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Sunday, August 28, 2011

वेदशास्त्रों से-शुद्ध वायु का सेवन करने से विचार शुद्ध होते हैं (ved shastron se-shuddh vayu ka sewan avashyak)

        वर्षा के मौसम में अक्सर अनेक प्रकार की बीमारियां फैलती हैं। इसका कारण यह है कि इस मौसम मेंएक तो मनुष्य की पाचन क्रिया इस समय अत्यंत मंद पड़ जाती है जबकि जीभ स्वादिष्ट मौसम के लिये लालायित हो उठती है। दूसरा यह है कि जल में अनेक प्रकार के विषाणु अपना निवास बना लेते हैं। इस तरह स्वाभाविक रूप से इस समय बीमारी का प्रकोप यत्र तत्र और सर्वत्र प्रकट होता है। बरसात के मौसम में जहां चिकित्सकों के द्वार पर भीड़ लगती है वहीं योग साधक अधिक सतर्कता पूर्वक प्राणायाम करने लगते हैं ताकि वह बीमारियों से बचे रहें।
            जल और वायु न केवल जीवन प्रवाह में सहायक होती है बल्कि रोगनिदान में औषधि के रूप में इनसे सहायता मिलती है। वर्षा ऋतु में दोनों का प्रवाह बाधक होता है पर नियम, समय और प्राणयाम के माध्यम से अपनी देह को उन विकारों से बचाया जा सकता है जो इस मौसम में होती है।
वेद शास्त्रों में कहा गया है कि
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वात ते गृहेऽमृतस्य निधिर्हितः।
ततो नो देहि जीवसे।।
           ‘‘इस वायु के गृह में यह अमरत्व की धरोहर स्थापित है जो हमारे जीवन के लिये आवश्यक है।’’
अ त्वागमं शन्तातिभिरथे अरिष्टतातिभिः दक्षं ते भद्रमाभार्ष परा यक्ष्मं सुवामित ते।।
        ऋग्वेद की इस ऋचा अनुसार वायु देवता कहते हैं कि ‘‘हे रोगी मनुष्य! मैं वैद्य तेरे पास सुखदायक और अहिंसाकर रक्षण लेकर आया हूं। तेरे लिये कल्याणकारी बल को शुद्ध वायु के माध्यम से लाता हूँ  और तेरे रोग दूर करता हूं।’’
वातु आ वातु भेषजं शंभु मयोभु नो हृदे।
प्र ण आयूँरिर तारिषत्।।
             ‘‘याद रखें कि शुद्ध ताजी वायु अमूल्य औषधि है जो हमारे हृदय के लिये दवा के समान उपयोगी है, आनंददायक है। वह आनंद प्राप्त करने के साथ ही आयु को बढ़ाता है।
          हमने देखा होगा कि जब कोई मरीज नाजुक हालत में अस्पताल पहुंचता है तो सबसे पहले चिकित्सक उसकी नाक में आक्सीजन का प्रवाह प्रारंभ करते हैं। यह इस बात का प्रमाण है कि सबसे प्रथम दवा तो वायु ही होती है। इसके अलावा जो दवायें मिलती हैं उनके जल का मिश्रण होता है या फिर उनका जल से सेवन करने की राय दी जाती है। हम यहां वायु के महत्व को समझें। हमने देखा होगा जहां जहां घनी आबादी हो गयी है वहां अधिकतर लोग चिढ़चिढ़े, तनाव ग्रस्त और हताशा जनक स्थिति में दिखते हैं। अनेक लोग घनी आबादी में इसलिये रहना चाहते हैं कि उनको वहां सुरक्षा मिलेगी दूसरा यह कि अपने लोग वहीं है पर इससे जीवन का बाकी आनंद कम हो जाता है उसका आभास नहीं होता।
           श्रीमद्भागवत गीता में ‘गुणों के गुणों में ही बरतने’ और ‘इंद्रियों के इंद्रियों मे बरतने’ का जो वैज्ञानिक सिद्धांत दिया गया है उसके आधार पर हम यह कह सकते हैं कि जहां प्राणवायु विषाक्त है या जहां उसकी कमी है वहां के लोगों के मानसिक रूप से स्वस्थ या सामान्य रहने की अपेक्षा करना भी व्यर्थ है। आमतौर से सामान्य बातचीत में इसका आभास नहीं होता पर विशेषज्ञ इस बात को जानते हैं कि शुद्ध और अधिक वायु के प्रवाह में रहने वाले तथा इसके विपरीत वातावरण में रहने वाले लोगों की मानसिकता में अंतर होता है। आज भी हमारे देश में अनेक  ऐसे लोग हैं जो यह मांग करते हैं जो न केवल पर्यावरण प्रदुषण रोकने और लोगों को स्वच्छ जल देने की मांग करते हैं।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
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Tuesday, August 16, 2011

चाणक्य नीति से संदेश-जिसके पास अपनी अक्ल न हो उसका भला वेद शास्त्र नहीं कर सकते (chankya neeti aur ved shastra)

             हम अपने ज्ञान और विचार से किसी मूर्ख व्यक्ति को बुद्धिमान बना सकते हैं या दुष्ट में सज्जनता ला सकते हैं यह सोचना भी ठीक नहीं है। अनेक बार कुछ अल्पज्ञानी लोग अपने ज्ञान का बखान सार्वजनिक रूप से लोगों के बीच में बैठकर करते हैं यह सोचकर कि वह उनको सुधार लेंगे और समाज में बुद्धिमार का दर्जा पायेंगे। यह उनके अपूर्ण ज्ञान का परिचायक ही है क्योंकि वह पीठ पीछे लोगों की हंसी का पात्र बनते हैं। अनेक बार उनको ज्ञानी कहकर मजाक भी बनाया जाता है। सामान्यजन उनको केवल बकवादी समझते हैं।
         दरअसल इस संसार के विषय इतने व्यापक और आकर्षक हैं उनमें सभी लोग रमे हुए हैं। उनके लिये उनका मोह, लोभ और क्रोध ही सत्य है। अल्पज्ञानी लोग इसे नहीं जानते पर तत्व ज्ञानी श्रीमद्भागत गीता में वर्णित यह तथ्य नहीं भूलते जिसमें भगवान ने कहा है कि हजारों में भी कोई एक मुझे भजता है और उनमें भी हजारों में से कोई एक मुझे पाता है। स्पष्टतः यही कहा गया है कि सामान्य मनुष्यों में ज्ञानी उंगलियों पर गिनने लायक ही होंगे।
           नीति विशारद चाणक्य ने अपनी चाणक्य नीति में कहा है कि
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           अन्तःसारविहीनानामुपदेशो न जायते। 
          मलयाचलसंसर्गात् न वेणुश्चन्दनायते।।
            ‘‘जिसके अंदर योग्यता का अभाव है और जिसका हृदय अत्यंत मैला है उस पर किसी के उपदेश वैसे ही कोई प्रभाव नहीं होता जैसे मलयागिरी से आने वाली वायु के स्पर्श से भी बांस चंदन नहीं बनता।
                यस्य नास्ति स्वयं प्रज्ञा शास्त्रं तस्य करीति किम्।
               लोचनाभ्यां विहीनस्य दर्पणः किं करिष्यति।।
              ‘‘जिसके पास स्वयं ही बुद्धि नहीं है वेद शास्त्र उसे कोई लाभ नहीं कर सकते। वैसे ही जैसे जन्मांध व्यक्ति के दर्पण कोई कार्य नहीं कर सकता।
               दुर्जनं सज्जनं कर्तुमुपायो न हि भूतले।
             अपानं शतधा धौतं न श्रेष्ठमिन्द्रियं भवेत्।।
            ‘‘दुष्ट व्यक्ति को सज्जन बनाने के लिये भूमि पर कोई भी उपाय नहीं है जैसे मलत्याग करने वाली इंद्रिय को सौ प्रकार से धोने पर भी वह श्रेष्ठ नहीं हो पाती।
                ऐसे में तत्वाज्ञानी केवल उचित स्थानों पर ही अपनी चर्चा रखते हैं। अगर कोई अपना ज्ञान सार्वजनिक रूप से बघार रहा है तो समझें कि वह अल्पज्ञानी या केवल तोता रटंत वाला आदमी है। दूसरी बात यह कि ज्ञानी आदमी को चाहिए कि अपना कर्म करते रहें और दूसरी किसी आदमी से यह अपेक्षा न करें कि कोई अकारण सम्मान या सहायता करे। लोगों में काम, क्रोध, मोह और अज्ञान का ऐसा जाल छाया रहता है कि वह अपने स्वार्थों से प्रथक नहीं हो सकते। दुष्ट और मूर्ख लोगों के साथ तो यह अपेक्षा कभी करना भी नहीं चाहिए कि वह कभी सुधरेंगे। उनको सुधारने के प्रयास में अपनी समय और ऊर्जा नष्ट करना ही है।
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संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
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Sunday, August 14, 2011

चाणक्य नीति-नालायक राजा से प्रजा दुखी रहती है

             मनुष्य अपने जीवन में संबंध बढ़ाकर आनंद प्राप्त करना चाहता है। अधिक से अधिक मित्र बनाकर अपने आपको ही इस बात की तसल्ली देता है कि वह शत्रुओं से बचा रहेगा। उसी तरह अनेक लोग अपने घर की स्त्री से बाहर की स्त्रियों से संपर्क रखकर यह सोचता है कि वह जीवन आनंद से बितायेगा। ऐसे अनेक भ्रम हैं जिनके चक्कर में पढ़कर आदमी अपना जीवन कष्टप्रद बना लेता है। उसी तरह मनुष्य अनेक स्थानों पर संपत्ति का निर्माण भी यही सोचकर करता है कि एक जगह से परेशान होकर दूसरी जगह आराम से जाकर रहेगा। लालची, लोभी और अहंकार मनुष्य तर्क की कसौटी पर काम न कर केवल काल्पनिक सुखों के आधार पर चलता है जो कि उसे नहीं मिल पाते। इसी कारण उसे आनंद की जगह तनाव की प्राप्ति होती है।
आचार्य चाणक्य कहते हैं कि
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कुराज्यनेकृतः प्रजासुखं कुमित्रमित्रेण कुतोऽस्ति निवृत्तिः।
कुदारदारैश्च केतो गृहे रतिः कुशिष्यमध्यापयतः कुतो यशः।।
            ‘दुष्ट राजा के राज्य से प्रजा को सुख नहीं मिलता। धोखा देने वाले मित्र की संगत में दुःख ही मिलता है उसी तरह दुष्ट स्त्री को भार्या बनाने से प्रेम मिलना मुश्किल है। किसी गुरु को भी कुठित मानसिकता वाले शिष्य को शिक्षा देने से यश नहीं मिलता।"
             जितना भी हम अपने संबंधों और संपत्ति का विस्तार करते हैं कालांतर में उनको निभाने और संभालने का भी संकट उत्पन्न होता है। इसके अलावा जो अपेक्षाऐं हम करते हैं वह सभी पूर्ण हो जायें यह संभव नहीं है। उम्र और समय के साथ आदमी की शक्ति कभी कभी क्षीण भी होती है तब जीवन में विस्तारित कृत्य अत्यंत कष्टकारक हो जाते हैं। इसलिये जहां तक हो सके सीमित साधनों के साथ सीमित लक्ष्यों की पूर्ति का प्रयास करना चाहिए। अधिक अपेक्षाऐं करना ठीक नहीं है। महत्वपूर्ण बात यह है कि किसी वस्तु की प्राप्ति की इच्छा हो या किसी व्यक्ति से संबंध स्थापित करने का भाव मन में हो तब तर्क की कसौटी पर विचार करना चाहिए। बिना सोचे समझे कम करने के परिणाम कभी अच्छे  भी नहीं होते।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
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Thursday, August 11, 2011

पतंजलि योग विज्ञान-दृष्टा बनकर जीवन को देखना चाहिए (life see as vewers-patanjali yog scince)

            पतंजलि योग साहित्य में कहा गया है कि
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            द्रष्टा दृशिमात्रः शुद्धोऽपि प्रत्ययानुपश्यः।।
          ‘‘चेतनमात्र दृष्ट (आत्मा) यद्यपि स्वभाव से एकदम शुद्ध यानि निर्विकार तो बुद्धिवृति के अनुरूप देखने वाला है।
           तदर्थ एवं दृश्यस्यात्मा।।
         ‘‘दृश्य का स्वरूप उस द्रष्टा यानि आत्मा के लिये ही है।’’
                    संपादकीय व्याख्या-पंचतत्वों से बनी इस देह का संचालन आत्मा से ही है मगर उसे इसी देह में स्थित इंद्रियों की सहायता चाहिए। आत्मा और देह के संयोग की प्रक्रिया का ही नाम योग है। मूलतः आत्मा शुद्ध है क्योंकि वह त्रिगुणमयी माया से बंधा नहीं है पर पंचेंद्रियों के गुणों से ही वह संसार से संपर्क करता है और बाह्य प्रभावों का उस पर प्रभाव पड़ता है।
           आखिर इसका आशय क्या है? पतंजलि विज्ञान के इस सूत्र का उपयोग क्या है? इन प्रश्नों का उत्तर तभी जाना जा सकता है जब हम इसका अध्ययन करें। अक्सर ज्ञानी लोग कहते हैं कि ‘किसी बेबस, गरीब, लाचार, तथा बीमार या बेजुबान पर अनाचार मत करो’ तथा ‘किसी असहाय की हाय मत लो’ क्योंकि उनकी बद्दुआओं का बुरा प्रभाव पड़ता है। यह सत्य है क्योंकि किसी लाचार, गरीब, बीमार और बेजुबान पशु पक्षी पर अनाचार किया जाये तो उसका आत्मा त्रस्त हो जाता है। भले ही वह स्वयं दानी या महात्मा न हो चाहे उसे ज्ञान न हो या वह भक्ति न करता हो पर उसका आत्मा उसके इंद्रिय गुणों से ही सक्रिय है यह नहीं भूलना चाहिए। अंततः वह उस परमात्मा का अंश है और अपनी देह और मन के प्रति किये गये अपराध का दंड देता है।
         कुछ अल्पज्ञानी अक्सर कहते है कि देह और आत्म अलग है तो किसी को हानि पहुंचाकर उसका प्रायश्चित मन में ही किया जा सकता है इसलिये किसी काम से डरना नहीं चाहिए। । इसके अलावा पशु पक्षियों के वध को भी उचित ठहराते हैं। यह अनुचित विचार है। इतना ही नहीं मनुष्य जब बुद्धि और मन के अनुसार अनुचित कर्म करता है तो भी उसका आत्मा त्रस्त हो जाता है। भले ही जिस बुद्धि या मन ने मनुष्य को किसी बुरे कर्म के लिये प्रेरित किया हो पर अंततः वही दोनों आत्मा के भी सहायक है जो शुद्ध है। जब बुद्धि और मन का आत्मा से संयोग होता है तो वह जहां अपने गुण प्रदान करते हैं तो आत्मा उनको अपनी शुद्धता प्रदान करता है। इससे अनेक बार मनुष्य को अपने बुरे कर्म का पश्चाताप होता है। यह अलग बात है कि ज्ञानी पहले ही यह संयोग करते हुए बुरे काम मे लिप्त नहीं होते पर अज्ञानी बाद में करके पछताते हैं। नहीं पछताते तो भी विकार और दंड उनका पीछा नहीं छोड़ते।
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Sunday, August 7, 2011

मनुस्मृति-राजस्व उगाही के लिये ईमानदार कर्मचारी नियुक्त करें (manu smriti-hounest officer oppoint for revenue colllection)

             भारतीय अध्यात्मिक ग्रंथों के ज्ञान से सुसज्जित ज्ञान और सात्विक पुरुष राजनीति नहीं करते क्योंकि राजकर्म हमेशा राजस भाव के लोगों का शौक रहा है। हमारे देश में समाज की निज गतिविधियों पर भी राज्य का हस्तक्षेप हो गया है इससे राजनीति में रुचि रखने वाले लोगों की संख्या बहुत अधिक होती जा रही है। यह अलग बात है कि अब राजनीति एक व्यवसाय हो गयी है इसलिये अनेक युवक युवतियां इससे विमुख भी रहे हैं। हालांकि आधुनिक लोकतंत्र में आम लोगों की भागीदारी बढ़नी चाहिए थी पर हो उल्टा रहा है। लोग राजनीति में सक्रिय लोगों को संदेह से देखने लगे हैं। खर्चीली चुनाव पद्धति के कारण आम आदमी चुनाव लड़ने की सोच भी नहीं सकता। यही कारण है कि जिसके धन, पद और बाहुबल है वह समाज पर नियंत्रण करने के लिये राजनीति में सक्रिय हो जाता है। राजनीति केवल व्यक्तिगत हित साधना का साधन बन गयी है। बहुत कम लोग जानते हैं कि राजनीति के अर्थ और उद्देश्य अत्यंत व्यापक हैं।
   मनु महाराज कहते हैं कि
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              अध्यक्षान्विविधानकुर्यात्तत्र त़ विपश्चितः।
            तैऽस्य सर्वाण्यवेक्षेरनृणां कार्याणि कृर्वाताम्।।
        ‘‘राज्य प्रमुख को जनता की भलाई से संबंधित कार्यों को करने वाले कर्मचारियों पर दृष्टि रखने के लिये विद्वानो को नियुक्त करना चाहिए। उनको यह आदेश देना चाहिए कि वह राज्य कर्मियों के कार्यों पर हमेशा दृष्टि रखें।’’
        सांवत्सरिकमाप्तैश्च राष्ट्रादाहारववेद् बलिम्।
          स्वयाच्याययम्नाय परो लोके वर्तत पितृवन्नृषु।।
   ‘‘राज्य प्रमुख को चाहिए कि वह करों की उगाही के लिये ऐसे कर्मचारियों को नियुक्त करे जिनकी ईमानदारी प्रमाणिक हो। राजा को अपनी प्रजा का पालन संतान की तरह करना चाहिए।’’
              राजनीति से समाज हित किया जाता है न कि उस पर नियंत्रण कर अपना घर भरा जाता है। हमारे अध्यात्मिक ग्रंथों में राजनीति की विशद व्याख्या है पर उसे शायद ही कोई समझना चाहता है। समझना भी क्यों चाहे क्योंकि भारतीय अध्यात्मिक ग्रंथ जनता को अपनी संतान की तरह समझने की बात कहते हैं और स्थिति यह है कि व्यवसायिक राजनीतिज्ञ अपनी संतान को ही प्रजा समझते है। इसी कारण राजकर्मियों पर उनका नियंत्रण नहीं रहता और उनमें से कुछ लोग चाहे जैसा काम करते हैं। जनहित हो या न हो वह राजनीतिज्ञों को भ्रमित कर उनका तथा अपना घर भर भरते हैं। हालांकि अनेक राजनीतिज्ञ विशारद होते हैें पर कुछ लोग तो केवल पद पर इसलिये बैठते हैं कि उनका रुतवा समाज पर बना रहे। ऐसे राजनीतिज्ञों से जनता को कोई लाभ नहीं होता। वह ईमानदार राजकर्मियों का उपयोग न कर चालाक तथा भ्रष्ट कर्मचारियों को ऐसे पदों पर नियुक्त कर देते हैं जो जनहित करने के लिये सृजित किये जाते है। कार्यकुशलता तथा राजनीतिक ज्ञान का अभाव उनकी स्वयं की ईमानदारी भी संदेह उत्पन्न कर देता है। जिन लोगों को राजनीति में आना है या सक्रिय हैं उनको राजनीति के सिद्धांतों का अध्ययन अवश्य करना चाहिए।
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Friday, August 5, 2011

मनुस्मृति से संदेश-प्रजा हित के लिये राज्यप्रमुख को हमेशा युद्ध के लिये तैयार रहना चाहिए (king should always reddy to war for public welfare-manu smriti)

             समाज हित के लिये राज्य और राजा की व्यवस्था पूरे विश्व में स्वीकार की गयी है। किसी भी राज्य के कार्य का दायरा अत्यंत विस्तृत होता है। केवल एक राजा या उसके कुछ अनुचर मिलकर पूरे राज्य की व्यवस्था नहीं चला सकते इसलिये राजा और प्रजा के बीच एक बहुत बड़ा संगठन होता है जिसमें प्रथक प्रथक विभाग होते हैं जिनमें कार्य करने वाले व्यक्तियों के लिये पदों का सृजन किया जाता है। राज्य प्रमुख या राजा तो एक ही होता है पर उसके अंतर्गत अनेक राजकीय कर्मी अनुचर पदों के नाम से शासन करते हैं। यही कारण है कि प्रजा में से अनेक लोग राजकीय पदों पर भी सुशोभित होते हैं पर राजकीय पद के अहंकार में वह प्रजाजनों से ही राजा की तरह बर्ताब करते हैं। यह बुरा नहीं है पर अगर ऐसे राजकीय पदधारी लोग राजनीति नहीं जानते तो वह समाज का संकट बन जाते हैं। इतना ही नहीं अगर वह सक्षम न हों तो राजा के शत्रुओं के लिये हमले करना आसान हो जाता है। इसलिये यह आवश्यक है कि राजकीय पदों पर राज्य प्रमुख के अनुचर पदों वाले लोग भी राजनीति शास्त्र का ज्ञान रखें।
                साम्ना दोनेन भेदेन समस्तैरथवा पृथक।
                 विजेतुः प्रयतेतनारीन्न युद्धेन कदाचन्।।
           ‘‘जिस राज्य प्रमुख को जीत की इच्छा हो वह साम, दाम तथा भेद नीति के माध्यम से किसी भी शत्रु को अपने अनुकूल बनाने का प्रयास करे। अगर उसमें असफल हो तो फिर उसे दंडात्मक कार्यवाही यानि युद्ध करना ही चाहिए।’’
               त्रयाणामप्युपायानां पूर्वोक्त्तानामसम्भवे।
                 ततो युध्येत संपन्नो विजयेत रिपून्यथा।।
             ‘‘साम, दाम तथा भेद नीतियों में सफलता न मिले तो फिर राजा को अपने शत्रु के विरुद्ध पूरी तैयारी के बाद युद्ध छेड़ना चाहिए ताकि निश्चित रूप से विजय मिल सके।
                आधुनिक लोकतंत्र में राज्य प्रमुख की शक्तियों का विकेंद्रीकरण हो गया है इसलिये अनेक स्थानीय, प्रादेशिक तथा केंद्रीय स्तर के पद भी राज्य प्रमुख की तरह आकर्षक प्रभाव रखने वाले हो गये हैं। उनके आकर्षण के शिकार लोग उनको पाना चाहते हैं। उनको लगता है कि यह पद समाज पर प्रभाव दिखाने के लिये सबसे आसान मार्ग हैं। वह कभी यह नहीं सोचते कि इन पदों से राज्य का उपभोग तो किया जाता है पर अपने कौशल से प्रजा की रक्षा भी की जाती है। इसके लिये राजनीति शास्त्र का ज्ञान होन आवश्यक है। खासतौर से राज्य के शत्रुओं से निपटने की कला आना चाहिए। जिसमें वीरता के साथ प्रबंध कौशल भी होना चाहिए। यही कारण है कि हम देख रहे हैं कि विश्व राजनीति में ऐसे लोग भी शीर्ष पदों पर पहुंच रहे हैं जो प्रत्यक्ष शासन करते दिखते हैं पर उनकी डोर धनपतियों, बाहुबलियों तथा चालाक लोगों के हाथ में होती है। हिटलर जैसे लोग भी इतिहास में हुए हैं पर शक्ति के बल पर हासिल सत्ता अपने राज्य का भला करने की बजाय उसे हानि पहुंचाते हैं। शक्ति के मद में चूर अनावश्यक रूप से युद्ध करते हैं और बाद में मारे जाते हैं। फिर गद्दाफी जैसे लोग भी हुए हैं जो शक्ति के दम पर सत्ता प्राप्त करने के बाद भ्रष्ट हो जाते हैं और प्रजा के शत्रु हो जाते हैं। अगर हम पूरे विश्व की वर्तमान व्यवस्था को देखें तो लगता है कि अनेक लोग केवल अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए राजकर्म  करते हैं  न कि उनका लक्ष्य प्रजा  या समाज का भला करना होता है। उनको राजनीतिशास्त्र का ज्ञान न के बराबर होता, भले ही वह  पद कितने भी बड़े पद पर बैठे हों। 
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
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Tuesday, August 2, 2011

अथर्ववेद-जो प्रजा की सुरक्षा करे वही इंद्र के समान राजा कहा जाता है

         सभी मनुष्य को अपने लिये नियत तथा स्वाभाव के अनुकूल कार्य करना चाहिए। इतना ही नहीं अगर सार्वजनिक हित के लिये कोई कार्य आवश्यक करने की अपने अंदर क्षमता लगे तो उसमें भी प्राणप्रण से जुट जाना चाहिए। अगर हम इतिहास और धर्म पुस्तकों पर दृष्टिपात करें तो सामान्य लोग तो अपना जीवन स्वयं और परिवार के लिये व्यय कर देते हैं पर जो ज्ञानी, त्यागी और सच्चे भक्त हैं पर सार्वजनिक हित के कार्य न केवल प्रारंभ करते हैं बल्कि समय आने पर बड़े बड़े अभियानों का नेतृत्व कर समाज को सम्मान और परिवर्तन की राह पर ले जाते हैं। ऐसे लोग न केवल इतिहास में अपना नाम दर्ज करते हैं वरन् अपने भग्वत्स्वरूप हो जाते हैं।
भारतीय अध्यात्म ग्रंथ अथर्ववेद में कहा गया है कि
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यः शर्धते नानुददाति शुध्यां दस्योर्हन्ता स जनास इन्द्रः।
‘‘जो मनुष्य अहंकारी के अहंकार को दमन करता है और जो दस्युओं को मारता है वही इन्द्र है।’’
यो जाभ्या अमेथ्यस्तधत्सखायं दुधूर्षति।
ज्योष्ठो पदप्रचेतास्तदाहु रद्यतिगति।
‘‘जो मनुष्य दूसरी स्त्री को गिराता है, जो मित्र की हानि पहुंचाता है जो वरिष्ठ होकर भी अज्ञानी है उसको पतित कहते हैं।’’
       एक बात निश्चित है कि जैसा आदमी अपना संकल्प धारण करता है उतनी ही उसकी देह और और मन में शक्ति का निर्माण होता है। जब कोई आदमी केवल अपने परिवार तथा स्वयं के पालन पोषण तक ही अपने जीवन का ध्येय रखता है तब उसकी क्षमता सीमित रह जाती है पर जब आदमी सामूहिक हित में चिंत्तन करता है तब उसकी शक्ति का विस्तार भी होता है। शक्तिशाली व्यक्ति वह है जो दूसरे के अहंकार को सहन न कर उसकी उपेक्षा करने के साथ दमन भी करता है। समाज को कष्ट देने वालों का दंडित कर व्यवस्था कायम करता है। ऐसी मनुष्य स्वयं ही देवराज इंद्र की तरह है जो समाज के लिये काम करता है। शक्तिशाली मनुष्य होने का प्रमाण यही है कि आप दूसरे की रक्षा किस हद तक कर सकते हैं।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
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