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Tuesday, June 30, 2015

ट्विटर बनाम टीवी-हिन्दी व्यंग्य चिंत्तन(twitter v/s TV-A Hindi satire thought article)

               क्रिकेट खेल के व्यापार से जुड़ा एक पूर्व प्रबंधक लंदन में बैठकर जिस तरह अंतर्जाल में ट्विटर पर संदेश डाल रहा है वह बहुत चौंका देने वाले नहीं है।  यहां बैठे अनेक लोगों को पहले ही क्रिकेट खेल पर संशय रहा है।  अब उसकी पुष्टि भर हो रही है।  यह अलग बात है कि अब प्रचार माध्यम से जुड़े संस्थान  भी संदेह के घेरे में आ रहे हैं। भारतीय कानून से भाग रहे उस क्रिकेट प्रबंधक का ट्विटर और संविधान की रक्षा के लिये जाग रहे प्रचार माध्यमों के प्रसारण देखते हैं तो अनेक विचार उठते हैं। सबसे पहला प्रश्न यह कि कौन क्या दिखा रहा है और क्या छिपा रहा है? दूसरा यह कि कौन अपनी सुविधा से कहता है और सुनता है? तीसरा यह कि सुविधानुसार हर कोई किसी तरह तर्क गढ़ता है?
                                    प्रचार माध्यम सुविधानुसार उसके ट्विटर के संदेश सुनाते और विज्ञापनो का समय भुनाते हैं। उधर वह ट्विटर पर मिल रहे प्रचार से अपनी नायकत्व की छवि बनने के भ्रम में अनेक प्रकार के संदेश जारी करता जा रहा है।  हमारे हिसाब से वह इस समय ऐसा भारतीय ट्विटरर है जिसे शायद किसी अन्य की अपेक्षा अधिक पढ़ा जाता होगा।  सबसे बड़ी बात यह कि वह संगठित प्रचार माध्यमों को चुनौती दे रहा है जो अभी तक इस भ्रम में थे कि उनके बिना कोई भी आम या खास व्यक्ति चमक ही नहीं सकता।  मूलतः वह भी एक खास आदमी है-जैसा कि वह कहता भी है मैं सोने का चम्मच मुंह में रखकर पैदा हुआ हूं’- और उसकी लड़ाई में खास वर्ग के लोगों से चल रही है।  हम जैसे सामान्य स्वतंत्र लेखक के लिये इस लड़ाई में अधिक सोचने या लिखने के लिये अधिक कुछ नहीं है।  वैसे भी उसके क्रिकेट के व्यापार के  खुलासे यहां के अनेक जानकार लोगों के अनुमानों की पुष्टि करने भर तक ही सीमित हैं।
                                    बहरहाल इस तरह की नाटकीयता पहली बार देखने को मिल रही है।  एक अध्यात्मिक साधक होने के नाते हमें पता है कि राजसी कर्म में लिप्त लोगों में लोभ, मोह, क्रोध, अहंकार और काम का भाव अधिक रहता ही है। शिखर पर हो तो मनुष्य मदांध भी हो जाता है। इसलिये उसके उठाये विषयों से अधिक हमारी रुचि इस बात में है कि अंततः यह अंतर्जाल और संगठित प्रचार माध्यमों के बीच द्वंद्व किस परिणाम पर पहुंचता है।
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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
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Friday, June 26, 2015

नौकरी करने से कोई खुश नहीं रह सकता-भृर्तहरि नीति शतक के आधार पर चिंत्तन लेख(service not ceticfise any time-A Hindu hindi thought article on bhartrihair neeti shatak)

                              हमारे यहां देशी पद्धति से चलने वाले गुरुकुलों की जगह अब अंग्रेजी शिक्षा से चलने वाले विद्यालय तथा महाविद्यालय  अस्तित्व में आ गये है। अंग्रेजी पद्धति की शिक्षा में केवल गुलाम ही पैदा होते हैं। आज हम देख रहे हैं कि जिस युवा को  देखो वही नौकरी की तरफ भाग रहा है। पहले तो सरकारी नौकरियों में शिक्षितों का रोजगार लग जाता था पर उदारीकरण के चलते निजी क्षेत्र का प्रभाव बढ़ने से वहां रोजी रोटी की तलाश हो रही है।  हमारी शिक्षा पद्धति स्वतंत्र रूप से कार्य करने की प्रेरणा नहीं देती और उसका प्रमाण यह है कि जिन लोगों ने इस माध्यम से शिक्षा प्राप्त नहीं की या कम की वह तो व्यवसाय, सेवा तथा कला के क्षेत्र में उच्च स्थान पर पहुंच कर उच्च शिक्षित लोगों को अपना मातहत बनाते हैं।  निजी क्षेत्र की सेवा में तनाव अधिक रहता है यह करने वाले जानते हैं।  फिर आज के दौर में अपनी सेवा से त्वरित परिणाम देकर अपने स्वामी का हृदय जीतना आवश्यक है इसलिये तनाव अधिक बढ़ता है।

मनुस्मृति में कहा गया है कि
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मौनान्मुकः प्रवचनपटुर्वातुलो जल्पको वा धृष्टःपार्श्वे वसति च सदा दूरतश्चाऽप्रगल्भः।।
क्षान्या भीरुर्यदि न सहते प्रायशो नाभिजातः सेवाधर्मः परमराहनो योगिनामध्प्यसभ्यः।

                              हिंदी में भावार्थ-सेवक यदि मौन रहे तो गूंगा, चतुर और वाकपटु हो तो बकवादी, समीप रहे तो ढीठ, दूर रहे तो मूर्ख, क्षमाशील हो तो भीरु और  असहनशील हो तो अकुलीन कहा जाता है। सेवा कर्म इतना कठिन है कि योग भी इसे समझ नहीं पाते।
       आजकल कोई भी स्वतंत्र लघु व्यवसाय या उद्यम करना ही नहीं चाहता। अंग्रेजी पद्धति से शिक्षित युवा  नौकरी या गुलामी के लिये भटकते हैं। मिल जाती है तब भी उन्हें चैन नहीं मिलता।  निरंतर उत्कृष्ट परिणाम के प्रयासरत रहने के कारण उन्हें अपने जीवन के अन्य विषयों पर विचार का अवसर नहीं मिल पाता जिससे शनैः शनैः उनकी बौद्धिक शक्ति संकीर्ण क्षेत्र में कार्यरत होने की आदी हो जाती है।  न करें तो करें क्या? बहरहाल सेवा या नौकरी का कार्य किसी भी तरह से आनंददायी नहीं होता।  यहां तक कि योगी भी इसे नहीं समझ पाते इसलिये ही वह सांसरिक विषयों में एक सीमा तक ही सक्रिय रहते हैं।
दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
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Wednesday, June 24, 2015

शायद इसलिये योग साधना को एकांत का विषय माना जाता है-हिन्दी चिंत्तन लेख(shayad isliye yog sadhna ko ekant ka vishay mana jata hai-hindi thought aritcle)


              योग साधना काो हमारे अध्यात्मिक शायद इसलिये ही एकांत का विषय मानते हैं क्योंकि न करने वालों का इसके बारे में ज्ञान होता नहीं है इसलिये ही साधक की भाव भंगिमाओं पर हास्यास्पद टिप्पणियां करने लगते हैं।  ताजा उदाहरण रेलमंत्री सुरेश प्रभु का विश्व 21 जून 2015 के अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस के अवसर पर शवासन करने पर उठे विवाद से है। वह  शवासन के दौरान इतना  तल्लीन हो गये कि उन्हें जगाने के लिये एक व्यक्ति को आगे आना पड़ा।  नियमित योग साधकों के लिये इसमें विस्मय जैसा कुछ नहीं है। कभी कभी शवासन में योग निद्रा आ जाती है।  इसे समाधि का संक्षिप्त रूप भी कहा जा सकता है।  इस प्रचार माध्यम जिस तरह सुरेश प्रभु के शवासन के समाचार दे रहे हैं उससे उनके यहां काम कर रहे वेतनभोगियों के ज्ञान पर संदेह होता है।
                              हमारा अनुभव तो यह कहता है कि नियमित योग साधक प्रातःकाल जल्दी उठने के बाद अपने नित्य कर्म तथा साधना से निवृत्त होने के बाद अल्पाहार करते हैं तब चाहें तो शवासन कर सकते हैं। इस दौरान वह योगनिद्रा अथवा संक्षिप्त समाधि का आनंद भी ले सकते हैं। इस दौरान निद्रा आती है पर उस समय देह वायु में उड़ती अनुभव भी होती है।  इस लेखक ने अनेक बार शवासन में निद्रा और समाधि दोनों का आनंद लिया है। शवासन की निद्रा को सामान्य निद्रा मानना गलत है क्योंकि उसमें सिर पर तकिया नहीं होता। गैर योग साधकों के लिये तकिया लेकर भी इस तरह निद्रा लेना सहज नहीं है।  विशारदों की दृष्टि से  शवासन में निद्रा आना अच्छी बात समझी जाती है।
                              हमें यह तो नहीं मालुम कि सुरेश प्रभु शवासन के दौरान आंतरिक रूप से किस स्थिति में थे पर इतना तय है कि इसमें मजाक बनाने जैसा कुछ भी नहीं है।  वैसे भी योग साधकों को सामान्य मनुष्यों की ऐसी टिप्पणियों से दो चार होना पड़ता है।
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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
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Saturday, June 20, 2015

21 जून विश्व योग दिवस पर सभी को बधाई-हिन्दी चिंत्तन लेख(congretulation on international yoga day,world yoga day,vishwa yoga diwas-hindi thought article)

                              कल यानि 21 जून 2015 को अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस मनाया जा रहा है। एक योग साधक होने के साथ ही अंतर्जाल लेखक होने के कारण इस विषय पर अनेक पाठ लिखे।  दरअसल योग साधना पर यह लेखक आठ वर्षों से लिख रहा है।  विश्व योग दिवस पर लिखे गये हाल के पाठों से अधिक तो पूर्व में प्रकाशित पढ़े गये। पतंजलि योग साहित्य तथा श्रीमद्भागवत गीता से संबद्ध लेखों का निरंतर पढ़ा जाना इस बात का परिचायक तो था कि योग का का प्रचार बढ़ रहा है पर जिस तरह संयुक्त राष्ट्र संघ ने विश्व योग दिवस मनाने का निर्णय लिया उसने एक योग साधक के रूप में हमें परम आनंद का अनुभव हुआ।
                              हम देख रहे हैं कि भारत के कथित रूप से समाज पर मनुष्य मन के आधार पर उसे भय दिखाकर नियंत्रण करने वाले अनेक धार्मिक ठेकेदारों की हवाईयां उड़ी हुई हैं।  यह भारत ही है जहां लोकतंत्र के चलते यही रहने वाले अनेक सामुदायिक ठेकेदारों ने योग विद्या पर न केवल विरोध दर्ज कराया वरन् जहां रुकावट डाल सकते हैं वहां डाली भी।  योग विरोधी की पहचान स्थापित कर भारतीय समाज से प्रथक दिखने के प्रयास से उन्हें भय तो तब होता जब हमारे टीवी चैनल अपने व्यवसायिक हितों के लिये निक्ष्पक्षता दिखाने के नाम पर उनके बयानों को बढ़ा चढ़ा कर पेश नहीं करते।  एक दो विरोधी को दस समर्थकों से अधिक बोलने का अवसर मिले तो वह किसलिये डरेंगेएक या दो योग विरोधी संपूर्ण भारतीय वैचारिक आधार पर से अलग चलने वाले समुदायों के प्रमाणिक प्रतिनिधि बनाकर इस तरह पेश किये गये जैसे कि वह मत से निर्वाचित हुए हों।  अपने समुदाय के इष्ट के दरबार में स्वामी बनना या किताबों को पढ़कर ज्ञान बेचने वाला जनमत से निर्वाचित प्रतिनिधि से बड़ा हो सकता है इस तरह की सोच भारत के कुछ टीवी चैनलों ने दिखाई।  पहली बार पता लगा कि समाज को एक रूप दिखाने क इच्छुक विद्वान ढोंगी हैं क्योंकि जब भी अवसर आता है उन्हें कभी इस तो कभी उस समुदाय की पहचान अलग बनाये रखने का प्रयास वही करते हैं ताकि फूट पर उनकी रोटी चलती रहे।
                              एक योग साधक होने पर हमें अंतर्जाल पर लिखने का अवसर मिला है इसलिये उसका जमकर उपयोग करते हैं। हमारा मानना है कि भारतीय योग शिक्षकों  प्रगतिशील और जनवादियों की सोच के जाल में फंसकर योग प्रचार प्रसार में समस्त समुदायों को एक माला में पिरोने के प्रयास की बजाय भारतीय धािर्मक विचाराधाराओं से जुड़े समुदायों को ही इसके लिये प्रेरित करना चाहिये था।  गैर भारतीय विचाराधारा वाले समुदायों में  अपनी छवि बनाने के प्रयास में मूल योग तत्वों का प्रचार ठीक ढंग से ही नहीं हो पाया-इसके विपरीत गैर भारतीय विचाराधारा  वाले समुदायों के ठेकेदार इसे एक शारीरिक व्यायाम बताकर समर्थन करते रहे-इस शर्त पर इसमें ओम या अन्य भारतीय धर्म ग्रंथों के मंत्र तथा सूर्य नमस्कार इसमें  शामिल नहीं हुआ।  हैरानी की बात है कि योग के शिखर पुरुष इसे मानते चले गये।  अब हमारी चिंता यह है कि  गैर भारतीय विचाराधारा वाले समुदाय के लोग शायद ही योग साधना करें पर भारतीय विचाराधारा वाले समुदाय जरूर भ्रमित न हो जायें कि यह तो केवल शारीरिक व्यायाम वाली विधा है।
                              योग का छद्म समर्थक बनते हुए कुछ समुदायों के लोगों ने कहा कि योग का धर्म से संबंध नहीं है।  यह हास्यास्पद तर्क वास्तविक समर्थकों ने भी दिया।  हम स्पष्ट कर दें कि योग अपने आप  में एक धर्म है। धर्म से संबंध न होता तो यह आज भी यह पतंजलि योग साहित्य तथा श्रीमद्भागवत गीता प्रासंगिक नहीं होती।  योगेश्वर श्रीकृष्ण ने धर्म पर चलने का मार्ग ही योग को बताया है।
                              इन विवादों से परे हटते हुए हम भारतीय विचारधारा के आधार पर चलने वाले अपने सहधर्मी लोगों को स्पष्ट कर दें कि ओम अक्षर परब्र्रह्म का रूप है।  हर आसन और प्राणायाम के समय इसकी जो ध्वनि हृदय में बजती है उसे सुने।  इससे देह के हर अंग में एक नयी स्फूर्ति का अनुभव होगा।  दिन में जब भी अवसर मिले ओम का जाप करते हुए ध्यान लगायें।  हमें स्वयं तेजस्वी बनने के साथ ही अपने परिवार तथा समाज को इस पथ पर चलने के लिये प्रेरित करें न कि दूसरे समुदायों से प्रशंसा पाने के प्रयास में इसके मूल तत्वों से बचने में अपना समय बर्बाद करें।
          अपने सभी पाठकों, ब्लॉग लेखक मित्रों, तथा फेसबुक पर सक्रिय प्रशंसकों को विश्व योग दिवस की हार्दिक बधाई।  एक दिन पहले इसलिये दे रहे हैं क्योंकि प्रातःकाल  हमारा समय योग साधना में गुजर जाता है। बाद में आकर देना बासी लगेगा।
दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
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Wednesday, June 17, 2015

योग साधक वातावरण विषाक्त नहीं करते-21 जून विश्व योग दिवस पर विशेष हिन्दी लेख(yog sadhak vatavaran vishakt nahin karte-A Hindu hindu thought article on world yoga day,hindi editorial on vishwa yoga diwas)

                               संयुक्त राष्ट्र के महासचिव ने योग के बारे में सकारात्मक टिप्पणी कर पूरे विश्व को भारतीय योग विद्या के बारे जो जाग्रति पैदा की है, वह प्रशंसनीय है। जहां पूरे विश्व में योग साधना के बारे में प्रचार हो रहा है वहीँ  भारत में ही इसके विरोध का भी ऐसा रूप सामने आ रहा है जो भावनात्मक कम पेशवर ज्यादा लगता है। विरोध के लिए ही इसका विरोध हो रहा है और प्रचा माध्यम अपने व्यावसायिक हितों के लिए निष्पक्षता के नाम पर  इसे प्रश्रय दे रहे हैं   जैसे जैसे येाग 21 जून अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस का समय पास आ रहा है वैसे भारत में इस पर विवादास्पद बयान देकर सनसनी पैदा करने का प्रयास किया जा रहा है। प्रचार माध्यम भी ऐसे बयानों को खूब चटखारे लेकर सुना रहे हैं।  योग का विरोध करने वालों पर हमें कुछ नहीं कहना है पर योग समर्थक भी विरोधियों के वक्तव्यों को चुनौती देने के लिये जिस तरह हल्के वक्तव्य दे रहे हैं उससे तो यह नहीं लगता कि वह कोई योग साधना करते हों।
                              एक योग साधक जानता है कि अभद्र एक शब्द का दूसरा अभद्र शब्द विकल्प नहीं हो सकता। योग के विरोध में हो या समर्थन में अभद्र शब्द वातावरण को प्रदूषित करता है। जिनके चेहरे भावहीन, चरित्र छिद्रमय और चाल में घबड़ाहट है वह योग का विरोध करते ही हैं-अपने विलासी जीवन से आये आलस्य के भाव के बंधन में पड़े ऐसे लोग सक्रिय योगियों से उनकी सक्रियता के कारण चिढ़ते भी हैं।  उनके अभद्र शब्दों की परवाह योग साधक नहीं करते पर उनके प्रत्युत्पर में योग साधना के वह समर्थक जो प्रचार में केवल नाम पाना चाहते हैं जब उत्तर में अभद्र शब्द प्रयोग करते हैं तब उन पर भी संदेह होता है कि वह शायद ही योग साधना करते हों।  योग साधकों के मुख से निकले शालीन शब्द भी जब विरोधी की तरफ तीर की तरह जाते हैं तो वह जवाब देने की स्थिति में नहीं रहता।  अन्य सुनने वालों को भी ऐसे शब्द कर्णप्रिय लगते हैं।  योग साधना में निरतंर अभ्यास से व्यक्ति की वाणी, व्यक्तित्व तथा विचार इतना तेजस्वी हो जाता है कि उसका हर शब्द आलोचक के के लिए शूल या तीर का काम करता है।
                              योग साधक का वाणी पर संयम स्वाभाविक रूप से रहता है।  संयम का अर्थ यह कदापि नहीं है कि प्रतिकूल व्यक्ति, विचार या वाणी का विरोध न किया जाये वरन् योग साधना से बिना वातावरण को विषाक्त किये उनको  अनुकूल बनाने की कला योग साधक में होती है।  इसलिये जो वास्तव में योग साधना के समर्थक हैं उन्हें इसका निंरतर अभ्यास भी करना चाहिये तभी वह वातावरण को विषाक्त बनाने के दोष से मुक्त हो पायेंगे।  योग साधना के प्रचार प्रसार में इस बात का ध्याना रखना चाहिये कि अन्य समुदायों के लोग इसे बाध्य होकर नहीं वरन् प्रेरित होकर अपनायें।
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Saturday, June 13, 2015

योग साधक दृढ संकल्प धारण करें-21 जून विश्व योग दिवस पर चिंत्तन लेख(yoga sadhak dridhsanklp dharan karen-A hindi article on world yoga day 21 june-A New hindi post on world yoga diwas or yoga day)

                                                              21 जून 2015 विश्व योग दिवस पर भारत में ओम के जाप तथा सूर्यनमस्कार को लेकर चल रही बहस थम चुकी है।  भारतीय अध्यात्मिक विचाराधारा से अलग मान्यता वाले समूहों के संगठनों ने अंततः योग के प्रति सद्भाव दिखाने का निर्णय लिया है। यह सद्भाव अलग से चर्चा का विषय है पर यह भी सच है कि  आज के लोकतांत्रिक युग में धार्मिक, सामाजिक तथा कला संस्थायें भले ही कितनी भी दम क्यों न भरें सत्ता प्रतिष्ठान के संकेतों की उपेक्षा नहीं कर सकतीं।  जब पूरा विश्व बिना बहस के योग दिवस मनाने के लिये तैयार हुआ है तब भारतीय समाज का कोई एक या दो समुदाय अपनी अलग पहचान दिखाने की जिद्द नहीं कर सकता।  वैसे भारत का हर नागरिक अपने देश से प्रेम करता है पर उसे समुदायों में बांटने वाले शिखर पुरुष अपनी सत्ता बनाये रखने के लिये प्रथक पहचाने दिखाने का पाखंड करते हैं।  आपस में ही तयशुदा वाद विवाद कर यह साबित करने का प्रयास ही करते हैं कि वह अपने समाज के खैरख्वाह है।
                                    मुख्य विषय यह है कि योग भारतीय समाज के दिनचर्या का अभिन्न भाग बन जाये इसके लिये अभी भी बहुत प्रयास की आवश्यकता है। चाहे भी जिस समुदाय के साथ साधक जुड़ा हो उसे यह समझ लेना चाहिये कि इस समय जो पूरे विश्व में वातावरण है उसमें सहज जीवन जीने के लिये योग साधना अत्यंत जरूरी है।  अन्य तरह के व्यायाम से दैहिक लाभ होते हैं पर योग साधना में प्राणों पर  ध्यान रखने से मानसिक तथा वैचारिक रूप से दृढ़ता आती है जो वर्तमान समय में सबसे अधिक जरूरी है। योग साधना का पूर्ण लाभ उसके प्रति समर्पण भाव होने पर ही मिलता है। मुझे प्रतिदिन योग साधना करना ही हैयह संकल्प धारण करने के बाद इस विषय पर प्रतिकूल तर्कों पर कभी ध्यान नहीं देना चाहिये।  प्रचार माध्यमों में विश्व योग दिवस पर बहस को निष्पक्ष दिखाने के नाम पर अनेक आलोचकों को भी बुलाया गया। एक तरह से योग को राजसी विषय बनाकर उसका व्यवसायिक उपयोग हुआ।
हमारा मानना है कि योग साधना की परंपरा भारतीय समाज से संरक्षित होने पर ही निरंतर जारी रह सकती है। हालांकि यह बरसों से चल रही है पर बीच बीच में इसका प्रवाह थम जाता है।  आमतौर से यह माना जाता था कि योग तो केवल सन्यासियों के लिये है। भारत के अनेक योगियों ने निरंतर इसे जनमानस में स्थापित करने के लिये तप किया जिससे  कि आज योग विषय  प्रकाश की तरह पूरे विश्व के अंधेरे से लड़ रहा है।  एक बात दूसरी भी कही जाती थी कि योग केवल सिद्ध पुरुष ही कर सकते हैं या हर योग चमत्कारी सिद्ध होता है।  यह दोनों ही भ्रम है। योग साधना कोई भी सामान्य मनुष्य कर सकता है पर उसका दैहिक, मानसिक तथा वैचारिक लाभ कर्ता को ही होता है वह दूसरे को अपना फल भेंट नहीं कर सकता।  इसलिये इसे करने पर स्वयं को सिद्ध भी नहीं समझना चाहिये। एक साधक की तरह हमेशा जुड़े रहकर ही योग साधना का आनंद उठा सकता है।
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Monday, June 8, 2015

योग साधकों के लिये श्रीमद्भागवतगीता का अध्ययन पूर्णता प्रदान करने वाला-हिन्दी चिंत्तन लेख(yoga sadhana and shrimadbhagwat geeta-hindi thought article on 21 june yoga diwas yoga day-A new post)

21 जून को पूरे विश्व में योग दिवस मनाया जा रहा है। भारतीय योग साधना का आधार  ग्रंथ पंतजलि साहित्य हैं। इसमें योग के आठ भागों का संक्षिप्त पर पूर्ण वर्णन है। मूलतः पतंजलि योग सूत्र एकांत में साधना के लिये ही हैं।  एक योगी प्रातः धर्मभाव से साधना करने के बाद अर्थ, काम तथा मोक्ष के समय में क्या करे इसके लिये इसमें कोई वर्णन नहीं है। यही कारण है कि योग विशारद सहज योग की प्रेरक श्रीमद्भागवत् गीता का योग विद्या के लिये उल्लेख तथा प्रचार  करते हैं। इतना ही नहीं अनेक विद्वान तो योग साधना के विषय में प्रथम स्थान श्रीमद्भागवत गीता तथा दूसरा पतंजलि योग साहित्य को देते हैं। एक योग विशारद के लिये दोनों का अध्ययन ही उन्हें पूर्णता प्रदान करता है।
हम यह भी कह सकते हैं कि पतंजलि योग की प्रेरणा से सन्यासी ही साधना करेंगे या फिर साधक सन्यासी हो जायेगा क्योंकि उसमें सांसरिक विषयों के प्रति योग भाव से सक्रिय रहने की प्रेरणा  का अभाव प्रतीत होता  है। मनुष्य समाज में अधिकतर लोग सन्यास शब्द से परे रहना चाहते हैं इसलिये ही शायद पतंजलि योग जनमानस में स्थान नहीं बना पाया।  श्रीमद्भागवत् गीता में निष्काम कर्म, निष्प्रयोजन दया तथा इंद्रियों के विषयों से संबंध के जो सिद्धांत प्रतिपादित किये गये उससे सहज योग का जो प्रारूप सामने आया, उसने ही भारतीय अध्यात्मिक दर्शन को पूर्ण बना दिया। चारों वेदों का सार भी इसी श्रीगीता में समाया हुआ है इसलिये यह कहा जा सकता है कि भारतीय अध्यात्मिक दर्शन का सबसे श्रेष्ठ ग्रंथ श्रीमद्भागवत् गीता ही है। अपने अभ्यास से हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि पतंजलि योग साहित्य के साथ श्रीमद्भागवत् गीता का अध्ययन किया जाना अत्यंत रुचिकर तथा प्रेरणादायी होता है। पतंजलि योग के आधार पर अभ्यास से देह, मन और बुद्धि पवित्र होती है तो  श्रीमद्भागवत गीता की प्रेरणा से हमारी इंद्रियां ज्ञानयुक्त होने पर विषयों से अत्यंत सावधानी से संबंध बनाती हैं। इससे जीवन सहज होता है। वैसे तो देखा जाये योग सभी कर रहे हैं पर ज्ञानी सहज तो अज्ञानी असहज योग में लिप्त हो जाते हैं। भोजन सभी करते हैं पर ज्ञानी सुपाच्य भोजन अपनी देह संचालन की दृष्टि से करते हैं पर अज्ञानी जीभ के स्वाद अभक्ष्य पदार्थों उदरस्थ कर विकार अंदर लाते हैं।  ज्ञानी सोते समय प्रतिदिन मोक्ष प्राप्त करते हैं जबकि अज्ञानी मोक्ष के लिये पूरा जीवन भटकते हैं। बोलते ज्ञानी भी हैं पर उनके शब्द अंदर और बाहर सुखद वातावरण बनाते हैं पर अज्ञानी न केवल अंदर कलुषित सोच वाले होते हैं, बाहर भी वही फैलाते हैं। जिस तरह जिसका कर्म और व्यवहार है वैसा ही फल वह पाता है-इसकी प्रेरणा श्रीमद्भागवत गीता से मिलती है।
भारतीय योग साधना के वैश्विक प्रचार में हमें पाश्चात्य प्रभाव वाली विचाराधारा मानने वालों के  दबाव में आकर श्रीमद्भागवत गीता उल्लेख करना बंद नहीं करना चाहिये। हम देख रहे हैं कि ओम शब्द तथा सूर्यनमस्कार के प्रति भारतीय अध्यात्मिक विचाराधारा न मानने वाले लोग विरोधी स्वर उठा रहे हैं तो योग प्रचारक भी उनके दबाव में आकर ओम सूर्यनमकस्कार तथा श्रीगीता से प्रथक होकर साधना का प्रचार कर रहे हें। हमारे विचार से यह अजीब किस्म का है। बहरहाल अभी तो योग विद्या का किसी भी तरह वैश्विक पटल पर स्थापित करने का प्रयास जारी रखना चाहिये। अंततः आगे पूरे विश्व को समझाने में भारतीय योग विशारद सफल हो जायेंगे कि ओम शब्द, सूर्यनमस्कार तथा श्रीगीता योग साधना का अभिन्न हिस्सा है।
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क्ति और शक्ति-कविता
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जहां भक्ति नहीं है
वहां शक्ति नहीं है
क्षीण हैं जहां चिंत्तन
आसक्ति वहीं है।

कहें दीपक बापू योगाभ्यास से
मूर्तिमान मनुष्य का विवेक
होता चलायमान
रक्त का कण कण
करता मधुर गान
शब्द होता सुंदर जहां
भक्ति और शक्ति वहीं है
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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
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Monday, June 1, 2015

अंध श्रद्धा और ज्ञान-हिन्दी चिंत्तन कविता(andh shraddha aur gyan-hindi poem)

न सुगंध न संवेदना
सर्वशक्तिमान की दरबार में
वह सोना लोग
श्रद्धा से चढ़ा देते हैं।

न सांस न आस
उस हीरे का लोग
मोल बढ़ा देते हैं।

कहें दीपक बापू शब्द ज्ञान की किताबें
धर लेते अल्मारी में
धारण से इतना भय
बुद्धि पर भौतिकता का
भारी ताला जढ़ा देते हैं।
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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
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