ति के धन के साथ मान की तथा उत्तम पुरुष केवल मान की कामना करते हैं।

दरिद्रता श्रीरतया विराजते कुवस्त्रता शुभ्रतया विराजते।
कदन्नता चोष्णतया विराजते कुरूपता शीतया विराजते।।
हिंदी में भावार्थ-
अगर मनुष्य में धीरज हो तो गरीबी की पीड़ा नहीं होती। घटिया वस्त्र धोया जाये तो वह भी पहनने योग्य हो जाता है। बुरा अन्न भी गरम होने पर स्वादिष्ट लगता है। शील स्वभाव हो तो कुरूप व्यक्ति भी सुंदर लगता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-इस विश्व में धन की बहुत महिमा दिखती है पर उसकी भी एक सीमा है। जिन लोगों के अपने चरित्र और व्यवहार में कमी है और उनको इसका आभास स्वयं ही होता है वही धन के पीछे भागते हैं क्योंकि उनको पता होता है कि वह स्वयं किसी के सहायक नहीं है इसलिये विपत्ति होने पर उनका भी कोई भी अन्य व्यक्ति धन के बिना सहायक नहीं होगा। कुछ लोग ऐसे होते हैं जो अपने ऊपर यकीन तो करते हैं पर फिर भी धन को शक्ति का एक बहुत बड़ा साधन मानते हैं। उत्तम और शक्तिशाली प्रकृत्ति के लोग जिन्हें अपने चरित्र और व्यवहार में विश्वास होता है वह कभी धन की परवाह नहीं करते।
धन होना न होना परिस्थितियों पर निर्भर होता है। यह लक्ष्मी तो चंचला है। जिनको तत्व ज्ञान है वह इसकी माया को जानते हैं। आज दूसरी जगह है तो कल हमारे पास भी आयेगी-यह सोचकर जो व्यक्ति धीरज धारण करते हैं उनके लिये धनाभाव कभी संकट का विषय नहीं रहता। जिस तरह पुराना और घटिया वस्त्र धोने के बाद भी स्वच्छ लगता है वैसे ही जिनका आचरण और व्यवहार शुद्ध है वह निर्धन होने पर भी सम्मान पाते हैं। पेट में भूख होने पर गरम खाना हमेशा ही स्वादिष्ट लगता है भले ही वह मनपसंद न हो। इसलिये मन और विचार की शीतलता होना आवश्यक है तभी समाज में सम्मान प्राप्त हो सकता है क्योंकि भले ही समाज अंधा होकर भौतिक उपलब्धियों की तरफ भाग रहा है पर अंततः उसे अपने लिये बुद्धिमानों, विद्वानों और चारित्रिक रूप से दृढ़ व्यक्तियों की सहायता आवश्यक लगती है। यह विचार करते हुए जो लोग धनाभाव होने के बावजूद अपने चरित्र, विचार और व्यवहार में कलुषिता नहीं आने देते वही उत्तम पुरुष हैं। ऐसे ही सज्जन पुरुष समाज में सभी लोगों द्वारा सम्मानित होते हैं।  इसलिए सज्जनता और धीरज  का कभी त्याग नहीं करना चाहिए। 
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Sunday, June 20, 2010

मनु स्मृति-धर्मं ही मनुष्य का अनुसरण करता है (manushya aur dharma-hindi sandesh)

मनु स्मृति के अनुसार 
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मृतं शरीरमुत्सृज्य काष्ठलोष्ठसमं क्षितौ।
विमुखः बान्धवाः यान्ति धर्मस्तमनुगच्छति।।
हिन्दी में भावार्थ-
मरे हुए मनुष्य की देह को उसके बंधु लोग मिट्टी का मानकर उसे गाड़ देते हैं या जलती हुई लकड़ियों में छोड़ जाते हैं। उस समय धर्म ही जीव का अनुगमन करता है।

एकःप्रजायते जन्तुरेक एव प्रलीयते।
एकोऽनुभुंक्ते सृकृतमेक ज्ञातिर्धर्मस्तिष्ठति केवलः।।
हिन्दी में भावार्थ-
इस संसार में हर मनुष्य अकेले आता और जाता है। उसे अपने अच्छे और बुरे कर्म का फल भी अकेले ही भुगतना है। यह अकाट्य सत्य है।
वर्तमान सन्दर्भ में संपादकीय व्याख्या -चाहे कोई अपने को कितना भी समझाये पर सच यह है कि जब तक देह है सभी लोग एक दूसरे के आत्मीय बनते हैं पर जैसे ही इसमें से आत्मा निकल गया वैसे ही यह बंधु बान्धवों के लिये यह देह मिट्टी का ढेला हो जाती है। वह इसे गाड़कर या जलती लकड़ियों में छोड़कर मुंह फेर चले जाते हैं। कहने कहा अभिप्राय यह है कि आदमी इस धरती पर अकेला ही है। वह कर्म करते हुए धन संग्रह यह सोचकर करता है कि वह अपने और परिवार का भला कर रहा है? अनेक लोग तो धन के लोभ में कदाचरण करते हुए भी नहीं हिचकिचाते। अपने साथ परिवार, रिश्तेदार और मित्रों के होने की अनुभूति उनके अंदर यह भाव नहीं आने देती कि वह हर प्रकार के अपराध के लिये अकेले ही जिम्मेदार हैं। आपने देखा होगा कि अनेक लोग भ्रष्टाचार, हत्या, तथा अन्य अपराधों में अकेले ही फंसते हैं और जिनके लिये काम करने का दावा करते हैं वह बाहर ही बैठे रहते हैं। परिवार, रिश्तेदार, या मित्रों में कोई भी आदमी उनके साथ कारावास में नहीं जाता।
अपराध, भ्रष्टाचार तथा कदाचरण से धन कमाने वाले अनेक लोग यह कहते हैं कि अपना परिवार पालने के लिये यह कर रहे हैं पर वह स्वयं को ही धोखा देते हैं। सबका दाता तो परमात्मा है। यहां भला कोई परिवार क्या पालेगा? जो गलत काम कर रहा है वही बदनाम होता है। इसके विपरीत जो भले काम कर अपना धर्म निभाते हैं उनकी छबि अच्छी बनती है। दोनों ही स्थितियों में आदमी जिम्मेदारी स्वयं ही होता है। अगर बुरे काम करेगा तो मरने के बाद वह उसके साथ ही जायेंगे। अच्छा काम किया है तो देहावसान के बाद धर्म साथ चलेगा।
यह एक अंतिम सत्य है कि यहाँ इन्सान अकेला आया है और अकेला ही जाएगा।  हम इस  सत्य को भुलाकर अपने को धोखा देते हैं। 
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Monday, May 31, 2010

‘जीवन जीने की कला’ का मतलब है कि कभी विचलित न होना-हिन्दी लेख (meaning of art of living-hindi article

कथित रूप से जीने की कला सिखाने वाले एक संत के आश्रम पर गोली चलने की वारदात हुई है। टीवी चैनलों तथा समाचार पत्रों की जानकारी के अनुसार इस विषय पर आश्रम के अधिकारियों तथा जांच अधिकारियों के बीच मतभेद हैं। आश्रम के अधिकारी इसे इस तरह प्रचारित कर रहे हैं कि यह संत पर हमला है जबकि जांच अधिकारी कहते हैं कि संत को उस स्थान से निकले पांच मिनट पहले हुए थे और संत वहां से निकल गये थे। यह गोली सात सो फीट दूरी से चली थी। अब यह कहना कठिन है कि इस घटना की जांच में अन्य क्या नया आने वाला है।
संतों की महिमा एकदम निराली होती है और शायद यही कारण है कि भारतीय जनसमुदाय उनका पूजा करता है। भारतीय अध्यात्म ग्रंथों के प्रचार प्रसार तथा उनके ज्ञान को अक्षुण्ण बनाये रखने में अनेक संतों का योगदान है वरना श्रीमदभागवतगीता जैसा ग्रंथ आज भी प्रासंगिक नहीं बना रहता है।
मगर यह कलियुग है जिसके लिये कहा गया है कि ‘हंस चुनेगा दाना, कौआ मौती खायेगा’। यह स्थिति आज के संत समाज के अनेक सदस्यों में लागू होती है जो अल्पज्ञान तथा केवल भौतिक साधना की पूजा करते हुए भी समाज की प्रशंसा पाते हैं । कई तो ऐसे लोग हैं कि जिन्होंने पहनावा तो संतों का धारण कर लिया है पर उनका हृदय साहूकारों जैसा ही है। ज्ञान को रट लिया है पर उसको धारण अनेक संत नहीं कर पाये। हिन्दू समाज में संतों की उपस्थिति अब कोई मार्गदर्शक जैसी नहीं रही है। इसका एक कारण यह है कि सतों का व्यवसायिक तथा प्रबंध कौशल अब समाज के भक्ति भाव के आर्थिक् दोहन पर अधिक केंद्रित है जिसे आम जनता समझने लगी है। दूसरा यह कि अंग्रेजी शिक्षा पद्धति से शिक्षित बुद्धिजीवी अब संतों की असलियत को उजागर करने में झिझकते नहीं। बुद्धिजीवियों की संत समाज के प्रतिकूल अभिव्यक्तियां आम आदमी में चर्चित होती है। एक बात यह भी है कि पहले समाज में सारा बौद्धिक काम संतों और महात्माओं के भरोसे था जबकि अब आधुनिक शिक्षा प्राप्त कर यह काम ऐसे बुद्धिजीवी करने लगे हैं जो धार्मिक चोगा नहीं पहनते।
ऐसे अनेक बौद्धिक रूप से क्षमतावान लोग हैं जो भारतीय अध्यात्म के प्रति रुझान रखते हैं पर संतों जैसा पहनावा धारण नहीं करते। इनमें जो अध्यात्मिक ज्ञान के जानकार हैं वह तो इन कथित व्यवसायिक संतों को पूज्यनीय का दर्जा देने का ही विरोध करते हैं।
वैसे संत का आशय क्या है यह किसी के समझ में नहीं आया पर हम परंपरागत रूप से देखें तो संत केवल वही हैं जो निष्काम भाव से भक्ति में करते हैं और उसका प्रभाव इतना बढ़ जाता है कि अन्य सामान्य लोग उसने ज्ञान लेने उनके पास आते हैं। पहले ऐसे संत सामान्य कुटियाओं मे रहते थे-रहते तो आज भी कुटियाओं में कहते हैं यह अलग बात है कि वह संगममरमर की बनी होती हैं और उनके वातानुकूलित यंत्र लगे रहते हैं और नाम भी कुटिया या आश्रम रखा जाता है। सीधी बात कहें कि संत अब साहूकार, राजा तथा शिक्षक की संयुक्त भूमिका में आ गये हैं। नहीं रहे तो संत, क्योंकि जिस त्याग और तपस्या की अपेक्षा संतों से की जाती है वह अनेक में दिखाई नहीं देते। यही कारण है कि समाज में उनके प्रति सद्भावना अब वैसी नहीं रही जैसे पहले थी। ऐसे में आश्रम के व्यवसाय तथा व्यवस्था में अप्रिय प्रसंग संघर्ष का कारण बनते हैं पर उनको समूचे धर्म पर हमला कहना अनुचित है।
उपरोक्त आक्रमण को लेकर जिस तरह टीवी चैनलों ने भुनाने का प्रयास किया उसे बचा जाना चाहिए। भारतीय धर्म एक गोली से नष्ट नहीं होने वाला और न ही किसी एक आश्रम में गोली चलने से उसके आदर्श विचलित होने वाले हैं।
बात संतों की महिमा की है तो यकीनन कुछ संत वाकई संत भी हो सकते हैं चाहे भले ही उनके आश्रम आधुनिक साजसज्जा से सुसज्तित हों। इनमें एक योगाचार्य हैं जो योगसाधना का पर्याय बन गये हैं। यकीनन यह उनका व्यवसाय है पर फिर भी उनको संत कहने में कोई हर्ज नहीं। मुश्किल यह है कि यह संत हर धार्मिक विवाद पर बोलने लगते हैं और व्यवसायिक प्रचार माध्यम उनके बयानों को प्रकाशित करने के लिये आतुर रहते हैं। चूंकि यह हमला एक आश्रम था इसलिये उनसे भी बयान लिया गया। .32 पिस्तौल से निकली एक गोली को लेकर धर्म पर संकट दिखाने वाले टीवी चैनलों पर जब वह इस घटना पर बोल रहे थे तब लग रहा था कि यह भोले भाले संत किस चक्कर में पड़े गये। कुछ और भी संत बोल रहे थे तब लग रहा था कि कथित जीने की कला सिखाने वाले संत को यह लोग व्यर्थ ही प्रचार दे रहे हैं। जीवन जीने की कला सिखाने वाले कथित संत की लोकप्रियता से कहीं अधिक योगाचार्य की है और लोग उनकी बातों पर अभी भी यकीन करते हैं। कुछ अन्य संत कभी जिस तरह इस घटना को लेकर धर्म को लेकर चिंतित हैं उससे तो लगता है कि उनमें ज्ञान का अभाव है।
जहां तक जीवन जीने की कला का सवाल है तो पतंजलि योग दर्शन तथा श्रीमदभागवतगीता का संदेश इतना स्वर्णिम हैं कि वह कभी पुरातन नहीं पड़ता। इनके रचयिता अब रायल्टी लेने की लिये इस धरती पर मौजूद नहीं है इसलिये उसमें से अनेक बातें चुराकर लोग संत बन रहे हैं। वह स्वयं जीवन जीने की कला सीख लें जिसमें आदमी बिना ठगी किये परिश्रम के साथ दूसरों का निष्प्रयोजन भला करता है, तो यही बहुत है। जो संत अभी इस विषय पर बोल रहे हैं उनको पता होना चाहिए कि अभी तो जांच चल रही है। जांच अधिकारियों पर संदेह करना ठीक नहीं है। जीवन जीने की कला शीर्षक में आकर्षण बहुत है पर उसके बहुत व्यापक अर्थ हैं जिसमें अनावश्यक रूप से बात को बढ़ा कर प्रस्तुत न करना और जरा जरा सी बात पर विचलित न होना भी शामिल है। 
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Thursday, May 27, 2010

हिंदू धर्मं सन्देश-विषैले पदार्थ और विषयों से दूर रहना श्रेयस्कर

कौटिल्य के अर्थशास्त्र के अनुसार
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नित्यं जीवस्य च ग्लानिर्जायते विषदर्शनात्।
एषामन्यतमेनापि समश्नीयत्परीक्षितम्।
हिन्दी में भावार्थ-
प्रतिदिन विष को देखने से ही मन में ग्लानि हो जाती है इसलिये किसीके  सहयोग से भोजन की परीक्षा करें।
चकोरस्य विरज्येत नयने विषदर्शनात्।
सुव्यक्तं माघति क्रोंचो प्रियते कोकिलः किल।
हिन्दी में भावार्थ-
विष को देखने मात्र से चकोर पक्षी की आंख लाल हो जाती है और कोकिल तो मृत्यु के गाल में ही समाज जाता है।
वर्तमानं संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-कौटिल्य का अर्थशास्त्र राजाओं के लिये लिखा गया है पर एक बात याद रखने लायक है कि हमारे प्राचीन ग्रंथों में व्यंजना विद्या में ही विषय प्रस्तुत किया जाता है जिससे हर वर्ग के मनुष्य के लिये उसका कोई न कोई अर्थ निकले। उनके राजा और प्रजा के लिये समान अर्थ हैं पर उनका भाव प्रथक हो सकता है। हर मनुष्य कहीं न कहीं राजा या प्रमुख पद पर प्रतिष्ठत होता है। आखिर परिवार भी तो राज्य की तरह चलते हैं। यहां कौटिल्य महाराज के विष को अन्य विषयों के साथ व्यापक रूप में लेना चाहिये। वैसे आजकल तो अनेक जगह खानपान की चीजों में जिस तरह विष डाला जा रहा है उसे देखते हुए अत्यधिक सतर्कता के आवश्यकता है।
हम प्रतिदिन ऐसे समाचार पढ़ रहे हैं कि दुग्ध तथा खाद्य पदार्थों  में ऐसे रसायन मिलाये जा रहे हैं जो शरीर के लिए हानिकारक हैं और जिससे अनेक प्रकार की बीमारियाँ होती  हैं, अत: जहाँ तक हो सके बाज़ार की खुली वस्तुओं के सेवन से बचना चाहिए।
 अगर हम विष की बात करें तो  वह खाने के अलावा   अन्य सांसरिक विषयों से भी संबंधित  है। कुछ विषय विष प्रदान करते हैं-जैसे परनिंदा, ईर्ष्या तथा दूसरे का दुःख देकर मन में हंसना। कुछ ऐसे स्थान भी होते हैं जहां जाकर हमारा मन खराब होता है। उसी तरह कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जिनसे मिलने पर हमारे अंदर विकार पैदा होते हैं जिससे दुष्कर्म करने की प्रेरणा आती है। कहने का अभिप्राय यह है कि मन में विष पैदा करने वाले विषयों और व्यक्तियों  से संपर्क नहीं रखना चाहिये।
इसलिये समय समय पर आत्म मंथन अवश्य करते हुए यह देखना चाहिये कि कौनसे व्यक्ति, विषय या स्थान हमारी मनस्थिति को डांवाडोल करते हैं। जहां तक हो सके उनसे दूर रहें। प्रतिदिन उनसे संपर्क रखने से न केवल अपना मन कलुषित होता है जिससे जीवन में आचरण में कलुषिता आती है और जो अंततः कर्ता के लिये ही संकट का कारण बनती है। जहां मन में प्रसन्नता रूपी अमृत मिलता हो वहीं जाना चाहिये। जिससे हृदय में पवित्रता, निर्मलता तथा दृढ़ता का भाव बना रहे उन्हीं विषयों की संगति करना ही उचित है। जिनसे विष का अनुभव हो उनसे दूर रहना ही अच्छा है। तभी जीवन तनाव मुक्त रह सकता है।
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Saturday, May 15, 2010

पतंजलि योग दर्शन-स्थिर होकर सुख से बैठने का नाम आसन है (patanjali yog sahitya in hindi)

स्थिरसुखमासनम्।
हिन्दी में भावार्थ.
स्थिर होकर सुख से बैठने का नाम आसन है।
प्रयत्नशैथिल्यानन्तसमापतिभ्याम्।
हिन्दी में भावार्थ-
आसन के समय प्रयत्न रहित होने के साथ परमात्मा का स्मरण करने से ही वह सिद्ध होता है।
ततोद्वन्द्वानभिघातः।।
हिन्दी में भावार्थ-
आसनों से सांसरिक द्वंद्वों का आघात नहीं लगता।
तस्मिन् सति श्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेदः प्राणायामः।।
हिन्दी में भावार्थ-
आसन की सिद्धि हो जाने पर श्वास ग्रहण करने और छोड़ने की गति रुक जाती है उसे प्राणायाम कहा जाता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-योग साधना कोई सामान्य व्यायाम नहीं है बल्कि ऐसी कला है जिसे जीवन में हमेशा ही आनंद का अनुभव किया जा सकता है। सबसे पहली बात तो यह है कि हम सुखपूर्वक अपने मन और इंद्रियों का निग्रह कर बैठ सकें वही आसन है। इस दौरान अपने हाथ से कोई प्रयत्न न कर केवल परमात्मा का स्मरण करना चाहिये। उस समय अपनी श्वास को आते जाते एक दृष्टा की तरह देखें न कि कर्ता के रूप में स्थित हों। बीच बीच में उसे रोकें और फिर छोड़ें। इस प्राणायाम कहा जाता है। यह प्राणायाम मन और बुद्धि के विकारों को निकालने में सहायक होता है। इससे इतनी सिद्धि मिल जाती है कि आदमी गर्मीए सर्दी तथा वर्षा से उत्पन्न शारीरिक द्वंद्वों से दूर हो जाता है। इतना ही नहीं संसार में आने वाले अनेक मानसिक कष्टों को वह स्वाभाविक रूप से लेता है। दूसरे शब्दों में कहें तो वह दुःख और सुख के भाव से परमानन्द भाव को प्राप्त होता है।
इस संसार में दो ही मार्ग हैं जिन पर इंसान चलता है। एक तो है सहज योग का दूसरा असहज योग। हर इंसान योग करता है। एक वह हैं जो सांसरिक पदार्थों में मन को फंसाकर कष्ट उठाते हैं दूसरे उन पदार्थों से जुड़कर भी उनमें लिप्त नहीं होते। इसलिये कहा जाता है कि योग जीवन जीने की एक कला है और यह भी अन्य कलाओं की तरह अभ्यास करने पर ही प्राप्त होती है। जो सतत योगाभ्यास करते हैं उनके चेहरे और वाणी में तेज स्वत: आता है और उससे दूसरे लोग प्रभावित होते हैं। इसके अलावा जीवन में अपने दायित्वों का निर्वहन करने में सहजता का अनुभव होता  है।
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Thursday, May 13, 2010

भर्तृहरि नीति शतक-स्त्री तथा देवता एक ही होना चाहिए (woman and god-hindu dharma sandesh

एको देवः केशवो वा शिवो वा ह्येकं मित्रं भूपतिवां यतिवां।
एको वासः पत्तने वने वा ह्येकं भार्या सुन्दरी वा दरी वा।।
हिन्दी में भावार्थ-
मनुष्य को अपना आराध्य देव एक ही रखना चाहिये भले ही वह केशव हो या शिव। मित्र भी एक ही हो तो अच्छा है भले ही वह राजा हो या साधु। घर भी एक ही होना चाहिये भले ही वह जंगल में हो या शहर में। स्त्री भी एक होना चाहिये भले ही वह वह सुंदरी हो या अंधेरी गुफा जैसी।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-इस संसार में दुःख बहुत हैं पर सुख कम। भले लोग कम स्वार्थी अधिक हैं। इसलिये अपनी कामनाओं की सीमायें समझना चाहिये। हमारा अध्यात्मिक दर्शन तो एक ही निरंकार का प्रवर्तन करता है पर हमारे ऋषियों, मुनियों तथा विद्वानों साकार रूपों की कल्पना इसलिये की है ताकि सामान्य मनुष्य सहजता से ध्यान कर सके। सामन्य मनुष्य के लिये यह संभव नहीं हो पाता कि वह एकदम निरंकार की उपासना करे। इसलिये भगवान श्रीराम, श्रीकृष्ण, शिव तथा अन्य स्वरूपों की मूर्ति रूप में स्थापना की जाती है। मुख्य ध्येय तो ध्यान के द्वारा निरंकार से संपर्क करना होता है। ध्यान में पहले किसी एक स्वरूप को स्थापित कर निरंकार की तरफ जाना ही भक्ति की चरम सीमा है। अतः एक ही रूप को अपने मन में रखना चाहिये चाहे वह राम जी हो, कृष्ण जी हों या शिव जी।
उसी तरह मित्रों के संचय में भी लोभ नहीं करना चाहिये। दिखाने के लिये कई मित्र बन जाते हैं पर निभाने वाला कोई एक ही होता है। इसलिये अधिक मित्रता करने पर कोई भी भ्रम न पालें। अपने रहने के लिये घर भी एक होना चाहिये। वैसे अनेक लोग ऐसे हैं जो अधिक धन होने के कारण तीर्थो और पर्यटन स्थलों पर अपने मकान बनवाते हैं पर इससे वह अपने लिये मानसिक संकट ही मोल लेते हैं। आप जिस घर में रहते हैं उसे रोज देखकर चैन पा सकते हैं, पर अगर दूसरी जगह भी घर है तो वहां की चिंता हमेशा रहती है।
उसी तरह पत्नी भी एक होना चाहिये। हमारे अध्यात्मिक दर्शन की यही विशेषता है कि वह सांसरिक पदार्थों में अधिक मोह न पालने की बात कहता है। अधिक पत्नियां रखकर आदमी अपने लिये संकट मोल लेता है। कहीं तो लोग पत्नी के अलावा भी बाहर अपनी प्रेयसियां बनाते हैं पर ऐसे लोग कभी सुख नहीं पाते बल्कि अपनी चोरी पकड़े जाने का डर उन्हें हमेशा सताता है। अगर ऐसे लोग राजकीय कार्यों से जुड़े हैं तो विरोधी देश के लोग उनकी जानकारी एकत्रित कर उन्हें ब्लेकमेल भी कर सकते हैं। कहने का अभिप्राय यही है कि अपना इष्ट, घर, मित्र और भार्या एक ही होना चाहिये। अधिक संपर्क बनाने या संपति का सृजन करने से भी अपने मन में मोह तथा अहंकार का भाव पैदा होता है कालांतर में उसके बुरे परिणाम भी स्वयं को भोगने पड़ते हैं।
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Saturday, May 8, 2010

हिन्दू धर्म संदेश-धर्म रहित कार्य केवल मूर्ख आदमी ही करता है (moorkh aadmi karta hai dharma rahit karya-hindu dharma sandesh)

आधिव्याधिविपरीतयं अद्य श्वो वा विनाशिने।
कोहि नाम शरीराय धम्मपितं समाचरेत्।।
हिन्दी में भावार्थ-
तमाम तरह के दुःखों से भरे और कल नाश होने वाले इस शरीर के लिये धर्म रहित कार्य केवल कोई मूर्ख आदमी ही कर सकता है।

महावाताहृतभ्त्रान्ति मेघमालातिपेलवैः।
कष्टां नाम महात्मानो हियन्ते विषयारिभिः।।
हिन्दी में भावार्थ-
जिस तरह बादलों का समूह वायु की तीव्र गति से डांवाडोल होता है उसी तरह महात्मा लोग भी विषयरूपी शत्रुओं के प्रहार से विचलित हो ही जाते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-इस संसार के विषयों की भी अपनी महिमा है। मनुष्य देह में चाहे सामान्य व्यक्ति हो या योगी इन सांसरिक विषयों के चिंतन से बच नहीं सकते। जैसे ही उनका चिंतन शुरु हुआ नहीं कि आसक्ति घेर लेती है और तब सारा का सारा ज्ञान धरा रह जाता है। सामान्य मनुष्य हो या योगी विषयों से प्रवाहित तीव्र आसक्ति की वायु से उसी तरह डांवाडोल होते हैं जैसे संगठित बादलों का समूह तेज चलती हवा के झौंकों से विचलित हो जाते हैं।
किसी ज्ञान को रटने और धारण करने में अंतर है। यह शरीर नश्वर है तथा अनेक प्रकार के रोगाणु उसमें विराजमान हैं। ऐसे शरीर से अधर्म का काम करना मूर्खता है पर सबसे मुख्य बात यह है कि इस बात को समझते कितने लोग हैं? अनेक लोग धार्मिक संतों का प्रभाव देखकर उन जैसा बनने के लिये शब्द ज्ञान ग्रहण कर उसे दूसरों को सुनाने का अभ्यास करते हैं। जब वह अभ्यास करते हैं तो उनके अंदर यह एक व्यवसायिक गुण निर्मित हो ही जाता है कि वह दूसरे पर अपना प्रभाव कायम कर सकें, मगर ऐसे लोग केवल ज्ञान का बखान करने वाले होते हैं पर उस राह पर कभी चले नहीं होते। नतीजा यह होता है कि कभी न कभी उनको विषय घेर लेते हैं और तब वह इसी नश्वर देह के लिये अधर्म का काम करते हैं। यही कारण है कि अपने देश में बदनाम होने वाले संतों की भी कमी नहीं है।
यह जरूरी नहीं है कि सभी सन्यासी हमेशा ही ज्ञानी हों। उसी तरह यह भी कि सभी गृहस्थ अज्ञानी भी नहीं होते। जो तत्व ज्ञान को समझता है वह चाहे गृहस्थ ही क्यों न हो, योगियों और सन्यासियों की श्रेणियों में आता है। अपने सांसरिक कार्य करते हुए विषयों में आसक्ति न होना भी एक तरह से सन्यास है। दूसरी बात यह है कि सांसरिक विषयों की चर्चा करने वाले तथा संपत्ति संचय में कथित रूप से लोग सन्यासी नहीं हो सकते जैसा कि वह दावा करते हैं। सच बात तो यह है कि विषय उनको विचलित क्या करेंगे वह तो उनको हमेशा ही घेरे रहते हैं।
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Tuesday, May 4, 2010

विदुर दर्शन-सत्य से ही धर्म की रक्षा संभव (satya se hi dharma ki raksha sanbhav)

सत्येन रक्ष्यते धर्मो विद्या योगेन रक्ष्यते।
मृजया रक्ष्यते रूपं कुलं वृत्तेन रक्ष्यते।।
हिन्दी में भावार्थ-
सत्य से धर्म, योग से विद्या, सफाई से सुंदरता और सदाचार से कुल की रक्षा होती है। 


पर्जन्यनाथाः पशवो राजानो मन्त्रिबान्धवाः।।
पतयो बान्धवा स्त्रीणां ब्राह्मण वेदबान्धवा।।
हिन्दी में भावार्थ-
पशुओं के सहायक बादल, राजाओं के सहायक मंत्री, स्त्रियों के सहायक पति के साथ बंधु और विद्वानों का सहायक ज्ञान है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जीवन में ज्ञान का होना जरूरी है अन्यथा हम अपने पास मौजूद व्यक्तियों, वस्तुओं तथा उपलब्धियों का सही उपयोग नहीं कर सकते। एक बात याद रखना चाहिये कि हमारे साथ जो लोग होते हैं उनका महत्व होता है।  अंधेरे में तीर चलाने से कुछ नहीं होता, इसलिये जीवन के सत्य को समझ लेना चाहिये। राजाओं के सहायक मंत्री होते हैं। इसका आशय साफ है कि अपने मित्र और सलाहकार के चयन में हर आदमी को सतर्कता बरतना चाहिये।
स्त्रियों की स्वतंत्रता बुरी नहीं है पर उन्हें यह समझ लेना चाहिये कि उनकी रक्षा उसके परिवार के पुरुष सदस्य ही कर सकते हैं।  उनको बाहर के व्यक्तियों से यह अपेक्षा नहीं करना चाहिये कि वह उनकी रक्षा करेंगे भले ही चाहे वह कितना भी दावा करें।  हम अक्सर ऐसी वारदातें देखते हैं जिसमें स्त्रियों के साथ धोखा होता है और इनमें अधिकतर उनमें अपने ही  लोग होते हैं। इनमें भी अधिक संख्या उनकी होती है  जो परिवार के बाहर के होने के बावजूद उनसे निकटता प्राप्त करते हैं।  स्त्रियों के मामले में यह भी दिखाई देता है कि उनके साथ विश्वासघात अपने ही करते हैं पर इनमें अधिकतर संख्या  उन लोगों की होती है जो बाहर के होने के साथ  अपने बनने का नाटक हुए   उनको धर्म और चरित्र पथ से भ्रष्ट भी करते हैं।
हम लोगों का यह भ्रम होता है कि बादल हमारे लिये बरस रहे हैं।  जब बादल नहीं बरसते तब तमाम तरह के धार्मिक कर्मकांड किये जाते हैं। बरसते हैं तो धर्म के ठेकेदार अनेक प्रकार के दावे करते हैं जबकि सच्चाई यह है कि बादल धरती पर स्थित पेड़ पौद्यों तथा पशुओं के रक्षक हैं और इसलिये उनका तो बरसना ही है।
आजकल भारतीय योग साधना का प्रचार हो रहा है। दरअसल यह योग साधना न केवल स्वास्थ्य के लिये उपयुक्त है बल्कि उससे हमारी विद्या तथा ज्ञान की रक्षा भी होती है। इसलिये जो लोग चाहते हैं कि उनके बच्चे प्रतिभाशाली हों उन्हें चाहिये कि वह इसके लिये उनको प्रेरित करें।  आजकल कठिन प्रतियोगिता का समय है और ऐसे में योग साधना ही एक ऐसा उपाय दिखती है जिससे उनकी प्रतिभा को सोने जैसी चमक मिल सकती है। सच बात तो यह है कि इस संसार में खुश रहने के लिये योग साधना के अलावा कोई अन्य उपाय है इस पर विश्वास करना कठिन है। 
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Tuesday, April 27, 2010

विदुर नीति-धर्म का दिखावा करना अहंकार का प्रमाण (dharma aur ahnakar-hindi sandesh)

इन्याध्ययनदानादि तपः सत्यं क्षमा घृणा।
अलोभ इति मार्गोऽयं धर्मस्याष्टविधः समृतः।।
हिन्दी में भावार्थ-
नीति विशारद विदुर का कहना है कि यज्ञ, अध्ययन, दान, तप, सत्य, क्षमा, दया और अलोभ वह गुण है जो धर्म के मार्ग भी हैं। 


तत्र पूर्वचतुर्वर्गो दम्भार्थमपि सेव्यते।
उत्तरश्च चतुर्वर्गो नामहात्मसु तिष्ठति।।
हिन्दी में भावार्थ-
इनमें पहले चार का तो अहंकार वश भी पालन किया जाता है जबकि आखिरी चार के मार्ग पर केवल महात्मा लोग ही चल पाते हैं।  


वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-ऐसा नहीं है कि किसी मनुष्य में कोई गुण नहीं होता और न ही कोई बिना भला काम किये रह जाता है।  अलबत्ता उसकी मूल प्रकृत्ति के अनुसार ही उसके पुण्य या भले काम का मूल्यांकन भी होता है।  देखा जाये तो दुनियां के अधिकतर लोग अपने  धर्म के अनुसार यज्ञ, अध्ययन, दान और परमात्मा की भक्ति सभी करते हैं पर इनमें कुछ लोग दिखावे के लिये अहंकार वश करते हैं।  उनके मन में कर्तापन का अहंकार इतना होता है कि उसे देखकर हंसी ही आती है।  हमारे देश के प्रसिद्ध संत रविदास जी ने कहा है कि ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’ जिसका आशय यही है कि अगर हृदय पवित्र है तो वहीं भगवान का वास है।  लोग अपने घरों पर रहते हुए हृदय से परमात्मा का स्मरण नहीं कर पाते जिससे उनके मन में विकार एकत्रित होते हैं।  फिर वही लोग  दिल बहलाने के लिये पर्यटन की दृष्टि से धार्मिक यात्राओं पर जाते हैं यह दिखाने के लिये कि वह धार्मिक प्रवृत्ति के हैं।  फिर वहां से आकर सभी के सामने बधारते हैं कि ‘मैंने यह किया’, ‘मैंने वह किया’ या ‘मैंने दान किया’-यह उनकी अहंकार की प्रवृत्ति का परिचायक है। इससे यह भी पता चलता है कि उनके मन का विकार तो गया ही नहीं।
इतना ही नहीं कुछ लोग अक्सर यह भी कहते हैं कि ‘हमारे धर्म के अनुसार यह होता है’, या ‘हमारे धर्म के अनुसार ऐसा होना चाहिये’।  इससे भी आगे बढ़कर वह खान पान, रहन सहन तथा चाल चलन को लेकर अपने धार्मिक ग्रंथों के हवाले देते हैं।  उनका यह अध्ययन एक तरह से अहंकार के इर्दगिर्द आकर सिमट जाता है।  सत्संग चर्चा होना चाहिये पर उसमें अपने आपको भक्त या ज्ञानी साबित करना अहंकार का प्रतीक है।  कहने का तात्पर्य यही है कि यज्ञ, अध्ययन, तप और दान करना ही किसी मनुष्य की धार्मिक प्रवृत्ति होने का प्रमाण नहीं है जब तक उसके व्यवहार में वह अपने क्षमावान, दयालु, सत्यनिष्ठ, और लोभरहित नहीं दिखता।  यह चारों गुण ही आदमी के सात्विक होने का प्रतीक हैं। जिन लोगों के मन में सात्विकता का भाव है वह कभी दिखावा
नहीं करते और उनकी भक्ति का तेज उनके चेहरे पर वैसे ही दिखता है।
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Saturday, April 24, 2010

मनुस्मृति-श्रमिक का हाथ सदैव पवित्र रहता है (worker is hollyman-hindu dharma sandesh)

नित्यमास्यं शुचिः स्त्रीणां शकुनि फलपातने।
प्रस्त्रवे च शुचर्वत्सः श्वा मृगग्रहणे शुचिः।।
हिन्दी में भावार्थ-
नारियों का मुख, फल गिराने के लिये उपयोग  में लाया गया पक्षी, दुग्ध दोहन के समय बछड़ा तथा शिकार पकड़ने के लिये उपयोग में लाया गया कुत्ता पवित्र है।
नित्यं शुद्धः कारुहस्तः पण्ये यच्च प्रसारितम्।
ब्रह्मचारिगतं भैक्ष्यं नित्यं मेध्यमिति स्थितिः।
हिन्दी में भावार्थ-
शास्त्रों के अनुसार कारीगर का हाथ, बाजार में बेचने के लिये रखी गयी वस्तु तथा ब्रह्मचार को दी गयी भिक्षा सदा ही शुद्ध है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-हमारे देश में पाश्चात्य सभ्यता के अनुसरण ने लोगों के दिमाग में श्रम की मर्यादा को कम किया है। आधुनिक सुख सुविधाओं के उपभोग करने वाले धनपति मजदूरों और कारीगरों को हेय दृष्टि से देखते हैं। उनके श्रम का मूल्य चुकाते हुए अनेक धनपतियों का मुख सूखने लगता है। जबकि हमारे मनु महाराज के अनुसार कारीगर का हाथ हमेशा ही शुद्ध रहता है। इसका कारण यह है कि वह अपना काम हृदय लगाकर करता है। उसके मन में कोई विकार या तनाव नहीं होता। यह शुद्ध भाव उसके हाथ को हमेशा पवित्र तथा शुद्ध करता रहता है। भले ही सिर पर रेत, सीमेंट या ईंटों को ढोते हुए कोई मजदूर पूरी तरह मिट्टी से ढंक जाता है पर फिर भी वह पवित्र है। उसी तरह मैला ढोले वालों का भले ही कोई अछूत कहे पर यह उनका नजरिया गलत है। मैला ढोले वाले के हाथ भले ही गंदे हो जाते हैं पर उसके हृदय की पवित्रता उनको शुद्ध रखती है।
जो लोग मजदूरों, कारीगरों या मैला ढोले वालों को अशुद्ध समझते है वह बुद्धिहीन है क्योंकि श्रमसाध्य कार्य करना एक तो हरेक के बूते का नहीं होता दूसरे उनको करने वाले अत्यंत पवित्र उद्देश्य से यह करते हैं इसलिये उनके हाथों को अशुद्ध मानना या उनकी देह को अछूत समझना अज्ञानता का प्रमाण है।
यहां बाजार में रखी वस्तु के शुद्ध होने से आशय यह कतई न लें कि हम चाहे जो भी वस्तु रखें वह पवित्र ही होगी। दरअसल इसका यह भी एक आशय है कि आप जो चीज बेचने के लिये रखें वह पवित्र और शुद्ध होना चाहिये। इसके अलावा इस बात का ध्यान रखें कि जो लोग अपने हाथों से कुशल या अकुशल श्रम करते हैं उनको हेय दृष्टि से न देखों तथा उनके परिश्रम का उचित मूल्य चुकायें।
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Thursday, April 22, 2010

संत कबीर दास के दोहे-परोपकार पर ही यश मिलना संभव (kabir ke dohe-paropkar aur yash)

धन रहै न जोबन रहे, रहै न गांव न ठांव।
कबीर जग में जस रहे, करिदे किसी का काम।
संत कबीर दास जी कहते हैं कि एक दिन यह न धन रहेगा न यह यौवन ही साथ होगा। गांव और घर भी छूट जायेगा पर रहेगा तो अपना यश, यह तभी संभव है कि हमने किसी का काम किया हो।
स्वारथ सूका लाकड़ा, छांह बिहना सूल।
पीपल परमारथ भजो, सुख सागर को मूल।।
संत कबीरदास जी का कहना है कि स्वार्थ तो सूखी लकड़ी के समान हैं जिसमें न तो छाया मिलती है और न ही सुख। एक तरह से वह कांटे की तरह है। इसके विपरीत परमार्थ पीपल के पेड़ के समान हैं जो सुख प्रदान करता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-यह लोगों की गलतफहमी है कि वह भौतिक उपलब्धियों के कारण सम्मान पा रहे हैं। लोग अपनी आर्थिक उपलब्धियों, परिवार की प्रतिष्ठा और अपने कर्म का बखान स्वयं करते हैं। मजा तो तब है जब दूसरे आपकी प्रशंसा करेें और यह तभी संभव है कि आप अपने काम से दूसरे की निस्वार्थ भाव से सहायता कर उसको प्रसन्न करें।
आप कहीं किसी धार्मिक स्थान, उद्यान या अन्य सार्वजनिक स्थान पर जाकर बैठ जायें। वहां आपसे मिलने वाले लोग केवल आत्मप्रवंचना में लगे मिलेंगे। हमने यह किया, वह किया, हमने यह पाया और हमने यह दिया जैसे जुमले आप किसी के भी श्रीमुख से नहीं सुन पायेंगे।
दरअसल बात यह है कि सामान्य मनुष्य पूरा जीवन अपने और परिवार के लिये धन का संचय कर यह सोचता है कि वह सामाजिक प्रतिष्ठा अर्जित कर रहा है और परमार्थ करना उसके लिये एक फालतू विषय है। जब उससे धन और यौवन विदा होता है तब वह खाली बैठे केवल अपने पिछले जीवन को गाता है पर सुनता कौन है? सभी तो इसमें ही लगे हैं। इसलिये अगर ऐसा यश पाना है जिससे जीवन में भी सम्मान मिले और मरने पर भी लोग याद करें तो दूसरों के हित के लिये काम करें। जब समय निकल जायेगा तब पछताने से कोई लाभ नहीं होगा। अतः समय रहते हुए ज्ञान प्राप्त करने के साथ ही परोपकार भी करना चाहिये
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Saturday, April 17, 2010

विदुर दर्शन-सत्संग से बुद्धि प्राप्त करे वही पण्डित (satasang kare vahi pandit-hindu dharma sandesh)

प्रज्ञामेवागमयति यः प्राज्ञेभ्यःस पण्डितः।
प्राज्ञो ह्यवापप्य धर्मार्थौं शक्नोति सुखमेधितम्।।
हिन्दी में भावार्थ-
नीति विशारद विदुर जी के मतानुसार जो मनुष्य बुद्धिमानों की संगत कर सद्बुद्धि प्राप्त करता है वही पण्डित है। बुद्धिमान पुरुष ही धर्म और अर्थ को प्राप्त कर अनायास ही अपना विकास करता है।

अन्नसूयुः कुतप्रज्ञः शोभनान्याचरन् सदा।
न कृच्छ्रम् महादाप्नोति सर्वत्र च विरोचते।।
हिन्दी में भावार्थ-
जिसकी बुद्धि दोषदृष्टि से रहित है वह मनुष्य सदा ही पवित्र और शुभ करता हुआ जीवन में महान आनंद प्राप्त करता है। जिससे उसका अन्य लोग भी सम्मान करते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-इस जीवन का रहस्य वही समझ सकते हैं जिनकी बुद्धि दूसरे में दोष नहीं देखती। जीवन भर आदमी सत्संग सुने या ईश्वर की वंदना करे पर जब तक उसमें ज्ञान नहीं है तब तक वह भी यह जीवन प्रसन्नता से व्यतीत नहीं कर सकता। सच बात तो यह है कि जैसी अपनी दृष्टि होती है वैसा ही दृश्य सामने आता है और वैसी ही यह दुनियां दिखाई देती है। इतना ही नहीं जब हम किसी में उसका दोष देखते हैं तो वह धीरे धीरे हम में आकर निवास करने लगता है। जब हम अपना समय दूसरो की निंदा करते हुए बिताते हैं तो यही काम दूसरे लोग हमारी निंदा करते हुए करते हैं। यही कारण है कि अक्सर लोग यही कहते हैं कि ‘इस संसार में सुख नहीं है।’
सच्चाई तो यह है कि इस संसार में न तो कभी सतयुग था न अब कलियुग है। यह बस बुद्धि से देखने का नजरिया है। जिन लोगों की बुद्धि दोष रहित है वह प्रातःकाल योगसाधना, ध्यान तथा मंत्रोच्चार करते हुए अपना दिन प्रारंभ करते हैं। उनके लिये वह काल स्वर्ग जैसा होता है। मगर जिनकी बुद्धि दोषपूर्ण है वह सुबह उठते ही निंदात्मक विचार व्यक्त करना प्रारंभ कर देते हैं। कई लोग तो प्रातःकाल ही चीखना चिल्लाना प्रारंभ करते हैं और उनको भगवान के नाम जगह अपने कष्टों का जाप करते हुए सुना जा सकता है। सुबह उठते ही अगर मनुष्य में प्रसन्नता का अनुभव न हो तो समझ लीजिये वह नरक में जी रहा है। यह तभी संभव है जब आदमी अपनी बुद्धि को पवित्र रखते हुए दूसरे में दोष देखना बंद कर दे। दूसरे के दोषों को देखना तो क्या उन्क्स स्मरण तक नहीं करना चाहिए क्योंकि वह अपने अन्दर आ जाते हैं।
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Friday, April 16, 2010

चाणक्य दर्शन-आमदनी से अधिक खर्च मुसीबत का कारण (amdani aur kharcha-chankya niti)

अनालोक्य व्ययं कर्ता ह्यनाथःः कलहप्रियः।
आतुर सर्वक्षेत्रेपु नरः शीघ्र विनश्चयति ।।
हिंदी में भावार्थ-
नीति विशारद चाणक्य कहते हैं कि बिना विचारे ही अपनी आय के साधनों से अधिक व्यय करने वाला सहायकों से रहित और युद्धों में रुचि रखने वाला तथा कामी आदमी का बहुत शीघ्र विनाश हो जाता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय-आज समाज में आर्थिक तनावों के चलते मनुष्य की मानसिकता अत्यंत विकृत हो गयी है। लोग दूसरों के घरों में टीवी, फ्रिज, कार तथा अन्य साधनों को देखकर अपने अंदर उसे पाने का मोह पाल लेते हैं। मगर अपनी आय की स्थिति उनके ध्यान में आते ही वह कुंठित हो जाते हैं। इसलिये कहीं से ऋण लेकर वह उपभोग के सामान जुटाकर अपने परिवार के सदस्यों की वाहवाही लूट लेते हैं पर बाद में जहां ऋण और ब्याज चुकाने की बात आयी वहां उसके लिये आय के साधनों की सीमा उनके लिये संकट का कारण बन जाती है। अनेक लोग तो इसलिये ही आत्महत्या कर लेते हैं क्योंकि उनको लेनदार तंग करते हैं या धमकी देते हैं। इसके अलावा कुछ लोग ठगी तथा धोखे की प्रवृत्ति अपनाते हुए भी खतरनाक मार्ग पल चल पड़ते हैं जिसका दुष्परिणाम उनको बाद में भोगना पड़ता है। इस तरह अपनी आय से अधिक व्यय करने वालें जल्दी संकट में पड़ जाने के कारण अपने जीवन से हाथ धो बैठते हैं। समझदार व्यक्ति वही है जो आय के अनुसार व्यय करता है। आय से अधिक व्यय करना हमेशा ही दुःख का मूल कारण होता है।
यही स्थिति उन लोगों की भी है जो नित्य ही दूसरों से झगड़ा और विवाद करते हैं। इससे उनके शरीर में उच्च रक्तचाप और हृदय रोग संबंधी विकास अपनी निवास बना लेते हैं। अगर ऐसा न भी हो तो कहीं न कहीं उनको अपने से बलवान व्यक्ति मिल जाता है जो उनके जीवन ही खत्म कर देता है या फिर ऐसे घाव देता है कि वह उसे जीवन भर नहीं भर पाते। अतः प्रयास यही करना चाहिये कि शांति से अपना काम करें। जहाँ तक हो सके अपने ऊपर नियत्रण रखें।
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Wednesday, April 14, 2010

कबीर के दोहे-दुष्टों कि निंदा कि बजाय साधुओं के प्रशंसा में वक्त बिताएं (kabir ke dohe-ninda aur prashansa)

काहू को नहिं निन्दिये, चाहै जैसा होय।
फिर फिर ताको बन्दिये, साधु लच्छ है सोय।।
संत कबीरदास का कहना है कि चाहे व्यक्ति अच्छा हो या बुरा उसकी निंदा न करिये। इसमें समय नष्ट करने की बजाय उस आदमी की बार बार प्रशंसा करिये जिसके लक्षण साधुओं की तरह हों।
सातो सागर मैं फिर, जम्बुदीप दै पीठ।
परनिंदा नाहीं करै, सो कोय बिरला दीठ।।
संत कबीरदास जी कहते हैं कि मैं सारा संसार फिरा पर ऐसा कोई नहीं मिला जो परनिंदा न करता हो। ऐसा तो कोई विरला ही होता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-मनुष्य का स्वभाव है परनिंदा करना। सच बात तो यह है कि हर मनुष्य अपने घर संसार के कामों में व्यस्त रहता है पर यह चाहता है कि लोग उसे भला आदमी कहें। ऐसा सम्मान तभी प्राप्त हो सकता है जब अपने जीवन से समय निकालकर कोई आदमी दूसरों का काम करे और सुपात्र को दान देने के साथ ही असहाय की सहायत के लिये तत्पर रहे। यह काम विरले ही लोग करते हैं और सामान्य मनुष्य उनको फालतु या बेकार कहकर उनकी अनदेखी करते हैं अलबत्ता उनको मिलने वाली इज्जत वह भी पाना चाहते हैं। ऐसे में होता यह है कि लोग आत्मप्रचार करते हुए दूसरों की निंदा करते हैं। अपनी लकीर खींचने की बजाय थूक से दूसरे की लकीर को छोटा करते हैं। दुनियां में ऐसे लोग की बहुतायत है पर संसार में भले लोग भी कम नहीं है। सच बात तो यह है ऐसे ही परोपकारी, दानी, ज्ञान और कोमल स्वभाव लोगों की वजह से यह संसार भले लोगों की भलाई के कारण चल रहा है। सामान्य मनुष्य तो केवल अपना घर ही चला लें बहुत है।
अधिकतर मनुष्य अपने काम में व्यस्त हैं पर सम्मान पाने का मोह किसे नहीं है। कहीं भी किसी के सामने बैठ जाईये वह आत्मप्रवंचना करता है और उससे भी उसका मन न भरे तो किसी दूसरे की निंदा करने लगता है। कबीरदास जी के कथनों पर विचार करें तो यह अनुभव होगा कि हम ऐसी गल्तियां स्वयं ही करते हैं। अतः अच्छा यही है कि खाली समय में कोई परोपकार करें या अध्ययन एवं भक्ति के द्वारा अपना मन शुद्ध करें। दूसरों की निंदा से कुछ हासिल नहीं होने वाला। हां, अगर कोई भला काम करता है तो उसकी प्रशंसा करें। एक बार नहीं बार बार करें। संभव है उसके गुण अपने अंदर भी आ जायें। याद रखिये दूसरे के अवगुणों की चर्चा करते हुए वह हमारे अंदर भी आ जाते हैं।  शायद इसलिए ही कहा जाता है कि बुरा मत कहो,बुरा मत देखो और बुरा मत सुनो।  साथ ही यह भी कहा जाता है कि सबसे अच्छा बर्ताव करो पता नहीं कब किसकी जरूरत पड़ जाए।
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Sunday, April 11, 2010

संत कबीर के दोहे-धामिक व्यक्ति दूसरे जीवों का कल्याण कर अपना धर्म प्रमाणित करता है (Dhamik vyakti ki pahachan-kabir ke dohe)

फलं कतकवृक्षस्य यद्यप्यम्बुप्रसादकम्।
न नामग्रहणादेव तस्य वारि प्रसीदति।।
हिन्दी में भावार्थ-
निर्मली का वृक्ष जल को शुद्ध करता है भले ही उसकी जानकारी सभी को नहीं है। उसका नाम लेने से जल शुद्ध नहीं होता बल्कि वह स्वयं उपस्थित होकर जल शुद्ध करता है। उसी प्रकार धर्म की जानकारी होना ही पर्याप्त नहीं बल्कि उसे अन्य जीवों का कल्याण कर प्रमाणित करना चाहिए। नाम लेने से आदमी धार्मिक नहीं हो जाता।
दुषितोऽपि चरेद्धर्म यत्रतत्राश्रमे रतः।
समः सर्वेषु भूतेशु न लिंगे धर्मकारणम्।।
हिन्दी में भावार्थ-
चाहे घर में हो या आश्रम में शास्त्रों के ज्ञाता को चाहिए कि सामान्य प्राणियों के दोषों से ग्रसित होने पर भी सभी को समान दृष्टि से देखे। वह धर्म का अनुसरण करते हुए अपना व्यवहार हमेशा शुद्ध रखे पर उसका प्रदर्शन न करे-अभिप्राय यह है कि धर्म का वह पालन करे पर और उसका दिखावा करने से दूर रहे।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-हमारे समाज में धर्म का दिखावा करने वालों की संख्या बहुत है पर उस अमल कितने लोग करते हैं यह केवल ज्ञानी लोग ही देख पाते हैं। अगर समूचे भारतीय समाज पर दृष्टिपात करें
तो पूजा, पाठ, तीर्थयात्रा, सत्संग तथा दान करने वाले लोगों की संख्या बहुत दिखाई देती है पर फिर नैतिक और सामाजिक आचरण में निरंतर गिरावट होती दिख रही है। लोग धार्मिक पुस्तकों के ज्ञान की चर्चा करते हुए एक दूसरे को सिखाते खूब हैं पर सीखता कोई दृष्टिगोचर नहीं होता। लोग दान करते हैं पर कामना के भाव से-उनका उद्देश्य समाज में प्रतिष्ठा अर्जित करना होता है या फिर प्राप्तकर्ता के कथित आशीर्वाद की चाहत उनके मन में होती है और इसी कारण कारण कुपात्र को भी दान देते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि धर्म का दिखावा कोई धार्मिक व्यक्ति होने का प्रमाण नहीं है।
उसी तरह धर्म के रक्षा के नाम पर विश्व में अनेक लोग तथा संगठन बन गये हैं-उनका उद्देश्य केवल अपने लिये धन तथा प्रतिष्ठा अर्जित करना होता है न कि वास्तव में सामाजिक कल्याण करना। धर्म नितांत एक निजी विषय है न कि अपने मुंह से कहकर सुनाने का। जिस व्यक्ति को यह प्रमाणित करना है कि वह धार्मिक प्रवृत्ति का है उसे चाहिये कि वह दूसरों की सहायता कर उसे प्रमाण करे। कुछ लोग धर्म के नाम हिंसा को उचित ठहराने का प्रयास करते हैं। अपने घर की रक्षा करने की कर्तव्य क्षमता तक उनमें होती नहीं और धर्म के नाम पर धन और अस्त्र शस्त्र के संचय में लगकर वह हिंसा के व्यापारी बन जाते हैं- राम तथा बगल में छुरी रखने वालों की पहचान इसी तरह की जा सकती है कि कौन आदमी वास्तव में किसका भला करता है और कौन कितना उसकी आड़ में अपना व्यापार करता है। सच्चा धामिक व्यक्ति वही है रो अपने करम तथा व्यवहार से दूसरों को शान्ति तथा सुख प्रदान करता है। इसके विपरीत पाखंडी लोग धर्मं कि बातें बहुत करते हैं पर उनके हाथ से किसी की भला हो यह संभव नहीं होता क्योंकि उनकी ऐसी नीयत भी नहीं होती।
लेखक, संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://anant-shabd.blogspot.com
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