समस्त ब्लॉग/पत्रिका का संकलन यहाँ पढें-

पाठकों ने सतत अपनी टिप्पणियों में यह बात लिखी है कि आपके अनेक पत्रिका/ब्लॉग हैं, इसलिए आपका नया पाठ ढूँढने में कठिनाई होती है. उनकी परेशानी को दृष्टिगत रखते हुए इस लेखक द्वारा अपने समस्त ब्लॉग/पत्रिकाओं का एक निजी संग्रहक बनाया गया है हिंद केसरी पत्रिका. अत: नियमित पाठक चाहें तो इस ब्लॉग संग्रहक का पता नोट कर लें. यहाँ नए पाठ वाला ब्लॉग सबसे ऊपर दिखाई देगा. इसके अलावा समस्त ब्लॉग/पत्रिका यहाँ एक साथ दिखाई देंगी.
दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका
-------------------------


Wednesday, June 29, 2011

अथर्ववेद से संदेश-विद्वान लोग ही बहसों में सत्य का निष्कर्ष प्रस्तुत कर पाते हैं (atharvaved se sandesh-vidvan, bahas aur nishkarsh)

         प्रचार माध्यमों की बढ़ती संख्या से विषय सामग्री पर चर्चाओं के लिये बहसों की परंपरा भी बढ़ती जा रही है।  सांसरिक विषयों पर पक्ष और विपक्ष में वैचारिक योद्धा युद्धरत रहकर समाज को बौद्धिक मनोरंजन प्रदान करते हैं। हमारा देश तो बहसों और चर्चाओं में बहुत पारंगत है। अब यह अलग बात है कि सार्थक विषयों पर बहस कितनी होती है और निरर्थक विषय समाज में कितने लोकप्रिय हैं, इस पर दृष्टिपात कोई नहीं करता। अध्यात्मिक विषयों पर बहस तो शायद ही कभी होती है जबकि सांसरिक विषयों को इस तरह प्रस्तुत किया जाता है जैसे कि वह अध्यात्मिकता से जुड़े हैं। ऐसा मान लिया गया है कि आज के भौतिक युग में भारतीय अध्यात्मिक दर्शन का कोई महत्व नहीं है। इतना जरूर है कि जब सांसरिक विषयों में अपनी बुद्धि लगाये रखने से उकताये लोगों का मन कभी न कभी अध्यात्मिक विषय में लिप्त होने का करता है। ऐसे में उनको सत्य और असत्य पर बहसों में भाग लेना अच्छा लगता है मगर उनके निष्कर्ष निकालना केवल ज्ञानी लोगों के लिये ही संभव है।
          अथर्ववेंद में कहा गया है कि
                 -----------------
            सुविज्ञानं चिकितेषुजनायसच्चासच्च वयसी पस्पृधाते
             तर्योर्यत्सत्यं यतरह जीयस्तदित्सोमोऽहन्त्यासतु।
       ‘‘ज्ञानी मनुष्य के विशिष्ट ज्ञान की यह पहचान है वह सत्य और असत्य भाषणों में जो स्पर्धा रहती है उसमें सरलता और सत्य की रक्षा करते हुए असत्य को विलोपित करता है।
        ‘‘इंद्र मित्रं वरुणमाग्नियाहुरथो दिव्यः स सुपर्णों गुरुत्मान्।      
          एकं साद्विप्रा बहुधा वदन्त्यानि वमं मातरिश्वानमाहुः।
         ‘‘सत्य एक ऐसा विषय है जिसका ज्ञानी अनेक प्रकार से वर्णन करते हैं। उसी तरह एक इंद्र को मित्र, वरुण, अग्नि, दिव्य, सुवर्ण, गुरुत्भानु, यम और माता शिखा कहते हैं।’’
        ज्ञानी लोग कभी अपने ज्ञान का प्रदर्शन नहीं करते। जब तक कोई पूछे नहीं तब तक तत्वज्ञान का उपदेश नहीं करते। यह जरूर है कि वह जिज्ञासावश दूसरों की बहसें सुनते हुए उनमें सत्य और सरल भाव के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दिखाते हैं। निष्कर्ष निकालते हुए निरर्थक तर्कों से अधिक वह सार्थक तत्वों पर अपनी दृष्टि रखते हैं। वैसे देखा जाये तो तत्वज्ञान कोई व्यापक नहीं है पर अधिकतर विद्वान उस पर अपने अपने अनुसार व्याख्यायें प्रस्तुत करते हैं। उनकी व्याख्यायें से अल्पज्ञानियों को ऐसा लगता हे कि सत्य कोई अद्भुत तथा रहस्यमय विषय है पर ज्ञानी लोग ऐसा नहीं सोचते। ज्ञानी लोगों में विनम्रता होती है इसलिये वह सत्य पर की गयी अलग अलग व्याख्याओं का सार समझ लेते हैं।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

Wednesday, June 22, 2011

अमीर लोग कांटों के समान हो जाते हैं-कौटिल्य का अर्थशास्त्र(amir log kante jaise ho jaate hain-kautilya ka arthashastra)

      राजनीति एक बहुत महत्वपूर्ण विषय है। आधुनिक राजनीतिक शास्त्रों का तो पता नहीं पर ऐसा लगता है कि उनमें राजनीति के विषय में इतना सबकुछ लिखा गया होगा जितना कौटिल्य का अर्थशास्त्र में कहा गया है। मूलतः कौटिल्य का अर्थशास्त्र केवल आर्थिक विषय पर ही नहीं बल्कि राजधर्म की भी स्पष्ट व्याख्या करता है। पूरे विश्व में आज एक ऐसे प्रकार का लोकतंत्र है जो चुनावों पर आधारित है। भारत में पुराने समय में यह प्रथा नहीं थी जिसका आज पालन किया गया जा रहा है। यह प्रणाली बुरी नहीं है पर ऐसा लगता है कि इससे जहां आम लोगों को राजनीति में आने का अवसर मिला वहीं है ऐसे लोगों भी राजनीति करने लगे हैं जो केवल पद पाकर उसकी सुविधाओं का उपयोग करने तथा समाज में प्रतिष्ठित रहने के लिये प्रयत्नशील रहते हैं। इसके अलावा विश्व के समस्त देशों में-ऐसे देश भी जहां तानाशाही या राजशाही हो-व्यवस्था में नौकरशाही की एक स्वचालित मशीनरी का निर्माण किया गया है।
       ऐसे में राजनीति के माध्यम से उच्च पदों पर रहने वाले लोगों के लिये करने को कुछ नहीं रहता। सभी को राजनीति विषय का ज्ञान हो यह जरूरी नहीं है और अगर किसी ने पढ़ा हो तो उसे धारण करता हो यह भी आवश्यक नहीं है। ऐसे में राजनीति के सिद्धांतों के अनुरूप कितने चलते हैं यह अलग चर्चा का विषय है। अलबत्ता ऐसे में अब यह दिखने लगा है कि पूरे विश्व में पूंजीपतियों, बाहूबलियों तथा प्रतिष्ठित लोगों का अनेक देशों की सरकारों पर प्रभाव हो गया है यही कारण है कि अनेक देश असंतोष की आग में झुलस रहे हैं। इसके लिये जिम्मेदार सामान्य लोग भी कम नहीं है क्योंकि न वह स्वयं राजनीति के विषय का अध्ययन करते हैं न बच्चों को कराते हैं। यही कारण है कि जहां कुछ शुद्ध विचार से लोग राजनीति में आते हैं उससे अधिक तो संख्या उन लोगों की है जो इसे उपभोग के लिये अपनाते हैं।
                    कौटिल्य का अर्थशास्त्र में कहा गया है कि
                     ----------------------------------------        
                आयुक्तकेभ्यश्चौरेभ्यः परेभ्यो राजवल्भात्
               पृवितवीपतिलोभाच्व प्रजानां पंवधा भयम्।।
         ‘‘राज कर्मचारी, चोर, शत्रु, राजा के प्रियजनों और लोभी राजा इन पांचों से जनता को हमेशा भय रहता है।’’
            आस्रावयेदुपचितान् साधु दुष्टत्रणनिव।
            आमुक्तास्ते च वतेंरन् वाह्य् महीपती।।
          ‘‘दुष्टव्रणों या कांटों के समान धन से पके हुए समृद्ध दुष्ट लोगों को राज्य निचोड़ ले तो ठीक है अन्यथा वह आग के समान राज्य में अपने व्यवहार का प्रदर्शन करते हैं।
           अगर देखा जाये तो राजनीति का कार्य ही राजस भाव से किया जाता है। उसमें सात्विकता या निष्कर्मता को बोध तो रह ही नहीं जाता। भारत में कौटिल्य का अर्थशास्त्र चर्चित बहुत है पर इसे पढ़ते कम ही लोग हैं। राजधर्म का सबसे बड़ा कर्तव्य है समाज, धर्म, व्यापार तथा अपने अनुचरों की रक्षा करना। जिन नये लोगों को राजनीति में आना है उन्हें यह समझना चाहिए कि जिस तरह जल में बड़ी मछली हमेशा ही छोटी मछली का शिकार करती है वैसे ही समाज में शक्तिशाली वर्ग हमेशा ही कमजोर वर्ग को कुचला रहता है। यहीं से राजधर्म निभाने वालों की भूमिका प्रारंभ होती है। प्रजा को हमेशा ही राज्य के लिये काम करने वालों कर्मचारियों, अपराधियों, शत्रुओं और राज्य प्रमुख के करीबी लोगों से भय रहता है। जो राज्य प्रमुख जनता को भयमुक्त रखता है वही श्रेष्ठ कहलाता है। जो अपने कर्तव्य को निर्वाह नहीं करता उसकी निंदा होती है। इसलिये राजधर्म का अध्ययन करने के बाद ही राजनीति में कदम रखना चाहिए। सच बात तो यह है कि कौटिल्य का अर्थशास्त्र न केवल राजनीति बल्कि घर परिवार के लिये भी अध्ययन का विषय है।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

Saturday, June 18, 2011

स्वार्थी लोग ही सम्मान और प्रशंसा करते हैं-संत कबीर वाणी (sarth,samman aur man-sant kabir wani)

 
  आजकल प्रचार का ज़माना है, कई बार लोग अपने काम के प्रचार के लिए ऐसे व्यावसायिक संगठनो का सहारा लेते है जो उनसे पैसा लेकर प्रशंसा अभियान चलाते  हैं। इसके अलावा कई बार ऐसा भी होता है की कोई दूसरे के काम की प्रशंसा इसलिए करता है कि समय आने पर वह उसका बदला उसी तरह चुकाए। यह अलग बात है कि यह दिखावा होता है वरना तो कोई किसी कि मन से प्रशंसा नहीं करता है।
         सामने झूठी प्रशंसा करने और पीठपीछे निंदा करने वालों के लिये क्या कहा जाय? आजकल लोग आपस में तपाक से मिलते हैं पर मन में किसी के प्रति कोई स्नेह नहीं है। सब स्वार्थ के कारण मिलते हैं। जिसमें स्वार्थ न हो तो उसे जानते हुए भी मुंह फेर लेते हैं। अगर आदमी के पस धन, पद और बाहूबल है तो उसके दस प्रशंसक हो जाते हैं-‘आप जैसा कोई नहीं’, ‘आपके पहले तो यहां कुछ नहीं था’, ‘आप आये तो बहार आयी’, और ‘आप बहुत स्मार्ट हैं’ जैसे वाक्य सुनकर जो लोग फूल जाते हैं उन्हें यह समझ लेना चाहिए कि वह चाटुकारों से घिरे हैं। इस हाड़मांस के पुतले में ऐसा कुछ भी नहीं होता जो किसी अन्य से अलग हो सिवाय दिमागी ज्ञान के। निष्काम प्रेम पाना तो आज एक दिवास्वप्न हो गया है जो मिल रहा है उसे सच समझना मूर्खता है। चाटुकारिता का जमाना है। जिनके पास आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक शक्ति है उन तक हर कोई पहुंचना चाहता है। उन पर हर कोई लिखना चाहता है। ऐसे कथित बड़े लोगों को मिलने वाली प्रशंसा से जो लोग अपने को उपेक्षित अनुभव करते हैं उन्हें अपने अंदर कोई मलाल नहीं करना चाहिए। उन बड़े लोगों को मिलने वाला प्रेम और सम्मान झूठा है। ऐसे सम्मान और प्रेम के मिलने से तो न मिलना अच्छा। कितना बड़ा भ्रम है यह लोगों का। वास्तव में वह सम्मान तो धन, पद और अनैतिक बल का है उसके धारक का नहीं।
     इस विषय पर संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि
           ----------------------
        स्वारथ कुं स्वारथ मिले, पडि पडि लूंबा खूंब।
           निस्प्रेही निरधार को, कोय न राखै झूंब।।
         "सभी लोग अपने स्वार्थ को लेकर एकदूसरे से मिलते हैं तो एक दूसरे की मुंहदेखी प्रशंसा करते हैं परंतु निष्कामी और निर्लिप्त भाव से रहने वाले सज्जन लोगों का इसीलिये सम्मान नहीं करते क्योंकि उनमें कोई स्वार्थ नहीं होता।"
           जिन लोगों को सत्संग मिलता है और वहां उनको अपने जैसे निष्काम भक्त मिलते हैं उनको अपने आपको धन्य समझना चाहिए। हालांकि यह सत्संग ढूंढना भी कठिन काम है पर अगर हम ढूंढे तो कहीं न कहीं तो मिल ही जाता है। हालांकि ज्ञानी लोग कभी इन चीजों की परवाह नहीं करते पर देह में मन है तो कभी न कभी विचलित तो होता है तब उन्हें यह समझना चाहिए कि उनमें किसी का सांसरिक स्वार्थ नहीं फंसता इसलिये लोग उनके प्रति प्रेम और सम्मान प्रदर्शित करने नहीं आते पर जब कहीं चर्चा होती है तो उनका नाम लेकर प्रशंसा करते हैं। फर्क यही है कि स्वार्थ की वजह से लोग सामने झूठी प्रशंसा करते हैं पर उसके न होने पर पीठ पीछे ही करते हैं। इसलिए ज्ञानी लोगों को मान सम्मान और प्रशंसा के लोभ से बचना चाहिए।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

Wednesday, June 15, 2011

हिन्दी चाणक्य नीति-अन्न, जल और मधुर वाणी रत्न के समान (hindi chankya neeti-anna, jal aur madhur wani ratna ke saman)

      देखा जाये तो हमें प्रकृति का आभारी होना चाहिए जिसने हमारे देश को खनिज, कृषि तथा जलवायु की दृष्टि से संपन्न होता है। प्रकृति विशेषज्ञों का कहना है कि भारत में भूगर्भ जलस्तर अन्य देशों की अपेक्षा सबसे कम नीचे मिलता है। मतलब हमारे यहां जलस्त्रोत सहजता से उपलब्ध हैं। इस बात को समझने की बजाय  आधुनिक प्रचार माध्यमों के विज्ञापनों से पूरा भारतीय समाज दिग्भ्रमित हो रहा है। क्रिकेट खिलाड़ियों, फिल्म अभिनेता तथा अभिनेत्रियों के अभिनीत विज्ञापन उपभोग की ऐसी खतरनाक प्रवृत्ति को जाग्रत करते हैं कि लोगों की अध्यात्मिक चेतना लुप्त हो गयी है। फिर हमारी शिक्षा व्यवस्था में ऐसी प्रणाली अपनाई गयी है जो केवल गुलाम बनाती है। ऐसे में अगर किसी में रचनात्मक प्रवृत्ति जाग्रत हो जाये तो वह पूर्व जन्म का ही प्रभाव समझे तो अच्छा है वरना तो    अब व्यक्ति में चरित्र निर्माण की बजाय उसे प्रयोक्ता और सेवक बनने के लिये प्रेरित किया जा रहा है।
       वैसे समाज की हालत तो कोई पहले भी अच्छी नहीं थी। सोना, चांदी, हीरा और रत्नों की चाहत हमारे समाज में हमेशा रही है। शायद यही कारण है कि हमारे मनीषी मनुष्य के अंदर मौजूद उस रत्न का परिचय कराते रहे हैं जिसे आत्मा कहा जाता है। इसके बावजूद लोग भौतिक संसार की चकाचौंध में खो जाते हैं और सोना, चांदी और हीरे की चाहत में ऐसे दौड़ते हैं कि पूरा जीवन ही अध्यात्मिक ज्ञान के बिना गुजार देते हैं। जिस अन्न और जल से जीवन मिलता है उसे तुच्छ समझते हैं एक पल का चैन न दे वही सोना गले लगा देते हैं। उसी तरह देहाभिमान से युक्त होने के कारण अधिक वाचाल होकर क्रूरतम शब्दों का प्रयोग करते हैं। जिससे समाज में वैमनस्य बढ़ता है।
           महान नीति विशारद चाणक्य कहते हैं कि
                 ------------------------
          पृथिव्यां त्रीणी रत्नानि जलमन्नं सुभाषितम्।
             मूर्खे पाणखण्डेषु रत्नसंज्ञा विधीयते।।
         ‘‘इस प्रथ्वी पर तीन ही रत्न हैं-अन्न, जल और मधुर वाणी, किन्तु मूर्ख लोग पत्थर के टुकड़ों को ही रत्न कहते हैं।’’
       अक्सर लोग कहते हैं कि भारतीय लोगों के पास दुनियां के अन्य देशों के मुकाबले बहुत अधिक सोना है, मगर बहुत कम लोग जानते हैं कि उससे अधिक तो हम पर परमात्मा की यह कृपा है कि दुनियां के अन्य देशों से अधिक हमारे यहां भूगर्भ जलस्तर के साथ अन्य प्रकृति संपदा भी बड़े पैमाने पर उपलब्ध है।  वैसे आजकल बाज़ार के सौदागर यह प्रयास भी कर रहे हैं कि यहां जल सूख जाये और उसे बेचकर अपने बैंक खाते बढ़ायें। अनेक तरह के ठंडे पेयों के कारखाने यहां स्थापित हो गये हैं जो अपने इलाके का पूरा जल पी जाते हैं। वहां का जलस्तर कम हो गया है पर भारतीय जनमानस ऐसी चकाचौंध में खो गया है कि उसे इसका आभास ही नहीं होता। जल जैसा रत्न हम खोते जा रहे हैं पर आर्थिक विकास का मोह ऐसा अंधा किये जा रहा है कि उसकी परवाह नहीं है।
----------------
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

Monday, June 13, 2011

परिणाम का कर्म से संबंध जानना चाहिए-पतंजलि योग साहित्य

        पतंजलि योग शस्त्र में कहा गया है कि
          -------------------------

          क्रमान्यत्वं परिणामन्यत्वे हेतुः।
          ‘‘किसी कार्य करने के क्रम में भिन्नता से परिणाम भी भिन्न होता है।’’
         परिणामन्नयसंयमादतीतानागतज्ञानम्।।
        ‘‘अतीत, वर्तमान तथा भविष्य का विचार करने से परिणाम का ज्ञान हो जाता है।’’
                   पतंजलि योग में न केवल भौतिक तथा दृश्यव्य संसार को जानने की विधा बताई गयी है बल्कि अभौतिक तथा अदृश्यव्य स्थितियों के आंकलन का भी ज्ञान दिया गया है। हमारे सामने जो भी दृश्य आता है वह तत्काल प्रकट नहीं होता बल्कि वह किसी के कार्य के परिणाम स्वरूप ही ऐसा होता है। कोई व्यक्ति हमारे घर आया तो इसका मतलब वह किसी राह से निकला होगा। वहां भी उसके संपर्क हुए होंगे। वह हमारे घर पर जो व्यवहार करता है वह उसके घर से निकलने से लेकर हमारे यहां पहुंचने तक आये संपर्क तत्वों से प्रभावित होता है। वह धूप में चलकर आया है तो दैहिक थकावट के साथ मानसिक तनाव से ग्रसित होकर व्यवहार करता है। कोई घर से लड़कर आया है तो उसका मन भी वहीं फंसा रह जाता है और भले ही वह उसे प्रकट न करे पर उसकी वाणी तथा व्यवहार अवश्य ही नकारात्मक रूप से परिलक्षित होती है।
               कहने का अभिप्राय यह है कि हम प्रतिदिन जो काम करते हैं या लोगों हमारे लिये काम करते हैं वह कहीं न कहीं अभौतिक तथा अदृश्यव्य क्रियाओं से प्रभावित होती हैं। इसलिये कोई दृश्य सामने आने पर त्वरित प्रतिक्रिया नहीं व्यक्त करना चाहिए। हमें यह विचार करना चाहिए कि उस दृश्य के पीछे कौन कौन से तत्व हैं। व्यक्ति, वस्तु या स्थितियों से प्रभावित होकर ही कोई धटना हमारे सामने घटित होती है। जब हमें यह ज्ञान हो जायेगा तब हमारे व्यवहार में दृढ़ता आयेगी और हम अनावश्यक परिश्रम से बच सकते हैं। इतना ही नहीं किसी दृश्य के सामने होने पर जब हम उसका अध्ययन करते हैं तो उसके अतीत का स्वरूप भी हमारे अंतर्मन में प्रकट होता है। जब उसका अध्ययन करते हैं तो भविष्य का भी ज्ञान हो जाता है।
               हम अपने साथ रहने वाले अनेक लोगों का व्यवहार देखते हैं पर उसका गहराई से अध्ययन नहीं करते। किसी व्यक्ति के मन में अगर पूर्वकाल में से दोष रहे हैं और वर्तमान में दिख रहे हैं तो मानना चाहिए कि भविष्य में भी उसकी मुक्ति नहीं है। ऐसे में उससे व्यवहार करते समय यह आशा कतई नहीं करना चाहिए कि वह आगे सुधर जायेगा। योग साधना और ध्यान से ऐसी सिद्धियां प्राप्त होती हैं जिनसे व्यक्ति स्वचालित ढंग से परिणाम तथा दृश्यों का अवलोकन करता है। अतः वह ऐसे लोगों से दूर हो जाता है जिनके भविष्य में सुधरने की आशा नहीं होती। जब हमारा  कोई कार्य सफल नहीं होता तब हम भाग्य को दोष देते हैं जबकि हमें उस समय अपने दोषों और त्रुटियों पर विचार करना चाहिए।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

Thursday, June 9, 2011

दक्ष स्मृति से संदेश-योग साधना से इंद्रियों को वश में करना संभव (daksha smriti se sandesh-yoga and succes in life)

           हमारे देश का योग दर्शन अब पूरे विश्व में चर्चा का विषय बनता जा रहा है। इसका कारण यह है कि विलासिता पूर्ण जीवन व्यतीत करने से मानव शरीर न केवल दैहिक बल्कि मानसिक रोगों का शिकार भी हो जाता हैं। यही कारण है कि न केवल भारत में बल्कि विश्व के अनेक देशों में योग प्रशिक्षण के कार्यक्रम होते हैं जिसमें पेशेवर लोग योग बेचते नजर आते हैं। अनेक योग प्रचारक अपने शिष्यों को तात्कालिक दैहिक प्रभाव दिखाने वाले आसनों तथा प्राणायामों के बारे में सिखाते हैं जबकि योग विधा के आठ अंग होते हैं जिनका ज्ञान होने पर आदमी ज्ञानी हो जाता है।
      इसमें कोई संशय नहीं है कि योगासन तथा प्राणायाम का बहुत महत्व है पर यह भी जरूरी है कि पतंजलि योग के मूल तत्वों का भी ज्ञान प्राप्त किया जाये। योगासन और प्राणायाम से शरीर में स्फूर्ति और स्थिरता आती है तब मानव मन कोई अच्छा विचार करना चाहता है। मन में बेहतर विषयों के अध्ययन के प्रति रुचि उत्पन्न होती है। ऐसे में भारतीय अध्यात्म ग्रंथों का अध्ययन करना एक महत्वपूर्ण कार्य साबित हो सकता है। पतंजलि योग में वर्णित आठों भागों का ज्ञान प्राप्त होने पर हमारे अंदर योग शक्ति का निर्माण होता है। मन के उतार चढ़ाव, इंद्रियों की गतिविधियों तथा देह के अंदर चल रही प्रक्रिया को हम अपनी अंतदृष्टि से देखते हैं। इससे हमारे अंदर संसार के व्यवहार का ज्ञान आता है।
                दक्षस्मृति में कहा गया है कि
                       ------------------
         लोको वशीकृतों येन यन चात्मा वशीकृतः।
         इन्द्रियार्थो जितोयने ते योग प्रब्रवीम्यहम्।।
               ‘‘योग से मनुष्य सारे संसार को वश में कर सकता है। बिना योग शक्ति के किसी को भी वश में करना संभव नहीं है। बिना योग के व्यवहार का भी ज्ञान नहीं होता न ही इंद्रियों की गतिविधियों को नियंत्रित किया जा सकता है।’’
                सच बात तो यह है कि बोलते, सुनते, स्पर्श करते, सूंघते और देखते हुए केवल एक प्रयोक्ता की तरह हो जाते हैं। अपने अंदर के स्वामित्व का आभास तनिक भी नहीं रहता। हमारी इंद्रियां कार्यरत हैं पर उन पर हमारी नज़र नहीं रहती। हमें लगता है कि सारे काम हम कर रहे हैं पर यह भूल जाते हैं कि यह सब इंद्रियों की गतिविधियों का परिणाम है। हम इंद्रियों के प्रयोक्ता हैं पर यह अहसास नहीं होता। यही अहसास अपने स्वामित्व होने का परिचय देता है और आदमी दृष्टा की तरह हो जाता है। तब वह संसार के व्यवहार के सिद्धांतों को अच्छी तरह समझता है। इसी कारण योग साधना तथा ध्यान में हमेशा तत्पर रहना चाहिए। इससे जो ज्ञान प्राप्त होता है वह आदमी को विश्व विजयी बना सकता है।
------------------

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

Sunday, June 5, 2011

व्यवहार में घमंड रखने वालों से दूर रहे-भर्तृहरि नीति शतक (vyavhar mein ghamand dikhane valon se door rahen-bhartrihari neeti shatak)

         जैसे जैसे विश्व में विकास हो रहा है वैसे वैसे ही लोगों के पास शारीरिक सुख के भौतिक साधनों एकत्रित होते जा रहे हैं। लोगों के लिये विलासिता ही सुख का पर्याय बन गयी है। शारीरिक श्रम के अभाव में अनेक तरह की बीमारियां जन्म लेती हैं। रुग्णता से ही मानसिक विकृति पनपती है।
      विश्व के अनेक स्वास्थ्य संगठन तथा विशेषज्ञ इस बात की ओर संकेत कर चुके हैं कि अनेक देशों में चालीस  प्रतिशत से अधिक लोग मनोरोगों से ग्रसित हैं पर वह न स्वयं न जानते हैं न दूसरों को ही आभास होता है। हम लोग यह समझते हैं कि मनोरोग होने का मतलब पागलपन से है। दरअसल हम विक्षिप्ता की चरम स्थित जिसे पागलपन कहा जाता है मनोरोग मान लेते हैं। वैसे मनोरोग की चरमस्थिति विक्षिप्पता ही है पर इसके अलावा भी ऐसी स्थितियां हैं जब कोई आदमी विक्षिप्त न हो पर मानसिक रूप से उसका मस्तिष्क तनाव से ग्रस्त होता है पर सामान्य दैहिक व्यवहार के चलते न उसे आभास होता है न दूसरे ही इस बात को समझते हैं। वह भी मनोरोग का शिकार हैं भले ही उनके सामान्य दैहिक क्रियाओं से यह लगता न हो। खासतौर से वर्तमान काल में जो लोग शारीरिक श्रम से बच रहे हैं उनका व्यवहार तो अनेक बार बेतुका हो जाता है और बातचीत में इसका आभास वही लोग कर सकते हैं जो परिश्रम करते हुए अपना मानसिक स्तर सामान्य बनाये हुए हैं।
            इस विषय पर भर्तृहरि महाराज कहते हैं
                  ---------------------------------
             पुण्यैर्मूलफलैस्तथा प्रणयिनीं वृत्तिं कुरुष्वाधुना
             भूश्ययां नवपल्लवैरकृपणैरुत्तिष्ठ यावो वनम्।
            क्षधद्राणामविवेकमूढ़मनसां यन्नश्वाराणां सदा
            वित्तव्याधिविकार विह्व्लगिरां नामापि न श्रूयते।।
           "भर्तृहरि महाराज अपने प्रजाजनों से कहते हैं कि अब तुम लोग पवित्र फल फूलों खाकर जीवन यापन करो। सजे हुए बिस्तर छोड़कर प्रकृति की बनाई शय्या यानि धरती पर ही शयन करो। वृक्ष की छाल को ही वस्त्र बना लो लो। अब यहां से चले चलो क्योंकि वहां उन मूर्ख और संकीर्ण मानसिकता वाले लोगों का नाम भी सुनाई नहीं देगा जो अपनी वाणी और संपत्ति से रोगी होने के कारण अपने वश में नहीं है।"
       जहां अमीरों और सम्मानित लोगों की महफिल होती है वहां उपस्थित होने वाले सभी एक तरह के होते हैं। इसलिये उन्हें आभास नहीं हो सकता कि कौन मनोरोगी हैं और कौन नहीं। कोई छोटा आदमी वहां मौजूद हो तो वह सोचता है कि यह तो बड़े लोग हैं पर जो ज्ञानी और मानसिक रूप से स्वस्थ हैं वह जानते हैं कि ‘गुण ही गुणों को बरतते हैं’। मतलब यह कि देह जैसे कर्म में लिप्त है वैसे ही मन की स्थिति हो जाती है। देह अगर अधिक परिश्रम करने वाली नहीं है तो बुद्धि भी अधिक चिंतन नहीं कर सकती। आदमी भले ही अपने वाहनों से लंबी लंबी यात्रायें करता हो पर उसका मन, बुद्धि और अहंकार उसे संकीर्ण दायरों में कैद कर देता है। ऐसे लोग न स्वयं कष्ट भोगते हैं बल्कि दूसरे को भी अपनी वाणी और व्यवहार से कष्ट देते हैं। ऐसे लोगों की पहचान कर उनसे दूर रहना ही बेहतर है।
--------------
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

Saturday, June 4, 2011

हिन्दू धर्म संदेश-पापी को दंडित न करना भी अधर्म का प्रमाण (hindu dharma sandesh-papi ko dandit na karna bhee adharma)

         स्वयं पाप न करना ही धर्म का परिचायक नहीं है वरन् जिस पाप को रोकना संभव है उसका प्रतिकार न करना भी अधर्म है। हम अपने मित्रों, रिश्तेदारों या परिवार के सदस्यों के पाप में स्वयं लिप्त न हों पर उनको दुष्कर्म करते देख मौन रहना या उनको न रोकना भी अधर्म की श्रेणी में आता है। चूंकि मनुष्य को प्रकृति ने हाथ पांव, वाणी, तथा आंखें दी हैं और उसके साथ ही बुद्धि भी प्रदान की है तब यह उसके लिये आवश्यक है कि वह अपने समूहों को पाप कर्म से रोके। अगर कोई ऐसा सोचता है कि वह स्वयं पाप नहीं कर रहा है इसलिये वह धर्मभीरु है तो गलती पर है। यह उदासीनता अधर्म का ही एक बहुत बड़ा भाग है।
           हमारे वेद शस्त्रों में कहा गया है कि
             -----------------
          धर्मादयेतं यत्कर्म यद्यपि स्यान्महाफलम्।
            न तत् सेवत मेधावी न तद्धिमिहोच्यते।।
               ‘‘इस धर्म का अर्थ बहुत व्यापक है। जहां विद्वान लोग न्याय का समर्थन नहीं करते वह अधर्मी ही कहे जाते हैं।
           यत्र धर्मोह्य्मेंण सत्यं यत्रानृतेन च।
          हन्यते प्रेक्षामाणानां हतास्तत्र सभासदः।।
       ‘‘जहां अधर्म को देखते हुए भी सभासद चुप रहते हैं और उसका प्रतिकार नहीं करते वह भी पाप के भागी हैं।’’
                 कहते हैं भी अन्याय करने से अधिक पाप अन्याय पाप सहना है। उतना ही पाप है अपने सामने अन्याय, व्याभिचार, भ्रष्टाचार और बेईमानी होते देखना। वैसे धर्म साधना एकाकी होती है पर उसका निर्वहन करना सामूहिक गतिविधियों में ही होता है। परमार्थ, दान तथा धर्म की रक्षा का दायित्व बोध बाहरी गतिविधियों से प्रमाणित होता है। जब कोई आदमी अपनी जाति, परिवार और मित्र समुदाय के पथभ्रष्ट होने पर यह सोचकर चुप रहता है कि वह अपना धर्म निभा रहा है तो उसे बताना चाहिए कि यह भी अधर्म का ही एक भाग है। धर्म का आशय यह है कि आप स्वयं पाप न करें तो दूसरे को भी करने से रोकें।अगर हम अपने सामने ही किसी पापी को पाप करते हुए देखते हैं पर रोकते नहीं तो वह भी अधर्म का प्रमाण है। हम यह नहीं कह सकते कि उसे रोकना हमारे वश में नहीं था। कम से कम उसे रुकने के लिये कहा तो जा सकता था। शक्ति होने पर पानी को दंडपूर्वक रोकना संभव हो तो उसका उपयेाग करना चाहिए। न करने पर हम भी स्वयं पाप के भागी बनते हैं।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

अध्यात्मिक पत्रिकाएं