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Sunday, May 29, 2011

दूषित धन त्यागने योग्य-दक्ष स्मृति

          हर मनुष्य में स्वाभाविक रूप से यह ज्ञान रहता है कि कौनसा धन धर्म की कमाई है और कौनसा पाप की! दूसरा कोई आदमी यह नही बता सकता है आप पाप की कमाई कर रहे हो या नहीं उसी तरह किसी दूसरे को कहना भी नहीं चाहिये कि उसकी कमाई पाप की है। धन या माया तो सभी के पास आती है पर अपने परिश्रम, ज्ञान तथा कार्य के अभ्यास से कमाने वाले लोग वास्तव में धर्म का निर्वाह करते हैं जबकि झूठ, बेईमानी तथा अनाधिकारिक प्रयासों से धन कमाने वाले पाप की खाते हैं।
          कहा जाता है कि जैसा आदमी खाये अन्न वैसा ही होता है उसक मन। अगर हम इसका शब्दिक अर्थ लें  तो इसका आशय यह है कि हम भोजन में मांस और मदिरा का सेवन करेंगे तो धीरे धीरे हमारी प्रकृति तामसी हो जायेगी। इसका लाक्षणिक अर्थ लें तो हमारी सेवा और व्यवसाय के प्रकार से है। जो लोग ऐसी जगहों पर काम करते हैं जहां का वातावरण अत्यंत दुर्गंधपूर्ण तथा गंदगी से भरा है तो चाहे वहा भले ही एक नंबर की कमाई करें पर उनकी देह में भरे विकार उनके अंदर सात्विक प्रवृत्तियां नहीं आने देतें। अपने कर्मस्थल से मिली पीड़ा उनका पीछा नहीं छोड़ती। इसका अगर व्यंजना विधा में अर्थ देखें तो यह स्पष्ट है कि जो धन दूसरे के शोषण, भ्रष्टाचार या अपराध से प्राप्त करते हैं वह चाहे अच्छी जगह पर रहे और शाकाहारी भोजन भी करें तब भी आसुरी प्रवृत्ति के हो जाते हैं।
         इस विषय पर कौटिल्य का अर्थशास्त्र में कहा गया है
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        दुष्यस्यादूषणार्थंचच परित्यागो महीयसः।
         अर्थस्य नीतितत्वज्ञरर्थदूषणमुच्यते।।
          "दुष्य तथा दूषित अर्थ का अवश्य त्याग करना चाहिये। नीती विशारदों ने अर्थ की हानि को ही अर्थदूषण बताया है।"
        अतः हमें इस अपने जीवन में सतत आत्ममंथन करना चाहिए। जिंदगी तो सभी जीते हैं पर कुछ लोग ऐसे हैं जो अपने पास कुछ न होते ही हुए भी प्रसन्न रहते हैं और कुछ सब कुछ होते हुए भी दुःखी रहते हैं। जीवन जीने की कला सभी को नहीं आती इसके लिये जरूरी है कि ध्यान, चिंतन और मनन करते हुए अपनी आय के साधन तथा कार्यस्थलों में पवित्रता लाने का प्रयास करें। अतः न स्वयं ही दूषित धन से दूर रहना चाहिए बल्कि जो लोग अपने नित्य कर्म से ऐसे धन का अर्जन करते हैं, उनसे संपर्क भी नहीं रखना चाहिए।
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संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

Wednesday, May 25, 2011

मनुस्मृति-मृत्यु से भी ज्यादा बुरे हैं व्यसन (mritu se sandesh-mritu se adhik bure vyasan)

                   पहले आदमी प्रारंभ में शौक के लिये जुआ, सट्टा या तंबाकू सेवन का व्यसन अपने अंदर पालता है और बाद में वह सब उसके मन के ऐसे स्वामी बन जाते हैं जिसके बिना जीवित रहना ही उसे कठिन लगता है। यह तो प्रमाणिक व्यसन हैं पर कुछ ऐसे भी हैं जिनको व्यसन के रूप में हमारे प्राचीन धार्मिक ग्रंथों में कहीं वर्णित नहीं किया गया क्योंकि उनका प्रादुर्भाव तो आधुनिक युग की देन है। क्रिकेट मैच, फिल्में, मोबाइल पर अनावश्यक रूप से चिपके रहना तथा टीवी धारावाहिकों को देखना भी ऐसे ही व्यसन हैं जिनमें आंखें और मन दोनों ही खराब होता है। वैसे आजकल हम अनावश्यक रूप से मोबाइल का उपयोग करना भी व्यसन मान सकते हैं। ऐसे व्यसन पश्चिम की ही देन है और वहां के विशेषज्ञ ही यह मानते हैं कि रंगीन टीवी सतत देखना या मोबाइल का अधिक उपयोग इंसान के शरीर और मन के लिये घातक है।
                 व्यसनों के विषय में मनुमहाराज कहते हैं कि
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             व्यसनस्य च मृत्योश्च व्यसनं कष्टमुच्यते।
          व्यसन्यधोऽधोव्रजति स्वर्यात्यव्यसनी मृतः।।
           ‘‘मृत्यु तथा व्यसन में व्यसन अधिक पीड़ा देने वाला होता है। व्यसन करने वाले व्यक्ति का सतत पतन होता जाता है जबकि व्यसन रहित मृत्यु के बाद भी स्वर्ग प्राप्त करता है।’’
            आधुनिक व्यापार जगत ने आम समाज के लिये मनोरंजन के नाम पर ऐसी व्यवस्था की है जिसमें एक के बाद एक नया दृश्य सामने आता है। पहले क्रिकेट तो फिर फिल्म और फिर कहीं फुटबाल होती थी अब तो मोबाइल भी एक ऐसा मनोरंजन का साधन बन गया है जिसमें लोग प्राणप्रण से जुटे रहते हैं। कहीं भीड़ में खड़े हो जाओ तो आसपास दस में से पांच लोग मोबाइल पर बात करते नज़र आते हैं।
                    यह समाज पहले भी तो चल रहा था पर ऐसा क्या हो गया है कि अब उसके लिये मोबाइल, किक्रेट या फिल्म का होना अनिवार्य हो गया है। सच तो यह है कि विकास के साथ सामाजिक संबंध सिकुड़ रहे हैं और इसी वजह से तनाव से उपजने वाली बीमारियां बढ़ भी रही हैं। हमने सुविधाओं का उपयोग व्यसन बना दिया है। ध्यान और योग की बजाय शोर शराबे से भक्ति करने की आदत बन गयी है। तत्वज्ञान से परे होकर हम संसार की वस्तुओं और व्यक्तियों में प्रसन्नता ढूंढने लगे हैं। किसी व्यक्ति का स्वभाव, आदतें तथा व्यवहार देखने की बजाय उसके मुख तथा आभामंडल देखकर उसके प्रशसंक बन जाते हैं। व्यसनों ने हमारी चिंत्तन क्षमता को समाप्त कर दिया है। ऐसे में उनसे बचने का विचार करना चाहिए।
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लेखक संकलक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा  'भारतदीप',Gwalior
Editor and writer-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep'
http://deepkraj.blogspot.com
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Saturday, May 21, 2011

पतंजलि योग साहित्य से संदेश-परिणाम को देखकर कर्म का ज्ञान हो जाता है (patanjali yog sahitya se sandesh-karma se parinam or result from work)

            पतंजलि  योग साहित्य या  सूत्र के अनुसार 
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             क्रमान्यत्वं परिणामन्यत्वे हेतुः।
        ‘‘किसी कार्य करने के क्रम में भिन्नता से परिणाम भी भिन्न होता है।’’
             परिणामन्नयसंयमादतीतानागतज्ञानम्।।
           ‘‘अतीत, वर्तमान तथा भविष्य का विचार करने से परिणाम का ज्ञान हो जाता है।’’
                   पतंजलि योग में न केवल भौतिक तथा दृश्यव्य संसार को जानने की विधा बताई गयी है बल्कि अभौतिक तथा अदृश्यव्य स्थितियों के आंकलन का भी ज्ञान दिया गया है। हमारे सामने जो भी दृश्य आता है वह तत्काल प्रकट नहीं होता बल्कि वह किसी के कार्य के परिणाम स्वरूप ही ऐसा होता है। कोई व्यक्ति हमारे घर आया तो इसका मतलब वह किसी राह से निकला होगा। वहां भी उसके संपर्क हुए होंगे। वह हमारे घर पर जो व्यवहार करता है वह उसके घर से निकलने से लेकर हमारे यहां पहुंचने तक आये संपर्क तत्वों से प्रभावित होता है। वह धूप में चलकर आया है तो दैहिक थकावट के साथ मानसिक तनाव से ग्रसित होकर व्यवहार करता है। कोई घर से लड़कर आया है तो उसका मन भी वहीं फंसा रह जाता है और भले ही वह उसे प्रकट न करे पर उसकी वाणी तथा व्यवहार अवश्य ही नकारात्मक रूप से परिलक्षित होती है।
               कहने का अभिप्राय यह है कि हम प्रतिदिन जो काम करते हैं या लोगों हमारे लिये काम करते हैं वह कहीं न कहीं अभौतिक तथा अदृश्यव्य क्रियाओं से प्रभावित होती हैं। इसलिये कोई दृश्य सामने आने पर त्वरित प्रतिक्रिया नहीं व्यक्त करना चाहिए। हमें यह विचार करना चाहिए कि उस दृश्य के पीछे कौन कौन से तत्व हैं। व्यक्ति, वस्तु या स्थितियों से प्रभावित होकर ही कोई धटना हमारे सामने घटित होती है। जब हमें यह ज्ञान हो जायेगा तब हमारे व्यवहार में दृढ़ता आयेगी और हम अनावश्यक परिश्रम से बच सकते हैं। इतना ही नहीं किसी दृश्य के सामने होने पर जब हम उसका अध्ययन करते हैं तो उसके अतीत का स्वरूप भी हमारे अंतर्मन में प्रकट होता है। जब उसका अध्ययन करते हैं तो भविष्य का भी ज्ञान हो जाता है।
               हम अपने साथ रहने वाले अनेक लोगों का व्यवहार देखते हैं पर उसका गहराई से अध्ययन नहीं करते। किसी व्यक्ति के मन में अगर पूर्वकाल में से दोष रहे हैं और वर्तमान में दिख रहे हैं तो मानना चाहिए कि भविष्य में भी उसकी मुक्ति नहीं है। ऐसे में उससे व्यवहार करते समय यह आशा कतई नहीं करना चाहिए कि वह आगे सुधर जायेगा। योग साधना और ध्यान से ऐसी सिद्धियां प्राप्त होती हैं जिनसे व्यक्ति स्वचालित ढंग से परिणाम तथा दृश्यों का अवलोकन करता है। अतः वह ऐसे लोगों से दूर हो जाता है जिनके भविष्य में सुधरने की आशा नहीं होती। तत्वज्ञानी किसी भी दृश्य को देखते हुए उसके कारणों का अनुमान कट लेते हैं क्योंकि योग विधा से उनको ऐसी विचार शक्ति प्राप्त  हो जाती है।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
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Tuesday, May 17, 2011

व्यसनों की अनदेखी करना ठीक नहीं-हिन्दू धार्मिक विचार (vyason ki andekhi na karen-hindu religion thought)

            प्रकृति के पंच तत्वों से बनी इस देह में मन, बुद्धि और अहंकार की प्रवृत्ति स्वाभाविक रूप से विद्यमान रहती है। जिनके पास भौतिक उपलब्धि है वह उसके आकर्षण में बंधकर मतमस्त हो जाते हैं। दूसरे को गरीब या अल्पधनी मानकर उसका मज़ाक उड़ाते हैं। मज़ाक न उड़ाये तो भी शाब्दिक दया दिखाकर अपने मन को शांति देने का प्रयास करते हैं। दरअसल यह सब दूसरों से ही नहीं बल्कि अपने साथ भी प्रमाद करना ही है। इस संसार में भगवान की तरह माया का खेल भी निराला है। किसी के पास कम है तो किसी के पास ज्यादा है, इसमें मनुष्य की कोई भूमिका नहीं है। यह अलग बात है कि अज्ञानवश वह अपने को कर्ता मान लेता है। इसी कारण वह कभी प्रमाद तो कभी अहंकार के भाव से ग्रसित होकर व्यवहार करता है।
              इस  विषय पर कौटिल्य के अर्थशास्त्र में कहा गया है कि
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                   प्रकृतिव्यसननि भूतिकामः समुपेक्षेत नहि प्रमाददर्पात्।
                 प्रकृतिव्यवसनान्युपेक्षते यो चिरातं रिपवःपराभवन्ति।।
               "विभूति की कामना से उत्पन्न प्रमाद और अहंकार की प्रकृति से उत्पन्न व्यसन की उपेक्षा न करें। प्रकृत्ति की व्यसनों की उपेक्षा करने वाला शीघ्र ही नष्ट हो जाता है।
                   आज हम देश के हालात देखें तो यह बात समझ में आ जायेगी कि जिन लोगों के पास धन, प्रतिष्ठा और पद की उपलब्धि है वह दूसरे को अपने से हेय समझते हैं। नतीजा यह है कि आम इंसानों में उनके प्रति विद्रोह के बीज पड़ गये हैं। शिखर पुरुषों को यह भ्रम है कि आम आदमी उनसे जाति, धर्म, भाषा तथा क्षेत्र के बंटवारे के कारण उनसे जुड़े हैं जो कि उनके किराये के बुद्धिजीवी बनाकर रखते हैं। मगर सच तो यह है कि शिखर पुरुषों से अब किसी की सहानुभूति नहीं है। भले ही प्रचार माध्यम कितने भी दावा करें कि जनता प्रसिद्धि लोगों को देखना और सुनना चाहती है। अब तो हर आदमी यह जान गया है कि शिखर पर अब बिना ढोंग, पाखंड या बेईमानी के कोई नहीं पहुंच सकता। अगर ऐसा न होता तो देश के अनेक शिखर पुरुष अपने घरों के बाहर सुरक्षा उपाय नहीं करते। इतना ही नहीं अनेक तो राह चलते हुए भी सुरक्षा लेकर चलते हैं। इसका मतलब सीधा है कि अपने ही कारनामों को उनके अंदर भय व्याप्त है। गरीबों से भरे देश में सुरक्षा एक मुद्दा बन गयी है।
                फिर अब समाज के आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक शिखरों  पर 'मैं बड़ा'  'मैं बड़ा'  की बात पर  भी झगड़े होने लगे हैं। एक जाता है तो दूसरा आ जाता है। यह अस्थिरता इसलिये हैं क्योंकि प्रमाद और अहंकार में लगे शिखर पुरुष जल्दी जल्दी अपना आकर्षण खो देते हैं। शिखर बैठकर वह अपने वैभव का प्रदर्शन कर वह एक दूसरे को प्रभावित तो कर सकते हैं पर आम आदमी को नहीं। आम आदमी कि समस्याओं पर किसी का ध्यान नहीं है।
     इसके अलावा व्यसनों के प्रति लोगों के झुकाव ने नैतिक आचरण का  अर्थ ही बदल दिया हैं। शराब पीना और निरर्थक बकवाद में समय बर्बाद करना आधनिक होने का प्रमाण मान लिया गया है। इस सोच में बदलाव लाना जरूरी है और यह तभी संभव है जब ज्ञान मार्ग का अनुसरण किया जाये।
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संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
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Thursday, May 12, 2011

साधुओं की निंदा करना वर्जित-कबीर के दोहे (sadhuon ki ninda karana varjit-kabir ke dohe)

                    जिस तरह समाज में सभी तरह के लोग हैं उसी तरह साधु और संतों के बीच भी हैं। कुछ लोग तो साधु और संत का चोला इसलिये पहनते हैं जिससे उनको धन, सम्मान तथा शिष्यों की प्राप्ति होती रहे। एक तरह से धर्म उनका व्यापार हो जाता है। आजकल तो ऐसी खबरें भी आती हैं कि अमुक साधु संत दैहिक यौनाचार या अपराध करते हुए पकड़ा गया। हमारे समाज में अध्यात्मिक की जड़ें गहरी हैं जिसकी वजह से ऐसे लोग जिनको काम नहीं आता या वह करना नहीं चाहते वही साधु का वेश पहनते हैं। गेहुंआ या सफेद रंग का चोगा पहने अनेक साधुओं ने समाज को धोखा दिया है कई तो यौनाचार और बच्चों के अपहरण जैसे अपराध में लिप्त पाये गये हैं। इसका आशय यह कतई नहीं है कि सारे साधु या संत ऐसे हैं। कुछ लोग ऐसे भी संतों की आलोचना करते हैं जो शिष्यों का समुदाय बनाकर प्रवचन देते हैं। अनेक बुद्धिजीवियों को तो संतों पर कटाक्ष करने में मजा आता है। हमारा अध्यात्मिक दर्शन संतों या साधुओं को मानने या न मानने की पूरी छूट देता है मगर उनकी निंदा करने वालों को बुरी तरह फटकारता भी है।
                इस विषय पर कबीर कहते हैं कि
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               जो कोय निन्दै साधु को, संकट आवै सोय।
              नरक जाय जनमै भरे, मुक्ति कबहु नहिं होय।।
            ‘जो आदमी साधु और संतों की निंदा करता है वह अतिशीघ्र नष्ट हो जाता हे। वह नरक में जाता है और फिर उसे नारकीय यौनि में जन्म लेना पड़ता है। उसकी कभी मुक्ति नहीं होती।’
                  दरअसल हमारी वर्तमान शिक्षा पद्धति ऐसी है जिसमें नकारात्मक सोच का निर्माण होता है। दूसरे की निंदा या आलोचना करने वाले इस तरह प्रदर्शन करते हैं जैसे कि वह श्रेष्ठ हैं। हर कोई दूसरे के दोष गिनाकर यह प्रमाणित करता है कि वह उसमें नहीं है। अपने अंदर जो गुण है उसकी जानकारी कोई नहीं देता। फिर निंदा और आलोचना में अभ्यस्त लोगों के पास इतना समय भी कहां रहता है कि वह आत्ममंथन कर अपने गुणों की तलाश करें। ऐसे लोग न स्वयं सुखी रहते हैं न दूसरे को देख पाते हैं। अतः जिन लोगों को अपने अंदर सकारात्मक भाव बनाये रखना है वह किसी दूसरे की निंदा या आलोचना न करें, खासतौर से साधु और संतों की तो बिल्कुल नहीं। अगर कोई साधु ठीक नहीं लगता तो उसके पास न जायें। उसको अपना गुरु न माने पर सार्वजनिक रूप उसे उसकी निंदा न करे। वैसे भी हमारा भारतीय अध्यात्म दर्शन निरंकार की निष्काम भक्ति का संदेश देता है। परनिंदा से बचने पर मन में सकारात्मक विचार पैदा होते हैं उससे जीवन में स्वमेव प्रसन्नता आती है।
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संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
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Sunday, May 1, 2011

मनोरंजन और घमंड मनुष्य को नष्ट कर देता है-हिन्दू धार्मिक चिंत्तन (manoranjan aur ghamand-hindu dharmik chittan)

प्रकृतिव्यसननि भूतिकामः समुपेक्षेत नहि प्रमाददर्पात्। प्रकृतिव्यवसनान्युपेक्षते यो चिरातं रिपवःपराभवन्ति।।
                   विभूति की कामना से उत्पन्न प्रमाद और अहंकार की प्रकृति से उत्पन्न व्यसन की उपेक्षा न करें। प्रकृत्ति की व्यसनों की उपेक्षा करने वाला शीघ्र ही नष्ट हो जाता है।
                        प्रकृति के पंच तत्वों से बनी इस देह में मन, बुद्धि और अहंकार की प्रवृत्ति स्वाभाविक रूप से विद्यमान रहती है। जिनके पास भौतिक उपलब्धि है वह उसके आकर्षण में बंधकर मतमस्त हो जाते हैं। दूसरे को गरीब या अल्पधनी मानकर उसका मज़ाक उड़ाते हैं। मज़ाक न उड़ाये तो भी शाब्दिक दया दिखाकर अपने मन को शांति देने का प्रयास करते हैं। दरअसल यह सब दूसरों से ही नहीं बल्कि अपने साथ भी प्रमाद करना ही है। इस संसार में भगवान की तरह माया का खेल भी निराला है। किसी के पास कम है तो किसी के पास ज्यादा है, इसमें मनुष्य की कोई भूमिका नहीं है। यह अलग बात है कि अज्ञानवश वह अपने को कर्ता मान लेता है। इसी कारण वह कभी प्रमाद तो कभी अहंकार के भाव से ग्रसित होकर व्यवहार करता है।
                        आज हम देश के हालात देखें तो यह बात समझ में आ जायेगी कि जिन लोगों के पास धन, प्रतिष्ठा और पद की उपलब्धि है वह दूसरे को अपने से हेय समझते हैं। नतीजा यह है कि आम इंसानों में उनके प्रति विद्रोह के बीज पड़ गये हैं। शिखर पुरुषों को यह भ्रम है कि आम आदमी उनसे जाति, धर्म, भाषा तथा क्षेत्र के बंटवारे के कारण उनसे जुड़े हैं जो कि उनके किराये के बुद्धिजीवी बनाकर रखते हैं। मगर सच तो यह है कि शिखर पुरुषों से अब किसी की सहानुभूति नहीं है। भले ही प्रचार माध्यम कितने भी दावा करें कि जनता प्रसिद्धि लोगों को देखना और सुनना चाहती है। अब तो हर आदमी यह जान गया है कि शिखर पर अब बिना ढोंग, पाखंड या बेईमानी के कोई नहीं पहुंच सकता। अगर ऐसा न होता तो देश के अनेक शिखर पुरुष अपने घरों के बाहर सुरक्षा उपाय नहीं करते। इतना ही नहीं अनेक तो राह चलते हुए भी सुरक्षा लेकर चलते हैं। इसका मतलब सीधा है कि अपने ही कारनामों को उनके अंदर भय व्याप्त है। गरीबों से भरे देश में सुरक्षा एक मुद्दा बन गयी है।
फिर अब शिखर पर भी झगड़े होने लगे हैं। एक जाता है तो दूसरा आ जाता है। यह अस्थिरता इसलिये हैं क्योंकि प्रमाद और अहंकार में लगे शिखर पुरुष जल्दी जल्दी अपना आकर्षण खो देते हैं। शिखर बैठकर वह अपने वैभव का प्रदर्शन कर वह एक दूसरे को प्रभावित तो कर सकते हैं पर आम आदमी को नहीं।
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संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
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