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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका
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Saturday, January 28, 2012

भर्तृहरि नीति शतक-नालायक लोग दूसरों में कमियां ढूंढने से बाज नहीं आते (nalayak log doosron ki kamiyan dhoondhne se baaz nahin aate-bharathari neeti shatak)

            मनुष्य का यह स्वभाव है कि वह दूसरों में दोष देखता है पर दुष्ट लोगों की तो यह मनस्थिति रहती है कि अपने साथियों तक के दोष लोगों को बताकर उनको बदनाम करते हैं।  हम भले ही दुष्ट लोगों के साथ संगत यह सोचकर करें कि वह क्या कर लेगा, पर यह हमारी बड़ी गलती साबित होती है। सामान्य मनुष्य पर उसकी संगति का प्रभाव अवश्य होता है। जो लोग चाहते हैं कि उनके अंदर कुविचार न आये, उनकी समाज में छवि सज्जन व्यक्ति की बने और उनके समक्ष कभी संकट न आये वह केवल इतना करें कि अपनी संगत पर ध्यान दें। ऐसे लोगों की संगत करें जिनसे मिलने पर प्रसन्नता होती हो। जो दुख देने वाले, निंदा करने वाले या असंतुलित मस्तिष्क के हैं उनसे दूर रहना ही श्रेयस्कर है। दुष्ट लोगों की संगत इतनी बुरी है कि वह शर्मदार को डरपोक, धर्मभीरु को पाखंडी, सत्यवादियों को कपटी और वीर को क्रूर बताते हैं। इन दुष्टों में बस एक ही गुण होता है दूसरों की निंदा करना। इतना ही नहीं न ऐसे लोगों से संगत करना चाहिए न ही इनकी संगत में रहने वाले के पास जाना चाहिए।
इस विषय में महाराज भर्तृहरि कहते हैं कि
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जाङ्यं ह्नीमति गणयते व्रतरुचौ दम्भः शुचौ कैतवं शूरे निर्घृणता मुनौ विमतिता दैन्यं प्रियालापिनि।
तेजस्विन्यवलिप्तता मुखरता वक्तर्यशक्तिः स्थिरे तत्को नाम गुणो भवेत् गुणिनां यो दुर्जनैनाकितः।।
         ‘‘दुष्ट संकोचशील पुरुषों में जड़ता, धर्मभीरुओं में पाखंड, सत्य धर्म में स्थित रहने वालों में कपट, वीरों में क्रूरता, विद्वानों में मूर्खता, नम्र लोगों में दीनता, प्रभावशालियों में अहंकार, अच्छे वक्तओं में बकवास तथा धीर गंभीर रहने वालों में असमर्थता का दुर्गुण होने का बयान करते हैं। ऐसा कौनसा गुणी आदमी है जिसमें दुष्ट लोग दोष नहीं ढूंढते।’’
              ऐसे दुष्टों की बात पर ध्यान देने से अपना ही मन खराब करना है। हम अच्छे है या बुरे इसकी पहचान हमें स्वयं ही कर सकते हैं। सीधी बात यह है कि हमारे मन में किसी के प्रति बुरा विचार नहीं आना चाहिए। दूसरा व्यक्ति अच्छा है या बुरा इसकी पहचान यह है कि भला आदमी कभी किसी निंदा नहीं करता। सज्जन आदमी हमेशा दूसरों के गुणों की प्रशंसा करता है। इतना ही नहीं दुष्ट व्यक्ति की पहचान होने पर उससे संबंध बनाये रखना ठीक नहीं है। यह सोचना बेकार है कि नियमित संबंध बनाये रखने में क्या दोष? दरअसल ऐसे दुष्ट व्यक्ति सामने कुछ न कहें पर पीठ पीछे अपने साथ का दोष बयान करने से बाज नहीं आते। अपनी छवि बनाने के लिये यह दूसरे की छवि खराब करते हैं।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

Wednesday, January 25, 2012

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-जहां भाई काम नहीं आता वहां मित्र निभाता है (kotilya ka arthshastra-mitra aur bhai or frinds and brother)

           हमारे अध्यात्मिक दर्शन में मित्रता पर भी अनेक बातें कही गई हैं। इस संसार में सभी प्रकार के पारिवारिक तथा सामाजिक संबंधों की सीमा है। पारिवारिक संबंध जन्म के आधार पर बनते हैं तो सामाजिक लोगों के साथ बनाये जाते हैं, पर मित्रता या आत्मीय रिश्ता मनुष्य के व्यवहार, कार्य तथा विचारों से प्रकृति के अनुसार बनता है। आत्मीय या मित्रता संबंध न बनते हैं न बनाये जाते हैं बल्कि प्रकृति ही मनुष्य के सामने उनको उपस्थित करती है। जहां पारिवारिक संबंध सामाजिक आधारों पर कभी इच्छा से तो कभी मन की बाध्यता की वजह से निभाये जाते हैं वही प्रकृति निर्मित मित्रता तथा आत्मीय संबंध निभाने की कोई अनिवार्यता नहीं होती। इसके बावजूद आदमी जिससे मित्रता करता है उसके प्रति बिना किसी फल के मित्रता का निर्वाह करने को तैयार रहता है। कई बार स्थिति यह होती है कि विपत्ति आने या विशेष काम उपस्थित होने पर जहां परिवार के सदस्य या रिश्तेदार सहयोग करने नहीं पहुंच सकते वहां मित्र अपनी भूमिका निभाने के लिये तत्पर हो जाते हैं।
           फिर आज के समय जब भौतिकता का बोलबाला है और लोग अपनी रोटी रोटी कमाने के लिये अपने शहरों से पलायन कर दूसरी जगह बस रहे हैं। इससे उनके पारिवारिक तथा सामाजिक संबंधों से दूरी बन जाती है। कहा भी जाता है कि जो देह से दूर है वह दिल से भी दूर है। इसके अलावा महिलाओं के विवाह भी अपने शहरों से दूर दूसरे शहरों में काम कर रहे पुरुषों होते हैं, तब परिवार और रिश्तेदार उनसे दूर हो जाते हैं। इसलिये  उनको प्रकृत्ति निर्मित बाह्य संबंधों पर निर्भर होना पड़ता है। जब किसी खास अवसर पर पारिवारिक लोग उनको महत्व अधिक मिलते देखते हैं तो दुःखी हो जाते हैं। कुछ लोग ताने भी देते हैं पर वह इस सत्य को नहीं समझते कि आदमी अपनी देह की आवश्यकताओं के कारण उन मैत्री और आत्मीय संबंधों पर निर्भर रहता है जहां पारिवारिक तथा सामाजिक रिश्तेदार काम नहीं करते।
कौटिल्य का अर्थशास्त्र में कहा गया है कि
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न तत्र विष्ठति भ्राता न पितोऽयोऽपि वा जनः।
पुंसामापत्प्रत्तीकार सन्मित्रं यत्र तिष्ठति।।
          ‘‘जहां किसी आदमी पर आपत्ति आने पर मित्र पास आकर उसे दूर कर सकता है वहां भ्राता, पिता तथा अन्य आत्मीय जन पहुंच भी नहीं सकता।
प्रकाशपक्षग्रहणं न कुर्यात्सहृदां स्वयंम्।
अन्योन्यमत्सरंवषा स्वयमेवाशं धारवेत्।।
           ‘‘अपने प्रियजनों का पक्ष कहीं भी स्वयं प्रकट रूप से न लें बल्कि गुप्त रूप से किसी को इसके लिये प्रेरित कर इस कार्य को संपन्न करें।’’
            वैसे संबंध चाहे पारिवारि हो या सामजिक हों या मैत्री वाले उनका कहीं अगर पक्ष रखना हो तो स्वयं यह काम न करें बल्कि किन्हीं अन्य लोगों से परस्पर सहयोग के आधार पर उनसे यह काम करवायें। बदल में आप उनका ऐसा ही काम करें। कहीं वाद विवाद या किसी अनुबंध के अवसर पर आप अपने आदमी का पक्ष रखेंगे तो यह माना जायेगा कि आप तो उसका पक्ष लेंगे ही इसलिये उसका महत्व कम हो जाता है।
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संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

Saturday, January 21, 2012

चाणक्य नीति-विद्यार्थियों को केवल अपनी शिक्षा पर ध्यान देना चाहिए (chankya neeti-students life only for education)

                 पाश्चात्य संस्कृति को अपनाने के साथ ही हमारे देश में शिक्षा का रूप भी बदल गया है। अब तो स्थिति यह है कि विद्यालयों के स्वामी अपनी कमाई के लिये बच्चों को पर्यटन और पिकनिक के लिये बाहर तक ले जाने लगे हैं।  अनेक बार विद्यालयों में ही मनोरंजन कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं।  वहां बात तो भारत की प्रसिद्धि गुरु शिष्य परंपरा की होती है पर प्राचीन शिक्षा को एकदम नकारा दिया गया है। छात्रों को शिक्षा के दौरान ही संपूर्ण ज्ञानी बनाने के नाम पर उनको शैक्षणोत्तर गतिविधियों से जोड़ा जाता है।  जिससे वह न इधर के रह पाते हैं न उधर के।
         भारतीय दर्शन में विद्याध्ययन के समय शिष्य के शिक्षा के अलावा अन्य किसी गतिविधि पर ध्यान देना वर्जित माना जाता है। आधुनिक शिक्षा पद्धति में इस बात को भुला दिया गया है। हमने देखा है कि अक्सर आजकल के  शिक्षक अपने छात्रों को शिक्षा के दौरान अन्य गतिविधियों पर ध्यान देने के लिये उकसाते हैं। इतना ही नहीं अनेक शिक्षण संस्थान तो अपने यहां शैक्षणिकोत्तर सुविधायें देने के विज्ञापन तक देते हैं। इतना ही नहीं माता पिता भी यह चाहते हैं कि उनका बालक शिक्षा के दौरान अन्य ऐसी गतिविधियों में भी भाग ले जिससे उसे अगर कहीं नौकरी न मिले तो दूसरा काम ही वह कर सके। नृत्य, खेल, तथा अभिनय का प्रशिक्षण देने के दावे के साथ ही चुनाव संघों के चुनाव के माध्यम से हर छात्र को एक संपूर्ण व्यक्ति बनाने का यह प्रयास भले ही आकर्षक लगता हो पर कालांतर में उसे अन्मयस्क भाव का बना देता है। एक दृढ़ व्यक्त्तिव का स्वामी बनने की बजाय छात्र छात्राऐं मानसिक रूप से डांवाडोल हो जाते हैं। इतना ही नहीं महाविद्यालायों में एक गणवेश का नियम होने पर उसका विरोध किया जाता है जिस कारण छात्र छात्रायें फिल्मों में दिखाये जाने वाले परिधान पहनकर शिक्षा प्राप्त करने जाते हैं। इससे उनका ध्यान शिक्षा की बजाय दैहिक आकर्षण पर केंद्रित हो जाता है।
इस विषय में चाणक्य नीति में कहा गया है कि
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कामं क्रोधं तथा लोभं स्वादं श्रृंगारकौतुके।
अतिनिद्राऽतिसेवे च विद्यार्थी ह्यष्ट वर्जयेत्।।
         ‘‘विद्यार्थी को चाहिए कि वह कामुकता, क्रोध, लोभ, स्वाद, श्रृंगार, कौतुक, चाटुकारिता तथा अतिनिद्रा जैसे इन आठ व्यसनों और दोषों से दूर रहना चाहिए।’’
             हम यहां किसी पर अपने विचार लादना नहीं चाहते। जिसे जो करना है वह करे पर यह जरूर कहना चाहेंगे कि भारतीय अध्यात्मिक दर्शन इस बात को स्पष्ट करता है कि शिक्षा के समय छात्र छात्राओं को अपनी किताबों की विषय सामग्री का ही अध्ययन करना चाहिए। हमने यह भी देखा है कि प्रायः वही छात्र छात्रायें ही अपनी शिक्षा का पूर्ण लाभ उठा पाते हैं जिन्होंने अपनी किताबों का अध्ययन किया है। आज के फैशन, फिल्मों तथा फैस्टीवलों पर फिदा छात्र अंततः शिक्षा समाप्त करने के बाद कहीं के नहंी रह जाते। इसलिये छात्र छात्राओं को जहां तक हो सके अपनी पाठ्यक्रम सामग्री पर ही ध्यान केंद्रित करना चाहिए ताकि उसमें उनको विशेषज्ञता मिल सके।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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Saturday, January 14, 2012

मलूकदास के दोहे-सुंदर और असुंदर देह को अंतत: काल खा जाता है (malukdas ke dohe-sundar aur asundar deh ko kaal khaa jaata hai)

           सभी मनुष्यों  की देह भले ही पंचतत्वों से बनी है पर रंग और अंगों के दृश्य में भिन्नता होती है। यही भिन्नता असुंदर और सुंदर की पहचान निर्धारित करती है। सभी मनुष्यों की इंद्रियाँ सांसरिक पदार्थों को ग्रहण और त्याग करती हैं। जब ग्रहण करती हैं तब वह सुंदर होता है और जिसे त्याग करती हैं वह असुंदर होता है। इसकी बावजूद अज्ञानी लोग असुंदर और सुंदर रूप के बोध करने में लगे होते हैं।  हमारे अध्यात्मिक ज्ञान के अनुसार इस संसार में समस्त दृश्यव्य वस्तुऐं नश्वर हैं। बाकी की बात क्या करें यह प्रथ्वी, सूर्य, चंद्रमा और अन्य ग्रह भी नश्वर माने गये हैं। आधुनिक विज्ञान भी यह मानता है कि प्रथ्वी और इस पर विचरण करने वाले समस्त जीवों के साथ ही अन्य ग्रहों का भी एक जीवन है जो अंततः नष्ट होता है। अमेरिकन वैज्ञानिकों ने तो एक ब्लैकहोल का पता भी लगाया है जो प्रतिदिन सैंकड़ों तारों को लील जाता है। कहने का अभिप्राय यह है कि यहां कुछ भी स्थिर नहीं है।
            इस संसार में विचरण करने वाले समस्त प्राणियों की देह भले ही बाहर से आकर्षण लगती है पर अगर उसे आधुनिक सूक्ष्म यंत्रों से देखा जाये तो अंदर का ढांचा अत्यंत गंदगी भरा रहता है। वहां हड्डियां, रक्त, कीचड, और मांस के टुकड़ों के साथ कीड़े मकौड़े रैंगते दिखाई देते हैं। कम से कम अंदर का दृश्य दर्शनीय नहीं होता। इतना ही नहीं समय के अनुसार सभी की देह पतन की तरफ बढ़ती जाती है। इसके बावजूद अनेक लोग सुंदर देह के अनेक दीवाने हैं। कुछ मनुष्यों को अपनी सुंदर देह पर अत्यंत अहंकार भी रहता है। हमारे अध्यात्मिक महर्षि सदैव इस तरफ ध्यान दिलाते रहे हैं कि यह मनुष्य देह जहां नश्वर है वहीं आत्मा अमर है अतः मनुष्य को योग ध्यान तथा जाप से स्वयं पर नियंत्रण करना चाहिए।
मलूकदास कहते हैं कि
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सुंदर देही देखि कै, उपजत है अनुराग।
मढ़ी न होती चाम की, तो जीवन खाते काम।।
          ‘‘मनुष्य का स्वभाव है कि वह किसी भी सुंदर शरीर को देखकर उससे प्रीति करने को लालाचित होने लगता है जबकि इसमें मांस, खून और हड्डी भरे हुए हैं। अगर इस कचड़े के ऊपर यह देह न हों तो कौऐ इसे जीते जी खाने लगें।
सुंदर देही पाइ कै, मत कोइ करै गुमान।
काल दरेरा खायगा, क्या बूढ़ा क्या जवान।।
            ‘‘सुंदर शरीर पाकर किसी को इतरना नहीं चाहिए। आदमी बूढ़ा हो या जवान काल किसी को भी खा सकता है।’’
         हम देख रहे हैं कि हमारे देश में आधुनिक शिक्षा तथा मनोरंजन के साधनों की वजह से पूरा समाज अपने अध्यात्मिक ज्ञान को भूलकर माया तथा सौंदर्य के पीछे भाग रहा है। ऐसा लगता है कि लोगों ने अक्ल के द्वारा बंद कर दिये हैं। ऐसे में भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान पर दृष्टिपात करते है तो लगता है कि अज्ञानियों का झुंड चहुं ओर फैला है। स्थिति यह है कि स्त्रियों के नग्न चित्रों को देखने के लिये लोग मरे जा रहे हैं। जिन लोगों को तत्वज्ञान है वह ऐसी स्थिति में हंसते हैं।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

Saturday, January 7, 2012

दादू दयाल के दोहे-मनुष्य बिना पहचान के गुण के सुख की आशा करता है (dadudayal ke dohe-pahachan ke gun bina manushya ke sukh ki ichchha)

          इस संसार में ऐसे ज्ञानी और ध्यानी लोगों की कमी नहीं है जो अपने सांसरिक ज्ञान को बघारते हुए नहीं थकते। इतना ही नहीं धर्म के नाम कर्मकांडों का महत्व इस तरह किया जाता है कि मानो उनको करने से स्वर्ग मिल जाता है। क्षणिक लाभ और मनोरंजन के लिये लोग अपने संबंध बनाते हैं। उनको ऐसा लगता है कि इससे उनका जीवन आराम से कट जायेगा पर इसके विपरीत ऐसे ही संबंध बाद में बोझ बन जाते हैं।
             आजकल हमारे यहां प्रेम विवाहों का प्रचलन अधिक हो गया है। देखा यह जाता है कि अंततः लड़कियों को ही अपने परिवार से वेदना अधिक मिलती है। एक तो उनके परिजन उसकी सामाजिक जिम्मेदारियों से मुक्त हो जाते हैं और अपनी मर्जी से विवाह करने का आरोप लगाकर संपर्क नहीं रखते दूसरे पति के परिजन भी दहेज आदि न मिलने के कारण उनको बहू रूप में ऐसे स्वीकारते हैं जैसे कि मजबूरी हो। फिर परिवार आदि में खटपट तो होती है साथ ही चाहे लड़की नौकरीशुदा हो या नहीं उससे अपेक्षा यह की जाती है कि वह घर का काम करे। ऐसे में जिन लड़कियों ने प्रेम विवाह किया होते हैं उनको वही लड़के संकट देते हैं जिन्हें उन्होंने प्रेमवश सर्वस्व न्यौछावर किया होता है।
संत कवि दादू दयाल कहते हैं कि
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झूठा साचा करि लिया, विष अमृत जाना।
दुख कौ सुख सब कोइ कहै, ऐसा जगत दिवाना।। 
                 ‘‘मनुष्य को सत्य असत्य, विष अमृत और दुःख सुख की पहचान ही नहीं है। लोगों का दीवाना पन ऐसा है दुख देने वाली वस्तुओं और व्यक्तियों से सुख मिलने की आशा करते हैं।

                इस तरह दीवानापन लड़कों में भी देखा जाता है। वह लड़कियों के बाह्य रूप देखकर बहक जाते हैं पर जब घर चलाने का अवसर उपस्थित होता है तब पता चलता है कि जीवन उतना सहज नहीं है जितना उन्होंने समझा था। जिस इश्क को उर्दू शायर गाकर थकते नहीं है वही एक दिन नफरत का कारण बन जाता है। आई लव यू कहने वाले फिर आई हेट यू कहने लगते हैं।
        तत्वज्ञानियों को पता है कि यहां हर देहधारी वस्तु अंततः पुरातन अवस्था में आती है। हम अपने मुख से करेला खायें या मिठाई पेट में अंततः वह कचड़ा ही हो जाता है। हम शराब पियें या शरबत पेट में वह विषाक्त जल में परिवर्तित होता है जिसके जिसके निष्कासन पर ही हमारी देह ठंडी होती है। इस ज्ञान को बुढ़ापे में धारण करने अच्छा है कि बचपन में धारण किया जाये तभी संसार के उन संकटों से बचा जा सकता है जो अज्ञान के कारण हमारे सामने उपस्थित होते हैं। कभी कभी तो उनकी वजह से देह का नाश भी होता है।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

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