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Saturday, March 26, 2011

समाधि से मनुष्य अपना स्वामी बन जाता है-हिन्दू धार्मिक विचार (samadhi se swami-hindu dharmik thought)

पतंजलि योग साहित्य में कहा गया है कि
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सत्वपुरुषान्यताख्यातिमात्रस्य सर्वभाधिष्ठास्तृत्वं सर्वज्ञातृत्वं च।
हिन्दी में भावार्थ-
बुद्धि और पुरुष (आत्मा) के अंतर का आभास जिसे समझ में आ जाता है ऐसा समाधिस्थ योगी सभी प्रकार के भावों पर स्वामित्व प्राप्त कर लेता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-हम क्या हैं? बुद्धि कहती हैं कि मै हूं और मन इस अहंकार के बोध में बेलगाम विचरण करता है। दैहिक क्रियाओं में कर्तापन की अनुभूति आदमी को ज्ञान से परे कर देती है। आदमी यानि अध्यात्म! पुरुष हो या स्त्री वास्तव में परमात्मा का अंश आत्मा है! वह इस देह को धारण किये है इसलिये उसे अध्यात्म भी कहा जाता है। वह कर्ता नहीं दृष्टा है मगर योग साधना से विरत मनुष्य की बुद्धि इस ज्ञान को ग्रहण नहीं करने देती और मन इधर से उधर उसे दौड़ाता है।
हम आत्मा है! न वह खाता है न वह पीता है न वह सोचता है न बोलता है। यह सारे कार्य तो उस देह के अंग स्वतः कर रहे हैं जिसको आत्मा यानि हमने धारण किया है। देह की आवश्यकतायें असीमित पर अध्यात्म की भूख सीमित है। वह केवल ज्ञान के साथ जीना चाहता है। वह दृष्टा तभी बन सकता है जब हम योग के द्वारा अपनी इंद्रियों के गुणों से उसे सुसज्जित करें। इसके लिये जरूरी है कि ध्यान करते हुए समाधि के माध्यम से उन पर नियंत्रित कर उनका स्वामी बनने का प्रयास किया जाये। नाक है तो सुगंध ग्रहण करेगी, आंख है तो देखेगी और कान है तो सुनेंगे। बुद्धि का काम है विचार करना और मन का काम है इधर उधर विचरण करना। ऐसे में हम अध्यात्मिक ज्ञान को तभी प्राप्त कर सकते हैं कि जब संकल्प धारण करें। सदैव बहिर्मुखी रहने की बजाय अंतर्मुखी होने का प्रयास भी करें। जब हम अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण कर अपने अध्यात्म से संपर्क कर लेंगे तो वह दृष्टा भाव को प्राप्त होगा तब निराशा, प्रसन्न्ता, शोक तथा हर्ष के भाव पर स्वामित्व प्राप्त हो जायेगा। जिस तरह स्वामी अपने अनुचरों के कर्म से विचलित नहीं होता और मानता है कि यह काम तो उनको करना ही है उसी तरह हम भी यह देखने लगेंगे कि शरीर के अंग हमारे सेवक है और उनको काम करना है तब ऐसा आनंद प्राप्त होगा जो विरलों को ही प्राप्त होता है। कहने का अभिप्राय यह है कि समाधि से मनुष्य अपनी आत्मा को पहचान कर सच्चा स्वामी बन जाता है ।
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संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

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Sunday, March 20, 2011

‘बढ़िया’ बोलकर जिंदगी के मजे लेते रहो-हिन्दू धार्मिक चिंत्तन

खुश रहना भी एक कला है जो हमारे अंतर्मन में विराजमान रहती है। हम अक्सर आपनी आखों से दूसरों के दोष देखने, कानों से दूसरे का अहित सुनने और वाणी से दूसरे के लिए निंदात्मक वाक्य कहने के आदी हो जाते हैं। यह आदत भले ही हमें अच्छी लगती है पर कालांतर में यह हमारे लिये मानसिक तनाव का ऐसा कारण बनर जाती है कि हमें कोई अच्छी चीज दिखाई नहीं देती। यहां तक सुखद वस्तुओं से स्वतः घृणा होने लगती है। हमारा स्वभाव नकारात्मक हो जाता है और इससे हम स्वयं ही नकारा हो जाते हैं। इससे हमारे अन्दर  तमाम तरह की कुंठाएं पैदा होती हैं।
आपने देखा होगा कि कुछ लोग हमेशा ही दूसरों से विनम्रता से पेश आते हैं और हमेशा ही अन्य लोगों को ‘बहुत अच्छा’ या ‘बहुत बढ़िया’ उनको प्रेरित करते हैं। भले ही लोग उनको चाटुकार या झूठा कहें पर सच यह है कि ऐसे लोग सकारात्मक विचाराधारा के होते हैं और अपनी जिंदगी आनंद से जीते हैं।
इस विषय पर मनु महाराज कहते हैं कि
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भद्र भद्रमिति ब्रूयाद् भ्रदमित्येव वा वदेत्।
शुष्कवैरं विवादं च न कुर्यात्केनचित्साह।।
‘‘सभ्य आदमी को हमेशा दूसरे के काम पर ‘बहुत बढ़िया‘ ‘बढ़िया’ ‘बहुत अच्छा’ या अच्छा जरूर बोलना चाहिये। किसी से व्यर्थ विवाद और शत्रुता नहीं करना चाहिये। न ही रूखा व्यवहार कर दूसरे को हतोत्तासहित करना चाहिये।’’
इस संसार में सभी लोग लोकप्रिय नहीं होते। कुछ तो अपने दुष्कृत्यों  की वजह से निंदा का पात्र बनते हैं। अपने स्वार्थ में मस्त रहने वाले लोगों को कौन सम्मान देता है? समाज में वही मनुष्य लोकप्रिय होता है जो दूसरों को भी अच्छे काम के लिये प्रेरित करता है। इसलिये हमेशा ही हर पल दूसरे के काम पर उसकी प्रशंसा में बहुत अच्छा या अच्छा जरूर बोलना चाहिये। कहीं लिखकर किसी के कार्य की प्रशंसा करनी हो तो उसके लिये बहुत बढ़िया या बढ़िया शब्दों के उपयोग  की आदत डालना चाहिये। इससे न हमारा स्वभाव सकारात्मक होगा बल्कि दूसरों के बीच लोकप्रियता भी मिलेगी।
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संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
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Thursday, March 17, 2011

योगासन और प्राणायाम से विचार शुद्ध होते हैं-हिन्दू धार्मिक चिंत्तन (yogasan aur pranayam aur vichar-hindu religion thought)

पतंजलि योग सूत्र एक प्रमाणिक कला और विज्ञान है। आज जब हम अपने देश में अस्वस्थ और मनोरोगों के शिकार लोगों की संख्या को देखते हैं तो इसको अपनाने की आवश्यकता अधिक अनुभव होती है। पतंजलि योग एक बृहद साहित्य है और इसमें केवल आसनों से शरीर को स्वस्थ ही नहीं रखा जा सकता बल्कि प्राणायाम तथा वैचारिक योग से मन को भी प्रसन्न रखा जा सकता है। यह अंतिम सत्य है कि दवाईयां मनुष्य की बीमारियां दूर सकती हैं पर योग तो कभी बीमार ही नहीं पड़ने देता।
पतंजलि योग शास्त्र में कहा गया है कि
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प्रच्छर्दनविधारणाभ्यां वा प्राणस्य।
"प्राणवायु को बाहर निकालने और अंदर रोकने के निरंतर अभ्यास चित्त निर्मल होता है।"

विषयवती वा प्रवृत्तिरुपन्न मनसः स्थितिनिबन्धनी।।
"विषयवाली प्रवृत्ति उत्पन्न होने पर भी मन पर नियंत्रण रहता है।"
विशोका वा ज्योतिवस्ती।
"इसके अलावा शोकरहित प्रवृत्ति से मन नियंत्रण में रहता है।"
वीतरागविषयं वा चित्तम्।
"वीतराग विषय आने पर भी मन नियंत्रण में रहता है"
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-भारतीय योग दर्शन में प्राणायाम का बहुत महत्व है। योगासनों से जहां देह के विकार निकलते हैं वहीं प्राणायाम से मन तथा विचारों में शुद्धता आती है। जैसा कि स्वास्थ्य विशेषज्ञ बताते आ रहे हैं कि इस विश्व में मनोरोगियों का इतना अधिक प्रतिशत है कि उसका सही आंकलन करना संभव नहीं है। अनेक लोगों को तो यह भी पता नहीं कि वह मनोविकारों का शिकार है। इसका कारण यह है कि आधुनिक विकास में भौतिक सुविधाओं की अधिकता उपलब्धि और उपयेाग के कारण सामान्य मनुष्य का शरीर विकारों का शिकार हो रहा है वहीं मनोरंजन के नाम पर उसके सामने जो दृश्य प्रस्तुत किये जा रहे है वह मनोविकार पैदा करने वाले हैं।
ऐसी अनेक घटनायें आती हैं जिसमें किसी फिल्म या टीवी चैनल को देखकर उनके पात्रों जैसा अभिनय कुछ लोग अपनी जिंदगी में करना चाहते हैं। कई लोग तो अपनी जान गंवा देते हैं। यह तो वह उदाहरण सामने आते हैं पर इसके अलावा जिनकी मनस्थिति खराब होती है और उसका दुष्प्रभाव मनुष्य के सामान्य व्यवहार पर पड़ता है उसकी अनुभूति सहजता से नहीं हो जाता।
प्राणायाम से मन और विचारों में जो दृढ़ता आती है उसकी कल्पना ही की जा सकती है मगर जो लोग प्राणायाम करते और कराते हैं वह जानते हैं कि आज के समय में प्राणायाम ऐसा ब्रह्मास्त्र है जिससे समाजको बहुत लाभ हो सकता है।
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संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://anantraj.blogspot.com
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Friday, March 4, 2011

चित्त में शून्यता का आभास होना समाधि की स्थिति-हिन्दी लेख (chitta mein zero ka abhasas hai samadhi-hindi lekh)

पतंजलि योग साहित्य के अनुसार 
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तदेवार्थमात्रनिर्भसं स्वरूपशून्यमिव समाधिः।।
"
जब केवल अपना ही लक्ष्य दिखता है और चित्त में जब शून्य जैसा अनुभव होता वही समाधि हो जाता है।"
त्रयमेकत्र संयम्।।
"
किसी एक विषय पर ध्यान केंद्रित हो जाने तीनों का होना संयम् है"
तज्जयात्प्रज्ञालोकः।।
"
उस विषय में जीत होने से बुद्धि का प्रकाश होता है।"
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-ध्यान मनुष्य के लिये एक श्रेष्ठ स्थिति है। चंचल मन तो मनुष्य को हर भल चलाता है इसलिये किसी लक्ष्य में संलिप्त होते ही उसका ध्यान उससे इतर विषयों पर चला जाता है। अनेक लोग एक लक्ष्य के साथ अनेक लक्ष्य निर्धारित करते हैं। इससे मस्तिष्क असंयमित हो जाता है और मनुष्य न इधर का रहता है न उधर का।
जब कोई मनुष्य एकाग्र होकर किसी एक विषय में रम जाता है तब वह ध्यान का वह चरम प्राप्त कर लेता है जिसकी कल्पना केवल सहज योगी ही कर पाते हैं। मूलत यह स्थिति मस्तिष्क से खेले जाने वाले खेलों शतरंज, ताश और शतरंज में देखी जा सकती है जब खेलने वाले किसी अन्य काम का स्मरण तक नहीं कर पाते। हालांकि शारीरिक खेलों-बैटमिंटन, क्रिकेट, हॉकी तथा फुटबाल में इसकी अनुभूति देखी जा सकती है पर अन्य अंग चलायमान रहने से केवल खेलने वाले को ही इसका आभास हो सकता देखने वाले को नहीं। हम अक्सर खेलों के परिणामों का विश्लेषण करते हैं पर इस बात पर दृष्टिपात नहीं कर पाते कि जिसका अपने खेल में ध्यान अच्छा है वही जीतता है। हम केवल खिलाड़ी के हाथों के पराक्रम, पांवों की चंचलता तथा शारीरिक शक्ति पर विचार करते हैं पर जिस ध्यान की वजह से खिलाड़ी जीतते हैं उसे नहीं देख पाते। यहां तक कि अभ्यास से अपने खेल में पारंगत खिलाड़ी भी इस बात की अनुभूति नहंी कर पाते कि उनका ध्यान ही उनकी शक्ति होता है जिससे उनको विजय मिलती है। जो पतंजलि येाग शास्त्र का अध्ययन करते हैं उनको ही इस बात की अनुभूति होती है कि यह सब ध्यान का परिणाम है। यही कारण है कि जिन लोगों का स्वाभाविक रूप से ध्यान नहीं लगता उनको इसका अभ्यास करने के लिये कहा जाता है।
इसका अभ्यास करने पर बुद्धि तीक्ष्ण होती है और अपने विषय में उपलब्धि होने पर मनुष्य के अंदर एक ऐसा प्रकाश फैलता है जिसके सुख की अनुभूति केवल वही कर सकता है।
संकलक,लेखक और सम्पादक-दीपक राज कुकरेजा,ग्वालियर 
writer and editor-Deepak Raj kukreja"Bharatdeep",Gwaliro
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