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Wednesday, December 25, 2013

व्यावसायिक कथाकारों का ज्ञान श्रोताओं के भीतर प्रवेश नहीं करता-हिंदी चिंत्तन लेख(vyasayik kathakaron ka gyan shrotaon ke bheetar pravesh nahin karta-hindi chinntan lekh or hindu thought aricle)



            हमारे देश में प्रचलित अध्यात्मिक धारा के अनुसार  जिस तरह साकार और निराकार दोनों ही प्रकार की पूजा पद्धतियों को सहज मान्यता प्राप्त है वह विश्व में किसी अन्यत्र विचाराधारा में नहीं है। इसका लाभ यह होता है कि समाज में कभी पूजा पद्धति को लेकर आपस वैमनस्य नहीं फैलता पर इससे हानि यह हुई कि साकार और सकाम भक्ति की आड़ में हमारे यह व्यवसायिक धार्मिक गुरुओं का प्रभाव इस तरह कायम हो गया कि तत्वज्ञान एक अगेय विषय बन गया। इसकी चर्चा सभी करते हैं पर ग्रहण करने का सामार्थ्य बहुत कम लोगों में होता है। 
            सामान्य मनुष्य बहिर्मुखी होता है और इंद्रियों का भी यह स्वभाव होता है कि वह बाहर के विषयों की तरफ आकर्षित होती हैं।  यही कारण है कि आकर्षक आश्रम, मनोरंजन की दृष्टि से कथायें कहने वाले गुरु तथा सांसरिक फल जल्दी दिलाने के लिये प्रसिद्ध धार्मिक स्थान समाज में सदैव लोकप्रिय रहे हैं।  यह कोई आजकल की बात नहीं वरन् कबीर के समय से ही इस तरह का प्रचलन  रहा है इसलिये उन्होंने  व्यास पीठ पर बैठकर कथा करने वालों की तरफ स्पष्ट ऐसा संकेत दिया जिनसे मन में मनोरंजन का भाव तो आ सकता है पर तत्वज्ञान धारण करना कठिन होता है।  यह सभी को पता है कि कथा के सार्वजनिक प्रदर्शन में लगे लोग धन लेते हैं। उनका कथा करना तथा पैसे लेना कोई बुरा काम नहीं  पर उसका अध्यात्मिक ज्ञान की दृष्टि से कितना महत्व है यह भी समझा जाना चाहिये।
संत कबीर दास कहते हैं कि
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कबीर व्यास कथा कहैं, भीतर भेदे नाहिं।
औरों कूं परमोधर्ता, गये मुहर का माहिं।।
            सामान्य हिन्दी में भावार्थ-व्यास पीठ  पर बैठकर कुछ विद्वान कथा करते हैं पर उनकी बातें श्रोताओं का हृदय भेदकर अंदर नहीं जातीं। ऐसे विद्वान दूसरों का उद्धार क्या करेंगे स्वयं ही पैसे की लालच में आकर यह कथा का व्यवसाय अपनाते हैं।
कबीर कहहिं पीर को, समझावै सब कोय।
संसय पड़ेगा आपकूं, और कहें का होय।।
            सामान्य हिन्दी में भावार्थ-दूसरों की पीड़ा को देखकर उनके हरण का उपाय अनेक समझाते हैं पर स्वयं अपनी समस्याओं के हल को लेकर वह स्वयं ही सशंकित रहते हैं।  जिन्होंने ज्ञान का रटा लगाया है पर धारण नहीं किया वही दूसरों को ज्ञान बांटते हैं।
            इस देश में अनेक लोगों ने धार्मिक प्रवचन करते करते इतना धन कमा लिया है कि अनेक उद्योगपति तथा व्यवसायी भी उन जैसी समृद्धि प्राप्त नहीं कर पाते हैं।  देखा जाये तो भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान के नाम पर जितना व्यवसाय होता है उतना शायद ही किसी अन्य विषय या वस्तु का होता हो।  कुछ विद्वान कहते हैं कि भारतीय अध्यात्मिक दर्शन से संबंधित ग्रंथों में  कि भारतीय वेदों में अस्सी फीसदी सकाम तथा बीस फीसदी वाक्य निष्काम भक्ति से सबंधित है। दूसरी बात यह भी त्यागी को बड़ा माना गया है भोगी को नहीं।  मजे की बात यह है कि जो लोग सकाम भक्ति के मंच पर होते हैं वही निष्काम रहने का उपदेश देते हैं।  निराकार की बात करते करते साकार भक्ति की बात करने लगते हैं।  इतना ही नहीं भोग की सामग्री का संचय करने वाले ही अपने शिष्यों को त्याग कर धर्म निर्वाह करने का संदेश देते हैं।  दान के नाम अपनी कथाओं का दाम लेकर अपने शिष्यों को  धन्य करते हैं।
            इन व्यवसायिक कथाकारों पर किसी प्रकार की दोषदृष्टि रखना व्यर्थ है क्योंकि अपनी समस्याओं से परेशान लोगों के मन को को यह कुछ समय तक उसे संसारिक विषयों से परे रख थोड़ी राहत अवश्य देते हैं। हमारे कहने का अभिप्राय तो यह है कि मन में स्थाई रूप से शांति रहे उसके लिये योग तथा ज्ञान की साधना करते रहना चाहिये।



दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 


Sunday, December 22, 2013

कौटिल्य के अर्थशास्त्र के आधार पर चिंत्तन लेख-पराक्रमी के पास भोग के साधन स्वतः उपलब्ध होते है(hindi thought article on kautilya ka arthshastra-prakrami ka paas bhog ke sadhan swat$ uplabdh hote hain)



            अनेक कथित धार्मिक गुरु यह तो कहते हैं कि मोह, माया, अहंकार तथा क्रोध का त्याग करें पर न तो वह स्वयं उनके प्रभाव से मुक्त हैं न वह अपने शिष्यों को कोई विधि बता पाते हैं। सत्य और माया के बीच केवल अध्यात्मिक ज्ञानी और साधक ही समन्वय बना पाते हैं। एक बात तय है कि सत्य के ज्ञान का विस्तार नहीं है पर माया का ज्ञान अत्यंत विस्तृत है।  कोई ऐसा बुरा काम नहीं करना चाहिये दूसरे को पीड़ा यह सत्य का ज्ञान है यह सभी जानते हैं पर माया के पीछे जाते हुए अनेक ऐसे काम करने पड़ते हैं जिनके उचित या अनुचित होने ज्ञान सभी को नहीं होता।  माया के अनेक रूप हैं सत्य का कोई रूप नहीं है। अनेक रूप होने के कारण धन, संपदा तथा उच्च के पद की प्राप्ति के लिये अनेक प्रकार के मार्ग हैं।  हर मार्ग का ज्ञान अलग है। स्थिति यह है कि लोग धन और संपत्ति प्राप्त करने के मार्ग बताने वालों को ही धार्मिक गुरु मान लेते हैं। मजे की बात तो यह है कि ऐसे गुरु श्रीमद्भागवत गीता से निष्काम कर्म तथा निष्प्रयोजन का संदेश नारे के रूप में देते देते ही मायावी संसार का ज्ञान देने लगते हैं।  इस संसार में माया की संगत जरूरी है पर सत्य का ज्ञान हो तो माया दासी होकर सेवा करते हैं वरना स्वामिनी होकर नचाने लगती है।
कौटिल्य महाराज ने अपने अर्थशास्त्र में कहा है कि
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वे शूरा येऽपि विद्वांतो ये च सेवाविपिश्चितः।
तेषा मेव विकाशिन्यों भोग्या नृपतिसम्भवः।।
            हिन्दी में भावार्थ-जिस मनुष्य में वीरता, विद्वता और सेवा करने का गुण है वही भोग के लिये  सम्पत्ति प्राप्त करता है।
कुलं वृत्तञ् शौर्य्यञ्च सर्वमेतन्ना गभ्यते।
दुवृतेऽश्न्यकुलीनेऽप जनो दातरि रज्यते।।
            हिन्दी में भावार्थ-कुल, चरित्र और वीरता को भी कोई ऐसे नहीं सराहता। दुष्ट तथा अकुलीन भी अगर दातार हो तो सामान्य जन उसमें अनुराग रखते हैं।
            अध्यात्मिक ज्ञानी मानते हैं कि मनुष्य अगर अपने अंदर ज्ञान साधना कर सत्य समझ ले तो उसमें वीरता और पराक्रम के गुण स्वतः आ जाते हैं और तब वह इस संसार में माया का स्वामी बनता है पर उसे अपनी स्वामिनी बनकर नचाने का अवसर नहीं देता।  दूसरी बात यह है कि ज्ञानी आदमी धन का व्यय इस तरह करता है कि उसके आसपास के लोग भी प्रसन्न रहें। वह दान और सहायता के रूप में ऐसे लोगों को धन या वस्तुऐं देता है जो उसके लिये सुपात्र हों। जिन लोगों के पास अध्यात्म ज्ञान नहीं है वह पैसा, पद और प्रतिष्ठा के मद में दूसरों को छोटा समझकर उनकी उपेक्षा कर देते हैं जिससे उनके प्रति समाज में विद्रोह का भाव निर्माण होता है।


दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 


Friday, December 6, 2013

धार्मिक विचाराधाराओं के बीच द्वंद्व स्वाभाविक-हिन्दी चिंत्तन लेख (Dharmik vichardharaon ke beech dwandwa swabhavik-hindi thought article)



                        शायर इकबाल ने लिखा था कि मजहब नहीं सिखाता बैर करना। आमतौर से कुछ कट्टरपंथी भारतीय धार्मिक बौद्धिक विद्वान  कहते हैं कि उसका आशय केवल अपने ही धर्म से था जो मजहब कहलाता है। इसके पीछे तर्क यह दिया जाता है कि इकबाल उर्दू शायर थे और उनकी विचाराधारा को ही मजहब कहा जाता है। इतना ही नहीं उनकी लेखन की  भाषा को भी मजहब से ही जोड़ा जाता है हालांकि यह तार्किक है। याद रहे हिन्दू को धर्म और ईसाई को रिलीजन कहा जाता है। इकबाल ने  विरोधियों को आलोचना का  अवसर उन्होंने स्वयं ही दिया क्योंकि विभाजन के बाद वह नवनिर्मित पाकिस्तान चले गये।  हम यहां मान लेते हैं कि इकबाल के मजहब का आशय व्यापक था और उन्होंने हिन्दू तथा ईसाई शब्द को भी मजहब ही माना होगा।  हम उनकी बात से सहमत है कि मजहब नहीं सिखाता बैर करना पर हमारा सवाल यह है कि मजहब का मतलब वह क्या समझते थे?
            अगर उनके मजहब का मतलब दुनियां के हर प्रकार के धर्म या रिलीजन से था तो हम मानते हैं कि वह केवल एक नारा देकर वाहवाही लूटते रहे थे।  दरअसल हमारा मानना है कि जहां भी धर्म के साथ कोई नाम जुड़ा है वह राजसी बुद्धि से बनी योजना का हिस्सा है ताकि उसकी आड़ में विशेष प्रकार के लोगों का वर्चस्व बना रहे। श्रीमद्भागवत में धर्म का आशय व्यापक है पर उसका पूरा संबंध मनुष्य के आचरण, कर्म तथा विचार से ही है।  बेहतर आचरण ही धर्म है पर जब हम वर्तमान में उसके साथ तमाम नाम जुड़े देखते हैं तो पाते हैं कि एक तरह से वर्चस्व की लड़ाई चल रही है।  सभी धर्मों के प्रचारक अपने धर्म तथा उसकी पूजा पद्धति को श्रेष्ठ बताते हैं। यही कारण है कि अनेक देशों के रणनीतिकार  कथित रूप से धर्म निरपेक्ष या सर्वधर्म समभाव के सिद्धांत का पालन करने का दावा करते हैं।  सर्व धर्म समभाव अपने आप में विवादास्पद है।  धर्म का आशय अगर आचरण से है तो अनेक प्रकार के धर्मों की स्वीकार्यता का क्या अर्थ हो सकता है? जहां तक धर्मनिरपेक्षता का प्रश्न है तो वह केवल उन लोगों का सिद्धांत है जो अपने स्वार्थ तक ही सीमित हैं।  उन्हें आचरण या व्यवहार से कोई अर्थ नहीं रहता।  धर्म के प्रति निरपेक्ष रहने का अर्थ यह है कि अपने तथा दूसरों के व्यवहार, आचरण तथा विचारों के प्रति उदासीन होकर केवल अपना स्वार्थ पूरा करना।  अपनी स्वार्थ पूर्ति के लिये धर्म के सिद्धांतों का भी उल्लंघन करना ही धर्म निरपेक्षता का प्रमाण है।  एक विचाराशील, परिश्रमी तथा सात्विक मनुष्य कभी भी धर्म से निरपेक्ष नहीं रह सकता। धर्म से निरपेक्ष रहने का आशय यही है कि अपने तथा दूसरों के अच्छे या बुरे व्यवहार, कर्म तथा विचार के  प्रति उदासीन रहना। हालांकि धर्म के प्रति यह उदासीनता सकाम भाव को इंगित करती है। मतलब यह कि हमारा काम सिद्ध होना चाहिये और उसकी वजह से किसी को कष्ट हो तो हो।
                        अगर इकबाल का आशय सभी प्रचलित धर्मो से था तो भी हम मानते हैं कि वह कोई बड़े ज्ञानी नहीं थे और अगर यह मान ले कि उनका श्रीगीता में वर्णित आचरण रूप धर्म से था इसका प्रमाण नहीं मिलता कि उसका उनको कोई ज्ञान था।  हम यहां मानकर चलते हैं कि उनके मजहब शब्द से आशय सभी धर्मों से था तो वह गलत थे।  आचरण से धर्म का संबंध है पर पर देखा जा रहा है कि जिन धर्मों का कोई नाम है वह योजनापूर्वक बनाये गये हैं।  सभी धर्मों में राजसी पुरुषों के साथ कुछ धार्मिक चेहरे रहे हैं जो उनके लिये धर्म का उपयोग राज्य विस्तार के लिये करते हैं।  वह लोगों के मौजूद अध्यात्मिक भूख को धर्म की आड़ में शांत कर अपने राजसी पुरुषों के नियंत्रण में लाते हैं।  देखा जाये तो प्रत्यक्ष धर्मों के ठेकेदार अपनी धवल छवि बनाकर सभ्य समाज पर बौद्धिक नियंत्रण करते हैं पर उन पर राजसी पुरुषों का ही वरद हस्त रहता है।  भारत के बाहर तो धर्म के नाम पर अनेक युद्ध भी हुए हैं। जब हम श्रीमद्भागवत गीता में वणित धर्म रूपी आचरण की बात करें तो वह वाकई बैर करना नहीं सिखाता पर उसके इतर हम नामधारी कथित धर्मो की बात करें तो वह राजसी पुरुषों की विस्तारवादी नीतियों को ही प्रश्रय देते हैं। तय बात है कि इन प्रयासों को विभिन्न विचारधाराओं को मानने वालों के बीच विरोध होता है।  ऐसे में इकबाल साहब की बात बेदम हो जाती है। खासतौर से जब उन्होंने मजहब के आधार पर बने पाकिस्तान में जाना श्रेयस्कर समझा हो। अगर उनके मजहब शब्द  आशय धर्म या रिलीजन से होता तो वह कभी भी पाकिस्तान नहीं जाते।  कहीं न कहंी उनके मन में यह बात रही होगी कि भारत में जब हिन्दी का बोलबाला होने वाला है जिसकी वजह से भारतीय अध्यात्म ज्ञान भी विस्तार पायेगा तब उनकी शायरी बौनी हो जायेगी।
            हमारे कहने का अभिप्राय यह है कि अगर हम भारतीय अध्यात्म दर्शन की बात करें तो उसमें धर्म वाकई बैर करना नहीं सिखाता पर जब हम उसके इतर नाम धारी धर्मों की बात करें तो उनके सिद्धांत बड़े ही आकर्षक हों पर उनसे जुड़े शिखर पुरुष अपने अपने समाजों पर नियंत्रण करने के लिये  दूसरे समाजों का भय पैदा कर नियंत्रण करते हैं जिससे अनेक देशों में वैमनस्य फैलता है।  ऐसे में यह प्रश्न उठता है कि इकबाल का यह तर्क कैसे माना जाये कि धर्म, मजहब या रिलीजन बैर करना नहीं सिखाता।

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 


Saturday, November 30, 2013

मन की प्रकृति समझने पर ही सहज योग का मार्ग मिलता है-हिन्दी चिंत्तन लेख(man ki prakruti samajhne par hi sahajyog ka maarg milta hai-hindi thought article)



                        ऐसे विरले लोग ही रहते हैं जो जीवन में एकरसता से ऊबते नहीं है वरना तो सभी यह सोचकर परेशान इधर से उधर घूमते हैं कि वह किस तरह अपना जीवन सार्थक करें। धनी सोचता है कि निर्धन सुखी है क्योंकि उसे अपना धन बचाने की चिंता नहीं है।  निर्धन अपने अल्पधन के अभाव को दूर करने के लिये संघर्ष करता हैं  जिनके पास धन है उनके पास रोग भी है जो उनकी पाचन क्रिया को ध्वस्त कर देते हैं। उनकी निद्रा का हरण हो जाता हैं। निर्धन स्वस्थ है पर उसे भी नींद के लिये चिंताओं का सहारा होता हैं। धनी अपने पांव पर चलने से लाचार है और निर्धन अपने पांवों पर चलते हुए मन ही मन कुढ़ता है। जिनके पास ज्ञान नहीं है वह सुख के लिये भटकते हैं और जिनके पास उसका खजाना है वह भी सोचते हैं कि उसका उपयोग कैसे हो? निर्धन सोचता है कि वह धन कहां से लाये तो धनी उसके खर्च करने के मार्ग ढूंढता है।
भर्तृहरि नीति शतक में कहा गया है कि
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तपस्यन्तः सन्तः किमधिनिवासमः सुरनदीं
गुणोदारान्दारानुत परिचरामः सविनयम्।
पिबामः शास्त्रौघानुत विविधकाव्यामृतरासान्
न विद्मः किं कुर्मः कतिपयनिमेषायुषि जने।।
            हिन्दी में भावार्थ-किसी तट पर जाकर तप करें या परिवार के साथ ही आनंदपूर्वक रहे या विद्वानों की संगत में रहकर ज्ञान साधना करे, ऐसे प्रश्न अनेक लोगों को इस नष्ट होने वाले जीवन में परेशान करते हैं। लोग सोचते हैं कि क्या करें या न करें।
            योग और ज्ञान साधकों के लिये यह विचित्र संसार हमेशा ही शोध का विषय रहा है पर सच यही है कि इसका न तो कोई आदि जानता है न अंत है।  सिद्ध लोग परमात्मा तथा संसार को अनंत कहकर चुप हो जाते है।  वही लोग इस संसार को आनंद से जीते हैं। प्रश्न यह है कि जीवन में आनंद कैसे प्राप्त किया जाये?
            इसका उत्तर यह है कि सुख या आनंद प्राप्त करने के भाव को ही त्याग दिया जाये। निष्काम कर्म ही इसका श्रेष्ठ उपाय है। पाने की इच्छा कभी सुख नहीं देती।  कोई वस्तु पाने का जब मोह मन में आये तब यह अनुभव करो कि उसके बिना भी तुम सुखी हो।  किसी से कोई वस्तु मुफ्त पाकर प्रसन्नता अनुभव करने की बजाय किसी को कुछ देकर अपने हृदय में अनुभव करो कि तुमने अच्छा काम किया।  इस संसार में पेट किसी का नहीं भरा। अभी खाना खाओ फिर थोड़ी देर बाद भूख लग आती है।  दिन में अनेक बार खाने पर भी अगले दिन पेट खाली लगता है। ज्ञान साधक रोटी को भूख शांत करने के लिये नहीं वरन् देह को चलाने वाली दवा की तरह खाते हैं। कुछ लोग कहते हैं कि केवल एक रोटी खाई जाये तो पूरा दिन सहजता से गुजारा जा सकता है। कहने का अभिप्राय यह है कि जब हम अपने चंचल मन की प्रकृत्ति को समझ लेंगे तब जीवन सहज योग के पथ पर चल देंगे।  यह मन ही है जो इंसान को पशू की तरह इधर से उधर दौड़ाता है।


दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 


Thursday, October 31, 2013

अनुकूल संगति के लिये उद्यान तथा मंदिर उत्तम स्थान-हिन्दी चिंत्तन लेख(anukool sangati ki liye udyan tatha madir uttam sthan-hindi chinttan lekh)



                        आमतौर से हर मनुष्य देखने में एक जैसे ही लगते हैं पर आचार, विचार, रहन सहन, खाने पीने तथा व्यवहार की दृष्टि से उनमें भिन्नता का आभास तब  होता है जब उसने कोई दूसरा व्यक्ति उनसे संपर्क करता है। अनेक बार दो लोग एक जैसे लगते हैं तो अनेक लोग भी एक जैसे स्वभाव के नहीं लगते।  इसके दो कारण है एक तो यह कि लोग अपने रहन सहन, खान पान, आचार विचार तथा व्यवहार के अनुसार ही हो जाते हैं। दूसरा कारण उल्टा भी होता है कुछ लोग अपनी मूल प्रकृत्ति के अनुसार ही रहन, सहन, खान पान, आचार विचार तथा व्यवहार करने लगते हैं।  इन दोनों कारणों में श्रीमद्भागवत गीता का गुण और कर्म विभाग सिद्धांत लागू होता है। एक तो मनुष्य वह होता है जो अपनी मूल प्रकृत्ति के अनुसार सात्विक, राजस तथा तामसी कार्य करता है तो दूसरा वह होता है जो अपने कर्म के अनुसार ही अपने स्वभाव की प्रकृत्ति का हो जाता है। इस चक्र को योग तथा ज्ञान साधक अनुभव कर सकते हैं।
                        हम देखते हैं कि सहकर्म में लिप्त लोगों के बीच आपसी संपर्क सहजता से बनता है। जिसको निंदा करनी है उसे निंदक मिल जाते हैं दूसरे प्रशंसा करते हैं तो उनको प्रशंसक मिल जाते हैं। यही स्थिति आदतों की भी है। जो जुआ खेलते हैं उनको जुआरी और जो शराब पीते हैं उन्हें शराबी मिल जाते है। स्थिति यह है कि व्यसन में फंसा मनुष्य कुंऐं के मेंढक की तरह हो जाता है जिसे अज्ञान का अंधेरा ही पसंद होता है।  आमतौर से हम देखते भी हैं कि बुरी संगत सहजता से मिलती है पर अच्छी संगत के लिये प्रयास करने पड़ते है।  बाज़ार में सहजता से व्यसनी मिल जाते हैं  पर सत्संगी को ढूंढना पड़ता है। ऐसे में समस्या यह आती है कि हम सहज प्रकृत्ति के लोग कहां ढूंढे।
                        हमारा मानना है कि हमें मंदिरों और पार्कों में सहज प्रकृत्ति के लोग मिल ही जाते हैं। दरअसल मंदिरों और पार्कों में आया व्यक्ति कहीं न कहीं से मन से स्वच्छ होता ही है भले ही वह पूरे दिन असहज वातावरण में रहता हो।  जब हम मंदिर जाते हैं तो वहां आये लोग अत्यंत शांत और सद्भाव से संपन्न  होने के कारण हमारे मन तथा चक्षुओं को आकर्षित करते हैं। वहां कोई मित्र मिल जाये तो उसे  भी प्रसन्नता होती है तो हमें भी अधिक सुख  मिलता है। इस प्रसन्नता का सामान्य सुख से ज्यादा मोल है। यह भी कह सकते हैं कि इस प्रसन्नता का सुख अनमोल है।  उसी तरह प्रातःकाल किसी उद्यान में आया व्यक्ति भी निर्मल भाव से जुड़ जाता है। वहां घूमते हुए लोग एक दूसरे को अत्यंत निर्मल भाव से देखते हैं। यह अलग बात है कि इसकी उनको स्वतः अनुभूति नहीं होती। उनमें अनेक लोग तो केवल इसलिये एक दूसरे को जानने लगते हैं क्योंकि दोनों ही वहां प्रतिदिन मिलते हैं। इस प्रकार की आत्मीयता मिलना एक संयोग है जो कि व्यसन के दुर्योग से मिली संगति से कहीं बेहतर है।
                        हमने देखा है कि योग शिविरों में जाने पर अनेक ऐसे लोगों से मिलने और उनको सुनने का सौभाग्य मिलता है जिनकी कल्पना सामान्य जीवन में नहीं की थी।  इसी अनुभव के आधार पर हम यह लेख लिख रहे है। हमारे कहने का अभिप्राय यही है कि अगर आप यह चाहते हैं कि आप एक बेहतर जीवन जियें तो पहले अपनी देह तथा मन  के लिये अनुकूल  वातावरण, मित्र तथा आत्मीय लोगों का चयन करें।  वातावरण, रहन सहन, आचार विचार, तथा खान पान के साथ ही संगति के अनूकूल बनने के बाद जीवन को सुखमय बनाने का कोई दूसरा उपाय करना शेष नहीं रह जाता।
दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 


Saturday, October 19, 2013

संतगिरी के काम पुलिसगिरी से नहीं हो सकते-हिन्दी चिंत्तन लेख (sant giri ke kaam pulice giri ka nahin ho sakte-hindi chinttan lekh,hindu thought article)



                                    गुरुनानक देव जी के बारे में एक कथा सुनायी जाती है।  एक बार वह भ्रमण करते हुए गंगा नदी के तट पर गये।  वहां उन्होंने देखा कि कुछ लोग नदी में नहाने के समय अपने हाथों से जल भरकर पितरों को अर्पित कर रहे हैं।  उन्होंने एक व्यक्ति से पूछा-‘‘यह क्या कर रहे हो?’’
                        उसने जवाब दिया कि-‘‘हम पूर्व की तरफ मुंख कर पितरों को अपनी पवित्र नदी गंगा में नहाने के बाद जलांजलि दे रहे है।’’
                        गुरुनानक देव जी फौरन नदी में उतर गये और अपने हाथों जल भरकर पश्चिम की तरफ मुख कर उसे  अर्पित करने लगे।
                        यह देखकर आसपास खड़े लोग आश्चर्य चकित रह गये। उन्हें लगा कि यह भोला इंसान शायद कोई गलती कर रहा है। वहां उपस्थित एक आदमी ने उनसे कहा-‘‘यह क्या रहे हो? पश्चिम की तरफ मुख कर नहीं वरन् पूर्व की तरफ जलांजलि दी जाये तभी पितरों को लाभ होता है।
                        गुरुनानक जी तत्काल जवाब दिया-‘‘मैं पितरों को नहीं वरन् अपने खेतों के पास जल भेज रहा हूं।  मेरे खेत इस नदी के पश्चिम दिशा में स्थित है।’’
                        लोग हंसने लगे। एक ने कहा-‘‘अरे, यहां जल देने से खेतों में नहीं पहुंचेगा।’’
 गुरुनानक जी ने कहा-‘‘हंसने की बात नहीं है। जब तुम्हारे इतनी दूर आकाश में स्थित पितरों को यहां दिया गया जल पहुंच सकता है तो मेरे खेत तो जमीन पर ही स्थित है। क्यों नहीं पहुंचेगा?’’
                        यह कथा हिन्दू समाज में व्याप्त अंधविश्वासों के विरुद्ध श्रीगुरुनानक जी के अभियान को  दृढ़ संकल्पित ढंग से संचालन करने की की शक्ति को प्रमाणित करती है।  इसका तात्पर्य यह है कि  अंग्रेजों के आने से पूर्व भी हमारे देश में समाज सुधार का अभियान प्रचलित था। गुरुनानक जी एक महापुरुष थे जिनको नये अध्यात्मिक युग का प्रवर्तक माना जा सकता है।  इसके अलावा भी संत कबीर, रहीम तथा रविदास जी ने भी अंधविश्वासों के विरुद्ध अपना अभियान अत्यंत प्रभावशाली ढंग से चलाया। रविदास का यह कथन ‘‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’’ समग्र भारतीय दर्शन के पूर्ण सार को  एक पंक्ति में  ही व्यक्त कर देता है।
                        इन महान संतों ने अंधविश्वास के विरुद्ध अभियान नकारात्मक ढंग से नहीं चलाया बल्कि सकारात्मक रुख अपनाते हुए ईश्वर के प्रति विश्वास पैदा किया।  यह मत करोकभी नहीं कहा वरन् यह करोका संदेश दिया।  अंधविश्वासों के प्रति लोगों का मोह भंग करने के लिये लोगों में उसके प्रति अरुचि पैदा करने की बजाय विश्वास के प्रति चेतना लाना ही समाज सुधार का श्रेष्ठ रूप है।
                        हम आजकल अपने देश में ऐसे लोगों को सक्रिय देख रहे हैं जो कथित रूप से समाज सुधारक बनकर यह प्रयास कर रहे हैं कि कानून बनाकर अंधविश्वासों को रोका जाये।  तय बात है कि यह लोग कुछ अंग्रेज तथा वामपंथ समाज से प्रभावित हैं। यह लोग अपने आपको प्रगतिशील बताकर यह दावा करते हैं कि समाज में व्याप्त कुरीतियां ही इस समाज का सबसे बड़ा संकट है।  हम ऐसे लोगों से सहमत नहीं है।  दरअसल यह लोग स्वयं तो सुविधाभोगी है और उन्हें तमाम तरह के सम्मान भी मिले हुए हैं पर  उन्हें समाज में कथित रूप से जनविद्वान होने की श्रेणी की सदस्यता नहीं मिल पाती। इसलिये वह चिढ़ते हैं।  वह चाहते हैं कि लोगों की भीड़ कथित साधुओं, संतों, तांत्रिकों और मांत्रिकों के पास न आकर उनके कल्पित सिद्धि को प्रणाम करे ताकि उनके अहंकार की भूख मिट सके।
                        एक योग और ज्ञान साधक के रूप में हमारे अभ्यास का अनुभव तो यही कहता है कि इस संसार में अंधविश्वास और विश्वास के बीच कोई संघर्ष नहीं है। भक्त चार प्रकार के-आर्त, अर्थार्थी, जिज्ञासु और ज्ञानी-होते हैं।  ज्ञानी अपने विश्वास की प्रमाणिकता प्राप्त कर चुके होते हैं इसलिये वह कभी कथित कर्मकांडों का निर्वाह कर फल की आशा नहीं करते जबकि बाकी तीनों के अपने अपने लक्ष्य होते हैं।  इन चारों में कोई में भी किसी को बुरा कहना नहीं है।  श्रीमद्भागवत गीता के कथन के आधार पर हमें चारों प्रकार के भक्तों की उपस्थिति स्वीकार करनी होगी।  यह अलग बात है कि प्रथम तीन एक दूसरे के विचार पर प्रहार करते हैं और ज्ञानी कभी ऐसा नहीं करते। 
                        दूसरे को अंधविश्वासी कहकर स्वयं को ज्ञानी साबित करना सहज हो सकता है पर अपने ज्ञान से दूसरे में विश्वास कायम करना एक कठिन प्रक्रिया है और आजकल के कथित सुधारक ऐसे परिश्रम से बचने के लिये नारे लगाते हैं। वह राज्य से अंधविश्वास रोकने की आशा करते हैं जबकि हमारा मानना है कि सच्चे संतों का यह काम है।  राज्य से प्रजा हित के लिये बेहतर प्रयास करते रहने की अपेक्षा करना ठीक है पर उनसे संत जैसे समाज सुधार की आशा नहीं की जा सकती। संतगिरी से किये जाने वाले काम पुलिसगिरी से नहीं हो सकते। जो लोग कानून के सहारे अंधविश्वासों को खत्म करना चाहते हैं उनको पता होना चाहिये कि इस देश में आर्थिक, सामाजिक, पारिवारिक तथा व्यक्तिगत रूप से लोग परेशान रहने पर कहीं न कहीं जाकर अपना तनाव खत्म करने का मार्ग ढूंढते है। तंत्र मंत्र से उनकी समस्यायें दूर नहीं होती यह सत्य है पर उनके कुछ समय तक तनाव समाप्त होकर आशावादी बने रहने का जो उनपर सकारात्मक प्रभाव होता है वह कोई बुरा नहीं है। कम से कम उनकी समस्यायें हम खत्म नहीं कर सकते तो उनके तनाव का मार्ग रोकने का प्रयास भी नहीं करना चाहिये।



दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 


Sunday, October 13, 2013

रामनवमी और दशहरे का दिन आनंदमय हो-हिन्दी लेख(ramnawami aur dashahare ka din anandmay ho-hindi article or lekh or editorial)



                        आज पूरे देश में रामनवमी मनायी जा रही है।  इस बार की रामनवमी पर मौसम का मिजाज कुछ अजीब प्रकार का है।  आमतौर पिछले अनेक वर्षों तक इन दिनों गुलाबी ठंड पड़ती रहती और ऐसा लगता  जैसे कि सर्दी दस्तक देने वाली है। अब विश्व में बढ़ती गर्मी ने इसे बदल दिया है।  स्थिति यह रही है कि पिछले अनेक वर्षों से धूप में गर्मी रहती रही तो फिर बरसात भी जमकर हुई।  पहले त्यौहार मौसम का आभास देते थे पर अब वह बात नहीं रही।  कल रात हमारे शहर में जमकर वर्षा हुई।  आज धूप निकली तो फिर उमस भरा माहौल बन गया है। कल रात जब बरसात हो रही थी तो हम किसी मंदिर में थे और लग नहीं रहा था कि सहजता से घर पहुंच पायेंगे।  बरसात थोड़ी कम हुई तो गाड़ी में चल पड़े पर फिर पानी की बूंदें तेज हो गयीं।  बरसात में भीगने से डर नहीं लगता पर इस मौसम में यह खतरा उठाना ठीक नहीं है यह भी सच है।  सुबह जब देखा तो पाया कि आसमान साफ है।  सूर्य नारायण अपने निर्धारित समय पर अपना शांत गोलाकार  चेहरा लेकर प्रकट हुए। कहीं किसी बादल से उनको चुनौती नहीं  मिली। ऐसा लग रहा था कि कुछ देर बात वह अपना रौद्र रूप दिखायेंगे।
                        इस बार का मौसम हमारे क्षेत्र में अजीब रहा है। पिछली बार  जून माह में ही जमकर बरसात तो बाद में पता लगा कि केदारनाथ में इसी बरसात ने कहर बरपा दिया।  बाद में बरसात ऐसी बंद हुई कि लगने लगा कि शायद इस बार बरसात नहीं होगी। फिर बरसात हुई तो बादलों ने समुद्र से उठाया पानी जमकर जमीन पर छिड़का।  फिर लापता हो गये। जुलाई अगस्त का का मौसम विचित्र रहा।  बरसात होती तो ऐसा लगता है कि थमेगी नहीं और थमती तो धूप सीधी  आक्रामक रूप दिखाती।  जुलाई और अगस्त के महीने बरसात के साथ गुजारे कि गर्मी के साथ कहना मुश्किल लगता है।  हम कहें कि हमारे यहां आजकल गर्मी पड़ रही है तो फिर बरसात भी हो रही है।  कोई एक मौसम नहीं जम पा रहा। वर्षा ने कीर्तिमान बनाये हैं पर गर्मी से निजात नहीं दिला पायी।  इस बरसात को देखकर हमें क्रिकेट के भगवान के सन्यास की याद आती है। इस भगवान ने अपने श्रेष्ठ दिनों में बल्लेबाजी में जमकर कीर्तिमान बनाये पर उस दौर में बीसीसीआई की टीम ने ही उस दौरान अपनी नाकामी सबसे अधिक देखी। क्रिकेट का भगवान खेलता तो भी टीम हारी और नहीं खेले तो जीतने का सवाल ही नहीं उठता।  बरसात के दौरान बूंदें पत्थर की तरह बरसीं। रिमझिम बरसात का आनंद उठाने का अवसर कम ही मिला।
                        इस बार रामनवमी की पूर्व संध्या पर जब हमारे ग्वालियर में बरसात हो रही थी तो उधर उड़ीसा के गोपाल गंज में चक्रवात दस्तक दे रहा था।  पहले बताया कि यह चक्रवात अत्यंत हानिकारक सिद्ध होगा।  इस बार सरकार की तैयारियों से जानों की हानि नगण्य रही जो कि अच्छी बात है।  कम से कम रामनवमी पर किसी आपदा ने देश के  जनमानस को किसी संकट का अहसास नहीं करने  दिया वह एक सुखदायक बात लगती है। इस प्रकोप से जो  धन और वन संपदा नष्ट हुई है उसे  पुनः स्थापित करने का प्रयास किया जायेगा ऐसी आशा है।
                        आंध्रप्रदेश का एक क्षेत्र श्रीकाकुलम में भी इस चक्रवात ने अपना रौद्र रूप दिखाया था। वहां जमकर रात भर बरसात हुई। आज सुबह वहां भी धूप निकली।  मतलब ठीक हमारे ग्वालियर जैसा मौसम वहां भी दिखाई दिया। उस समय हमेें इस चक्रवात पर लिखने का विचार चल ही रहा था। कल ग्वालियर में भी तेज हवा के साथ ही बौछारें आयी थीं। हमारे साथ बरसात में बचने के लिये एक छत के नीचे खड़े अनेक लोग उसे उसी तूफान का प्रकाप बता रहे थे।  हालांकि यह थोड़ा अविश्वसनीय लगा क्योंकि हमारी तब तक की जानकारी यह थी कि उस समय तक उस चक्रवात ने धरती पार नहीं की थी।  ऐसे में ग्वालियर के वातावरण को उस तूफान से जोड़ना थोड़ा अजीब लगा।
                        अब भारत में धार्मिक विद्वानों ने भी कम संकट कम खड़ा नहीं किया है।  हर पर्व के दो दिन बना दिये हैं।  नतीजा यह है कि कोई भी पर्व ढंग से एकसाथ नहीं मनाया जा पाता।  रामनवमी दो तो दशहरे भी दो।  पर्वो में समाज में दिखने वाली  एकरूपता पोथापंथियों ने ही खत्म कर दी है।  सच बात तो यह है कि ज्ञानसाधक भक्तों के लिये निराकार भक्ति श्रेष्ठ होती है पर जो सकाम तथा साकार भक्ति करते हैं उनके लिये संकट खड़ा हो जाता है। हमने बरसों से देखा है कि जिस दिन रामनवमी है उसी दिन मनाई जाती  है। जिस जिन जन्माष्टमी है उसी दिन मंदिरों में भीड़ रहती है।  अब पिछले कई बरसों से कथित पोथीपंथियों ने समाज की एकरूपता का कचड़ा कर दिया है। इसका कारण यह लगता है कि आजकल टीवी चैनल पर कुछ अधिक ज्योतिषी दिखने लगे हैं। जो अपनी पोथियों से मुहूर्त वगैरह का समय बताते हैं  पूरे देश के मंदिरों के सेवक उनके कार्यक्रम देखकर अपनी पूजा का समय  तय करते हैं। यह मुहूर्त पहले भी होते थे पर सरकारी और गैर सरकारी कैलेंडर ही पर्वों का दिन तय कर देते थे। उस समय कभी समाज में भिन्नता नहीं दिखी।  तब  पोथीपंथियों के फतवों पर किसी का ध्यान इस तरफ नहीं जाता था।  निष्काम और निराकार ज्ञान साधकों के लिये आज भी सरकारी कैलैंडर वाला  दिन ही मान्य किया जाताहै है पर जब उनकों पर्वों के अवसर  साकार भक्तों से संगत करनी होती है तब भारी कठिनाई का सामना करना पड़ता है।
                        हमारे लिये रामनवमी कल थी और दशहरा आज है।  हमें पोथीपंथियों से कोई मतलब नहीं है। धर्म को लेकर हमारे मन में कोई संशय नहीं है। हमारा मानना है कि धर्म का आशय है अपने तय किये मार्ग पर चलना न कि पोथीपंथियों को अपना गुरु बनाकर उनके शब्दों का अनुकरण करना। बहरहाल इस रामनवमी और दशहरे की सभी पाठकों तथा ब्लॉग लेखकों को बधाई। जय श्रीराम।

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 


Sunday, October 6, 2013

शिवालय और शौचालयों पर चलती बहस के बीच-हिन्दी लेख(shivalay aur shauchalayon par chalti bahas ke beech-hindi lekh or article



                        इस समय प्रचार माध्यमों में शिवालय और शौचालयों पर बहस चल रही है।  कभी किसी ने पहले कहा कि मंदिरों से ज्यादा महत्वपूर्ण शौचालय हैं तो अब किसी ने शिवालयों से अधिक  शौचालयों को अनिवार्य बता दिया।  हम यहां उन विभूतियों का नाम नहीं ले रहे भी-भले भी उन्होंने यह  सदाशयतावश ही यह बयान दिये-क्योंकि हमारा मुख्य लक्ष्य इस विषय पर अपनी बात कहना है।  प्रचार माध्यमों ने तो इन बयानों को महत्व इसलिये दिया क्योंकि यह प्रसिद्ध लोगों ने दिये पर ऐसे बयान अक्सर आपसी बातचीत में भी आते रहते हैं।  दरअसल एक योग साधक के लिये शौचालय तथा शिवालय का प्रथक प्रथम महत्व है। दोनों के महत्व में कोई साम्यता नहीं है। अगर भारतीय अध्यात्म दृष्टि से आधुनिक संदर्भ में इस विषय को देखों तो यह विवाद ही अनावश्यक नज़र आता है।
                        जिस तरह संसार के दो रूप हैं एक भौतिक तथा दूसरा अध्यात्मिक उसी तरह देहधारी जीवों के भी हैं।  भौतिक  रूप तो वह है जिसमें भूत सक्रिय दिखता है पर देह को धारण करने वाला अध्यात्म यानि आत्मा अप्रकट है। हम संसार में जितने भी प्राणी देख रहे हैं वह भौतिक तथा अध्यात्म का संयुक्त समन्वय होते हैं। अंतर इतना है कि दो हाथ पैर वाले इंसान की बुद्धि अत्यंत रहस्यमय है इसलिये उसे लाभ भी हैं तो हानि भी दिखती है।  जो मनुष्य बुद्धि का बेहतर उपयोग करता है वह अपनी रचनात्मक प्रकृत्ति से समाज को कुछ देता है जबकि उसके गलत इस्तेमाल वाला आदमी इतना खतरनाक हो जाता है कि उसे कुत्ते और सांप से खतरनाक कहा जा सकता है। मनुष्य के अलावा अन्य जीवधारियों में कुछ खतरनाक है पर उनकी सीमायें हैं।  कुत्ता भौंकता है पर हमेशा काटने नहीं आता। सांप भी जब पांव पास हो तभी काटता है। यह दोनों जीव लक्ष्य कर किसी पर हमला नहीं करते। अगर कुत्ते और सांप को मालुम हो कि वह कितना खतरनाक हैं तो वह समाज में कोहराम मचा दें मगर प्रकृति ने उनकी बृद्धि को सीमित रखा है।  मनुष्य की स्थिति इससे अलग है।  अगर उसे लगे कि वह दूसरे की हानि कर सकता है तो वह चाहे जहां जिस पर हमला कर सकता है। अपनी गली और घर से दूर जाकर भी हमला करता है।  यही कारण है कि मनुष्य की बुद्धि पर नियंत्रण करने के लिये हमारे ऋषि मुनियों से अध्यात्म ज्ञान का सृजन किया है।
                        हमारे देश में घर के अंदर ही  शौचालय बनाने की परंपरा पुरानी नहीं है।  यहां प्रकृत्ति की कृपा से सर्वत्र कृषि भूमि रही दूसरी बात यह कि उसमें मनुष्य और पशुओं के शरीर से निकलने वाली गंदगी को ठिकाने लगाने की भी शक्ति रही है।  अधिकतर लोग खेती तथा पशुपालन पर निर्भर रहे इसलिये शौचालयों के लिये अलग से बनाने की परंपरा नहीं बनी।  खेतों में ही शौच करने की परंपरा बन गयी।  अलबत्ता बुद्धि और मन की निर्मलता के लिये जगह जगह शिवालय बने।  देश के अंदर ऐसा कोई गांव नहीं होगा जहां शिवालय न बना हो।
                        अब आते हैं असली बात पर!  आधुनिक सभ्य समाज ने शहर बनाये जिसमें घर में ही शौचालयों की अनिवार्यता अनुभव की जाती है। जब तक शहर और उसके बाज़ार सीमित रहे घर पर शौचालयों की अनिवार्यता की सीमा चली उनका विस्तार हुआ तो अब सार्वजनिक जगहों पर भी शौचालयों की आवश्यकता अनुभव होती है।  ऐसा नहीं है कि सरकार या समाज का इस पर ध्यान नहीं गया।  हमने देखा  कि अनेक शहरों में अनेक पेशाबघर और शौचालय बने।  इतना ही नहीं जब तक महिलायें घरों तक सीमित थी उनके लिये सार्वजनिक स्थानों पर  अलग से व्यवस्था नहीं थी पर अब अनुभव की जाने लगी हैं।  हमने तो यह अनुभव किया है कि महिलाओं के लिये बाज़ारों तथा सार्वजनिक स्थानों पर एक अभियान के साथ शौचालयों का निर्माण किया जाना चाहिये था।  पहले बाज़ार में महिलायें कम घूमती दिखती थीं पर अब तो संख्या बढ़ गयी है। हमें एक बात पता है जब देह में कोई उदिग्नता उत्पन्न होती है तब उसका विसर्जन जब तक न किया जाये मस्तिष्क भारी विचलित रहता है पर बाहर कोई दूसरा मनुष्य  उसे कोई पढ़ नहीं पाता। दूसरी बात यह कि अपने अंदर आये उस तनाव को बाहर जल्दी निकाल देना चाहिये यह सभी स्वास्थ्य विशेषज्ञ मानते हैं। तन का तनाव शौचालय और मन का शिवालय से दूर होता है-एक योग साधक के रूप में हमारा यह अनुभव है, दूसरे लोग इसे न माने यह उनकी मर्जी है।
                        दोनों की तुलना की भी जा सकती है और नहीं भी।  जिन लोगों के पास योग साधना का साहित्य है वह उसमें पढ़ सकते हैं कि मनुष्य के जीवन में शौच को लेकर भी सावधानी बरतने को कहा गया है।  यहां यह भी बता दें कि शौच का आशय हमेशा ही पूर्ण रूप से बाह्य या भौतिक शुद्धि से है।  यह  आशय भी न केवल शरीर की सफाई से है वरन जहां हम रहते हैं वहां  भी स्चच्छता का वातावरण बनाये रखना इसमें शामिल है। स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन निवास करता है और स्वच्छ स्थान पर हमारी बुद्धि भी सुखद अनुभव करती है।  स्वस्थ देह और स्वच्छ स्थान पर अध्यात्मिक साधना करने पर ही सहजता  अनुभव की जा सकती है। हालांकि एक बात तय है कि शौचालय तो सभी मनुष्य जाते हैं पर देवालय सभी जायें यह आवश्यक नहीं है।  यह तो हर किसी के अपने विवेक पर निर्भर है कि वह मन और बुद्धि के विकार किस तरह विसर्जित करता है।
                        एक सामान्य योग साधक कभी राज्य से यह अपेक्षा नहीं करता कि वह शिवालय बनाये पर अभ्यास के कारण क्षेत्र का ज्ञान होने के से वह जरूर चाहेगा कि राज्य व्यवस्था शहरों में नहीं वरन् गांवों में शौचालयों की सार्वजनिक जगहों पर स्थापना करे।  शिवालय तो भक्त बना ही लेते हैं। इतना ही नहीं भक्ति भाव वाले ऐसे अनेक जागरुक भक्त अपने देवस्थानों के परिसर में शौचालय भी बनवाते हैं ताकि किसी भक्त की देह में विकार उत्पन्न हो तो वह उसका विसर्जन करे। अलबत्ता मुद्दा अगर सार्वजनिक स्थानों पर शौचालय बनवाने का है तो यहा काम राज्य ही कर सकता है।  अगर कोई दूसरा करेगा तो अतिक्रमण होने पर उसे ढहाया जा सकता है। यह अलग बात है कि अगर किसी भी धर्म का देवस्थान अगर बना हो तो उसे सहजता से कोई हटा भी नहीं सकता।  एक सामान्य योग साधक शिवालय और शौचालयों के बीच चल रहे विवाद में अधिक समय तक रुद्धि नहीं ले सकता क्योंकि प्रचार माध्यमों पर प्रायोजित किसी भी विषय पर  बहस के परिणाम कभी दृष्टिगोचर नहीं होते।  बहरहाल सार्वजनिक स्थानों पर शौचालयों की अधिक से अधिक सुविधा हो यह मांग करते हुए यह हमारा अपने ब्लॉगों  पर छठा पाठ है। ईमानदारी की  बात यह  है कि हम अपनी भोगी पीड़ा का बयान कर रहे हैं पर सच यह है कि यह करोड़ों लोग इसे प्रतिदिन झेलते हैं।  एक अध्यात्मिक साधक होने के नाते हमारा मानना है कि तन की शुद्धता के बिना मन शुद्ध और स्वस्थ नहीं रह सकता। शिवालय तो समाज स्वयं ही बना लेता है पर सार्वजनिक स्थानों पर शौचालयों के लिये राज्य से अपेक्षा की जा सकती है।

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 


Sunday, September 29, 2013

विदुर नीति-दूसरे के आक्रोशित वचन पर क्षमा की नीति अपनायें(vidur neeti-doosre ke akroshit vacha par kshama ki neeti apnayen)



            शक्ति की पहचान किसी पर आक्रमण करने से नहीं वरन् सहनशीलता दिखाने पर होती है। हमारे देश में थोड़ी थोड़ी बात पर विवाद होने पर भारी हिंसा हो जाती है। इतना ही नहीं भाषा, जाति, धर्म, तथा क्षेत्र के नाम पर बने समूहों में अनेक बार आपसी संघर्ष हो जाते हैं।  इन समूहों के शिखर पुरुषों आपस में उठते बैठते हैं पर अवसर आने पर इस तरह लड़ते हैं जैसे कि उनका पूरा जीवन ही अपने समूहों के कल्याण के लिये अर्पित हो।  दरअसल यह उनका पाखंड होता है। इस तरह वह विभिन्न समूहों को आपस में लड़ाकर आम जन की स्थिति कमजोर करते हैं।  इससे वह डर जाता है और अपने ही शिखर पुरुषों के प्रति वफादार बना रहता है।  ऐसे शिखर पुरुष हमेशा ही फूट डालो और राज्य करोकूटनीति का सहारा लेते हैंे।  वह जानते हैं कि लोगों में अपनी जाति, भाषा, धर्म और क्षेत्र को लेकर एक विशेष प्रकार का पूर्वाग्रह रहता है और वह अपने समूहों के सम्मान का मिथ्या अहंकार पालते हैं।  समूहों के अंतर्गत भले ही सदस्यों के आपसी विवाद होते हैं पर किसी अन्य समूह के सदस्य से विवाद हो जाये तो वह सामूहिक संघर्ष में बदलने का प्रयास इन्हीं शिखर पुरुषों के माध्यम से किया जाता है।  यही कारण है कि प्राचीन समय से भारत एक विभाजित राष्ट्र रहा।  राजाओं के मध्य छोटी छोटी बातों पर संघर्ष होते रहते थे जिसके कारण धीरे धीरे विदेशी आक्रांता यहां स्थापित होते गये।
            हमारे देश में अहिंसा के सिद्धांत का प्रचार अनेक महापुरुषों ने किया है। इसका कारण यह है कि प्राचीन काल में इस तरह के हिंसक सामूहिक संघर्ष होते रहे हैं।  खासतौर से जब भाषा, संस्कृति और धर्म एक हों पर क्षेत्रों के राजा प्रथक हों तब लोगों के बीच इस तरह के विवाद होते ही रहे होंगे। राजसी प्रवृत्ति अहंकार के भाव को जन्म देती है और वही हिंसा के परिणाम की सृजक है।  अहंकार वश आदमी अपने ही समूह में दूसरे लोगों  को अपने आगे कुछ नहीं समझता और सामूहिक विषय हो तो एक समूह दूसरे को अपने से हेय प्रमाणित करने के लिये पूरी शक्ति लगा देता  है।  कहने का अभिप्राय यह है कि व्यक्तिगत और सामूहिक रूप से  एक दूसरे को अपमानित करने का प्रयास का अवसर मिलने पर उसका उपयोग करने से   कोई नहीं चूकता। यही कारण है कि हमारे देश की छवि ऐसे संघर्षों के कारण विश्व में कभी अच्छी नहीं  रही।
विदुरनीति में कहा गया है कि
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आक्रुश्यमानो नाक्रोशेन्मन्युरेव तितिक्षतः।
आक्रोष्टारं निर्दहति सुकुतं चास्य विन्दवि।।
          हिन्दी में भावार्थ-कोई मनुष्य दूसरे के आक्रोशित वचन बोलने पर भी  उसे क्षमा कर दे तो  रुका हुआ प्रतिआक्रोश उस दूसरे व्यक्ति को जला डालता है। उसके सारे पुण्य नष्ट हो जाते हैं।
नाक्रोशी स्यान्नवमानी परस्य मित्रद्रोही नोत नीचोपसेवी।
न चाभिमानी न च हीनवृत्तो रूक्षां वांच रुषर्ती वर्जयीत।।
          हिन्दी में भावार्थ-दूसरे के प्रति न आक्रोशित वचन कहें न किसी का अपमान करें। न मित्रों से द्रोह करें तथा नीच पुरुषों की कतई सेवा न करें। सदाचार से हीन एंव अभिमान न हो। रुखी तथा रोष भरी वाणी का परित्याग करें।
            हमारे देश में आज भी हालत कोई बेहतर नहीं है।  राजशाही की बजाय लोकतंत्र की व्यवस्था स्थापित हो गयी पर इसके बावजूद सामूहिक संघर्ष होते रहते हैं।  इसका कारण यही है कि लोग मौका मिलने पर  अपना आक्रोश तो व्यक्त करते हैं पर दूसरे का समझ नहीं पाते।  एक आक्रोशित वचन कहता है तो दूसरा उससे भी ज्यादा आक्रामक होकर बोलता है।  इस प्रवृत्ति का त्याग कर देना चाहिये।  जब कोई एक आदमी के साथ दूसरा बदतमीजी करता है और वह खामोश रहता है तो बदतमीज आदमी को ही उसका पाप पीछे लगकर दंड देता है।  हालांकि दूसरे का अपमान झेलने में सहनशीलता की शक्ति होना आवश्यक है। यह शक्ति बाहर प्रत्यक्ष प्रहार नहीं करती वरन् अप्रत्यक्ष रूप से इसका प्रभाव दिखाई देता है।
            इस क्षमा प्रवृत्ति के साथ ही  यह भी निश्चय करना चाहिये कि कभी किसी का अपमान नहीं करेंगे। न ही मित्रों के साथ विश्वासघात करेंगे और न ही नीच पुरुषों के सेवा करेंगे तो जो अंततः समाज के लिये घातक होते हैं।  इस तरह हम समाज के सुधरने की बजाय स्वयं ही सुधर जायें यही हमारे लिये अच्छा है।

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
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संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 


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