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Thursday, December 29, 2011

संत तुलसीदास के दोहे-दूसरों की निंदा करने वाला खुद निंदनीय हो जाता है (sant tulsidas ke dohe-doosron ki ninda karnre anuchit)

           सामान्य मनुष्य अपनी प्रकृतियों के वशीभूत होकर काम करता है, जबकि ज्ञानी मनुष्य उनको पहचानते हुए अपने विवेक से किसी काम को करने या न करने का निर्णय लेता है। देखा जाये तो समाज में ज्ञानी मनुष्य अत्यंत कम होते हैं पर दूसरे की अपकीर्ति के माध्यम से स्वयं की कीर्ति अपने मुख से बखान करने वालों की संख्या बहुत होती है। उससे भी अधिक संख्या तो दूसरों की निंदा करने वालों की होती है जो यह मानकर चलते हैं कि दूसरे के दोष गिनाकर हम यह साबित कर सकते हैं कि हमारे पास गुण है।वैसे आजकल लोगों का दैनिक जीवन पहले की अपेक्षा अधिक संघर्ष के साथ बीतता है। उनके पास इस बात के लिये न समय है न इच्छा शक्ति कि वह अध्यात्मिक ज्ञान का संग्रह करें पर समाज में अपनी प्रशंसा पाने का मोह कोई नहीं छोड़ पाता। इसलिये आत्मप्रवंचना के माध्यम से जब वह न मिले तो दूसरे की निंदा कर यह बताने का प्रयास किया जाता है कि अमुक अवगुण हमारे अंदर नहीं है।
          आपसी वार्तालाप में लोग एक दूसरे से कहते हैं कि ‘‘अमुक आदमी में वह दोष है’, ‘अमुक आदमी यह बुरा काम करता है’, अमुक आदमी इस तरह का गंदा विचार पालता है’, या फिर ‘अमुक आदमी गंदा भोजन खाता है या पानी पीता है’। इस तरह आदमी यह साबित करना चाहता है कि अमुक बुराई ये वह स्वयं दोषमुक्त है। ज्ञानी आदमी अपना आत्ममंथन करता है। वह दूसरों की बजाय अपनी कमियां ढूंढकर उनको दूर करने का प्रयास करता है।
महाकवि तुलसीदास कहते हैं कि
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‘तुलसी’ जे कीरति चहहिं, पर की कीरति खोइ।
तिनके मुंह मसि लागहैं, मिटिहि न मरिहै धोइ।।
         ‘‘दूसरों की निंदा कर स्वयं प्रतिष्ठा पाने का विचार ही मूर्खतापूर्ण है। दूसरे की अपकीर्ति कर अपनी कीर्ति गाने वालों के मुंह पर ऐसी कालिख लगेगी जो कितना भी धोई जाये मिट नहीं सकती।’’
तनु गुन धन महिमा धरम, तेहि बिनु जेहि अभियान।
तुलसी जिअत बिडम्बना, परिनामहु गत जान।।
        ‘‘सौंदर्य, सद्गुण, धन, प्रतिष्ठा और धर्म भाव न होने पर भी जिनको अहंकार है उनका जीवन ही बिडम्बना से भरा है। उनकी गत भी बुरी होती है।
          सच बात तो यह है कि आधुनिक समय में आदमी धन, प्रतिष्ठा और बाहुबल अर्जित करने के प्रयास में लगा रहता है। न उसके व्यक्तित्व में आकर्षण न व्यवहार में गुण दिखता हैं और न ही व्यसनों की वजह से प्रतिष्ठा और धन भी उसके स्थिर रहता है। इसके बावजूद अधिकतर लोगों के पास अहंकार होता है। जो लोग जुआ, शराब या यौन अपराधों में लिप्त होते हैं उनको अगर नैतिकता का उपदेश दिया जाये तो वह उत्तेजित होते हैं। इतना ही नहीं अनेक लोग तो ऐसे हैं जो अपने में ढेर सारे दोष होने के बावजूद दूसरों की निंदा में लगकर अपनी स्थिति हास्यास्पद बना देते हैं।
         ज्ञानी आदमी इन सबसे परे होकर जीवन व्यतीत करता है। उसे मालुम होता है कि गुण और ज्ञान के संचय के लिये समय कम होता है तब परनिंदा में उसे नष्ट करना बेकार है। वैसे भी कहा जाता है कि श्रेष्ठ व्यक्ति कहलाना हो तो दूसरे की निंदा करना छोड़ दें।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

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