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Friday, February 26, 2010

रहीम संदेश-स्वार्थ के अनुसार लोगों का दृष्टिकोण बदलता है (svarth aur drishtikon-rahim sandesh)

स्वारथ रचत रहीम सब, औगुनहूं जग मांहि
बड़े बड़े बैठे लखौ, पथ रथ कूबर छांहि।।
कविवर रहीम कहते हैं कि लोग अपने स्वार्थ के अनुसार दूसरे में गुण और अवगुण ढूंढते रहते हैं। जो कभी अपना स्वार्थ साधने के लिये रथ के हरसो की टेढ़ी मेढ़ी छाया को अशुभ कहते हैं वह लोग उसकी छाया में भी बैठ जाते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-अगर आपको अपने जीवन में तरक्की करनी हैं तो फिर लोगों के कहने सुनने की परवाह छोड़ दो। लोग तो अपने स्वार्थ के अनुसार गुण और अवगुण देखते हैं। अगर आपका कार्य किसी के अनुकूल नहीं है तो वह कभी आपको उसे करने के लिये प्रेरित नहीं करेगा। यदि प्रतिकूल हुआ तो वह जमकर आलोचना करेगा। यह मनुष्य स्वभाव है। कभी कभी ऐसा भी होता है कि एक आदमी दूसरे की तरक्की को रोकने के लिये उसके लक्ष्य से भटकाते हुए अनेक दोष गिनाता है। जब कोई मनुष्य वास्तव में समाज सेवा के लिये प्रेरित होता है तो लोग उसे पागल तक कहते हैं। लोगों के कहने की परवाह करने वाले कभी भी विकास नहीं कर पाते। इसलिये जब आपने कोई लक्ष्य तय कर लिया है तो उस पर बढ़ चलिये। जब उसमें आपको सफलता मिलेगी तो वही लोग प्रशंसा कर आपकी छाया में बैठने का प्रयास करेंगे जिन्होंने आपकी आलोचना की थी। यह इस संसार की प्रकृति है कि वह गरीब को देता नहीं है और अमीर को सहन नहीं करता। गुणवान की गाता नहीं वरन् अवगुणी का बखान कर अपनी प्रशंसा कराना चाहता है। इसलिये अपने पथ पर चलते रहो। किसी की परवाह न करो। लोग अपने स्वार्थ के अनुसार समय समय दृष्टिकोण बदलते रहते हैं और अगर उन पर विचार किया तो फिर कोई भी काम ही नहीं कर सकेंगे।
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Wednesday, February 24, 2010

कौटिल्य दर्शन-कभी पर्वत की तरह सहनशील तो कभी अग्नि की तरह तीक्ष्ण बन जायें

काले सहिष्णुगिंरिवदसहिश्णुश्चय वह्वित्।।
स्कन्धेनापि वहेच्छत्रन्प्रियाणि समुदाहरन्।।
हिन्दी में भावार्थ-
समय आने पर पर्वत के समान सहनशील और अग्नि के समान असहनशील हो जायें। समय पर मित्र के कंधे पर हाथ रखें तो शत्रु पर भी उसका प्रयोग करें।
असत्यता निष्ठुरता कृताज्ञता भयं प्रमादोऽलसता विषादिता।
वृथाभिमानों ह्यतिदीर्घसूत्रतातथांनाक्षदिविनाशनंश्रियः।।
हिन्दी में भावार्थ
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असत्य बोलने, निष्ठुरता बरतने, कृतज्ञता न दिखाने, भय, प्रमाद, आलस्य, विषाद, वृथा प्रयास, अभिमान, अतिदीर्घसूत्रता निरंतर  स्त्री समागम तथा पासे खेल से लक्ष्मी का विनाश होता है।
वर्तमान समय में संपादकीय व्याख्या-जीवन में उतार चढ़ाव तो आते हैं। इन उतार चढ़ावों तथा अन्य घटनाक्रमों का अच्छा या बुरा परिणाम हमारे कर्म, विचार तथा  संकल्प के अनुसार ही प्राप्त होता है।  झूठ बोलने, क्रूरता का भाव रखने, दूसरे के उपकार का आभार न मानने, आलस्य करने वाले तथा थोड़े कष्ट में ही आर्तनाद करने वाले लोग अपनी लक्ष्मी का विनाश कर डालते हैं।  कुछ लोग तो ऐसे होते हैं जो छोटी छोटी बातों पर भयभीत हो जाते हैं।  अगर आज हम सभी तरफ राक्षसी वृत्तियों का शासन देख रहे हैं तो वह केवल इसलिये कि भले लोग भय के कारण निष्क्रिय हो गये हैं।  समाज अपने ही अध्यात्मिक ज्ञान से विमुख हो गया है। अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति का मोह तथा अभाव का भय उसे आशंकित किये रहता है। यही कारण है कि वह अपने समाज के प्रति एकता नहीं दिखाता या दिखाता है तो केवल तब तक जब शांति है और संकट आने पर हर कोई अपने घर में दुबक जाता है।  इतना ही नहीं दूसरे के उपकार सदाशयता तथा अनुसंधान का कोई आभार ज्ञापित नहीं करता। कृत्घनता चालाकी का प्रमाण मान ली गयी है।
मृत्यु तय है यह सभी जानते हैं पर उसका भय ऐसा है कि लोग मर मर की जीने को तैयार हैं।  नतीजा यह है कि कायरों पर महाकायर राज कर रहे हैं जो शीर्ष पर इसलिये पहुंचते हैं क्योंकि उनको भय रहता है कि अगर वहां नहीं रहे तो कोई भी उनको क्षति पहुंचा सकता है। कहने का तात्पर्य यह है कि अध्यात्मिक ज्ञान के बिना समाज पशुओं का समूह बन गया है।  कब मित्र से निभाना है या कब शत्रु पर प्रहार करना है इसका ज्ञान लोगों को नहीं रहा।  आत्म प्रवंचना करना तथा प्रशंसा पाने के मोह लोगों को चोर बना दिया है। वह दूसरे का धन, अविष्कार तथा विचार चुराकर अपने नाम से प्रस्तुत करते हैं।  कहने को समाज देवताओं को मानता है पर कृत्य दानवों जैसे हो गये हैं। मगर सभी लोग ऐसे नहीं है। यही कारण है कि आज भी यह समाज इतने सारे हमलों और दबावों के बाद जिंदा है। आज भी दानवीर, कर्मवीर तथा धर्मवीर हैं जो निष्काम कर्म में लिप्त रहते हुए निष्प्रयोजन दया करते हैं। समय पड़ने पर अपने घर, परिवार तथा समाज की रक्षा के लिये कृत संकल्पित होकर अभियान चलाने के लिये तैयार होना आवश्यक है क्योंकि तभी समाज में शांति रह सकती है अन्यथा शत्रु आक्रमण कर समूह का नाश कर देते हैं।



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Sunday, February 21, 2010

विदुर दर्शन-दोष दृष्टि रहित होने पर ही आनंद की प्राप्ति

प्रज्ञामेवागमयति यः प्राज्ञेभ्यःस पण्डितः।
प्राज्ञो ह्यवापप्य धर्मार्थौं शक्नोति सुखमेधितम्।।
हिन्दी में भावार्थ-
नीति विशारद विदुर जी के मतानुसार जो मनुष्य बुद्धिमानों की संगत कर सद्बुद्धि प्राप्त करता है वही पण्डित है। बुद्धिमान पुरुष ही धर्म और अर्थ को प्राप्त कर अनायास ही अपना विकास करता है।
अन्नसूयुः कुतप्रज्ञः शोभनान्याचरन् सदा।
न कृच्छ्रम् महादाप्नोति सर्वत्र च विरोचते।।
हिन्दी में भावार्थ-
जिसकी बुद्धि दोषदृष्टि से रहित है वह मनुष्य सदा ही पवित्र और शुभ करता हुआ जीवन में महान आनंद प्राप्त करता है। जिससे उसका अन्य लोग भी सम्मान करते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-इस जीवन का रहस्य वही समझ सकते हैं जिनकी बुद्धि दूसरे में दोष नहीं देखती। जीवन भर आदमी सत्संग सुने या ईश्वर की वंदना करे पर जब तक उसमें ज्ञान नहीं है तब तक वह भी यह जीवन प्रसन्नता से व्यतीत नहीं कर सकता। सच बात तो यह है कि जैसी अपनी दृष्टि होती है वैसा ही दृश्य सामने आता है और वैसी ही यह दुनियां दिखाई देती है। इतना ही नहीं जब हम किसी में उसका दोष देखते हैं तो वह धीरे धीरे हम में आकर निवास करने लगता है। जब हम अपना समय दूसरो की निंदा करते हुए बिताते हैं तो यही काम दूसरे लोग हमारी निंदा करते हुए करते हैं। यही कारण है कि अक्सर लोग यही कहते हैं कि ‘इस संसार में सुख नहीं है।’
सच्चाई तो यह है कि इस संसार में न तो कभी सतयुग था न अब कलियुग है। यह बस बुद्धि से देखने का नजरिया है। जिन लोगों की बुद्धि दोष रहित है वह प्रातःकाल योगसाधना, ध्यान तथा मंत्रोच्चार करते हुए अपना दिन प्रारंभ करते हैं। उनके लिये वह काल स्वर्ग जैसा होता है। मगर जिनकी बुद्धि दोषपूर्ण है वह सुबह उठते ही निंदात्मक विचार व्यक्त करना प्रारंभ कर देते हैं। कई लोग तो प्रातःकाल ही चीखना चिल्लाना प्रारंभ करते हैं और उनको भगवान के नाम जगह अपने कष्टों का जाप करते हुए सुना जा सकता है। सुबह उठते ही अगर मनुष्य में प्रसन्नता का अनुभव न हो तो समझ लीजिये वह नरक में जी रहा है। यह तभी संभव है जब आदमी अपनी बुद्धि को पवित्र रखते हुए दूसरे में दोष देखना बंद कर दे। दोषदृष्टि से मनुष्य की बुद्धि नकारात्मक हो जाती  है।
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Wednesday, February 17, 2010

विदुर नीति-पैसे का बुद्धि से कोई रिश्ता नहीं (hindu dharma sandesh-buddhi aur paise ka rishta)

न बुद्धिर्धनलाभाय न जाह्यमसद्धये।
लोकपर्यावृतांत प्राज्ञो जानाति नेतरः।।
हिंदी में भावार्थ-
धन केवल बुद्धि से ही प्राप्त होता है या मूर्खता के कारण आदमी दरिद्र रहता है, ऐसा कोई नियम नहीं है। इस संसार के नियमों को केवल विद्वान पुरुष ही जानते हैं।
असंविभागो दुष्टात्मा कृतघ्नो निरपत्रपः।
तादृंनारिधपो लोके वर्जनीवो नारधिपः।।
हिंदी में भावार्थ-
अपने व्यक्ति अपने आश्रितों में अपनी धन संपत्ति को ठीक से बंटवारा नहीं करे तो दुष्ट कृतघ्न और निर्लज्ज है उसे इस लोक में त्याग देना चाहिए।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जिन लोगों के पास धन नहीं है या अल्पमात्रा में है उन्हें धनवान लोग मूर्ख और अज्ञानी मानते हैं। अक्सर धनवाल लोग कहते हैं कि ‘अक्ल की कमी के कारण लोग गरीब होते हैं।’
उनका यह तर्क गलत और बेहूदा है। अगर ऐसा है तो अनेक धनवान गरीब क्यों हो जाते हैं? जिनके पास धन और संपत्ति विपुल मात्रा में वह अपने व्यवसाय में हानि उठाने या अपने बच्चों की गलत संगत के कारण उनके द्वारा किये जा रहे अपव्यय के से संकटग्रस्त हो जाने से निर्धनता को प्राप्त हो जाते हैं। तब उनके बारे में क्या यह कहना चाहिये कि ‘वह अक्ल के कारण ही अमीर हुए और अब उसके न रहने से गरीब हो गये।’ या ‘अब धन नहीं है तो उनके पास अक्ल भी नहीं होगी।’
कहने का तात्पर्य है कि यह धारणा भ्रांत है कि बुद्धि या अक्ल के कारण कोई अमीर या गरीब बनता है। संसार का अपना एक चक्र है। शाश्वत सत्य कभी नहीं बदलता पर माया तो महाठगिनी है। आज इस घर में सुशोभित है तो कल वह किसी दूसरे दरवाजे पर जायेगी। लक्ष्मी के नाम का एक पर्यायवाची शब्द ‘चंचला’ भी है। वह हमेशा भ्रमण करती हैं। अतः हमेशा ही अमीरों को बुद्धिमान और गरीबों को बुद्धिहीन मानने वालों को अपने विचार बदलना चाहिए। इस तरह के सोच ने ही समाज में जो वैमनस्य फैलाया है उसे अब दूर करने की आवश्यकता है। जिस तरह आज चारों तरफ हिंसक संघर्ष का वातावरण दिख रहा है उसके पीछे ऐसी ही सोच जिम्मेदार है।
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Sunday, February 14, 2010

विदुर नीति-पवित्र संकल्प वाला ही वीर होता है

अपनीतं सुनीतेन योऽयं प्रत्यानिनीषते।
मतिमास्थाय सुदृढां तदकापुरुषव्रतम्।।
हिंदी में भावार्थ-
जो अन्याय के कारण नष्ट हुए धन को अपनी स्थिर बुद्धि का आश्रय लेकर पवित्र नीति से वापस प्राप्त करने का संकल्प लेता है वह वीरता का आचरण करता है।
मार्दव सर्वभूतनामसूया क्षमा धृतिः।
आयुष्याणि बुधाः प्राहुर्मित्राणा चाभिमानना।।
हिंदी में भावार्थ-
संपूर्ण जीवों के प्रति कोमलता का भाव, गुणों में दोष न देखना, क्षमा, धैर्य और मित्रों का अपमान न करना जैसे गुण मनुष्य की आयु में वृद्धि करते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-मनुष्य के स्वयं के अंदर ही गुण दोष होते हैं। उनको पहचानने की आवश्यकता है। दूसरे लोगों के दोष देखकर उनके प्रति कठोरता का भाव धारण करना स्वयं के लिये घातक है। जब किसी के प्रति क्रोध आता है तब हम अपने शरीर का खून ही जलाते हैं। अवसर आने पर हम अपने मित्रों का भी अपमान कर डालते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि अपने हृदय में कठोरता या क्रोध के भाव लाकर मनुष्य अपनी ही आयु का क्षरण करता है।
कोमलता का भाव न केवल मनुष्य के प्रति वरन् पशु पक्षियों तथा अन्य जीवों के प्रति रखना चाहिए। कभी भी अपने सुख के लिये किसी जीव का वध नहीं करना चाहिये। आपने सुना होगा कि पहले राजा लोग शिकार करते थे पर अब उनका क्या हुआ? केवल भारत में ही नहीं वरन् पूरे विश्व में ही राजशाही खत्म हो गयी क्योंकि वह लोगा पशुओं के शिकार का अपना शौक पूरा करते थे। यह उन निर्दोष और बेजुबान जानवरों का ही श्राप था जो उनकी आने वाली पीढ़ियां शासन नहीं कर सकी।
हम जब अपनी मुट्ठियां भींचते हैं तब पता नहीं लगता कि कितना खून जला रहे हैं। यह मानकर चलिये कि इस संसार में सभी ज्ञानी नहीं है बल्कि अज्ञानियों के समूह में रह रहे हैं। लोग चाहे जो बक देते हैं। अपने को ज्ञानी साबित करने के लिये न केवल उलूल जुलूल हरकतें करते हैं बल्कि घटिया व्यवहार भी करते हैं ताकि उनको देखने वाले श्रेष्ठ समझें। ऐसे लोग दिमाग से सोचकर बोलने की बजाय केवल जुबान से बोलते हैं। उनकी परवाह न कर उन्हें क्षमा करें ताकि उनको अधिक क्रोध आये या वह पश्चाताप की अग्नि में स्वयं जलें। अपनी आयु का क्षय करने से अच्छा है कि हम अपने अंदर ही क्षमा और कोमलता का भाव रखें। दूसरे ने क्या किया और कहा उस कान न दें। दूसरों के प्रति द्वेष रखने, अपने काम में उतावली करने तथा मित्रों का अपमान करने से अपने ही मस्तिष्क में तनाव उत्पन्न होता है जो कालांतर में आयु को क्षीण करता है।

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Friday, February 12, 2010

पतंजलि योग दर्शन-धर्म मार्ग का विचार करे वही धर्मज्ञ (dharama marg ka vichar-patanjali yog darshan)

शान्तोदिताव्यपदेश्यधर्मानुपाती धर्मी।
हिन्दी में भावार्थ-
जो मनुष्य अतीत, वर्तमान और भविष्य का विचार करते हुए  धर्म में विद्यमान होता है वही धर्मज्ञ है।
क्रमान्यत्वं परिणामन्यत्वे हेतुः।
हिन्दी में भावार्थ-
परिणाम की भिन्नता में क्रम की भिन्नता कारण है।
परिणामत्रसंयमादतीतानागतज्ञानम्।
हिंदी में भावार्थ-
तीनों परिणामों-अतीत, वर्तमान और भविष्य के-संयम करने से तीनों कालों का आभास हो जाता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय-इस हम वैचारिक योग भी कह सकते हैं।  जो भी घटनाक्रम हमारे साथ होता है वह पिछली किसी घटना के क्रम में है और आगे जो होगी वह उसी क्रम में ही होगी। लोग अपने भविष्य को लेकर चिंतित रहते हैं। भूतकाल में हुई अनेक घटनाओं से उनका भाव विचलित रहता है और अपने वर्तमान में वह चिंताओं का बोझ उठाये चलते हैं।  ऐसे में भविष्य का क्या होगा? अपने भविष्य के लिये ज्योतिष गणनाओं से जानने की बजाय अपने कर्म और संकल्पों को आधार बनाना चाहिये।
यह संसार मनुष्य के संकल्प के अनुसार ही चलता है।  जिसकी दृष्टि में दोष है उसे सब दोषमय दिखाई देगा।  जिसके विचार में कलुषिता है उसे कोई वस्तु सुंदर नहीं दिख सकती। कोई सुंदर वस्तु वह देखे भी तो उसके मस्तिष्क में सौंदर्य बोध के तत्व जाग्रत नहीं हो सकते जो कि उसे अनुभूति करा सकंे।  लोभ, लालच, क्रोध, मोह तथा अहंकार के वशीभूत होकर मनुष्य इस संसार का आनंद नहीं उठा सकता।  आनंद उठाने के लिये यह आवश्यक है कि मनुष्य के अंदर सहज भाव हो और तभी संभव है कि जब मनुष्य अपने अतीत, वर्तमान, तथा भविष्य का विचार करते हुए धर्म के मार्ग पर स्थित हो।   जब मन में धर्म के प्रति रुझान होता है तो हमारे कर्म भी ठीक उसी अनुरूप हो जाते हैं और फिर उनका फल भी वैसा ही होता है।  हाथ उठाकर आकाश में ताकने से अच्छा है कि हम अपना आत्मंथन करें।
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Friday, February 5, 2010

कौटिल्य दर्शन-ऋणहीन व्यक्ति को ही राजकीय कार्य सौंपें

जो यद्वस्तु विजानाति तं तत्र विनियोजयेत्।
अशेषविषयप्राप्तविन्द्रियार्थ इवेन्द्रियम्।।
हिन्दी में भावार्थ-
राज्य प्रमुख को चाहिये कि जो व्यक्ति संबंधित विषय का ज्ञाता हो उससे संबंधित विभाग और कार्य में ही उसे नियुक्त करे। जिस तरह समस्त इंद्रियां अपने गुणों में ही बरतती हैं वैसे ही किसी विषय में अनुभवी व्यक्ति ही अपने कार्य का निर्वाह सहजता से कर सकता है।
अभ्यस्तकम्र्मणस्तज्ज्ञान् शुचीन् सुझानम्मतान्।
कुय्र्यादुद्योगसम्पन्नानध्याक्षान् सर्वकम्र्मसु।।
हिन्दी में भावार्थ-
राज्य प्रमुख को चाहिये कि वह राजकीय कार्य के अभ्यास करने वाले, संबंधित कार्य विशेष का ज्ञान रखने वाले पवित्र तथा ऐसे लोगों को अपने विभागों का प्रमुख नियुक्त करे जिन पर किसी का कर्जा न हो।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय-हमारे देश के विश्व में पिछड़े होने का कारण कुप्रबंध है। यह आश्चर्य की बात है कि हम आधुनिक अर्थशास्त्र के नाम पर पश्चिम का ही अर्थशास्त्र पढ़ते हैं जबकि हमारा कौटिल्य का अर्थशास्त्र भी वही बातें कह रहा है जिनको पश्चिमी अर्थशास्त्र अब बता पा रहे हैं। वैसे आधुनिक अर्थशास्त्री कहते हैं कि आर्थिक विशेषज्ञ को सभी विषयों को पढ़ना चाहिये सिवाय धर्मग्रंथों को। हमारे कौटिल्य महाराज को भी हमारे अध्यात्मिक ज्ञान का भाग माना जाता है। चूंकि अध्यात्म को धर्म का हिस्सा मान लिया गया है इसलिये कौटिल्य का अर्थशास्त्र का अध्ययन अधिक लोग नहीं करते।
आज देश में बड़ी बड़ी प्रबंधकीय, औद्योगिक तथा व्यवसायिक संस्थाओं को देखें तो वह अनेक ज्ञानी उच्चाधिकारी लोग काम रहे हैं। शिक्षा विज्ञान में मिली पर लेखा का काम रहे हैं। अनेक लोगों ने विज्ञान में शिक्षा प्राप्त की पर वह प्रबंध के उच्च पदों पर पहुंच गये हैं। अब प्रश्न यह है कि जिनको प्रबंध और लेखा का ज्ञान कभी नहीं रहा वह अपना दायित्व उचित ढंग से कैसे निभा सकते हैं। यही कारण है कि देश की प्रबंधकीय तथा औद्योगिक संस्थाओं में बड़े पदों पर लोग तो पहुंच गये हैं और काम करते भी दिखते हैं पर फिर भी इस देश कह प्रबंधकीय कौशल को लेकर कोई अच्छी छबि विश्व पटल पर नहीं दिखाई देती। सच बात तो यह है कि कार्य और पद योग्यता के आधार पर देना चाहिये पर यहां ऐसी शिक्षा के आधार पर यह सब किया जाता है जिसका फिर कभी जीवन में उपयोग नहीं होता न वह कार्यालयीन और व्यवसायिक निर्देशन के योग्य रहती है। ऐसे में सभी जगह कामकाज के स्तर में गिरावट के साथ ही असहिष्णुता का वातावरण बन गया है। बड़े पद पर बैठा व्यक्ति काम के ज्ञान के अभाव में कुंठा का शिकार हो जाता है और वह अपने मातहत के साथ आक्रामक व्यवहार कर अपने अज्ञान का दोष स्वयं से छिपाता है। वह अपने को ही यह विश्वास दिलाता है कि ‘आखिर वह एक उच्चाधिकारी है, जिसे काम करना नहीं बल्कि करवाना है।’ एक मजे की बात यह है कि कौटिल्य महाराज कहते हैं कि राजकाज में उसी व्यक्ति को नियुक्त करें जिस पर कर्जा न हो पर हम देख रहे हैं कि कम से कम इस व्यवस्था को अब तो कोई नहीं मान रहा। बाकी देश की जो हालात हैं उसे सभी जानते हैं।
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Wednesday, February 3, 2010

संत कबीर के दोहे-एकमत न रहने वाले लोगों से संपर्क न रखें (sant kabir vani in hindi)

कबीर न तहां न जाइये, जहां जु नाना भाव।
लागे ही फल ढहि पड़े, वाजै कोई कुबाव।।
संत शिरोमणि कबीरदास का कहना है कि वह कभी न जायें जहां नाना प्रकार के भाव हों। ऐसे लोगों से संपर्क न कर रखें जिनका कोई एक मत नहीं है। उनके संपर्क से के दुष्प्रभाव से हवा के एक झौंके से ही मन का प्रेम रूपी फल गिर जाता है।
कबीर तहां न जाइये, जहां कपट का हेत।
जानो कली अनार की, तन राता मन सेत।
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि वहां कभी न जायें जहां कपट का प्रेम मिलता हो। ऐसे कपटी प्रेम को अनार की कली की तरह समझें जो उपरी भाग से लाल परंतु अंदर से सफेद होती है। कपटी लोगों का प्रेम भी ऐसा ही होता है वह बाहर तो लालित्य उड़ेलते हैं पर उनके भीतर शुद्ध रूप से कपट भरा होता है।

वर्तमान संदर्भ  में संपादकीय व्याख्या-जीवन में प्रसन्न रहने का यह भी एक तरीका है कि उस स्थान पर न जायें जहां आपको प्रसन्नता नहीं मिल जाती। कुछ लोग ऐसे होते हैं जो बाहर से तो बहुत प्रेम से पेश आते हैं जैसे कि उनका दिल साफ है पर व्यवहार में धीरे धीरे उनके स्वार्थ या कटु भाव दिखने लगता है तब मन में एक तरह से व्यग्रता का भाव पैदा होता है।  अनेक लोग अपने घर इसलिये बुलाते हैं ताकि दूसरे को अपमानित कर स्वयं को सम्मानित बनाया जा सके।  वह बुलाते तो बड़े प्यार से हैं पर फिर अपमान करने का मौका नहीं छोड़ते।  ऐसे लोगों के घर जाना व्यर्थ है जो मन को तकलीफ देते हैं वह चाहे कितने भी आत्मीय क्यों न हों? मुख्य बात यह है कि हमें अपने जीवन के दुःख या सुख की तलाश स्वयं करनी है अतः ऐसे ही स्थान पर जायें जहां सुख मिले। जहां जाने पर हृदय में क्लेश पैदा हो वहां नहीं जाना चाहिये।  उसी तरह ऐसे लोगों का साथ ही नहीं करना चाहिये जो एकमत के न हों। ऐसे भ्रमित लोग न स्वयं ही परेशान होते हैं बल्कि साथ वाले को भी तकलीफ देते हैं। अनेक जगह लोग निरर्थक विवाद करते हैं। ऐसे मुद्दों पर चर्चा करते हैं जिनका हल उनके स्वयं के हाथ में ही नहीं होता। इतना ही नहीं सार्वजनिक विषयों पर बहस करने वाले अनेक लोग आपस में ही लड़ पड़ते हैं और शांतप्रिय आदमी के लिये यही अच्छा है कि वह उनसे दूर रहे।

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