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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका
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Monday, February 27, 2017

क्या अभिव्यक्ति की आजादी केवल पाकिस्तान के समर्थन पर ही टिकी है-हिन्दी व्यंग्य चिंत्तन (What Against Agitation for Nationalism based on Supoort of Pakistan-Hindi Satire Thought Article)

                                               सुना है दिल्ली में कोई अभिव्यक्ति की आजादी वाजादी पर आंदोलन चल रहा है।  पहले बिहार में जब चुनाव होने वाले थे उस समय असहिष्णुता पर अभियान चला था। उत्तरप्रदेश में चुनावों को देखते हुए यह अभियान पहले चलना था पर लगता है इसके लिये नायक और नायिकाओं का चयन देर से हुआ। एक मजेदार बात यह है कि राष्ट्रवादियों के विरोधी हमेशा ही कहीं न कहीं पाकिस्तान का समर्थन जरूर करते हैं। इस बार एक शहीद की संतान ने बताया कि पाकिस्तान ने उसके पिता को नहीं मारा। बवाल मचना था मच गया।
                राष्ट्रवादियों का मुकाबला हमेशा ही जनवादी करते हैं और यह समझ में नहीं आता कि वह अपने अभियान में पाकिस्तान के समर्थन का संकेत अवश्य क्यों देते हैं?  पीछे से प्रगतिशील भी आ जाते हैं। ऐसे में सवाल यह है कि इनकी आजादी की अभिव्यक्ति केवल पाकिस्तान के खुलेआम तक ही सीमित क्यों होती है? इसका मतलब यह है कि यह लोग भी प्रचार चाहते हैं। इन्हें उम्मीद है कि जब आगे कभी प्रगतिशील सरकार आयी तो शायद उनको कोई सम्मान वगैरह मिल जायेगा-संभव है संयुक्त अरब अमीरात में कहीं नौकरी या सेमीनारों के लिये बुलावा आने लगे। यह भी संभव है अभी राष्ट्रवादियों के विरोधी इन्हें धन वगैरह देते हैं-हमारा मानना है कि बिना अर्थ के आजकल हम जैसा मुफ्त में लिखने वाला लेखक भी किसी से प्रतिबद्ध होकर नहीं लिखता तब यह लोग क्या दूसरें के लिये जूझेंगे-इस उम्मीद में कि उनका प्रभाव बना रहे। फिर प्रचार माध्यमों का भी ऐसी कथित संवदेनशील बहसों पर विज्ञापन का समय भी पास हो जाता है। सबसे बड़ी बात यह कि पाकिस्तान का समर्थन किये बिना राष्ट्रवादियों के विरोधियों को प्रचार नहीं मिलता इसलिये कहीं न कहीं से वह जानबूझकर ऐसा करते हैं।
                    बहरहाल इस तरह राष्ट्रवादी और उनके विरोधी जनवादी अपने प्रगतिशील साथियों के साथ समाचारों और बहसों में आकर टीवी चैनलों के विज्ञापन का समय खूब पास करते हैं।  खासबात यह कि हिन्दी चैनलों में इसे आजकल उत्तर प्रदेश के चुनावो की वजह से कम महत्व मिल रहा है जबकि अंग्रेजी चैनल इस पर हल्ला मचा रहे हैं। जनवाद और प्रगतिशीलों समर्थक यह अंग्रेजी चैनल अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी निष्पक्षता दिखा रहे हैं पर हमारा मानना है कि जिस तरह ट्रम्प ने आक्रामकता दिखाई है उसके चलते राष्ट्रवादियों को बदनाम नहीं कर पायेंगे। हां, हम ऐसे उत्साही जवानों को यह बात बता दें कि राष्ट्रवादियों के  विरोध के चलते अब उनको संयुक्त अरब अमीरात और सऊदी अरब में नौकरी या सेमीनारी मिलने की संभावनायें अब न के बराबर हैं क्योंकि दोनों ने अब उनके साथ मित्रता बना ली हैं। हालांकि इनका यह भ्रम कब टूटेगा कि राष्ट्रवाद का विरोध पाकिस्तान के समर्थन पर ही टिका है।

Thursday, February 23, 2017

महाराष्ट्र के निकाय चुनाव परिणामों में दक्षिणपंथ (राष्ट्रवाद) का अभ्युदय-हिन्दी संपादकीय (Maharashtra Local Boddy Election and varios Thought of Politics-Hindi Editorial)



                                     महाराष्ट्र के नगर निकायों के चुनाव परिणाम का विचाराधारा के आधार पर शायद ही मूल्यांकन कोई करे क्योंकि दक्षिणपंथी (राष्ट्रवादी) जहां जीत के नशे में डूब जायेंगे वहीं प्रगतिशील तथा जनवादी विद्वान अपना मुंह फेर लेंगे। हम जैसे स्वतंत्र लेखकों के लिये चुनाव का विषय इसलिये दिलचस्प होता है क्योंकि विचाराधाराओं के संवाहक इन्हें केवल वहीं तक ही सीमित रखते हैं। चुनाव तक लेखक विद्वान अपनी सहविचारधारा वाले संगठनों को बौद्धिक सहायता देते हैं और बाद में फिर उसी आधार पर उन्हें सम्मान आदि भी  मिलता है। यह चुनाव राज्य प्रबंध के लिये होता है पर उसका संचालन अंग्रेजों की पद्धति से स्वाचालित है जिसमें कभी परिवर्तन नहीं आता भले ही चुनाव में उसका दावा किया जाये। जो चुनाव लड़ते हैं उनका विचाराधारा से लगाव तो दूर उसकी जानकारी तक उन्हें नहीं होती। जिन विद्वानों को जानकारी है वह केवल प्रचार तक ही सीमित रहते हैं। चुनाव बाद राज्य प्रबंध का रूप बदलने की बजाय उसके उपभोग में सब लग जाते हैं। 
                              बहरहाल महाराष्ट्र के चुनाव परिणाम समाजवाद और वामपंथियों के लिये भारी झटका है।  एक तथा दो नंबर के दोनों दल दक्षिणपंथ के संवाहक मान जाते हैं।  मुंबई शहर में सभी विचारधाराओं के विद्वानों के जमावड़ा रहता है। प्रगतिशील तथा जनवादी देश की आर्थिक राजधानी में रहकर गाहेबगाहे धर्मनिरपेक्षता के लिये सेमीनार करते हैं जिनका दक्षिणपंथी लोग विरोधी करते है। तब जनवादी व प्रगतिशील लोग भी आकर डटते हैं।  देखा जाये तो नगर निकायों के चुनाव ने समाजवाद तथा वामपंथ विचाराधारा को मरणासन्न हालत में पहुंचा दिया है। कथित धर्मनिरपेक्षता, समाजवाद और गरीबों के लिये उद्धारक विचाराधारा के संवाहकों के लिये अब वहां सांस लेना मुश्किल होगा। दक्षिणपंथी अब संख्या में दोगुने हो गये हैं तो समाजवादी और जनवादियों नगण्य रह गये हैं। मूलतः जनवादियों को समाजवादियों का ही कहार कहा जाता है। जनवादियों का देश में वर्चस्व अधिक नहीं है पर समाज को गरीबों, मजदूरों, नारियों, बच्चों तथा वृद्धों के वर्गों में बांटकर उससे बहलाकर राज्यप्रबंध हासिल करने में वह समाजवादियों के सहायक रहे हैं।  हम मानते हैं कि वैसे तो हमारे देश आम जनमानस कभी वर्गों में बंटकर मतदान नहीं करता पर प्रचार माध्यमों में भी इन विचाराधाराओं के विद्वानों का वजूद अधिक है इसलिये यह सच कोई नहीं बताता-यहां तक दक्षिणपंथी भी इससे बचते हैं क्योंकि कहीं न कहीं क्षेत्र, भाषा तथा धर्म की आड़ में वह भी अपने संगठन चलाते हैं, जबकि इनका मुख्य साथी मध्यम वर्ग हैं जिसे कोई भी विचाराधारा अपनत्व नहीं दिखाती। 
                    एक स्वतंत्र लेखक के रूप में अब हमारे सामने दक्षिणपंथी (राष्ट्रवादी) संगठन हैं जिनसे हम यह पूछना चाहते हैं कि कथित रूप से देश में हिन्दूओं की संख्या घट रही है तो फिर उन्हें चुनावों में लगातार कैसे इतनी सफलता मिल रही है? जवाब भी हम देते हैं कि वह भी जनवादियों और समाजवादियों की तरह भ्रमित न रहें-जिन्होंने हमेशा ही समाज को वर्गो में बांटकर उसका भला करने का ढोंगे किया। देश सदियों तक गुलाम रहने का इतिहास तो यह दक्षिणपंथी बताते हैं पर यह समझें कि यह तत्कालीन अकुशल राज्य प्रबंध के अभाव के कारण हुआ था।  अंग्रेजी पद्धति से चल रहा शासन देश के अनुकूल नहीं है इसलिये एक नये प्रारूप का राज्य प्रबंध होना चाहिये-यही महाराष्ट्र के निकाय चुनावों का संदेश है। यह लेखक मूलतः भारतीय अध्यात्मिकवादी विचाराधारा का है फिर भी यह मानता है कि लोग चाहे किसी वर्ग या धर्म से हो वह बेहतर राज्य प्रबंध के लिये मतदान करता है। यह जातपात या भाषा का आधार ढूंढना ठीक नहीं है। यह भी साफ कहना चाहते हैं कि अभी भी दक्षिणपंथियों (राष्ट्रवादी) को अपनी कुशलता राज्य प्रबंध में दिखानी है-उन्हें यह नहीं समझना चाहिये कि वह अपने लक्ष्य मध्यम वर्ग की सहायता के बिना इस तरह प्राप्त कर लेंगे। साथ ही यह भी कि उनकी राज्य प्रबंध में नाकामी भारतीय संस्कृति, धर्म तथा कला को भारी हानि पहुंचायेगी।
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Sunday, February 12, 2017

अमेरिका में राजनीतिक परिवर्तन से मची उथलपुथल के निहितार्थ-हिन्दी संपादकीय (meaning of political cheng in America-Hindi Editorial)

                                    अभी तक हम जनवादियों के अमेरिकी साम्राज्यवाद पर निरंतर प्रवचन सुनते थे।  अमेरिका एक पूंजीपति तथा साम्राज्यवादी देश है-यह भ्रम जनवादियों ने भारत में खूब फैलाया है।  अब जिस तरह ट्रम्प अप्रवासियों के विरुद्ध अपनी ही न्यायापालिका से जूझ रहे हैं उससे हमें लगता है कि यह भ्रम था।  दरअसल दुनियां भर के शिखर पुरुष अपनी पूंजी एकत्रित कर अमेरिका में ले जाते और वहां अपना निवास आदि बनाने के साथ पर्यटन भी करते थे। अब तो अमेरिका में ही अर्थविशेषज्ञ कह रहे हैं कि हमारा पूरा ढांचा ही विदेशी मेहमानों पर निर्भर है।  हमने देखा भी होगा कि हमारे सामाजिक, आर्थिक, कला, सिनेमा तथा पत्रकारिता के शिखर पुरुष अमेरिका जाकर वहां की अर्थव्यवस्था को ही मजबूत करते हैं। अगर कभी किसी की तलाशी हो जाये तो यहां ऐसा शोर मचता है जैसे कि अमेरिका हमारे देश को कोई प्रांत हो
                                        वैसे हमने ब्लॉग पर अनेक लेखों में इस भ्रम पर अपना विचार व्यक्त किया था। अमेरिका में कोई भारतीय बड़े पद पर पहुंच जाये या कोई सम्मान पाये तो यहां ऐसे जश्न मनता है जैसे कि कोई बड़ा तीर मार लिया है। यहां तक नोबल के आगे भारत रत्न और ऑस्कर के आगे फिल्म फेयर सम्मान की कोई औकात ही नहीं मानी जाती। अमेरिका को सामा्रज्यवादी मानना ही दरअसल जनवादियों की देश में व्याप्त गुलामी की मानसिकता का पालन पोषण करना रहा है। यहां तक जनवादियों के दो इष्ट पुरुष चीन का राष्ट्रपति शी जिनपिंग और रूस का पुतिन भी अपना पैसा वहां भिजवाता है-पनामा लीक्स में इनका भी नाम है। कभी जनवादियों ने अपने पूंजीपतियों के अमेरिका में पैर पसारने का जिक्र नहीं किया इससे संशय तो होता ही है। हमने अपने लेखों में तो यहां तक लिखा है कि अमेरिका तो विश्व के पूंजीपतियों का उपनिवेश है जहां से वहां अपना नियंत्रण सभी देशों पर रखते हैं-यही उसके शक्तिशाली होने का राज भी है।
                           जिस तरह ट्रम्प के सात देशों के नागरिकों पर बैन लगाया गया है और उस पर पूरे विश्व में प्रदर्शन हो रहे हैं उससे तो लगता है कि पूरा विश्व उसका उपनिवेश है। अमेरिका देश नहीं वरन् विश्व के उन पूंजीपतियों की राजधानी है जहां से पूरा विश्व संचालित है।  जनवादी अमेरिकी साम्राज्यवाद की बात करते हैं जो कि उनका ही गढ़ा हुआ कल्पित पात्र लगता है। जनवादी भी ट्रम्प के निर्णय का विरोध कर रहे हैं-इसका आशय यह है कि वह मानते हैं कि अमेरिका पूरे विश्व का बाप है और प्रतिबंध लगाकर वह अपने सात बच्चों के साथ अन्याय कर रहा है। कहीं ऐसा तो नहीं कि अमेरिकी साम्राज्यवाद की वह कल्पित धारणा खंडित हो रही है जिसके आधार वामपंथी विश्व भर के जनमानस को बौद्धिक संशय में डाल कर अपने हित साधते थे। सबसे बड़ी बात यह कि अपने ही देश के निर्णय के विरुद्ध अमेरिका के अनेक बौद्धिक भी खड़े हुए हैं जिनको लगता है कि पूरा विश्व ही उनका उपनिवेश है और यह रोक उनके महान होने की छवि पर सवाल खड़े करती है-उससे ज्यादा उनका स्वयं के महान होने की छवि का भ्रम खंडित हो रहा है।
                                 अमेरिका के नये राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने प्रचार माध्यम तथा अरेबिक आतंकवाद के विरुद्ध एक साथ मोर्चा खोल दिया है। उन्होंने  आरोप लगाया है कि कम से कम 72 अरेबिक धार्मिक आतंकवादी घटनाओं को मीडिया ने छिपाया।  हमें नहीं मालुम कि वह कौनसी घटनायें हैं पर फेसबुक पर अनेक बार यजीदी, कुर्दिश तथा ईसाई महिलाओं के साथ इराक तथा सीरिया के आतंकवादियों की भयानक बदतमीजी की घटनायें समाचार बनी पर अंतराष्ट्रीय प्रचार माध्यमों ने उन्हें नहीं बताया। हमें भी कई बार लगा कि यह शायद अरेबिक धर्म को बदनाम करने के लिये प्रचारित हुईं हैं पर ट्रम्प के बयान से लगता है कि यह सच है।
                               कुछ लोग यह सवाल उठा सकते हैं कि आखिर अल्जजीरा, सीएनएन और बीबीसी वाले ऐसे समाचार क्यों दिखायें? समूचा अरब जगत कोई इनके समाचार क्षेत्र में आता है क्या?
                                         हमारा जवाब है कि जब अरेबिक लोगों पर प्रतिबंध के बाद इराक के बीमार बच्चे का अमेरिका आना बाधित होने पर जब यह चैनल हाहाकार मचा रहे हैं तो फिर यह बात भी कही जा सकती है कि इराक का एक बच्चा जब समाचार क्षेत्र के दायर में सकता है तो हजारों यजीदी तथा कुर्द महिलाओं के साथ बदसलूकी तथा उनकी हत्या का समाचार क्यों नहीं सकता?
                                      एक बात तय रही कि ट्रम्प ने साबित कर दिया है कि वह मीडिया की वह परवाह नहीं करते। जब से आये हैं तब से अमेरिका सहित पश्चिमी जगत के समूचे मीडिया में उनका नाम एक दबंग छवि का पर्याय बन गया है। प्रसंगवश भारत में भी हिन्दू धार्मिक संगठन प्रचार माध्यमों पर ऐसे ही आरोप लगाते हैं जिसमें कहीं कोई एक गैर हिन्दू पर प्रहार हुआ तो बिना जानकारी के प्रचार माध्यम हिन्दू संगठनों पर हमला करते देते हैं जबकि कहीं एक साथ हिन्दुओं पर सामूहिक हमला होता है तो प्रचार माध्यम खामोश रहते हैं-हमारे पास कोई प्रमाण नहीं है पर  अपनी फेसबुक की दीवार पर अनेक ऐसे संदेश देखे हैं जिस पर यकीन करें या नहीं समझ में नहीं आता।
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