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Saturday, July 24, 2010

रहीम के दोहे-समय के अनुसार बदलाव आता है (rahim ke dohe-samay aur badlav)

मनुष्य जब संकट में होता है तब उसका धैर्य जवाब देता है और लगता है कि वह कभी खत्म होने वाला नहीं है। यह सोच अज्ञान के कारण ही आती है। जिस तरह पृथ्वी, सूर्य और चंद्रमा अपनी धुरी पर घूमते हुए रात्रि और दिन लाते हैं वैसे ही समय के अनुसार सब बदलता है। आदमी के सुख के पल कट जाते हैं तो उसे पता नहीं लगता पर दुःख के समय वह तमाम तरह के ऐसे कदम उठाता है जिससे उसकी परेशानी बढ़ जाती है। अतः विवेकी मनुष्य सुख के समय तो अधिक प्रसन्न होते हैं और न ही दुःक्ष के समय विचलित। समय की अपनी महिमा है और वह अपने अनुसार सुख दुःख लाकर निकलता है।
समय पाय फल होत है, समय पाय झरि जाय
सदा रहे नहिं एक सौ, का रहीम पछिताय
कविवर रहीम कहते हैं कि समय आने पर अपने अच्छे कर्मों के फल की प्राप्ति अवश्य होती है। वह सदा कभी एक जैसा नहीं रहता इसीलिये कभी बुरा समय आता है तो भयभीत या परेशान होने की आवश्यकता नहीं है।
समय परे ओछे बचन, सब के सहे रहीम
सभा दुसासन पट गहे, गदा लिए रहे भीम
कविवर रहीम कहते हैं कि बुरा समय आने पर तुच्छ और नीच वचनों का सहना करना पड़ा। जैसे भरी सभा में देशासन ने द्रोपदी का चीर हरण किया और शक्तिशाली भीम अपनी गदा हाथ में लिए रहे पर द्रोपदी की रक्षा नहीं कर सके।
वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-जीवन में सभी के पास कभी न कभी अच्छा समय आता है ऐसे में अपना काम करते रहने के अलावा और कोई चारा नहीं है। आजकल लोग जीवन में बहुत जल्दी सफलता हासिल करने को बहुत आतुर रहते हैं और कुछ को मिल भी जाती है पर सभी के लिये यह संभव नहीं है।
कई लोग जल्दी सफलता हासिल करने के लिये ऐसे मार्ग पर चले जाते हैं वहां उन्हें शुरूआत में बहुत अच्छा लगता है पर बाद में वह पछताते है।
यह सही है कि कुछ लोगों के लिये जीवन का संघर्ष बहुत लंबा होता है पर उन्हें अपना धीरज नहीं खोना चाहिए। कई बार ऐसा लगता है कि हमें जीवन में किसी क्षेत्र मे सफलता नहीं मिलेगी पर सत्य तो यह है कि आदमी को अपने अच्छे कर्मों का फल एक दिन अवश्य मिलता है।
जिस तरह दिन रात हैं और धूप छांव है वैसे ही जीवन में समय का फेर आता है। कभी दुःख तो कभी सुख की अनुभूति के साथ ही जीवन आगे बढ़ता है। जब आदमी तकलीफ में होता है तो संसार वाले उसका मजाक बनाते हुए कटु वचन तक कहते हैं। जब आदमी शक्तिशाली होता है तब सभी उसके सामने नतमस्तक होते हैं। ऐसे में जीवन में आये हर पल को सहजता से स्वीकार करना चाहिए।
संकलक,लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://anant-shabd.blogspot.com
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Saturday, July 17, 2010

मनु स्मृति संदेश-आर्थिक अपराधों के लिये कड़ा दंड देना चाहिए (arthik apradh ke liye dand-manu smriti)

जब हम आज देश की स्थिति पर नज़र डालते हैं तो मन में व्यथा पैदा होती है। इसका कारण यह है कि देश में भ्रष्टाचार, हिंसा तथा आर्थिक अपराध की घटनायें बहुत बढ़ गयी हैं। इसका कारण यह है कि अब किसी को कानून का भय नहीं रहा है और अपराध तथा हिंसा में लिप्त लोग खुलेआम अपना काम करते हैं। अनेक जगह तो अपराधों में भी आदर्श की बातें ढूंढी जाती है। अनेक प्रकार के नये कानून बनाये जाते हैं पर उनका प्रभाव कभी सकारात्मक रूप से दिखाई दे ऐसा नहीं होता। ऐसे में अब आवश्यकता इस बात की है कि कानून लागू करने वाली संस्थायें दृढ़ता से अपना काम करें और उनको किसी भी प्रकार से हस्तक्षेप से दूर रहना चाहिए।
राज्ञः प्रख्यातभाण्डानि प्रतिधिद्धानि यानि च।
तानि निर्हरतो लोभार्त्स्वहारं हरेन्नृपः।।
हिन्दी में भावार्थ-
अगर राज्य का कोई बेईमान व्यवसायी राजा के निजी पात्रों व विक्रय के लिये प्रतिबंधित पात्रों को लोभवश दूसरे स्थान पर जाकर व्यापार करता है तो उसकी सारी संपत्ति अपने नियंत्रण में कर लेना चाहिए।
शुल्कस्थानं परिहन्नकाले क्रयविक्रयी।
मिथ्यावादी संस्थानदाष्योऽष्टगुणमत्ंययम्।
हिन्दी में भावार्थ-
यदि कोई व्यवसायी या व्यक्ति कर न देकर अपना धना बचाता है, छिपकर चोरी की वस्तुओं को खरीदता और बेचता है, मोल भाव करता है एवं माप तौल में दुष्टता दिखाता है तो उस पर बचाये गये धन का आठ गुना दंड देना चाहिये।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-यह देखकर आश्चर्य होता है कि भारत के प्राचीन ग्रंथों का जमकर विरोध होता है। देश में जिस तरह व्यवसाय और अपराध का घालमेल हो गया है उसे देखकर तो ऐसा लगता है जैसे कि तस्करी, करचोरी तथा अन्य गंदे धंधे करने वाले लोग अपने ही चेले चपाटों से इन ग्रंथों विरोध कराते हैं क्योंकि उनमें अपराध के लिये कड़े दंड का प्रावधान है। राज्य द्वारा प्रतिबंधित वस्तुओं का व्यापार तथा कर चोरी करने वालों के लिये यह दंड डराने का काम करते हैं। जिस तरह आजादी के बाद देश में अपराधिक व्यापार बढ़ा है और गंदे धंधों में पैसा अधिक आने लगा है उसे देखकर लगता है कि जैसे धनवानों और बुद्धिमान लोगों का एक गठजोड़ बन गया है जो आधुनिक सभ्यता के नाम पर मानवीय दंडों की अपने ढंग से व्याख्या करता है।
तस्करी, जुआ, सट्टा तथा अवैध शराब के कारोबार करने वालों के पास जमकर धन आता है। इसके अलावा करचोरों के लिये तो पूरा विश्व स्वर्ग हो गया है। उदारीकरण के नाम पर एक देश से दूसरे देश में धन लगता है जिनके बारे आर्थिक विशेषज्ञ यह संदेह करते हैं कि वह अपराध से ही अर्जित है। विदेशी धन का अर्जन की स्त्रोत कोई नहीं पूछता और समझदार व्यवसायी अपने देश में विनिवेश करता नहीं है। आधुनिक सभ्यता में अवैध व्यापार तथा धन की प्रधानता हो गयी है इसका कारण यही है कि मानवता के नाम पर अनेक अपराधों को हल्का मान लिया गया है तो समाज सेवा और धर्म के नाम पर छूट भी दी जाने लगी है। जिनके पास धन है उनके पास बुद्धिजीवी चाटुकारों की सेना भी है जो भारतीय धर्म ग्रंथों में वर्णित कठोर दंडों से भयभीत अपने स्वामियों को खुश करने के लिये उसके कुछ ऐसे श्लोकों और दोहों का विरोधी करती है जो समय के अनुसार अप्रासंगिक हो गये हैं और समाज में उनकी चर्चा भी कोई नहीं करता।
मनुस्मृति का विरोध तो जमकर होता है। जैसे जैसे समाज में अवैध धनिकों की संख्या बढ़ रही है वैसे वैसे ही भारत के वेदों के साथ ही मनुस्मृति का विरोध बढ़ रहा है। स्पष्टतः यह ऐसे धनिकों के बुद्धिजीवियों द्वारा प्रायोजित है जो तस्करी, करचोरी, तथा सट्टा जुआ तथा अन्य कारोबार से जमकर धन कमा रहे हैं। ऐसे में स्वतंत्र और मौलिक बुद्धिजीवियों का यह दायित्व बनता है कि वह अपने प्राचीन धर्म ग्रंथों के अप्रासंगिक विषयों को छोड़कर वर्तमान में भी महत्व रखने वाले तथ्यों को मानस पटल पर स्थापित करने का प्रयास करें। यह जरूरी नहीं कि मनुस्मृति या वेदों का विरोध करने वाले सभी प्रायोजत हों पर इतना तय है कि उनमें ऐसे कुछ लोग सक्रिय हो सकते हैं जो जाने अनजाने उनका हित साधते हों।
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Saturday, July 10, 2010

संत कबीर वाणी-परिवार की मर्यादा ने मनुष्य को बिगाड़ दिया (parivar ki maryada-kabir vani)

इस संसार में अनेक प्रकार के जीव हैं और सभी के लिये प्रकृति ने भोजन पानी का इंतजाम किया है। मनुष्य भी उनमें एक है पर जितनी बुद्धि उसमें अधिक है उतना ही वह भ्रमित होता है। लोग दावा करते हैं कि वह अपने कर्म से अपना परिवार पाल रहे हैं पर यह नहीं जानते कि वह तो केवल कारण है वरना कर्ता तो परमात्मा ही है। इसी भ्रम में मनुष्य जीवन गुजार लेता है पर उस परमात्मा का स्मरण नहीं करता जिसे उसे मनुष्य योनि प्रदान की है।
कुल करनी के कारनै, हंसा गया बिगोय
तब कुल काको लाजि, चारि पांव का होय
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि अपने परिवार की मर्यादा के लिये आदमी ने अपने आपको बिगाड़ लिया वरना वह तो हंस था। उस कुल की मर्यादा का तब क्या होगा जब परमार्थ और सत्संग के बिना जब भविष्य में उसे पशु बनना पड़ेगा।
दुनिया के धोखे मुआ, चल कुटुंब की कानि
तब कुल की क्या लाज है, जब ले धरा पसानि
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते है यह दुनियां एक धोखा है जिसमें आदमी केवल अपने परिवार के पालन पोषण के लिये हर समय जुटा रहता है। वह इस बात का विचार नहीं करता कि जब उसका शरीर निर्जीव होकर इस धरती पर पड़ा रहेगा तब उसके कुल शान का क्या होगा?
वर्तमान  सन्दर्भ में संपादकीय व्याख्या-मनुष्य मन को हंस भी कहा जाता है पर उसे कोई उड़ने दे  तभी उसे  समझा जा सकता है। हर कोई अपने विचार और लक्ष्यों का दायरा संकीर्ण कर लेता है। अपने और परिवार के हित के आगे उसे कुछ नहीं सूझता। कई लोग मन में शांति न होने की बात कहते हैं पर उसके पाने लिये कोई यत्न नहीं करते। मन एकरसता से ऊब जाता है। स्वार्थ सिद्धि में डूबा मन   एकरसता से ऊब जाता है पर बुद्धि परमार्थ के लिए प्रेरित नहीं होती। अगर थोड़ा परमार्थ भी कर लें तो एक सुख का अनुभव होता है। परमार्थ का यह आशय कतई नहीं है कि अपना सर्वस्व लुटा दें बल्कि हम किसी सुपात्र व्यक्ति की सहायता करने के साथ  किसी बेबस का सहारा बने। वैसे लुटाने को लोग लाखों लुटा रहे हैं। अपने परिवार के नाम प्याऊ या किसी मंदिर में बैच या पंखा लगवाकर उस पर अपने परिवार का परिचय अंकित करवा देते हैं और स्वयं ही दानी होने का प्रमाणपत्र ग्रहण करते हैं। इससे मन को शांति नहीं मिलती। दूसरों से दिखावा कर सकते हो पर अपने आप से वह संभव नहीं है। हम हर जगह अपने कुल की परिवार की प्रतिष्ठा लिये घूमते हैं पर अपनी आत्मा से कभी परिचित नहीं होते। इसके लिये जरूरी है कि समय निकालकर भक्ति और संत्संग के कार्यों में बिना किसी दिखावे के निष्काम भाव से सम्मिलित हों। कामना के साथ दान या भक्ति करने से मन को कभी शांति नहीं मिलती। उस पर अगर कुल प्रतिष्ठा किए रक्षा का विचार में में आ जाए तो फिर मनुष्य अपना जीवन ही नारकीय हो जाता है।  दूसरी बात यह ही कि इस संसार का पालनहार तो परमात्मा है तब हम अपने परिवार को पालने का दावा कर सवयं को धोखा देते हैं । 
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Wednesday, July 7, 2010

पहरेदार और कातिल-हास्य कविताएँ (paharedar aur qatil-hasya kavitaen)

खज़ाने की सलामती का जिम्मा हैं जिन पर
वही उसे लुटा रहे हैं,
लुटेरों की महफिल में भी
अपने लोगों को जुटा रहे हैं।
दलालों के ठगने से दर्द नहीं होता
यहां तो पहरेदार ही
कातिलों के लिये मजबूरों को उठा रहे हैं।
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जिंदा लोगों की जिंदगी के
जज़्बातों से खेलना व्यापार के लिये जरूरी है,
इसलिये मरने वालों पर आंसु बहाना
सौदागरों की मजबूरी है।
ज़माने का यही रिवाज है
जिंदा प्यासे इंसान को पानी कोई पिलाता नहीं
जन्नत में बैठे पुरखों के लिये
लुटाते लोग समंदर
कोई नहीं जानता जिसके बारे में
धरती से उसकी कितनी दूरी है।
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कवि लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,ग्वालियर
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