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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका
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Wednesday, June 27, 2018

पश्चिमी दबाव में धर्म और नाम बदलने वाले धर्मनिरपेक्षता का नाटक करते रहेंगे-हिन्दी लेख (Convrted Hindu Now will Drama As Secularism Presure of West society-Hindi Article on Conversion of Religion)

        
                           हम पुराने भक्त हैं। चिंत्तक भी हैं। भक्तों का राजनीतिक तथा कथित सामाजिक संगठन के लोगों से संपर्क रहा है। यह अलग बात है कि उन्होंने हमें धास भी नहीं डाली पर जानते हैं कि हमारा चिंत्तन हमेशा स्वतंत्र तथा तार्किक विचाराधारा वाला रहा है।  सो बता बता देते हैं कि भारत में हिन्दू धर्म छोड़ने वालों ने विदेशियों के दबाव में ही छोड़ा था ताकि वहां काम, नाम तथा नामा मिल सके।  हिन्दू धर्म का विरोध यूरोप में रहा है पर वही यूरोप अब हिन्दू धर्म के योग को अपना रहा है।  दूसरा वहां हिन्दू धर्म छोड़ने वालों को प्रगतिशील माना गया सो। याद रखें भारतीय उपमहाद्वीप आज नहीं बरसों से ही श्रम निर्यातक रहा है। प्राचीन काल में गये लोगों ने धर्म नहीं छोड़ा पर आधुनिक काल में यह नीति बन गयी कि हिन्दूधर्म छोड़ो और विकसित कहलाओ।
अ ब यूरोप सहित पश्चिमी देशों में स्थिति उलट हो रही है।  आधुनिक वह धर्मनिरपेक्ष दिखने वाले धर्म तो छोड़ गये। अरेबिक देशों से होते हुए यूरोप तथा अन्य पश्चिमी देशों में घूमते भी रहे पर वहां अब अरेबिक धर्म से पश्चिमी धर्म के लोग चिढ़ने लगे हैं। पहले लोगों को धर्म बदलकर अरेबिक नाम की ज्ररूरत थी अब उन्हें ही हिन्दी नाम की चाहत भी हो सकती है। हिन्दी नाम अब ज्ञान तथा विज्ञान दोनों की पहचान बन गयी है। सीधी बात कहें तो हिन्दू धर्म के मूल ज्ञान तथा विज्ञान का विस्तार अब पश्चिम से होता हुआ यहां आयेगा।  सो धर्मनिरपेक्ष तथा विकासित दिखने वाले लोग प्रयास यही करेंगे कि भक्तों की मानसिकता अस्थित करो। हमारी सलाह है  कि बात को घुमाने की बजाय सीधे कहो कि हम हिन्दू हैं और हमारी विचाराधारा अकेले ऐसी है जिसमें ज्ञान तथा विज्ञान हैं।  हमारे परमात्मा  के रूपों तथा पूजा में भिन्नता एक स्वाभाविक शैली है जो मनुष्य मन को सदैव संचालित रखती है।  हम सात दिन में सात रूप पूजते हैं न कि एक दिन विशेष एक ही प्रकार की दरबार जायें। 
                  आखिरी बात यह है कि हमने देखा है कि मूर्ति पूजने तथा माथे पर टीका लगाने वाले पुरुष तथा बिन्दी लगाने वाली महिलाओं के चेहरे पर एक विशेष प्रकार का आकर्षण होता है। उनके चेहरे पर एक स्वाभाविक मुस्कान खेलती दिखती है। जो मूर्ति पूजा या घर में ध्यान वगैरह नहीं करते उनके चेहरे हमे फक लगते हैं। कितना भी चेहरा चमका लें वह रूखा  ही लगता है। एकदम मुस्कानहीन। कभी कभी हम टीवी पर धर्म परिवर्तित लोगों का चेहरा देखते हैं ऐसा लगता है कि रो रहे हैं। याद रखें हिन्दू मान्यता के अनुसार भक्त चार प्रकार के होते हैं-आर्ती, अर्थाथी, जिज्ञासु और ज्ञानी।  जबकि दूसरी मान्यताओं में केवल आर्त भाव की प्रधानता है।  
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            आजकल हम वृंदावन रहने लगे हैं। रेलों में घूमते रहते हैं। आज ग्वालियर वापस लौटे। सोचा कोई बड़ा चिंत्तन लिखो। वृंदावन में भक्त जब आते हैं तो उनका भाव देखते ही बनता है। बाकेबिहारी तथा अंग्रेजों के मंदिर में श्रद्धालू जिस भाव से आते हैं उसका वर्णन शब्दों में कठिन है। प्रेम मंदिर पर तो इतनी भीड़ रहती है कि हमें संदेह होता है कि ताजमहल पर भी इतनी होती होगी।  जो एक वहां जायेगा वह ताजमहल में मृतभाव का अनुभव करेगा। वहां कितने अंग्रेज कृष्ण के भक्त हैं कहना कठिन है उनकी संख्या इतनी है कि वह रास्ते पर मिलते ही रहते हैं।

Wednesday, May 9, 2018

भोजन के प्रति सदा सम्मानजनक दृष्टि रखना चाहिये-मनुस्मृति (Bhojan ke prati Samman ka Bhav rakhna chahiye-ManuSmriti)

मनुस्मृति में कहा गया है कि
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पूजित ह्यशान नित्यं बलमूर्जं च यच्छति।
अपूजितं तु तद् भुक्तमुभूवं नाशवेदिदमफ।
         हिन्दी में भावार्थ-नित्य सम्मान की दृष्टि से भोजन करने पर मनुष्य की देह में बल और तेज बढ़ता है। भोजन करते समय उसके प्रति अपमान की दृष्टि रखने से दोनों का नाश होता है।
वर्तमान संदर्भ में लेखकीय व्याख्या-आज के विकास के दौर में जहां भौतिकीय पदार्थों के संग्रह की होड़ लगी हुई है वही अपनी ही देह के प्रति लोगों में जागरुकता कम हो गयी है।  भोजन की सामग्री पाचक है या नहीं या उससे स्वास्थ्य पर अच्छा या बुरा कैसा प्रभाव होगा-इस पर लोगों ने सोचना बंद ही कर दिया है।  जहां जैसे भी स्वादिष्ट भोजन मिले लोग उसे खाते हैं पर मन में खाद्य पदार्थ के प्रति कोई सम्मान नहीं होता।  जीभ को स्वाद व पेट को भार दिलाना है इसी भाव से लोग खाते हैं।  अनेक बार तो खाते ही कह देते हैं कि ‘खाने में मजा नहीं आ रहा है।’ खाने के बाद बड़ी बेदर्दी से कह देते हैं कि ‘खाने में मजा नहीं आया।  वह नहीं जानते कि ऐसे भाव का बुरा असर कहने वाले के  मस्तिष्क पर ही है जिससे खाया हुआ भोजन रसहीन तो कभी विषहीन हो जाता है। सच बात तो यह है कि अनेक बार हमारे लिये स्वादहीन भोजन स्वास्थ्यवर्द्धक तो स्वादिष्ट भोजन रोग उत्पादक हो सकता है।
हमारे अध्यात्मिक दर्शन के अनुसार भोजन और जल जहां देह की जरूरत पूरी करते हैं तो अनेक बार इनका औषधि के रूप में भी उपयोग होता है। हमने देखा होगा कि हल्दी, जीरा, हींग तथा भोजन में शामिल किये जाने वाले अनेक मसाले औषधि के रूम में काम आते हैं।  महत्वपूर्ण बात यह कि हम जिस अंग्रेजी जीवन पद्धति के जाल में फंसे हैं उसके अनुसार ही मस्तिष्क पर दुष्प्रभाव पड़ने से अनेक रोग होते हैं। ऐसे में हमें अपने मस्तिष्क में ही भोजन के प्रति सकारात्मक भाव रखते हुए भोजन करना चाहिये।

Wednesday, January 24, 2018

आम हिन्दू जनमानस को गरियाने तक सीमित पांखडी प्रयास-पद्मावत पर हिन्दी सम्पादकीय (filam Padmawat and comman Hindu-HindiEditorial

आम हिन्दू जानमानस को गरियाने तक सीमित पांखडी प्रयास-पद्मावत पर हिन्दी लेख
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                                  हिन्दूत्ववादियों का पाखंड और डर अब सामने आ रहा है। अब तो उन पर गुस्सा आने लगा है।  ‘पद्मावत’ फिल्म के विरुद्ध आंदोलन चलाकर जिस तरह हिन्दुत्ववादियों ने आम हिन्दू को जिस तरह भ्रमित किया है वह देखने लायक है। इन हिन्दुत्ववादियों के पास इस फिल्म बनने के बाद उसे रोकने के लिये प्रयास करते देखा गया पर यह इनसे पूछने ही पड़ेगा कि ‘जब आपके पास केंद्र सहित 20 सरकारें हैं  तो सवाल है कि यह फिल्म बनी कैसे? अरे भई, राजनीति में कूटनीति भी कोई चीज होती है। अगर तुम में दम और अक्ल थी तो इस फिल्म को बनने से ही रोक सकते थे।’
                     फिर फिल्म के बनने से बाज़ार तक आने तक इसे कहीं भी रोकने के लिये सरकार प्रत्यक्ष नहीं तो अप्रत्यक्ष दबाव डाल सकती थी जिसे संभालना निर्माता और वितरकों के बस में नहीं होता।  इन पाखंडियों में इतना दम नहीं है कि अपने शीर्ष नेतृत्व तथा फिल्म व्यवसाय मे लगे उन हिन्दू लोगों पर पर उंगली उठाते अब सामान्य जनमानस से कह रहे हैं कि ‘यह फिल्म मत देखो’, ‘असली हिन्दू हो तो फिल्म मत देखो’ आदि आदि।
                  अगर हिन्दूत्ववादियों की चाल देखी जाये तो इनकी हिम्मत अपने से बड़े हिन्दू के सामने आंख मिलाने की नहीं होती मगर आम जनमानस को ललकारते और फुफकारते रहते हैं। कहते हैं कि अगर असली हिन्दू हो तो फिल्म मत देखो कभी यही नहीं कहते कि जिन्होंने फिल्म बनायी, उसे सार्वजनिक प्रदर्शन की अनु मति दी, जो इसे कमाने के लिये बाज़ार में ला रहे हैं और जो इसे प्रदर्शन की शक्ति दे रहे हैं वह नकली हिन्दू हैं। इन पाखंडियों में इतनी हिम्मत नही है क्योंकि इन्हें अपनी नाटकबाजी की कीमत पद, पैसे और प्रतिष्ठा के रूप में इन्हीं बड़े लोगों से चाहिये।  फेसबुक और ट्विटर पर इन पाखंडियों की सक्रियता केवल आम हिन्दू को लतियाने और गरियाने तक ही सीमित है।  राज्य, अर्थ, और कला जगत से जुड़े शीर्ष पुरुषों पर उंगली उठाने की इनकी हिम्मत नहीं दिखती। हम तो इस विषय में उदासीन हैं क्योंकि हमारा मानना है कि जिसने पद्मावती पर फिल्म बनायी है वह एक बाज़ारू निर्देशक है और उसमें इतिहास से न्याय करने की क्षमता नहीं है। साथ ही यह भी एक फिल्म किसी समाज या धर्म का कुछ न बना सकती है न बिगाड़ सकती है। साथ ही इन पाखंडियों को सलाह है कि इस फिल्म को शांति से चलने दो। अब चिड़िया चुग गयी खेत अब पछताय क्या हेत।
                 सीधी बात यह है कि इस यह फिल्म पैसे कमाने के लिये बनायी गयी है। हिन्दूत्ववादियों ने जानबूझकर इसके विरोध को हवा दी ताकि समाज विशेष के लोगों को उद्वेलित कर सड़क पर लाया जाये और फिल जब फिर उनके आंदोलन को विफलता के लिये तमाम प्रयास कर विश्व में संदेश भेजा जाये कि हम ‘निरपेक्षता के प्रतीक हैं’, हम शांति और व्यापार के साझीदार हैं तथा हम विकास प्रिय हैं, आदि आदि।  आखिर हमें देश में डॉलर जो लाने हैं। हमें नियमित पढ़ने वाले पाठक जानते हैं कि हम क्रिकेट की तरह फिल्म, कला, समाज सेवा तथा धर्म प्रचार  में फिक्सिंग का भूत देखते हैं। यह पाठ उसी की एक कड़ी मात्र है। अपनी नीति के अनु सार हमने किसी व्यक्ति या संस्था का नाम नहीं लिखा क्योंकि आजकल सभी जानते हैं वह कौनसी है जहां भक्तों के आदर्श पुरुषों के संकेतों पर सब चलता है। जय श्रीराम, जय श्रीकुष्ण
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