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Wednesday, July 31, 2013

संत कबीरदास दर्शन-अध्यात्म की साधना में वीरता होना आवश्यक (sant kabirdas darshan-adhyatma sadhana mein veerta hona avashyak)



      हमारे देश में आजकल योग साधना विधा का अत्यंत प्रचार हो रहा है।  अनेक योग साधक प्रचारक अत्यंत परिश्रम से इसका प्रचार कर रहे हैं। उनकी जितनी प्रशंसा की जाये अत्यंत कम है।  उनके निष्काम प्रयासों के परिणाम यह तो हुआ है कि सामान्य लोग योग साधना का महत्व समझ गये हैं, जिससे योग साधकों की संख्या बढ़ी भी है फिर जनसंख्या की दृष्टि से उसे पर्याप्त नहीं माना जा सकता।  सच तो यह है कि देश में मनोरंजन के आधुनिक साधनों ने सामान्य मनुष्य की बुद्धि का हरण कर लिया है और लोग देर रात तक जागते हैं और सुबह प्रातःकाल भी निद्रा उनको घेर रहती है। कहा जाता है कि प्रातः सुबह साढ़े तीन बजे से साढ़े चार बजे तक प्रथ्वी पर  आक्सीजन सर्वाधिक मात्रा में होती है। इस अवधि का लाभ उठाने वाले हमारे देश में बहुत कम हैं।  हालांकि कुछ वीर ऐसे भी हैं जिन्होंने जीवन भर इसी समय का जमकर लाभ उठाया हैं। इस लेखक ने अनेक ऐसे लोग देखे हैं जो सुबह चार बजे उठकर बिना किसी अवरोध के भ्रमण करते हैं और वह किसी अन्य मनुष्य से अधिक स्वस्थ लगते हैं। 
       योग साधना के प्रचार के बाद अब साधकों की संख्या भी बढ़ी है फिर भी अधिकतर लोग इसे अपनाना नहीं चाहते।  दरअसल प्रातः जल्दी उठकर भ्रमण या योग साधना करने के लिये त्याग का भाव होना आवश्यक है। जो इस संबंध में नियम बनाते हैं वह सांसरिक विषयों से उस अवधि में अलग हो जाते हैं।  हमें घूमना ही  है या योग साधना करना ही है, यह भाव जिनके मन में आता है वह कहीं न कहीं सांसरिक विषय का त्याग कर अध्यातम के प्रति झुक जाते हैं। अध्यात्म का यह अर्थ कदापि नहीं है कि सुबह उठकर भगवान की सकाम भक्ति की जाये अथवा किसी मूर्ति के पास जाकर सिर झुकाया जाये। यह मनुष्य देह परमात्मा ने दी है इसे स्वस्थ रखना भी एक तरह से उसकी पूजा करना ही है।  इसके लिये अध्यात्म चेतना आवश्यक है जो कि सांसरिक विषयों से हृदय का भाव त्यागने पर ही उत्पन्न होती है।  मनुष्य सांसरिक विषयों से कुछ देर भी प्रथक नहीं रहना चाहता है।  
संत कबीरदास जी कहते हैं कि
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मारग कठिन कबीर का, धरि न सकै पग कोय।
आय चले कोई सूरमा, जा धड़ सीस न होव।।
         सामान्य हिन्दी में भावार्थ-अध्यात्म का मार्ग अत्यंत कठिन है, इस पर हर कोई कदम नहीं रख सकता।
कायर का काचा मता, घड़ी पलक मन और।
आगा पीछा ह्वै रहै, जागि मिसै नहिं ठौर।।
         सामान्य हिन्दी में भावार्थ-अध्यात्म साधना के क्षेत्र में अपरिपक्व तथा कायर का मन इधर से उधर भटकता भी है। साधना के क्षेत्र में पहले आग में जलना पड़ता है फिर राम शब्द का उच्चारण करना होता है।
       अस्वस्थ देह में विकारपूर्ण मन लोगों को भटका रहा है। अपने शहर में प्रातःकाल उठकर सैर सपाटे पर जाना, योग साधना करना  या मंदिर में जाने वाले लोगों के मन में एक शांति रहती है। इसके विपरीत जो अपने शहर में ही नहीं घूमते वही धर्म के नाम पर पर्यटन के नाम कथित भक्ति का पाखंड करते हुए इधर से उधर भागते हैं।  देश के बड़े शहरों में अनेक प्रसिद्ध बड़े मंदिर हैं जहां लोग जाते है।  देखा जाये तो हर शहर में कोई न कोई सिद्ध मंदिर होता है पर जो अपने घर के पास के मंदिर में ही जाने का कष्ट नहीं करते वही बड़े सिद्ध मंदिरों पर दर्शन करने के बहाने पर्यटन करने के लिये लालायित होते हैं।  यही मन मन का भटकाव है जो अध्यात्म ज्ञान के अभाव में पैदा होता है। सासंरिक विषयों में सतत लगा मन ऊबने लगता है और अपरिपक्त तथा कच्चे विचारों वाले लोग उसके जाल में फंसे रहते हैं।  इसके विपरीत जो प्रातःकाल वीरता पूर्वका\ भ्रमण, योग साधना या मंदिर में जाते हैं उनका चित्त हमेशा प्रसन्न रहता है ।

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 


Saturday, July 27, 2013

मनृस्मृति के आधार पर चिंत्तन-जहां लक्ष्य एक ही हो वहां अपना त्याग करे (hindu dharma thought on manu smriti-mitra ke liye lakshya ka tyag karen)



        हमारे समाज में निंरतर व्यक्ति तथा परिवारों के स्तर पर आसपस तनाव बढ़ता जा रहा है।  सच बात तो यह है कि हम राष्ट्र की एकता, अखंडता तथा स्थिरता की चिंता कर रहे हैं पर व्यक्ति तथा परिवारों की स्थिरता के बिना यह संभव नहीं है कि हम उत्थान के मार्ग पर चल सकें।  आर्थिक विकास आवश्यक है पर मनुष्य का अध्यात्मिक पतन होने पर उसका महत्व नहंी रहता।  हम चाहें कितने भी दावे करें पर पश्चिम की वैचारिक धारायें वहीं के देशों के अनुकूल नहीं रही क्योंकि उनका आधार राष्ट्र, प्रदेश, नगर, समाज, परिवार तथा व्यक्ति के क्रम में विकास का महत्व प्रतिपादित करती हैं जबकि मनुष्य का स्वभाव ठीक इस क्रम के विपरीत होता है।  सबसे पहले वह अपनी चिंता करता है फिर परिवार की। बाद में दूसरे क्रमों पर उसका ध्यान जाता  है।  अब हमारे यहां हो यह रहा है कि हम सोचते पश्चिम के आधार पर चलते अपने मूल रूप के साथ ही हैं।  सांसरिक विषयों का ज्ञान तो बहुत हो गया है पर अध्यात्मिक ज्ञान का अभाव है।  यही कारण है कि देश में लोगों के अंदर मानसिक तनाव बढ़ रहा है।  फलस्वरूप छोटी छोटी बातों पर हिंसा का तांडव नृत्य देखने को मिलता है।
मनुमृति में कहा गया है कि
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भूतानुग्रहविच्छेदजाते तत्र वदेत्प्रियम्।
दवमेव तु दवोत्थे शमनं साधुसम्मतम्।।
           हिन्दी में भावार्थ-जो प्राणियों के अनुग्रह के विच्छेद से विग्रह हुआ हो उसे अपनी मधुर वाणी से प्रियवचन बोलकर तथा जो दैव कोप से विग्रह  उत्पन्न हुआ हो उसे दैव की प्रसन्नता से शांत करने का प्रयास करें।
कुर्यायर्थदपरित्यागमेकार्थाभिनिवेशजे।
धनापचारजाते तन्निराधं न समाचरेत्।।
           हिन्दी में भावार्थ-जहां एक ही उद्देश्य के निमित विग्रह उपस्थित हो वहां दोनों में एक को अपना त्याग करना चाहिये। जहां धन के अपचार से अशांति उत्पन्न हो वहां विरोध न करें तो शांति हो जाती है।
           कहा जाता है कि झगड़े और अपराध का कारण हमेशा ही जड़, जमीन और जोरु होती है।  सबसे अधिक झगड़ा जमीन और धन को लेकर होता है। इन विषयों पर विवाद भी कोई गैरों में नहीं बल्कि अपनो के साथ ही होता है।  तय बात है कि जब कोई व्यक्ति अपना है और अज्ञानवश लोभ की प्रवृत्ति के चलते कोई चीज हमसे पाना चाहता है और हम उसे मना करें दें तो वह लड़ने पर आमादा होगा।  ऐसे मेें अध्यात्मक ज्ञानी को चाहिये कि वह त्याग के भाव का अनुसरण करे।  उसी तरह मित्रवर्ग में भी कभी समान रूप से एक ही लक्ष्य बन जाता है तब वातावरण में शत्रुता का भाव उत्पन्न होता है।  ऐसे में ज्ञानसाधक को चाहिये कि वह अपने उद्देश्य का त्याग करे। 
    उसी तरह हमें एक बात समझना चाहिये कि वर्तमान समय में हर कोई धन के लिये कुछ भी करने के लिये तैयार है।  आदमी सज्जन भी हो पर उसके आर्थिक लक्ष्य की प्राप्ति में बाधा पैदा की जाये तो वह दुर्जनता का व्यवहार कर सकता है।  उसी तरह अगर व्यक्ति मूलतः दुंर्जन है तो वह अधिक क्रूरता भी दिखा सकता है। इसलिये जहां तक हो सके दूसरों के आर्थिक लक्ष्यों की प्राप्ति में बाधा पैदा करने का प्रयास नहीं करें तो ही ठीक रहेगा।  ज्ञान साधकों के लिये इस युग में सर्वाधिक सुखद स्थिति यह है कि वह किसी से डरे नहीं क्योंकि अकारण उनको कोई तंग नहीं कर सकता।  किसी के पास अपने लक्ष्यों के पीछा करने से समय ही नहीं मिलता।  अगर किसी प्रियजन या मित्र से बातचीत में वाद विवाद भी हो जाये तो उसे मधुर वाणी से शांत करें।  जहां तक गैरों का प्रश्न है जब किसी के कार्य में बाधा पैदा नहीं की जायेगी तब कोई भय भी उत्पन्न नहीं करेगा।  भयमुक्त रहना ही तनाव मुक्त रहने का सबसे सरल उपाय है।

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 


Friday, July 19, 2013

सांसरिक विषयों में डूबे गुरू शिष्य को भी डुबो देते हैं-गुरु पूर्णिमा पर विशेष नया हिन्दी लेख (lalchi guru shishsya ka bhee dubo deta hain-new special hindi lekh or article on guru purnima)



         22 जुलाई 2013 को गुरू पूर्णिमा का पर्व पूरे देश मनाया जाना स्वाभाविक है।  भारतीय अध्यात्म में गुरु का अत्ंयंत महत्व है। सच बात तो यह है कि आदमी कितने भी अध्यात्मिक ग्रंथ पढ़ ले जब तक उसे गुरु का सानिध्य या नाम के अभाव में  ज्ञान कभी नहीं मिलेगा वह कभी इस संसार का रहस्य समझ नहीं पायेगा। इसके लिये यह भी शर्त है कि गुरु को त्यागी और निष्कामी होना चाहिये।  दूसरी बात यह कि गुरु भले ही कोई आश्रम वगैरह न चलाता हो पर अगर उसके पास ज्ञान है तो वही अपने शिष्य की सहायता कर सकता है।  यह जरूरी नही है कि गुरु सन्यासी हो, अगर वह गृहस्थ भी हो तो उसमें अपने  त्याग का भाव होना चाहिये।  त्याग का अर्थ संसार का त्याग नहीं बल्कि अपने स्वाभाविक तथा नित्य कर्मों में लिप्त रहते हुए विषयों में आसक्ति रहित होने से है।
          हमारे यहां गुरु शिष्य परंपरा का लाभ पेशेवर धार्मिक प्रवचनकर्ताओं ने खूब लाभ उठाया है। यह पेशेवर लोग अपने इर्दगिर्द भीड़ एकत्रित कर उसे तालियां बजवाने के लिये सांसरिक विषयों की बात खूब करते हैं।  श्रीमद्भागवतगीता में वर्णित गुरु सेवा करने के संदेश वह इस तरह प्रयारित करते हैं जिससे उनके शिष्य उन पर दान दक्षिण अधिक से अधिक चढ़ायें।  इतना ही नहीं माता पिता तथा भाई बहिन या रिश्तों को निभाने की कला भी सिखाते हैं जो कि शुद्ध रूप से सांसरिक विषय है।  श्रीमद्भागवत गीता के अनुसार हर मनुष्य  अपना गृहस्थ कर्तव्य निभाते हुए अधिक आसानी से योग में पारंगत हो सकता है।  सन्यास अत्यंत कठिन विधा है क्योंकि मनुष्य का मन चंचल है इसलिये उसमें विषयों के विचार आते हैं।  अगर सन्यास ले भी लिया तो मन पर नियंत्रण इतना सहज नहीं है।  इसलिये सरलता इसी में है कि गृहस्थी में रत होने पर भी विषयों में आसक्ति न रखते हुए उनसे इतना ही जुड़ा रहना चाहिये जिससे अपनी देह का पोषण होता रहे। गृहस्थी में माता, पिता, भाई, बहिन तथा अन्य रिश्ते ही होते हैं जिन्हें तत्वज्ञान होने पर मनुष्य अधिक सहजता से निभाता है। हमारे कथित गुरु जब इस तरह के सांसरिक विषयों पर बोलते हैं तो महिलायें बहुत प्रसन्न होती हैं और पेशेवर गुरुओं को आजीविका उनके सद्भाव पर ही चलती है।  समाज के परिवारों के अंदर की कल्पित कहानियां सुनाकर यह पेशेवक गुरु अपने लिये खूब साधन जुटाते हैं।  शिष्यों का संग्रह करना ही उनका उद्देश्य ही होता है।  यही कारण है कि हमारे देश में धर्म पर चलने की बात खूब होती है पर जब देश में व्याप्त भ्रष्टाचार, अपराध तथा शोषण की बढ़ती घातक प्रवृत्ति देखते हैं तब यह साफ लगता है कि पाखंडी लोग अधिक हैं।
संत कबीरदास जी कहते हैं कि
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बहुत गुरु भै जगत में, कोई न लागे तीर।
सबै गुरु बहि जाएंगे, जाग्रत गुरु कबीर।।
     सामान्य हिन्दी में भावार्थ-इस जगत में कथित रूप से बहुत सारे गुरू हैं पर कोई अपने शिष्य को पार लगाने में सक्षम नहीं है। ऐसे गुरु हमेशा ही सांसरिक विषयों में बह जाते हैं। जिनमें त्याग का भाव है वही जाग्रत सच्चे गुरू हैं जो  शिष्य को पार लगा सकते हैं।
जाका गुरू है गीरही, गिरही चेला होय।
कीच कीच के घोवते, दाग न छूटै कीव।।
    सामान्य हिन्दी में भावार्थ-जो गुरु केवल गृहस्थी और सांसरिक विषयों पर बोलते हैं उनके शिष्य कभी अध्यात्मिक ज्ञान  ग्रहण या धारण नहीं कर पाते।  जिस तरह कीचड़ को गंदे पानी से धोने पर दाग साफ नहीं होते उसी तरह विषयों में पारंगत गुरु अपने शिष्य का कभी भला नहीं कर पाते।
           सच बात तो यह है कि हमारे देश में अनेक लोग यह सब जानते हैं पर इसके बावजूद उनको मुक्ति का मार्ग उनको सूझता नहीं है। यहां हम एक बात दूसरी बात यह भी बता दें कि गुरु का अर्थ यह कदापि नहीं लेना चाहिये कि वह देहधारी हो।  जिन गुरुओं ने देह का त्याग कर दिया है वह अब भी अपनी रचनाओं, वचनों तथा विचारों के कारण देश में अपना नाम जीवंत किये हुए हैं।  अगर उनके नाम का स्मरण करते हुए ही उनके विचारों पर ध्यान किया जाये तो भी उनके विचारों तथा वचनों का समावेश हमारे मन में हो ही जाता है।  ज्ञान केवल किसी की शक्ल देखकर नहीं हो जाता।  अध्ययन, मनन, चिंत्तन और श्रवण की विधि से भी ज्ञान प्राप्त होता है। एकलव्य ने गुरु द्रोणाचार्य का स्मरण कर ही धनुर्विधा सीखी थी।  इसलिये शरीर से  गुरु का होना जरूरी नहीं है। 
     अगर संसार में कोई गुरु नहीं मिलता तो श्रीमद्भागवत गीता का अध्ययन भगवान श्रीकृष्ण को गुरु मानकर किया जा सकता है। हमारे देश में कबीर और तुलसी जैसे महान संत हुए हैं। उन्होंने देह त्याग किया है पर उनका नाम आज भी जीवंत है। जब दक्षिणा देने की बात आये तो जिस किसी  गुरु का नाम मन में धारण किया हो उसके नाम पर छोटा दान किसी सुपात्र को किया जा सकता है। गरीब बच्चों को वस्त्र, कपड़ा या अन्य सामान देकर उनकी प्रसन्नता अपने मन में धारण गुरू को दक्षिणा में दी जा सकती हैं।  सच्चे गुरु यही चाहते हैं।  सच्चे गुरु अपने शिष्यों को हर वर्ष अपने आश्रमों के चक्कर लगाने के लिये प्रेरित करने की बजाय उन्हें अपने से ज्ञान प्राप्त करने के बाद उनको समाज के भले के लिये जुट जाने का संदेश देते हैं।
दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 


Saturday, July 13, 2013

पतंजलि योग साहित्य-प्रत्याहार चतुर्थ प्राणायाम है (pratyahar chaturth pranaya hai)



  हम जानते हैं कि योग साधना के आठ भाग-यम. नियम, आसन, प्राणायाम प्रत्याहार, ध्यान, धारणा और समाधि-होते हैं। इसमें प्रत्याहार के बारे में बहुत कम समझते हैं। वैसे इसे समझने के लिये अधिक ज्ञान की आवश्यकता नहीं है। इतना अवश्य है कि प्रत्याहार को समझने के लिये अपने हृदय में यह विश्वास धारण करना  पड़ेगा कि भारतीय योग साधना पद्धति  से प्रतिदिन अभ्यास करने पर देह के साथ ही मन और विचार के विकार भी निकालने में सहायता मिलती है।  प्रत्याहार इस योग साधना अत्यंत महत्वपूर्ण भाग होने के साथ ही चौथा प्राणायाम भी माना जाता है। जिस तरह प्राणाायाम में हम सांस को रोकते और ग्रहण करते हैं उसी तरह प्रत्याहार में अपने मस्तिष्क में विषयों का चिंत्तन भी त्यागते हैं। जिस तरह प्रातः सांसों का प्राणायाम करने से मन की शुद्धि होती है उसी तरह विषयों के प्राणायाम यानि प्रत्याहार से विचारों की शुद्धि होती है।
पतंजलि योग साहित्य में कहा गया है।
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बाह्यभ्यन्तरिवषयाक्षेपी चतुर्थः।।
ततः क्षीयते प्रकाशावरणम्।।
धारणासु च योग्यता मनसः।।
स्वविषयासम्प्रयोगे चित्तस्वरूपानुकार इवेन्दियाणां प्रत्याहारः।
हिन्दी में भावार्थ-बाहर अंदर के विषयों का त्याग करना चौथा प्राणायाम है। इसके अभ्यास से प्रकाश का आवरण क्षीण हो जाता है तथा धारणाओं में मन  योग्यता प्राप्त कर लेता है।  अपने विषयों से सम्बंध रहित होने पर इन्द्रियों का जो चित्त के स्वरूप एकाकार हो जाता है वह प्रत्याहार है।
         हम अपने सांसरिक विषयों से इस तरह जुड़े होते है कि उन पर चिंत्तन का क्रम चलता रहता है। एक विषय से ध्यान हटता है तो दूसरे पर चल जाता है। इस कारण हमारे मस्तिष्क को विराम नहीं मिलता।  हम चाहे जितने भी आसन कर लें या कितने भी प्रकार का प्राणायम करें जब तक अपने मस्तिष्क में विषयों से पैदा विकारों का निष्कासन नहीं करेंगे तब तक योग साधना का आनंद नहीं उठा पायेंगे।  प्रत्याहार के समय मन को एकाग्र कर लेना चाहिये। उस समय किसी भी स्थिति में किसी भी विषय का चिंत्तन दिमाग में नहीं आने देना चाहिये। अपनी दृष्टि केवल नासिका के मध्य ऊपरी भाग पर रखना चाहिये।  उस समय कोई भी ख्याल आता है तो आने दीजिये। दरअसल यह क्रम विषयों से उत्पन्न विकारों के ध्वस्त होने का होता है। धीरे धीरे मन शांत होने लगता है।  ऐसा लगता है कि वह अंधरे में चला गया है।  यह स्थिति इस बात का प्राण होती है कि विषयों से पैदा विकार जल गये हैं। उसके बाद  अपना चित्त केवल इसी अंधेरे पर रखते हुए बैठे रहें । चित्त की एकाग्रता ही धारणा के स्थिति  है जो कि  प्रत्याहार के बाद ही आती है। इसके बाद ध्यान लग पाता है।   ध्यान से पूर्व विषयों का त्याग करना ही प्रत्याहार है।  इस तरह के अभ्यास से इंद्रियों के सही स्वरूप को समझकर उन पर निंयत्रण किया जा सकता है। योग के आठ भागों को अभ्यास नहीं होगा तो जीवन में संपूर्ण आंनद का अनुभव नहीं किया जा सकता।         

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 


Saturday, July 6, 2013

चाणक्य नीति-घर में आसक्ति रखने वाले को विद्या प्राप्त नहीं होती (chankya neeti-ghar mein aaskati rakhne walon ko viddya prapt nahin hotee)



           हमारे समाज में परनिंदा की प्रवृत्ति बहुत देखी जाती है। जहां चार लोग मिलेंगे वहां किसी अन्य की निंदा करते हुए अपनी चर्चा करेंगे।  इसके अलावा अपने गुणों तथा कल्पित परोपकार की बात सुनाते हुए अपनी प्रशंसा करते हुए कहीं भी लोगों को देखा जा सकता है। उससे भी बड़ी बात यह कि ज्ञान की बातें बखान करने वाले कदम कदम पर मिल जायेंगे।  जहां तक उस ज्ञान को धारण करने वालों की संख्या की बात है वह नगण्य ही नज़र आती है। ज्ञान और योग साधना में लिप्त लोगों के लिये भारतीय समाज में व्याप्त अंतर्विरोध हमेशा ही शोध का विषय रहा है।  यही कारण है कि हमारे देश में  अध्यात्मिक विषय में नित्य नये नये सृजन होते रहते हैं।  यह अलग बात है कि अध्यात्मिक सिद्धों की रचनाऐं लोग पढ़ते हैं और फिर उनको रटकर एक दूसरे को सुनाते हैं।  उस ज्ञान को धारण करने की कला किसी किसी को ही आती है जबकि सामान्य मनुष्य ज्ञान का बखान तो करता है पर अपना पूरा पंाव  अज्ञान की राह पर ही रखता है। 
     सच बात यह है कि श्रीमद्भगवत्गीता में कहा गया है कि गुण ही गुणों को बरतते हैं। इंद्रियां ही विषयों में लिप्त हैं।  त्रिगुणमयी माया में फंसा मनुष्य अपनी स्थिति के अनुसार ही विचार करते हुए व्यवहार करता है।  इसलिये ज्ञान साधकों को कभी किसी की निंदा नहीं करते हुए इस बात का विचार अवश्य करना चाहिये कि जिस व्यक्ति का खान पान, रहन सहन तथा संगत जिस तरह की होगी वैसा ही वह काम तथा आचरण करेगा।

चाणक्य नीति में कहा गया है कि
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गृह्यऽसक्तस्य नो विद्या नो दया मासंभोजिनः।
द्रव्यनुलुब्धस्य नो सत्यं स्त्रेणाभ्य न पवित्रता।।
       हिन्दी में भावार्थ-घर में आसक्ति रखने वालों को कभी  विद्या प्राप्त नहीं होती, मांस खाने वालों में दया नहीं होती, धन के लोभी में कभी सच्चाई नहीं होती और भोग विलासी में विचारों की पवित्रता नहीं होती।

          हमारे समाज में एक बात दूसरी भी देखी जाती है कि अर्थ, राज्य तथा धर्म के शिखर पर स्थिति पुरुषों की तरफ आशा भरी नज़रों से देखता है। वह सोचता है कि उनमें शायद समाज भक्ति पैदा हो और वह उस पर कृपा करें।  वह उनके विचार, व्यवहार और व्यक्तित्व की तरफ नहीं देखता। जिन शिखर पुरुषों में समाज के प्रति दया, सद्भावना तथा प्रेम का भाव है वह बिना प्रचार ही अपना काम करते है। जिनके मन में संवेदना नहीं है वह पाखंड बहुत करते हैं। इतना ही नहीं अनेक शिखर पुरुष तो दिखावे के लिये समाज सेवा करते हैं।  उनका मुख्य उद्देश्य अपने परिवार तथा कुल को प्रतिष्ठा दिलाकर अधिक शक्ति प्राप्त करना ही होता है।  समाज से दूर होने के कारण उनके घर के सत्य बाहर नहीं आ पाते पर फिर अपने सामान्य व्यवहार में उनका चरित्र सामने आ ही जाता है। वह प्रचार के लिये समाज के साथ सहानुभूति अवश्य जताते हैं उनके किसी कर्म से ऐसा नहीं लगता कि वह आशाओं पर खरे उतरेंगे। उनसे किसी भी प्रकार समाज हित की आशा करना व्यर्थ है।


दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 


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