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Friday, July 31, 2009

चाणक्य नीति-तत्वज्ञानी के लिए देव हर स्थान में व्याप्त (chankya niti-dev har sthan men vyapt)

नीति विशारद चाणक्य के अनुसार
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अग्निर्देवो द्विजातीनां मुनीनां हृदि दैवतम्।
प्रतिभा स्वल्पबुद्धीनां सर्वत्र समदर्शिनाम्
हिंदी में भावार्थ
-द्विजातियां अपना देव अग्नि, मुनियों का देव उनके हृदय और अल्प बुद्धिमानों के लिये देव मूर्ति में होता है किन्तु जो समदर्शी तत्वज्ञानी हैं उनका देव हर स्थान में व्याप्त है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-सकाम भक्ति करने वाले हवन, यज्ञ तथा भोजन दान करते हैं। उनके लिये देवता अग्नि है। जो सात्विक भक्ति करता हैं उनके लिये सभी के दिल में भगवान है। जो लोग एकदम अज्ञानी है वह केवल मूर्तियों में ही भगवान मानकर उनकी पूजा करते है। उनको किसी अन्य प्रकार के काम से कोई मतलब नही होता-न वह किसी का परोपकार करते हैं न ही सत्संग के माध्यम से ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा उनके मन में आती है। सच्चा ज्ञानी और योगी वही है जो हर जगह उस ईश्वर का वास देखता है।
इस विश्व में अज्ञानी और स्वार्थी लोगों की भरमार है। लोगों ने धर्म से ही भाषा, ज्ञान, विचार, और व्यापार को जोड़ दिया है। आपने देखा होगा कि कुछ लोग धर्म परिवर्तन करते हैं तो अपना नाम भी बदल देते हैं। वह लोग अपने इष्ट के स्वरूप में बदलाव कर उसे पूजने लगते हैं। कहने को भले ही उनका धर्म निरंकार का उपासक हो पर कर्म के आधार पर मूर्तिमान को भजते दिखते हैं-उनका देव भले ही निरंकार हो पर धर्म एक तरह से मूर्तिमान होता है। कहने को सभी धर्माचार्य यही कहते हैं कि इस विश्व में एक ही परमात्मा है पर इसके पीछे उनकी चालाकी यह होती है कि वह केवल अपने वाले ही स्वरूप को इकलौता सत्य बताते हुए प्रचार करते हैं-कभी किसी दूसरे धर्म के स्वरूप पर बोलते कोई धर्माचार्य दिखाई नहीं देता। अलबत्ता भारत धर्मों से जुड़े के कुछ तत्वज्ञानी संत कभी अपने अंदर ऐसे पूर्वाग्रह के साथ सत्संग नहीं करते। वैसे भी भारतीय धर्म की यह खूबी है कि वह इस संसार में व्यापक दृष्टिकोण रखते हैं और केवल मनुष्य की बजाय सभी जीवों-यथा पशु पक्षी, जलचर, नभचर और थलचर-के कल्याण जोर दिया जाता है।
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Thursday, July 30, 2009

रहीम संदेश-अपनी योजना और तकलीफ उजागर न करें (rahim ke dohe-yojna aur dukh)

रहिमन निज मन की, बिथा, मन ही राखो गोय।
सुनि अठिलैह लोग सब, बाटि न लैहैं न कोय।।

कविवर रहीम कहते हैं कि मन की व्यथा अपने मन में ही रखें उतना ही अच्छा क्योंकि लोग दूसरे का कष्ट सुनकर उसका उपहास उड़ाते हैं। यहां कोई किसी की सहायता करने वाला कोई नहीं है-न ही कोई मार्ग बताने वाला है।

रहिमन ठहरी धूरि की, रही पवन ते पूरि।
गांठ युक्ति की खुलि गई, अंत धूरि को धूरि।

कविवर रहीम कहते हैं कि जिस तरह जमीन पर पड़ी धूल हवा लगने के बाद चलायमान हो उठती है वैसे ही यदि आदमी की योजनाओं का समयपूर्व खुलासा हो जाये तो वह भी धूल हो जाते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-दूसरे का दुःख देखकर प्रसन्न होने वालों की इस दुनियां में कमी नहीं है। पंच तत्वों से बनी इस देह में मन, बुद्धि और अहंकार की प्रवृत्तियां हर मनुष्य में रहती हैं। इस संसार में भला कौन कष्ट नहीं उठाता पर अपने दिल को हल्का करने के लिये लोग दूसरों के कष्टों का उपहास उड़ाते हैं। इसलिये जहां तक हो सके अपने मन की व्यथा अपने मन में ही रखना चाहिये। सुनने वाले तो बहुत हैं पर उसका उपाय बताने वाला कोई नहीं होता। अगर सभी दुःख हरने का उपाय जानते तो अपना ही नहीं हर लेते।
अपने जीवन की योजनाओं को गुप्त रखना चाहिये। जीवन में ऐसे अनेक अवसर आते हैं जब हम अपने रहस्य और योजनायें दूसरों को यह कहते हुए बताते हैं कि ‘इसे गुप्त रखना’। यह हास्यास्पद है। सोचने वाली बात है कि जब हम अपने ही रहस्य और योजनायें गुप्त नहीं रख सकते तो दूसरे से क्या अपेक्षा कर सकते हैं।
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Wednesday, July 29, 2009

संत कबीर वाणी-दो मूंह से काम करने पर पड़ता है थप्पड़ (sant kabir vani in hindi)

जो यह एक न जानिया, बहु जाने क्या होय
एकै ते से सब होत है, सब ते एक न होय

संत श्री कबीर जी के मतानुसार जो एक विषय का ज्ञाता नहीं हो पाता वह अनेक के बारे में क्या जानेगा। जो ज्ञानीजन अपने अभ्यास करते रहने से एक विषय के बारे में जान जाते हैं तो अन्य विषयों का भी उनको ज्ञान हो जाता है।
जौ मन लागै एक सों, तो निरुवारा जाय
तूरा दो मुख बाजता, घना तमाचा खाय

संत श्री कबीरदास जी कहते हैं अगर एक ही स्थान या काम में मन लगाया तो शीघ्र ही परिणाम प्राप्त हो जाता है पर अगर जो ढोल की तरह दो मुखों से काम करता है तो उसे थप्पड़ ही झेलने पड़ते हैं अर्थात उसे असफलता हाथ लगती है।
वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-चाहे भगवान की भक्ति हो या अन्य कोई विषय आदमी को एकाग्रता से काम करना चाहिए। एक साथ अनेक विषयों का अध्ययन कर पारंगत होने की बजाय पहले एक विषय के विशेषज्ञता प्राप्त कर लेने से अन्य विषयों की जानकारी भी स्वतः हो जाती है। मूल रूप से कोई एक विषय होता है पर उससे अन्य विषयों की जानकारी भी किसी न किसी रूप से जुड़ी होती है। बस अंतर यह रहता है कि कहीं किसी विषय की प्रधानता होती है तो कहीं किसी अन्य की। अगर एकाग्रता से अपने एक ही विषय में अभ्यास किया जाये तो अन्य ज्ञान भी स्वतः आता है पर अगर भटकाव आया तो कोई जीवन में सफलता प्राप्त नहीं हो पायेगी।

यही स्थिति भक्ति के विषय में भी है। एक ही इष्ट का स्मरण करना चाहिये और उसके स्वरूप में कभी बदलाव नहीं करना चाहिये। अगर हम किसी इष्ट को बचपन से पूजते आये हैं तो उसमें बदलाव नहीं करना चाहिये। ऐसा बदलाव जीवन में भ्रम और तनाव पैदा करता है। जो लोग बचपन से भक्ति नहीं करते वह तो बाद में किसी की भी भक्ति कर सकते हैं पर जिन्होंने बचपन से ही अपने इष्ट का मानते हैं उनको इस तरह बदलाव करना कष्ट का कारण बनता है।
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Tuesday, July 28, 2009

मनुस्मृति-धर्म के नाम पर ठगने वालों को पानी तक न पिलायें

यथा प्लवेनौपलेन निमज्जत्युदके तरन्।तथा निमज्जतोऽधस्तादज्ञौ दातृप्रतीच्छकौ।।
हिंदी में भावार्थ-जैसे को मनुष्य जल में प्रस्तर की नाव बनाकर डूब जाता है उसी तरह दूसरों को मूर्ख बनाकर दान लेने वाला तथा देना वाला दोनों ही नष्ट हो जाते हैं।
न वार्यपि प्रयच्छेत्तु बैडालव्रति के द्विजोन बकव्रतिके विप्रे नावेदविदि धर्मवित्।।
हिंदी में भावार्थ-धर्म की जानकारी रखने वाले प्रत्येक व्यक्ति को चाहिये कि वह ऐसे किसी पुरुष को पानी तक नहीं पिलाये जो ऊपर से साधु बनते हैं पर उनका वास्तविक काम दूसरों को अपनी बातों से मूर्ख बनाना होता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या -हमारे देश में दान देने की बहुत पुरानी परंपरा है। चाहे सतयुग हो या कलियुग दान देने का भाव हमारे देश के लोगों में सतत प्रवाहित है। इसी भाव का देाहन करने के लिये दान लेने वालों ने भी एक तरह से अपना धंधा बना लिया है। यह केवल आज ही नहीं वरन् मनु महाराज के समय से चल रहा है इसलिये वह अपने संदेश में सचेत करते हैं कि अपनी वाणी या कर्म से दूसरे को मोहित कर ठगने वाले को पानी भी न पिलायें। ऐसे ठगों को भोजन खिलाने या पानी पिलाने से कोई पुण्य नहीं मिलने वाला। ऐसे ठगों को दान देने से कोई पुण्य लाभ की बजाय पाप होने की आशंका रहती है। वह स्वयं तो नष्ट होते ही हैं बल्कि दान देने वाला भी नष्ट होता है-उसे इस बात का भ्रम होता है कि वह पुण्य कमा रहा है पर ऐसा होता नहीं है और वह निरंतर पाप का भागी बनता चला जाता है। अतः दान देते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि वह सुपात्र है कि नहीं। देखा जाये तो इस तरह के ठग मनुमहाराज के समय में भी सक्रिय रहे हैं तभी तो उन्होंने ऐसा संदेश दिया है।
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Monday, July 27, 2009

संत कबीर वाणी-ज्ञानी और कवि बहुत, पर भक्त कम हैं (kabir ke dohe in hindi)

ज्ञानी ज्ञाता बहु मिले, पण्डित कवी अनेक।
राम रता इंन्द्री जिता, कोटी मध्ये एक।।
संत कबीरदास जी कहते हैं कि ज्ञान, ज्ञाता, विद्वान और कवि तो बहुत सारे मिले पर भगवान श्रीराम के भजन में रत तथा इंद्रियां जीतने वाला तो कोई करोड़ो में कोई एक होता है।
पढ़ते-पढ़ते जनम गया, आसा लागी हेत।
बोया बीजहि कुमति ने, गया जू निर्मल खेत।।

संत कबीरदास जी कहते हैं कि पढ़ते और गुनते पूरा जन्म गुजर गया पर मन की कामनायें और इच्छायें पीछा करती रही। कुमति का बीज जो दिमाग के खेत में बोया उससे मनुष्य के मन का निर्मल खेत नष्ट हो गया।
वर्तमान संदर्भ में संपाकदीय व्याख्या-आधुनिक शिक्षा ने सांसरिक विषयों में जितना ज्ञान मनुष्य को लगा दिया उतना ही वह अध्यात्मिक ज्ञान से परे हो गया है। वैसे यह तो पुराने समय से चल रहा है पर आज जिस तरह देश में हिंसा और भ्रष्टाचार का बोलबाला है उससे देखकर कोई भी नहीं कह सकता है कि यह देश वही है जैसे विश्व में अध्यात्मिक गुरु कहा जाता है। आतंकवाद केवल विदेश से ही नहीं आ रहा बल्कि उसके लिये खादी पानी देने वाले इसी देश में है। इसी देश के अनेक लोग विदेश की कल्पित विचाराधारा के आधार पर देश में सुखमय समाज बनाने के लिये हिंसक संघर्ष में रत हैं। यह लोग पढ़े लिखे हैं पर अपने देश में वर्ग संघर्ष में समाज का कल्याण देखते हैं। अपने ही अध्यात्मिक शिक्षा को वह निंदनीय और अव्यवहारिक मानते हैं।
जहां हिंसा होगी वहां प्रतिहिंसा भी होगी। जहां आतंक होगा वहां राज्य को भी आक्रमक होकर कार्यवाही करनी पड़ती है। हिंसा से न तो राज्य चलते हैं न समाज सुधरते हैं। इतना ही नहीं इन हिंसक तत्वों ने साहित्य भी ऐसा ही रचा है और उनके लेखक-कवि भी ऐसे हैं जो हिंसा को प्रोत्साहन देते हैं।
सच बात तो यह है कि समाज पर नियंत्रण तभी रह सकता है जब व्यक्ति पर निंयत्रण हो। व्यक्ति पर निंयत्रण राज्य करे इससे अच्छा है कि व्यक्ति आत्मनियंत्रित होकर ही राज्य संचालन में सहायता करे। व्यक्ति को आत्मनिंयत्रण करने की कला भारतीय अध्यात्म ही सिखा सकता है। इसी कारण जिन लोगों के मन में तनाव और परेशानियां हैं वह भारतीय धर्मग्रंथों खासतौर से श्रीगीता का अध्ययन अवश्य करें तभी इस जीवन रहस्य को समझ पायेंगे।
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Sunday, July 26, 2009

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-ऊंचे घराने के लोग अपने से कमजोर को सताया नहीं करते (economics of kautilya-poor & rich men)

महावाताहृतभ्त्रान्ति मेधमालातिपेलवैः।
कथं नाम महत्मानो हियन्ते विषयारिभिः।।
हिंदी में भावार्थ-
जब जलराशि से भरे बादल तीव्रगामी वायु के प्रभाव से इधर उधर डोलने लग जाते हैं तब विषय रूपी शत्रुओं से साधु या महात्मा विचलित हुए बिना कैसे रह सकते है? विषयों का प्रभाव कभी न कभी उन पर पड़ता है।

कोहि नाम कुले जातः सुखलेखेन लोभितः।
अल्पसाराणि भूतानि पीडयेदविचारयन्।।
हिंदी में भावार्थ-
अपने थोड़े से सुख के लिये कोई अपने से कमजोर व्यक्ति को पीड़ित करे वह कुलीन परिवार का नहीं हो सकता। ऐसा अपराध करने वाला निश्चित रूप से अधम होता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-अपने धन, पद और बाहुबल का अभिमान पालते हुए अपने से कमजोर व्यक्ति को सताना अपराध है। ऐसे लोग नीच ही कहे जा सकते हैं। यह संदेश आज के संदर्भ में बहुत प्रासंगिक हो गया है। जिस तरह कथित रूप से कुलीन-धनाढ्य, उच्च पदस्थ तथा बाहुबली-परिवारों के लोगों में अपनी शक्ति की अनुभूति दूसरे लोगों को कराने की प्रवृत्ति बढ़ रही है उससे सभी समाजों में भारी तनाव व्याप्त है। पहले कुलीन परिवारों के युवक युवतियां अपने से कमजोर परिवारों के सदस्यों से सदाशयता का व्यवहार करते हुए अपना बड़प्पन दिखाते थे पर अब यह काम दादागिरी से किया जाने लगा है। ‘हम बड़े हैं इसलिये दूसरे की सहायता करेंगे’ की प्रवृत्ति की बजाय ‘हम बड़े हैं इसलिये किसी को भी हानि पहुंचाये पर हमारा कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता‘ इस प्रमाण के लिये अपराध किया जाते हैं। इसी कारण समाज में वैमनस्य बढ़ रहा है।

भगवानी श्रीकृष्ण ने श्रीगीता में एक तरह से सांख्यभाव को खारिज किया है। उनका कहना है कि आदमी अपनी दैहिक बाध्यताओं और इंद्रियों के वश में होने के कारण सांसरिक कार्य के लिये अवश्य प्रवृत्त होता है। इसलिये साधु सन्यासियों से यह अपेक्षा करना ही व्यर्थ है कि वह हमेशा विषयों से परे रह पायेंगे। इस संसार में विषय हर आदमी को आकर्षित करते हैं और अपनी दैहिक एवं सांसरिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये विषयों में वह कभी न कभी लिप्त होता है। मुख्य बात यह नहीं है कि कोई साधु या संत विषयों में लिप्त है बल्कि यह देखना चाहिये कि उसका आचरण कैसा है?
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Saturday, July 25, 2009

भर्तृहरि नीति शतक-चमचागिरी से कोई लाभ नहीं होता (chamchagiri se koyi labh nahin hota-hindi sandesh)

दुरारध्याश्चामी तुरचलचित्ताः क्षितिभुजो वयं
तु स्थूलेच्छाः सुमहति बद्धमनसः
जरा देहं मृत्युरति दयितं जीवितमिदं
सखे नानयच्छ्रेयो जगति विदुषेऽन्यत्र तपसः


हिंदी में भावार्थ- जिन राजाओं का मन घोड़े की तरह दौड़ता है उनको कोई कब तक प्रसन्न रख सकता है। हमारी अभिलाषायें और आकांक्षायें की तो कोई सीमा ही नहीं है। सभी के मन में बड़ा पद पाने की लालसा है। इधर शरीर बुढ़ापे की तरह बढ़ रहा होता है। मृत्यु पीछे पड़ी हुई है। इन सभी को देखते हुए तो यही कहा जा सकता है कि भक्ति और तप के अलावा को अन्य मार्ग ऐसा नहीं है जो हमारा कल्याण कर सके।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-लोगों के मन में धन पाने की लालसा बहुत होती है और इसलिये वह धनिकों, उच्च पदस्थ एवं बाहुबली लोगों की और ताकते रहते हैं और उनकी चमचागिरी करने के लिये तैयार रहते हैं। उनकी चाटुकारिता में कोई कमी नहीं करते। चाटुकार लोगांें को यह आशा रहती है कि कथित ऊंचा आदमी उन पर रहम कर उनका कल्याण करेगा। यह केवल भ्रम है। जिनके पास वैभव है उनका मन भी हमारी तरह चंचल है और वह अपना काम निकालकर भूल जाते हैं या अगर कुछ देेते हैं तो केवल चाटुकारित के कारण नहीं बल्कि कोई सेवा करा कर। वह भी जो प्रतिफल देते हैं तो वह भी न के बराबर।

सच तो यह है कि आदमी का जीवन इसी तरह गुलामी करते हुए व्यर्थ चला जाता हैं। जो धनी है वह अहंकार में है और जो गरीब है वह केवल बड़े लोगों की ओर ताकता हुआ जीवन गुंजारता है। जिन लोगों का इस बात का ज्ञान है वह भक्ति और तप के पथ पर चलते हैं क्योंकि वही कल्याण का मार्ग है।
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Friday, July 24, 2009

भर्तृहरि नीति शतक-अध्यात्मिक ज्ञान विषयों से बचाता है (bhartrihari niti shatak-adhyatmik gyan aur vishay)

सुधाशुभ्रं धाम स्फुरदमलरश्मिः शशधरः प्रियाववत्राभोजं मलयजरजश्चातिसुरभिः।
स्रजो हृद्यामोदास्तदिदमखिलं रागिणी जने करोतयन्तः क्षोभं न तु विषयसंसर्गविमुखे।।
हिंदी में भावार्थ-
सफेद रंग से पुता चमकता भवन, चंद्रमा की शीतल रौशनी, अपनी प्राणप्रिया का मुख कमल, चंदन की सुगंध, फूलों की माला जैसे विषय अनुरागियों के मन को तड़पाते हुए विचलित कर देते हैं लेकिन जिन्होंने अध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त कर लिया है वह इनसे प्रभावित नहीं होते।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय-जीवन में राग अनुराग के प्रति लगाव स्वाभाविक रूप से रहता है। मगर यही राग अनुराग कष्ट का कारण भी बनते हैं। एक अच्छा और बड़ा मकान रहने के लिये होना चाहिये। जिनके पास नहीं है वह ख्वाब देखते हैं पर जिनके पास महल जैसा आवास है वह भी खुश नहीं है। इतने बड़े मकान का रखरखाव नियमित रूप करना भी उनके लिये कष्टप्रद है। बड़े शहरों मे चले जाईये तो कई नई कालौनियां देखकर लगता है कि जैसे यहां स्वर्ग है। कुछ वर्ष बाद जाईये तो वही पुरानी लगती हैं। लोगों के पास धन है पर समय नहीं कि अपने मकानों की हर वर्ष पुताई करा सकें। हालांकि कहने के लिये ऐसे रंग आ गये हैं जो कई वर्ष तक चलें पर बरसात और धूप के सामने भला कौनसा रसायन टिक सकता है।

आदमी का मन है जो कभी न कभी ऊबता है और वह विश्राम चाहता है। देह को तो आराम मिल जाता है पर मन को नहीं। भौतिक जीवन की सत्यता को समझना ही अध्यात्म ज्ञान है और जो इसे जानता है वही सुख दुःख से परे होकर जीवन में आनंद उठा सकता है। कहते भी है कि इस समय विश्व में लोगों के दिमाग में तनाव बढ़ रहा है। आखिर यह सोचने का विषय है कि जब इतनी सारी सुविधायें हैं तो फिर इंसान विचलित क्यों हो जाता है? यह सब अध्यात्म ज्ञान की कमी की वजह से है।
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Thursday, July 23, 2009

विदुर नीति-भोग विलास से बचना आसन नहीं

अस्तयागात् पापकृतामापापांस्तुल्यो दण्डः स्पृशते मिश्रभावात्।
शुष्केणार्द दह्याते मिश्रभावात् तस्मात् पापैः सहसंधि न कुर्यात्।।
हिंदी में भावार्थ-
दुर्जन व्यक्ति का साथ न छोडने पर निरपराध सज्जन को भी उनके सम्मान ही दण्ड प्राप्त होता है। जैसे सूखी लकड़े के साथ मिल जाने पर गीली भी जल जाती है। इसलिये दुष्ट लोगों की संगत से बचना चाहिये।

दृश्यनते हि महात्मानो वध्यमानाः स्वकर्मभिः।
इद्रियाणामनीशत्वाद राजानो राज्यविभ्रमैः।।
हिंदी में भावार्थ-
बड़े बड़े राजा और साधु भी इंद्रियों के वश होकर भोग विलास में डूब जाते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-इंद्रियों पर नियंत्रण करने का उपदेश देना बहुत सरल है पर स्वयं ऐसा कर पाना एक कठिन कार्य है। कहने को भूमि का राजा कितना भी विशाल हृदय और दृढ़ चरित्र का लगता हो पर इंद्रियों का गुलाम तो वह भी होता है। उसी तरह प्रतिदिन अपने भक्तों को निष्काम भाव का संदेश देने वाले साधु भी इंद्रियों के आगे लाचार हो जाते हैं। कहीं सत्संग के लिये पैसे मांगने के लिये सौदेबाजी करते हैं तो कहीं स्वर्ग दिलाने के लिये दान मांगते हैं। इंद्रियों पर राज्य वही कर सकता है जिसके पास तत्व ज्ञान है। केवल यही नहीं वह उसको हमेशा धारण किये रहता है न कि कहीं केवल बधारने के लिये उसका प्रयोग करता है।

कोयले की दलाली में हाथ काले-यह कहावत तो सभी ने सुनी होगी। यही स्थिति पूरे जीवन में ही रहती है। दुष्टों की संगत में रहते हुए अपने सामने संकट आने की आशंका हमेशा रहती है। अतः प्रयास करना चाहिये कि उनकी संगत से दूर रहा जाये। आदमी स्वयं भले ही सचरित्र हो पर अगर वह दुष्टों के साथ रहता है तो उसकी छबि भी उन जैसी बनती है।
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Monday, July 20, 2009

कबीर के दोहे: सभी जीवों की पीड़ा एक जैसी होती है (sant kabir ke dohe-sabhi ka dard eik jaisa)

पीर सबन की एकसी, मूरख जाने नांहि
अपना गला कटाक्ष के , भिस्त बसै क्यौं नांहि


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि सभी जीवों की पीड़ा एक जैसी होती है पर मूर्ख लोग इसे नहीं समझते। ऐसे अज्ञानी और हिंसक लोग अपना गला कटाकर स्वर्ग में क्यों नहीं बस जाते।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-इस दोहे में अज्ञानता और हिंसा की प्रवृत्ति वाले लोगों के बारे में बताया गया है कि अगर किसी दूसरे को पीड़ा होती है तो अहसास नहीं होता और जब अपने को होती है तो फिर दूसरे भी वैसी ही संवेदनहीनता प्रदर्शित करते हैं। अनेक लोग अपने शौक और भोजन के लिये पशुओं पक्षियों की हिंसा करते हैं। उन अज्ञानियों को यह पता नहीं कि जैसा जीवात्मा हमारे अंदर वैसा ही उन पशु पक्षियों के अंदर होता है। जब वह शिकार होते हैं तो उनके प्रियजनों को भी वैसा ही दर्द होता है जैसा मनुष्यों के हृदय में होता है। बकरी हो या मुर्गा या शेर उनमें भी मनुष्य जैसा जीवात्मा है और उनको मारने पर वैसा ही पाप लगता है जैसा मनुष्य के मारने पर होता है। यह अलग बात है कि मनुष्य समुदाय के बनाये कानून में के उसकी हत्या पर ही कठोर कानून लागू होता है पर परमात्मा के दरबार में सभी हत्याओं के लिऐ एक बराबर सजा है यह बात केवल ज्ञानी ही मानते हैं और अज्ञानी तो कुतर्क देते हैं कि अगर इन जीवो की हत्या न की जाये तो वह मनुष्य से संख्या से अधिक हो जायेंगे।

आजकल मांसाहार की प्रवृत्तियां लोगों में बढ़ रही है और यही कारण है कि संवदेनहीनता भी बढ़ रही है। किसी को किसी के प्रति हमदर्दी नहीं हैं। लोग स्वयं ही पीड़ा झेल रहे हैं पर न तो कोई उनके साथ होता है न वह कभी किसी के साथ होते हैं। इस अज्ञानता के विरुद्ध विचार करना चाहिये । आजकल विश्व में अहिंसा का आशय केवल ; मनुष्यों के प्रति हिंसा निषिद्ध करने से लिया जाता है जबकि अहिंसा का वास्तविक आशय समस्त जीवों के प्रति हिंसा न करने से है।
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Sunday, July 19, 2009

भर्तृहरि नीति शतक-अनैतिकता से ऐश्वर्य नष्ट होता है (anetikta se eshvarya nasht hota hai-adhyatmik sandesh)

भर्तृहरि महाराज कहते है कि
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दौर्मन्त्र्यान्नृपतिर्विनष्यति यतिः सङगात्सुतालालनात् विप्रोऽन्ध्ययनात्कुलं कुतनयाच्छीलं खलोपासनात्
ह्यीर्मद्यादनवेक्षणादपि कृषिः स्नेहः प्रवासाश्रयान्मैत्री चाप्रणयात्सृद्धिरनयात् त्यागपमादाद्धनम्


हिंदी में भावार्थ-कुमित्रता से राजा, विषयासक्ति और कामना योगी, अधिक स्नेह से पुत्र, स्वाध्याय के अभाव से विद्वान, दुष्टों की संगत से सदाचार, मद्यपान से लज्जा, रक्षा के अभाव से कृषि, परदेस में मित्रता, अनैतिक आचरण से ऐश्वर्य, कुपात्र को दान देने वह प्रमाद से धन नष्ट हो जाता है।
वर्तमान संदर्भ संक्षिप्त व्याख्या-आशय यह है कि जीवन में मनुष्य जब कोई कर्म करता है तो उसका अच्छा और बुरा परिणाम यथानुसार प्राप्त होता है। कोई मनुष्य ऐसा नहीं है जो हमेशा बुरा काम करे या कोई हमेशा अच्छा काम करे। कर्म के अनुसार फल प्राप्त होता है। अच्छे कर्म से अर्थ और सम्मान की प्राप्ति होती है। ऐसे में अपनी उपलब्ध्यिों से जब आदमी में अहंकार या लापरवाही का भाव पैदा होता है तब अपनी छबि गंवाने लगता है। अतः सदैव अपने कर्म संलिप्त रहते हुए अहंकार रहित जीवन बिताना चाहिये।
अगर हमें अपने कुल, कर्म या कांति से धन और प्रतिष्ठा प्राप्त होती है तो उसका उपयोग परमार्थ में करना चाहिये न कि अनैतिक आचरण कर उसकी शक्ति का प्रदर्शन करते हुए लोगों का प्रभावित करने का प्रयास करें। इससे वह जल्दी नष्ट हो जाता है।
यह मानकर चलना चहिये कि हमें मान, सम्मान तथा लोगों का विश्वास प्राप्त हो रहा है वह अच्छे कर्मों की देन है और उनमें निरंतरता बनी रहे उसके लिये कार्य करना चाहिये। अगर अपनी उपलब्धियों से बौखला कर जीवन पथ से हट गये तो फिर वह मान सम्मान और लोगों का विश्वास दूर होने लगता है।
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Wednesday, July 15, 2009

विदुर नीति-क्षमा के गुण को कमजोरी न समझें

एक क्षमवतां दोषो द्वितीयो नोपपद्यते।
यदेनं क्षमया युक्तशक्तं मन्यते जनः।।
सोऽस्य दोषो न मन्तव्यः क्षमा हि परमं यत्नम्।
क्षमा गुणो ह्यशक्तनां भूक्षणं क्षमा।।
हिंदी में भावार्थ-
जिस मनुष्य में क्षमा करने का गुण है उसका बस एक ही दोष है लोग उसे निशक्त और युक्ति रहित समझने लगते हैं। किन्तु यह समझना गलत है कि क्षमाशील पुरुष कमजोर या निशक्त हैं। क्षमा एक बहुत बड़ी ताकत है। क्षमा का गुण असमर्थ व्यक्ति के लिये गुण तथा शक्तिशाली के लिये भूषण है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-यह समझना गलत है कि असमर्थ पुरुष अगर क्षमाशील है तो फिर उसका वह गुण नहीं है। याद रखिये गरीब, बेसहारा और कमजोर की आह भी बहुत खतरनाक है। क्षमा का गुण केवल अमीरों और बाहुबलियों द्वारा ही धारण किया जाने वाला गुण नहीं है।
यह बात ठीक है कि क्षमा करने वाले को लोग कमजोर या डरपोक समझते हैं पर फिर भी इस गुण को छोड़ना नहीं चाहिए। अगर आप बाहुबली और धनी हैं तो क्षमा का गुण आपके लिये भूषण हैं पर आप कमजोर हैं और निर्धन हैं तो भी आपका यह गुण हैं। ऐसे में कोई बाहूबली या अमीर आपके प्रति अपराध करता है तो भी उसका हृदय से बुरा न चाहें-उसे बद्दुआ न दें-क्योंकि आह लगती है और दूसरे को सताने वाले को कभी न कभी दंड मिलता है भले ही कोई सांसरिक व्यक्ति यह काम न करें प्रकृत्ति स्वयं दंड प्रदान करती है।
बाहूबलियों ओर धनवानों पर माया का वरदहस्त होता है पर इससे वह संसार के ठेकेदार नहीं हो जाते-यह अलग बात है कि आजकल अनेक बाहुबली और अमीर इसी भ्रम में जीते हैं। उनको अपने से कमजोर और निर्धन के अपराध क्षमा करना चाहिये तभी वह समाज में सम्मान प्राप्त कर सकते हैं। इसके अगर कोई निर्धन या गरीब उनको अपने प्रति किये गये अपराध के लिये क्षमा प्रदान करता है तो उसे कमजोर या युक्तिरहित समझकर उसकी उपेक्षा नहीं करना चाहिए।
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Tuesday, July 14, 2009

चाणक्य नीति-अपनी छः बातें गुप्त रखें (chhah baten gupt rakhen-chankya niti)

सुसिद्धमौषधं धर्म गृहच्द्रिं मैथुनम्।
कुभुक्तं कुश्रुतं चैव मतिमान्न प्रकाशयेत्।।
हिंदी मे भावार्थ-
बुद्धिमान व्यक्ति को चाहिऐ कि वह छह बातें किसी को भी न बताये। यह हैं अपनी सिद्ध औषधि, धार्मिक कृत्य, अपने घर के दोष, संभोग, कुभोजन तथा निंदा करने वाली बातें।
प्रस्तावसदृशं वाक्यं प्रभावसदृशं पिय्रम!
आत्मशक्तिसमं कोपं यो जानाति स पण्डितः।
हिंदी में भावार्थ-
जैसा प्रस्ताव देखें उसी के अनुसार प्रभावपूर्ण विचार मधुर वाणी में व्यक्त करे और अपनी शक्ति के अनुसार ही क्रोध करे वही सच्चा ज्ञानी है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-नीति विशारद चाणक्य के अनुसार मनुष्य को अपने जीवन में वाक्पटु होना चाहिये। समय के अनुसार ही किसी विषय को महत्व को देखते हुए अपना विचार व्यक्त करना चाहिए। इतना ही नहीं किसी विषय पर सोच समझ कर प्रिय वचनों में अपना बात रखना चाहिए। इसके अलावा अपने पास किसी सिद्ध औषधि का ज्ञान हो तो उसे सभी के सामने अनावश्यक रूप से व्यक्त करना ठीक नहीं है। अपने घर के दोष, तथा स्त्री के साथ समागम की बातें सार्वजनिक रूप से नहीं करना चाहिए। इसके अलावा जो भोजन अच्छा नहीं है उसके खाने का विचार तक अपने मन में न लाना ही ठीक है-दूसरे के सामने प्रकट करने से सदैव बचना चाहिए। किसी भी प्रकार के निंदा वाक्य किसी के बारे में नहीं कहना चाहिये।

अगर इतिहास देखा जाये तो वही विद्वान समाज में सम्मान प्राप्त कर सके हैं जिन्होंने समय समय पर कठिन से कठिन विषय पर अपनी बात इस तरह सभी लोगों के के सामने रखी जिसके प्रभाव से न केवल उनका बल्कि दूसरा समाज भी लाभान्वित हुआ। अधिक क्रोध अच्छा नहीं है और जब किसी के बात पर अपना दिमाग गर्म हो तो इस बात का भी ख्याल करना चाहिए कि अपने क्रोध के अनुसार संघर्ष करने की हमारी क्षमता कितनी है। अविवेकपूर्ण निर्णय न केवल हमारे उद्देश्यों की पूर्ति बाधक होते हैं बल्कि उनसे समाज में प्रतिष्ठा का भी हृास होता है।
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Sunday, July 12, 2009

मनुस्मृति-देह को पवित्र रखने की कोशिश जरूरी (manu smruti-deh ko pavitra rakhne ke prayas jaroori)

यह ब्लाग/पत्रिका विश्व में आठवीं वरीयता प्राप्त ब्लाग पत्रिका ‘अनंत शब्दयोग’ का सहयोगी ब्लाग/पत्रिका है। ‘अनंत शब्दयोग’ को यह वरीयता 12 जुलाई 2009 को प्राप्त हुई थी। किसी हिंदी ब्लाग को इतनी गौरवपूर्ण उपलब्धि पहली बार मिली थी।
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कृत्वा मूत्रं पूरीषं वा खन्याचान्त उपस्मृशेत्।
वेदमश्येघ्यमाणश्च अन्नमश्नंश्च सर्वदा।।
हिंदी में भावार्थ-
मल मूत्र त्याग करने के बाद हमेशा हाथ धोकर आचमन करना के साथ ही दो बार मूंह भी धोना चाहिये। सदैव वेद पढ़ने तथा भोजन करने से पहले भी आचमन करना चाहिये।

वसाशुक्रमसृंमज्जामूत्रविंघ्राणकर्णविट्।
श्नेष्माश्रुदूषिकास्वेदा द्वादशैते नृणां मलाः।।
हिंदी में भावार्थ-
मनुष्य की देह में बारह प्रकार का मल होता है-1.चर्बी, 2.वीर्य, 3.रक्त, 4.मज्जा, 5.मूत्र, 6.विष्ठा, 7.आंखों का कीचड़, 8.नाक की गंदगी, 9.कान का मैल, 10. आंसू, 11.कफ तथा 12. त्वचा से निकलने वाला पसीना।
एका लिंगे गुदे त्रिस्त्रस्तथैकत्र करे दश।
उभयोः सप्त दातव्याः मृदः शुद्धिमभीप्सता।।
हिंदी में भावार्थ-
जो लोग पूर्ण रूप से देह की शुद्धता चाहते हैं उनके लघुशंका पर लिंग पर एक बार मल त्याग करने पर गुदा पर तीन बार तथा बायें हाथ पर दस बार एवं दोनों हाथों की हथेलियों और उसके पृष्ठ भाग पर सात बार मिट्टी (वर्तमान में साबुन भी कह सकते हैं) लगाकर जल से धोना चाहिये।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-दरअसल जब शरीर की पवित्रता और अपवित्रता की बात कही जाती है तो आधुनिक ढंग से सोचने वाले उसे एक तरह से अंध विश्वास मानते हैं जबकि पश्चिम के वैज्ञानिक भी अब मानने लगे हैं कि शरीर को साफ रखने से उसे अस्वस्थ करने वाले अनेक प्रकार के सूक्ष्म कीटाणु दूर हो जाते हैं। जल न केवल जीवन है बल्कि औषधि भी है। यही बात वायु के संबंध में कही जाती है। प्रातः प्राणायम करने से आक्सीजन अधिक मात्रा में शरीर को प्राप्त होता है जिससे कि अनेक रोग स्वतः ही परे रहते हैं। वैसे अगर हम विचार करें तो देह अस्वस्थ हो और इलाज के लिये चिकित्सकों के घर जाकर नंबर लगायें उससे अच्छा तो यह है कि जल और वायु से अपने शरीर को स्वस्थ रखें।
भारतीय अध्यात्म के आलोचक आधुनिक विज्ञान की चकाचैंध में इस बात को भूल जाते हैं कि बीमारी के इलाज से अच्छा तो स्वस्थ रहने के लिये प्रयास करने की बात तो पश्चिमी वैज्ञानिक भी मानते हैं।
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Saturday, July 11, 2009

मनु स्मृति-गोद में रखकर भोजन करना ठीक नहीं (bhojan karne ka tarika-manu smruti)

न नृत्येन्नैव गायेन वादित्राणि वादयेत्।
नास्फीट च क्ष्वेडेन्न च रक्तो विरोधयेत्।।
हिंदी में भावार्थ-
मनुमहाराज कहते हैं कि नाचना गाना, वाद्य यंत्र बजाना ताल ठोंकना, दांत पीसकर बोलना ठीक नहीं और भावावेश में आकर गधे जैसा शब्द नहीं बोलना चाहिये।
न कुर्वीत वृथा चेष्टां न वार्य´्जलिना पिबेत्।
नौत्संगे भक्षयेद् भक्ष्यानां जातु स्यात्कुतूहली।।
हिंदी में भावार्थ-
मनुमहाराज कहते हैं कि जिस कार्य को करने से अच्छा फल नहीं मिलता हो उसे करने का प्रयास व्यर्थ है। अंजली में भरकर पानी और गोद में रखकर भोजन करना ठीक नहीं नहीं है। बिना प्रयोजन का कौतूहल नहीं करना चाहिए।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जब आदमी तनाव रहित होता है तब वह कई ऐसे काम करता है जो उसकी देह और मन के लिये हितकर नहीं होते। लोग अपने उठने-बैठने, खाने-पीने, सोने-चलने और बोलने-हंसने पर ध्यान नहीं देते जबकि मनुमहाराज हमेशा सतर्क रहने का संदेश देते हैं। अक्सर लोग अपनी अंजली से पानी पीते हैं और बातचीत करते हुए खाना गोद में रख लेते हैं-यह गलत है।
जब से फिल्मों का अविष्कार हुआ है लोगों का न केवल काल्पनिक कुतूहल की तरफ रुझान बढ़ा है बल्कि वह उन पर चर्चा ऐसे करते हैं जैसे कि कोई सत्य घटना हो। फिल्मों की वजह से संगीत के नाम पर शोर के प्रति लोग आकर्षित होते हैं।
मनुमहाराज इनसे बचने का जो संदेश देते है उनके अनुसार नाचना, गाना, वाद्य यंत्र बजाना तथा गधे की आवाज जैसे शब्द बोलना अच्छा नहीं है। फिल्में देखना बुरा नहीं है पर उनकी कहानियों, अभिनेताओं, अभिनेत्रियों को देखकर कौतूहल का भाव पालन व्यर्थ है इससे आदमी का दिमाग जीवन की सच्चाईयों को सहने योग्य नहीं रह जाता।

नाचने गाने और वाद्य यंत्र बजाना या बजाते हुए सुनना अच्छा लगता है पर जब उनसे पृथक होते हैं तो उनका अभाव तनाव पैदा करता है। इसके अलावा अगर इस तरह का मनोरंजन जब व्यसन बन जाता है तब जीवन में अन्य आवश्यक कार्यों की तरफ आदमी का ध्यान नहीं जाता। लोग बातचीत में अक्सर अपना प्रभाव जमाने के लिये किसी अन्य का मजाक उड़ाते हुए बुरे स्वर में उसकी नकल करते हैं जो कि स्वयं उनकी छबि के लिये ठीक नहीं होता। कहने का तात्पर्य यह है कि उठने-बैठने और चलने फिरने के मामले में हमेशा स्वयं पर नियंत्रण करना चाहिए।
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Wednesday, July 8, 2009

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-हित करने वाले शत्रु को मित्र बनायें (kautilya on friendship)

भोगप्राप्तं विकुर्वाणं मित्रमप्युपपीडयेत्।
अत्यंतं विकृतं हन्यात्स पापीया् रिपुर्मतः।।
हिंदी में भावार्थ-
जो मित्र भोगों में लिप्त होते हुए भी उपकार करने वाला है तो भी वह पीड़ा देता है। अगर वह अपकार करने वाला है तो उसे अपना शत्रु ही समझते हुए उसे दंडित करें या उसका साथ ही छोड़ दें।
अमित्राण्यपि कुर्वीत मित्रण्युपचयावहान्।
अहिते वत्र्त मानानि मित्राण्यपि परित्यजेत्।।
हिंदी में भावार्थ-
यदि अपना हित करने वाला शत्रु भी हो तो भी उसे मित्र बनाना चाहिये। यदि मित्र अहित करने वाला हो तो उसका त्याग करना ही अच्छा है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-मित्र बनाने में हमेशा सतर्कता बरतना चाहिए। आधुनिक समय में युवक युवतियों को अपना मित्र बनाते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि उनका मित्र हमेशा हित की सोचने वाला हो। युवक युवतियों छोटी छोटी बातों पर नाराज और प्रसन्न होते हैं, पर उन्हें यह ध्यान रखना चाहिए कि इससे जीवन में अधिक आनंद नहीं आता। आजकल विलासिता के सामान बहुत सस्ते आते हैं अतः वह तोहफे में देने वालों को अपना सच्चा मित्र नहीं मान लेना चाहिए। साथ ही यह भी देखना चाहिए कि मित्र का आचरण, चरित्र और विचार कैसे हैं? कुछ मित्र सामने बहुत मीठा बोलते हैं पर पीठ पीछे दूसरों के सामने निंदा करते हैं या मजाक बनाते हैं। खासतौर से युवतियों को अपने युवक मित्रों से अधिक सतर्क रहना चाहिये। कहने को तो कहा जाता है कि आजकल आधुनिक समय है पर कुछ यथार्थ विचार बदल नहीं सकते। कहा जाता है कि युवक की इज्जत को पीतल के लोटे की तरह होती है जो खराब होने पर फिर मिट्टी से भी साफ हो जाता है पर युवती की इज्जत तो मिट्टी के बर्तन की तरह है एक बार बिगड़ी तो फिर उसकी भरपाई नहीं होती। ऐसे मित्र जिनका आचरण, चरित्र और विचार संदिग्ध हों उनसे युवक युवतियों को बचना चाहिये।
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Monday, July 6, 2009

भर्तृहरि नीति शतक-प्राचीन ज्ञान से विरक्ति ही संकट का कारण (bhartrihari shatak)

पुरा विद्वत्तासीदुषशमतां क्लेशहेतये गता कालेनासौ विषयसुखसिद्धयै विषयिणाम्।
इदानीं सम्प्रेक्ष्य क्षितितलभुजः शास्त्रविमुखानहो कष्टं साऽप प्रतिदिनमधोऽधः प्रविशति।।
हिंदी में भावार्थ-
प्राचीन समय में विद्या वह लोग प्राप्त करते थे जो सांसरिक क्लेशों से मुक्त होकर मन की शांति चाहते थे। फिर यह विषयासक्त लोगों के लिये विषय और सुख का साधन बन गयी और अब तो राजा और प्रजा दोनों ही प्राचीन शास्त्रों से एकदम विमुख हो गये हैं। यही कारण है कि यह प्रथ्वी रसातल में जा रही है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-समय खराब हो गया है-अक्सर हम लोग यह कहते है। यह सब हमारा भ्रम है। जैसे जैसे हमारे ऋषि और मुनि सत्य की खोज कर प्रस्तुत करते गये हमारा समाज वेसे वैसे हमारा समाज माया की तरफ अग्रसर होते गये हैं। अक्सर हम लोग कहते हैं कि लार्ड मैकाले ने भारतीयों को गुलाम बनाने के लिये वर्तमान शिक्षा पद्धति का विकास किया पर सच तो यह है कि उसने तो केवल खाली जगह भरी है। हम लोग कहते हैं कि हमारे गुरुकुल काफी प्रभावी थे पर सच तो यह है कि वह सीमित रूप से शिक्षा प्रदान करने में समर्थ थे। इसके अलावा वहां सात्विक ज्ञान दिया जाता था। दैहिक ज्ञान भी उतना ही दिया जाता जितना किसी मनुष्य के जीवन में आवश्यक था। सत्य का ज्ञान प्राप्त कर अनेक लोग उसको धारण करते हुए जीवन शांति से व्यतीत करते थे पर इस मायावी संसार में समाज का एक बहुत बड़ा वर्ग हवा में उड़ना चाहता था। वह विकास-जो विनाश का ही एक रूप है-उसे पाना चाहता था। सत्य स्थिर रहता है और माया दौड़ती है-आदमी का मन उसके साथ भागना चाहता है।
माया के गुलाम बनने को तत्पर इस समाज को लार्ड मैकाले ने ऐसी शिक्षा प्रणाली प्रदान की जो इस मायावी संसार में दौड़ने के लिये शक्ति प्रदान करती है। अतः यह कहना गलत है कि लार्ड मैकाले ने कोई हमारे समाज के प्रति अपराध किया था। डाक्टर, इंजीनियर,वकील,शिक्षक और प्रबंधक बनने की नौकरी की चाहत ने हमारे समाज को शास्त्रों से विमुख किया यह सोचना ही गलत है। सच तो यह है कि अपने धार्मिक ग्रंथों की कथाओं से ऊब चुके लोगों को चाहिये थी अब विदेशी कहानियां जिसमें आदमी रातो रात लखपति या राजा बन जाता है। हमारा समाज अपने सत्य ज्ञान से विमुख तो भर्तृहरि महाराज के समय में ही हो चुका था। अतः समाज का पतन कोई एक दिन में नहीं हुआ बल्कि यह तो पहले ही प्रारंभ हो चुका था।
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Saturday, July 4, 2009

मनुस्मृति-अहिंसा से शीघ्र लक्ष्य प्राप्ति संभव (manu smruti)

नाऽकृत्वा प्राणिनां हिंसां मांसमुत्यद्यते क्वचित्।
न च प्राणिवधः स्वग्र्यस्तस्मान्मांसं विवर्जयेत्।।

हिंदी में भावार्थ-किसी भी जीव की हत्या कर ही मांस प्राप्त किया जाता है लेकिन उससे स्वर्ग नहीं मिल सकता इसलिये सुख तथा स्वर्ग को प्राप्त करने की इच्छा करने वालो को मांस के उपभोग का त्याग कर देना चाहिये।
यद्ध्यायति यत्कुरुते धृतिं बध्नाति यत्र च।
तद्वाघ्नोत्ययत्नेन यो हिनस्तिन किंचन।।

हिंदी में भावार्थ-जो मनुष्य किसी भी प्रकार की हिंसा नहीं करता, वह जिस विषय पर एकाग्रता के साथ विचार और कर्म करता है वह अपना लक्ष्य शीघ्र और बिना विशेष प्रयत्न के प्राप्त कर लेता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-इस संसार में मनुष्य के चलने के दो ही मार्ग हैं-एक सत्य और परमार्थ और दूसरा असत्य और हिंसा। यदि मनुष्य का मन लोभ, लालच और अहंकार से ग्रस्त हो गया तो वह नकारात्मक मार्ग पर चलेगा और उसमें सहृदयता का भाव है तो वह सकारात्मक मार्ग पर चलता है। श्रीगीता के संदेशों का सार यह है कि जैसा मनुष्य अन्न जल ग्रहण करता है तो वैसा ही उसका स्वभाव हो जाता है तब वह उसी के अनुसार ही कर्म करता हुआ फल भोगता है।
वैसे पश्चिम के वैज्ञानिक भी अपने अनुसंधान से यह बात प्रमाणित कर चुके हैं कि शाकाहारी भोजन और मांसाहारी भोजन करने वालों के स्वभाव में अंतर होता है। वह यह भी प्रमाणित कर चुके हैं कि शाकाहारी भोजन करने वालों के विचार और चिंतन में सकारात्मक पक्ष अधिक रहता है जबकि मांसाहारी लोगों का स्वभाव इसके विपरीत होता है। अतः जितना संभव हो सके भोजन में मांसाहार से परहेज करना चाहिये।
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Friday, July 3, 2009

संत कबीर वाणी-गुरू की अवज्ञा कर कोई तर नहीं सकता

कामी तरि, क्रोधी तरै, लोभी तरै अनन्त
आन उपासी कृतधनी, तरै न गुरु कहन्त

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि कामी और क्रोधी तर सकते हैं और लोभी भी इस भव सागर से तरकर परमात्मा को पा सकते हैं पर जो अपने इष्ट देव की उपासना त्यागता है और गुरु का संदेश नहीं मानता वह कभी तर नहीं सकता।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-अगर कबीरदास जी के इस दोहे का आशय समझें तो उनके अनुसार वह उस हर व्यक्ति को अपने इष्ट देव की उपासना न छोड़ने का संदेश दे रहे हैं। एक तरह से धर्म परिवर्तन को एक भ्रम बता रहे हैं। उस समय धर्म शब्द उस रूप में प्रचलित नहीं था जिस तरह आज है बल्कि लोगों को अपने अपने इष्ट देवों को उपासक के रूप में पहचान थी यही कारण है कि कबीरदास जी के साहित्य में धर्मों के नाम नहीं मिलते बल्कि सभी लोगों को एक समाज मानकर उन्होंने अपनी बात कही है।
दरअसल धर्म का आशय यह है कि निंरकार परमात्मा की उपासना, परोपकार, दान और सभी के साथ सद्व्यवहार करना। वर्तमान समय में इष्ट देवों की उपासना के नाम पर धर्म बनाकर भ्रम फैला दिया गया है और विश्व के अनेक भागों में कई लोगोंं को धन तथा रोजगार का लालच या जीवन का भय दिखाकर धर्म परिवर्तन करवाने की प्रवृत्ति बढ़ी है। ऐसे कई समाचार आते हैं कि अमुक जगह धर्म अमुक ने धर्म परिवर्तन कर लिया। ऐसा समाचार केवल भारत में नहीं अन्य देशों से भी आते है। यह केवल कुछ लोगों का भ्रम है या वह भ्रम फैलाने और प्रचार पाने के लिये ऐसा करते हैं।

देख जाये तो परमात्मा एक ही है सब मानते हैं। लोग उसे विभिन्न रूपों और नामों से जानते हैं। ऐसे में उसके किसी स्वरूप का बदलकर दूसरे स्वरूप में पूजने का आशय यही है कि आदमी भ्रमित हैं। हमारे देश में तो चाहे आदमी कैसा भी हो किसी न किसी रूप में उसकी उपासना करता है। कोई न कोई पवित्र ग्रंथ ऐसा है जिसे पढ़ता न हो पर मानता है। ऐसे में वह एक स्वरूप को छोड़कर दूसरे की उपासना और एक पवित्र ग्रंथ को छोड़कर दूसरा पढ़ने लगता है तो इसका आशय यह है कि उसकी नीयत ठीक नहीं और जो इसके लिये प्रेरित कर रहे हैं उन पर भी संदेह होता है। संत कबीरदास जी के कथानुसार ऐसे लोग कभी जीवन में तर नहीं सकते भले ही दुष्ट और कामी लोग तर जायें। संत कबीरदास जी तो निरंकार के उपासक थे और वर्तमान में तो पूरा विश्व एक ही परमात्मा को मानता है और ऐसे में उसके स्वरूप को बदलकर दूसरे के रूप में पूजना वह स्वार्थ और लोभ का परिणाम मानकर सभी को उसके लिये रोकने का संदेश कबीरदास जी देते थे।
आशय यह यही है कि बचपन से जिस इष्ट का माना उसे छोड़कर दूसरे की उपासना नहीं करना चाहिए। न ही अपने गुरु, माता पिता और बंधुओं द्वारा सुझाये गये इष्ट के अलावा किसी और का विचार नहीं करना चाहिए। अगर कोई ऐसा करता है तो वह स्वार्थ से प्रेरित है और स्वार्थ से की गयी भक्ति से कोई लाभ नहीं होता। सबसे बड़ी आवश्यकता इस बात की चाहे जो भी इष्ट हो उसकी निष्काम भक्ति करना चाहिए।
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Thursday, July 2, 2009

विदुर नीति-आत्मा साथ छोडे तो फ़िर कौन निभाता है

अग्नी प्रास्तं पुरुषं कर्मान्वेति स्वयंकृतम्।
तस्मातु पुरुषो यत्नाद् धर्म संचितनुयाच्छनैः।।
हिंदी में भावार्थ-
इस देह के अग्नि में जलकर राख हो जाने के बाद मनुष्य का अच्छा और बुरा कर्म ही उसके साथ जाता है अतः जितना हो सके धर्म के संचय का प्रयत्न करें।

उत्सृत्न्य विनिवर्तन्ते ज्ञातयः सह्दः सुताः।
अपुष्पानफलान् वृक्षान् यथातत पतित्रणः।।
हिंदी में भावार्थ-
जिस तरह फल और फूल से हीन वृक्ष को पक्षी त्याग कर चले जाते हैं वैसे इस शरीर से आत्मा निकल जाने पर उसे जाति वाले, सहृदय और पुत्र चिता में छोड़कर लौट जाते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-इस देह को लेकर अभिमान पालना व्यर्थ है। एक न एक दिन इसे नष्ट होना है। इस देह से बने जाति, धर्म, परिवार और समाज के रिश्ते तभी तक अस्तित्व में हैं जब तक यह इस धरती पर विचरण करती है। मनुष्य मोहपाश में फंसकर उनको ही सत्य समझने लगता है। इसमें मेहमान की तरह स्थित आत्मा का कोई सम्मान नहीं करता जिसकी वजह से यह देह रूपी शरीर प्रकाशमान है।
आपने देखा होगा कि आजकल हर जगह विवाहों के लिये बहुत सारी इमारतें बनी हुईं हैं। वहां जिस दिन कोई वैवाहिक कार्यक्रम होता है उस दिन वह रौशनी से जगमगाता है। जब विवाह कार्यक्रम नहीं होता उस दिन वहां अंधेरा रहता है। यह विचार करना चाहिये कि जब उस इमारत में बिजली और उससे चलने वाले उपकरण तथा सजावट का सामान हमेशा विद्यमान रहता है तब क्यों नहीं उसे हमेशा रौशन किया जाता? स्पष्ट है कि विवाह स्थलों के मालिक विवाह कार्यक्रम के आयोजकों से धन लेते हैं और इसी कारण वहां उस स्थान पर रौशनी की चकाचौंध रहती है। आयोजक भी धन क्यों देता है? उसके रिश्तेदार, मित्र और परिवार के लोग उस कार्यक्रम में शामिल होते हैं। अगर दूल्हा दुल्हन के माता पिता अकेले ही विवाह कार्यक्रम करें तो उनको व्यय करने की आवश्यकता ही नहीं पर तब ऐसे विवाह स्थल जगमगा नहीं सकते। तात्पर्य यह है कि मेहमानों की वजह से ही वहां सारी सजावट होती है। जब सभी चले जाते हैं तब वहां सन्नाटा छा जाता है। यही स्थिति इस देह में विद्यमान आत्मा की है। यह देह तो बनी यहां मौजूद पंच तत्वों से ही है पर उसको प्रकाशमान करने वाला आत्मा है। इस सत्य को पहचानते हुए हमें अपने जीवन में धर्म का संचय करना चाहिये। हमारे अच्छे काम ही इस आत्मा को तृप्त करते हैं। यह आत्मा तो परमात्मा से बिछड़ा अंश है और कभी न कभी उसके पास जाना है तो क्यों न परमात्मा की भक्ति कर उन्हें प्रसन्न करने का प्रयास किया जाये।
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Wednesday, July 1, 2009

संत कबीर दर्शन-स्वप्न निराश करते हैं

कबीर सपनें रैन के, ऊपरी आये नैन
जीव परा बहू लूट में, जागूं लेन न देन

संत शिरोमणि कबीरदास जी का आशय यह है कि रात में सपना देखते देखते हुए अचानक आंखें खुल जाती है तो प्रतीत होता है कि हम तो व्यर्थ के ही आनंद या दुःख में पड़े थे। जागने पर पता लगता है कि उस सपने में जो घट रहा था उससे हमारा कोई लेना देना नहीं था।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-सपनों का एक अलग संसार है। अनेक बार हमें ऐसे सपने आते हैं जिनसे कोई लेना देना नहीं होता। कई बार अपने सपने में भयानक संकट देखते हैं जिसमें कोई हमारा गला दबा रहा है या हम कहीं ऐसी जगह फंस गये हैं जहां से निकलना कठिन है। तब इतना डर जाते हैं कि हमारी देह अचानक सक्रिय हो उठती है और नींद टूट जाती है। बहुत देर तक तो हम घबड़ाते हैं जब थोड़ा संभलते हैं तो पता लगता है कि हम तो व्यर्थ ही संकट झेल रहे थे।

कई बार सपनों में ऐसी खुशियां देखते हैं जिनकी कल्पना हमने दिन में जागते हुए नहीं की होती । ऐसे लोगों से संपर्क होता है जिनके पास जाने की हम सोच भी नहीं सकते। जागते हुए पुरानी साइकिल पर चलते हों पर सपने में किसी बड़ी गाड़ी पर घूमते हुए दिखाई देते हैं। ऐसे में जब खुशी चरम पर होती है और सपना टूट जाता है। आंखें खुलने पर भी ऐसा लगता है कि जैसे हम खुशियों के समंदर में गोता लगा रहे थे पर फिर जैसे धीरे धीरे होश आता है तो पता लगता है कि वह तो एक सपना था।

आशय यह है कि यह जीवन भी एक तरह से सपना ही है। इसमें दुःख और सुख भी एक भ्रम हैं। मनुष्य को यह देह इस संसार का आनंद लेने के लिये मिली है जिसके लिये यह जरूरी है कि भगवान भक्ति और ज्ञान प्राप्त कर मोक्ष प्राप्त किया जाये न कि विषयों में लिप्त होकर अपने को दुःख की अनुभूति कराई जाये। जीवन में कर्म सभी करते हैं पर ज्ञानी और भक्त लोग उसके फल में आसक्त नहीं होते इसलिये कभी निराशा उनके मन में घर नहीं करती। ऐसे ज्ञानी और भक्तजन दुःख और सुख के दिन और रात में दिखने वाले सपने से परे होकर शांति और परम आनंद के साथ जीवन व्यतीत करते हैं।
अगर हम भारतीय अध्यात्म संदेशों का अर्थ समझें तो दुःख और सुख जीवन में बर्फ में पानी के सदृश हैं। अर्थात दोनों की अनूभूतियां हैं बस और कुछ नहीं है। जिस तरह बर्फ दिखती है पर होता तो वह पानी ही है। उसी दुःख और सुख बस एक सपने की तरह है। जो इस तत्व ज्ञान को समझ लेना वह जीवन को आनंद के साथ जी सकता है।
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