अंतर्जाल पर कुछ भक्त निष्काम भाव के साथ बरसों से सक्रिय हैं। इनमें से कुछ तो अपने वर्तमान इष्ट से मिल भी चुके हैं। हमारा मानना है कि वह गज़ब का लिखते हैं और पदम् पुरस्कार के हकदार भी हैं। आखिर उनमें क्या कमी है? हिन्दी, हिन्दू तथा हिन्दुत्व की सेवा में उन्होंने अंतर्जाल पर जिस समय प्रचार प्रसार का काम यह रास्ता चुना उस समय भक्त समूह से कोई पुराना या नया विद्वान नहीं चुन सकता था। हम बहुत देर तक प्रतीक्षा कर रहे थे कि शायद अंतर्जाल पर दस बरस से सक्रिय किसी भक्त को इस बार यह सम्मान मिलने की खबर दिख जाये पर नहीं मिली। अनेक भक्तों ने कुछ लोगों को पद्म सम्मान देने का मजाक भी उड़ाया है-इससे साफ दिखता है कि अपने ही दल से भक्त निराश हो रहे हैं। हमें पहले से ही इसकी आशंका थी। भक्तों के शिखर पुरुष हिन्दी, हिन्दू तथा हिन्दुस्तान के नाम उनका एक तरह से शोषण करते है। जब सत्ता से बाहर होते हैं तब जिन लोगों का विरोध करते हैं-उन पर आक्षेप करते हैं-फिर सिंहासन पर आते ही उन्हें सम्मानित करते हैं। अगर वह अपने ही किसी कम प्रसिद्ध पर अंतर्जाल पर सक्रिय भक्त को सम्मानित कर देते तो क्या बिगड़ता।
पद्म सम्मान के नाम पर पुराने तरीके की प्रणाली चल रही है। सम्मान ही क्या प्रशासन की भी वैसी प्रणाली चल रही हैं। ऐसा लगता है कि वर्तमान भक्तों को भी वैसी ही निराशा सतत झेलनी पड़ेगी जैसे राममंदिर आंदोलनकालीन लोगों ने झेली थी। वैसे भी विचाराधाराओं का तो नारा भर है वरना तो चुनावी राजनीति एक तरह से व्यवसाय हो गयी है। यही कारण है कि चेहरे बदलते हैं प्रणाली का चरित्र और चाल नहीं बदलती। मूर्धन्य भक्त विद्वान श्रीगोविंदाचार्य से हम कभी मिले नहीं है पर उनके एक बयान ने हमारी आंखें ऐसी खोली कि वह अपने राजसी चिंत्तन के द्वार खुल गये। उनके बयान पर लिखने का समय आ रहा है-यह अलग बात है कि बात में वह अपने ही उस बयान पर सफाई देते रहे पर यह प्रयास भी उनको हाशिए पर जाने से बचा नहीं पाया।
--
भक्तों से क्या कहें, हम भी इतने उकता गये हैं कि भारत के हिन्दी और अंग्रेजी के चैनल छोड़कर सीएनएन, बीबीसी के साथ अलजजीरा चैनल देखकर अंतर्राष्ट्रीय खबरों का आनंद लेते हैं। अब देश के पांच राज्यों से अधिक अमेरिका के नये नवेले राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प हमारी ज्यादा नज़र है जिनके आने से यूरोप ही नहीं ब्रिटेन भी थोड़ा परेशान दिखता है। वैसे ट्रम्प ने सबसे पहले ब्रिटेन और इजरायल के राष्ट्रप्रमुखों से बात की है। भारत से भी उनकी जल्दी बातचीत होगी। ट्रम्प ने अब तक भले ही बहुत सारी बातें ऐसी की हैं जिससे लगता है कि विश्व में अपने देश के स्थापित वर्चस्व में कमी लायेंगे पर कालांतर में सच्चाईयां सामने आने पर उन्हें पुरानी नीति के बहुत सारा हिस्सा अपनाना पड़ सकता है।
हमारी दृष्टि से भारत को अततः फलस्तीन के प्रति अपना समर्थन त्यागकर इजरायल से मित्रता करना ही पड़ेगी। चीन और रूस भले ही अरेबिक आतंकवाद का विरोध करें पर वहां के सत्ताधारी लोगों के प्रति उनका झुकाव साफ दिखता है। अमेरिका तथा रूस अपने हथियार और बारूद बेचने में ज्यादा रहते हैं। अगर अमेरिका इस धंधे से पीछे हटता है तो रूस और चीन अपना बाज़ार बनायेंगे तब भारत के लिये समस्या आ सकती है। ऐसे में इजरायल ही ऐसा देश बचता है तो जो भारत के साथ खड़ा रह सकता है। हालांकि यहूदी लाबी के दबदबे में रहने वाले अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रम्प के लिये मुश्किल होगा कि वह इजरायल को अकेला छोड़ दे। इजरायल जरूर चाहेगा कि अमेरिका अपना वर्चस्व अरब जगत पर बनाये रखे और तब रूस और चीन के लिये अपना पूर्ण वर्चस्व स्थापित करना कठिन होगा।
-------
No comments:
Post a Comment