समस्त ब्लॉग/पत्रिका का संकलन यहाँ पढें-

पाठकों ने सतत अपनी टिप्पणियों में यह बात लिखी है कि आपके अनेक पत्रिका/ब्लॉग हैं, इसलिए आपका नया पाठ ढूँढने में कठिनाई होती है. उनकी परेशानी को दृष्टिगत रखते हुए इस लेखक द्वारा अपने समस्त ब्लॉग/पत्रिकाओं का एक निजी संग्रहक बनाया गया है हिंद केसरी पत्रिका. अत: नियमित पाठक चाहें तो इस ब्लॉग संग्रहक का पता नोट कर लें. यहाँ नए पाठ वाला ब्लॉग सबसे ऊपर दिखाई देगा. इसके अलावा समस्त ब्लॉग/पत्रिका यहाँ एक साथ दिखाई देंगी.
दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका
-------------------------


Wednesday, August 27, 2014

रैगिंग की परंपरा भारतीय अध्यात्म दर्शन के प्रतिकूल-हिन्दी चिंत्तन लेख(reging a anti social activity and aposit indian religion thought-hindi thought article)



      भारत में अंग्रेजी शिक्षा पद्धति अपनाये जाने के बाद समाज के कथित सभ्रांत ने समूह  रहन सहन और खान पान में ऐसी परंपराओं को जन्म दिया है जो उसे सामान्य लोगों से अलग करती है। एक तरह से कहा जाये तो धनिक वर्ग ने सामान्य समाज में सभ्रांत दिखने के लिये पाश्चात्य परंपराओं को इसलिये नहीं अपनाया कि वह वास्तव में सभ्य है वरन् स्वयं को श्रेष्ठ दिखने क्रे लिये उन्होंने वह अतार्किक व्यवहार अपनाया है जिसके औचित्य वर सामान्य लोग कुछ कह नहीं पाते।  इन्हीं परंपराओं में एक प्रथा है रैगिंग परंपरा जिसका निर्वाह विद्यालयों, महाविद्यालयों और छात्रावासों में वरिष्ठ छात्र कनिष्ठों को परेशान करने के लिये करते हैं।  यह परंपरा पहले भी थी पर उसका रूप इतना निकृष्ट नहीं था जितना अब दिखाई देता है। 
      रैगिंग के दौरान वरिष्ठ छात्र कनिष्ठ छात्रों के साथ मजाक की परंपरा निभाने के लिये अत्यंत घृणित व्यवहार करते हैं-यह शिकायतें अब आम हो गयी है। इस तरह की घटनायें तब प्रकाश में आती हैं जब कोई छात्र अपनी जाने खो बैठता है।  दरअसल हमारी शिक्षा प्रणाली में आकर्षण लाने के लिये जिस व्यवसायिक भाव को अपनाया गया है उसमें अधिक से अधिक छात्र एकत्रित करने का प्रयास उस व्यापारी की तरह किया जाता है जो अपने सामान के लिये अधिक से अधिक ग्राहक चाहता है।  जब शिक्षा के क्षेत्र में राज्य का प्रभाव था तब तक कोई समस्या नहीं थी पर अब निजीकरण ने इस क्षेत्र को बेलगाम बना दिया है।  दूसरी बात यह कि निजी क्षेत्र में शिक्षा का स्वामित्व ऐसे लोगों के पास चला गया है जो धन, पद और बाहुबल के दम पर अपना काम चलाते हैं उनके यहां शिक्षक एक लिपिक से अधिक माननीय नहीं होता।  निजी क्षेत्र के शैक्षणिक संस्थान केवल शिक्षा का वादा नहीं करते वरन् वह खेल, मनोरंजन और नौकरी दिलाने तक की उन सुविधाओं का वादा करते हैं जिन्हें इतर प्रयास ही माना जा सकता है। उनके प्रचार विज्ञापनों में छात्रों को पाठ्यक्रम से अधिक सुख सुविधाओं की चर्चा होती है।

चाणक्य ने कहा है कि

-------------

सुखार्थी वा त्यजेद्विधां विद्यार्थी वा त्यजेत् सुखम्।

सुखार्थिन कुतो विद्या विद्यार्थिनः कुतोः सुखम्।।

     हिन्दी में भावार्थ-सुख की कामना वाले को विद्या औरं विद्या की कामना वाले को  सुख का त्याग कर देना चाहिये। सुख चाहने वाले को विद्या और विद्या चाहने वाले को सुख नहीं मिल सकता।  

      आजकल मोबाइल, कंप्यूटर और वाहनों का प्रभाव समाज में इस तरह बढ़ा है कि हर वर्ग का सदस्य उसका प्रयोक्ता है। स्थिति यह है कि बच्चों को आज खिलौने  से अधिक उनके पालक मोबाइल, कंप्यूटर और वाहन दिलाने की चिंता करते हैं। अब तो यह मान्यता बन गयी है कि अच्छी सुविधा होगी तो बच्चा अधिक अच्छे ढंग से पढ़ सकता है। जबकि हमने आधुनिक इतिहास में ऐसे अनेक महापुरुषों के बारे में पढ़ा है जिन्होंने भारी कष्टों के साथ जीवन बिताते हुए शिक्षा प्राप्त करने के अपने प्रयासों से प्रतिष्ठा का शिखर पाया।

मनुस्मृति में कहा गया है कि

-----------------

द्यूतं च जनवादं च परिवादं तथाऽनृतम!।

स्त्रीणां च प्रेक्षणालम्भावुपघातं परस्य च।।

     हिन्दी में भावार्थ-विद्यार्थी को चाहिये कि वह जुआ, झगड़े, विवाद झूठ तथा हंसीमजाक करने के साथ ही दूसरों को हानि पहुंचाने से दूर रहे।

      शैक्षणिक गतिविधियों से इतर सुविधाओं ने छात्रों को इतना बहिर्मुखी बना दिया है कि जिस काल में एकांत चिंत्तन की आवश्यकता होती है उस समय वह  मनोरंजन में अपना समय बर्बाद करते हैं।  हमारा अध्यात्मिक दर्शन तो यह मानता है कि शिक्षा के दौरान अन्य प्रकार की गतिविधियां न केवल अनुचित हैं वरन् धर्मविरोधी भी हैं।  चाणक्य तथा मनुस्मृति में यह स्पष्ट कहा गया है कि शिक्षा की अवधि में छात्रों को सुख सुविधाओं से दूर रहना चाहिये।  इतना ही नहीं गुरुकुल या छात्रावासों में रहना जरूरी हो तो सभी का सम्मान किया जाये। जुआ, मनोरंजन, निंदा, झगड़े तथा विवादों से विद्यार्थियों को बचना चाहिये।  यह हमारी धार्मिक पुस्तकें स्पष्ट रूप कहती हैं पर हैरानी की बात है कि कथित धर्म प्रवचनकर्ता कभी रैगिंग के विरुद्ध टिप्पणी नहीं करते। वैसे उनका दोष नहीं है क्योंकि अगर उन्होंने रैगिंग को धर्म विरोधी कहा तो उनके विरुद्ध प्रचार यह कहते हुए शुरु हो जायेगा कि वह सांप्रदायिक हैं।  यही प्रचार माध्यम जो रैगिंग के वीभत्स समाचार देकर विलाप कर रहे हैं उसे धर्म विरोधी घोषित करने पर समर्थन देने लगेंगे और दावा यह करेंगे कि एक दो छोटी घटना पर रैगिंग को निंदित नहीं कहा जा सकता।
      हम जैसे सामान्य लेखकों के पाठक कम ही होते हैं इसलिये इस बात की चिंता नहीं रहती कि कोई बड़ी बहस प्रारंभ हो जायेगी। दूसरी बात यह कि हम भारतीय अध्यात्मिक संदेशों के नये संदर्भों में चर्चा के लिये प्रस्तुत करते हैं तो अक्सर यह विचार आता है कि क्यों न ऐसा लिखा जाये जिससे लोग आकर्षित हों इसलिये यह सब लिखा दिया।  यह विचार इसलिये भी आया कि रैगिंग की घटनाओं से जब कुछ युवा जान गंवाते हैं तो तकलीफ होती है।  इसलिये हम चाहते हैं कि युवा वर्ग अपने प्राचीन अध्यात्मिक दर्शन का अध्ययन कर इस तरह की घटनाओं से बचे।



दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

Sunday, August 17, 2014

मणि होने के बावजूद सांप को मित्र नहीं मिलते-भर्तृहरि नीति शतक के आधार चिंत्तन लेख(mani hone ke bavjood sanp ko mitra nahin milte-bharttrihari neeti shatak)



            आजकल हमारे यहां अधिक मित्रों का संग्रह करने की प्रवृत्ति प्रचलन में आ गयी है। अब किसी का एक दो मित्र नहीं होता वरन् पूरा एक मित्र समूह बनाकर चला जाता है। कहा जाता है कि हंस कभी दल बनाकर नहीं चलते। यह प्रवृत्ति कौऐ की मानी जाती है।  मित्रता का सामूहिक रूप कभी भी फलदायी नहीं हो सकता।  दूसरी बात यह कि शैक्षणिक, व्यवसायिक तथा सेवा के क्षेत्रों में सक्रियता के दौरान संपर्क में आने वाले सभी लोग मित्र नहीं हो सकते।  एक बात हम यहां बता दें कि धर्म का समय केवल प्रातःकाल होता है। उसके बाद का समय अर्थ का होता है इसलिये जो लोग हमसे अपनी कार्यसिद्धि के लिये मिलते हैं उन्हें मित्र कहा ही नहीं जा सकता क्योंकि मित्रता तो निस्वार्थ भाव से होती है।
भर्तृहरि नीति शतक में कहा गया है कि
------------------------------------------
आरंभगुर्वी क्षयिणी क्रमेण लघ्वी पुरा वृद्धिमति च पश्चात्
दिनस्य पूर्वाद्र्धपराद्र्ध-भिन्ना छायेव मैत्री खलसज्जनानाम्।।
            हिंदी में भावार्थ-जिस तरह दिन की शुरूआत में छाया बढ़ने के बाद फिर उत्तरार्द्ध  में धीरे-धीरे कम होती जाती है। ठीक उसी तरह सज्जन और दुष्ट की मित्रता होती है।
दुर्जनः परिहर्तवयो विद्ययाऽलङ्कृतोऽपि सन्
मणिनाः भूषितः सर्पः किमसौ न भयंकर।।
     हिंदी में भावार्थ-कोई दुर्जन व्यक्ति विद्वान भी हो  तो उसका साथ छोड़ देना चाहिए। विषधर में मणि होती है पर इससे उससे उसका भयंकर रूप प्रिय नहीं हो जाता।
           सज्जन व्यक्तियों से मित्रता धीरे-धीरे बढ़ती है और स्थाई रहती है। सज्जन लोग अपना स्वार्थ न होने के कारण बहुत शीघ्र मित्रता नहीं करते पर जब वह धीरे-धीरे आपका स्वभाव समझने लगते हैं तो फिर स्थाई मित्र हो जाते हैं-उनकी मित्रता ऐसे ही बढ़ती है जैसे पूर्वाद्ध में सूर्य की छाया बढ़ती जाती है। इसके विपरीत दुर्जन लोग अपना स्वार्थ निकालने के लिए बहुत जल्दी मित्रता करते हैं और उसके होते ही उनकी मित्रता वैसे ही कम होने लगती है जैसे उत्तरार्द्ध  में सूर्य का प्रभाव कम होने लगता है। पड़ौस तथा कार्यस्थलों में हमारा संपर्क अनेक ऐसे लोगों से होता है जिनके प्रति हमारे हृदय में क्षणिक आत्मीय भाव पैदा हो जाता है। वह भी हमसे बहुत स्नेह करते हैं पर यह यह संपर्क नियमित संपर्क के कारण मौजूद हैं।  उन कारणों के परे होते ही-जैसे पड़ौस छोड़ गये या कार्य का स्थान बदल दिया तो-उनसे मानसिक रूप से दूरी पैदा हो जाती है।  इस तरह यह बदलने वाली मित्रता वास्तव में सत्य नहीं होती। मित्र तो वह है जो दैहिक रूप से दूर होते भी हमें स्मरण करता है और हम भी उसे नहीं भूलते। इतना ही नहीं समय पड़ने पर उनसे सहारे का आसरा मिलने की संभावना रहती है।  अतः स्थितियों का आंकलन कर ही किसी को मित्र मानकर उससे आशा करना चाहिये।जहां तक हो सके दुष्ट और स्वार्थी लोगों से मित्रता नहीं करना चाहिये जो कि कालांतर में घातक होती है।
दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

Friday, August 15, 2014

शास्त्रों से मुंह फेरने से ही समाज का पतन-भर्तृहरि नीति शतक(shastron se munh ferne se hi samaj ka patan-bhartrihari neeti shatak)



      अंग्रेजों ने भारत में जिस शिक्षा पद्धति को स्थापित किया उसका प्रचलन निर्बाध गति से हमारे देश में अब भी जारी है।  इस पद्धति को अपनाये रखने का कारण यह है कि इसके आधार पर विद्याध्यन करने के पश्चात् जो उपाधियां प्राप्त होती हैं उसी से निजी तथा सरकारी क्षेत्रों में नौकरियां करने का अवसर आधुनिक गुलामों को मिलता है।  यह अलग बात है कि हमारे शैक्षणिक क्षेत्र के विद्वान आज भी देश में व्याप्त बेरोजगारी की समस्या को देखते हुए शिक्षा को अधिक रोजगारोन्मुखी बनाने की मांग करते हैं।
      पहले तकनीकी और विज्ञान के क्षेत्र में शिक्षा करने वालों को भी नौकरी ढूंढने के अभियान में लगना पड़ता था पर उदारीकरण ने ऐसी स्थिति बना दी है कि तकनीकी महाविद्यालायों मेें अध्ययन करने के दौरान ही नौकरी देने वाले शिविर लगाकर छात्रों का भावी गुलाम कें रूप में चयन किया जाने लगा है। आजकल  किसी भी शैक्षणिक संस्थान की प्रतिष्ठा इस बात पर निर्भर करती है कि उसने  अपने यहां अध्ययनरत कितने अधिक छात्रों को गुलामी का अवसर का लाभ उठाने की सुविधा प्रदान की। 

भर्तृहरि नीति शतक में कहा गया है कि

---------------

पुरा विद्वत्तासीदुषशमवतां क्लेशहेतयेगता कालेनासौ विषयसुखसिद्धयै विषयिणाम्।

इदानीं सम्प्रेक्ष्य क्षितितलभुजः शास्त्रविमुखनहो कष्ट साऽपि प्रतिदिनमधोऽधः प्रविशत।।

     हिन्दी भावार्थ-पहले लोग मानसिक रूप से दृढ़ होने के लिये विद्याध्ययन करते थे। कालांतर में विषयों में आसक्त होने पर सुख प्राप्त करने के लिये उसका अनुकरण किया। अब तो लोग शास्त्रों से विमुख हो गये हैं। वह उनका नाम भी नहीं सुनना चाहते थे। राजाओं ने भी शास्त्रों में मुंह फेर लिया है। इस तरह यह प्रथ्वी रसातल में जा रही है वह चिंत्ता का विषय है।

      आमतौर से हमारे यहां के धार्मिक विद्वान शास्त्रों से विमुख होने की शिकायत करते हैं पर यह कोई नयी बात नहीं है। हमारे समाज में भले ही प्राचीन ग्रंथो को मान्यता प्राप्त है पर उसमें स्वाध्याय करने का मन सहजता से नहीं लगता। यही कारण है कि जो उनका अध्ययन करते हैं वह उसका व्यवसायिक उपयोग करते समाज में गुरु पद पर प्रतिष्ठित हों जाते हैं।  लोग फुर्सत के समय उनके प्रवचन सुनकर मनोरंजन के रूप में आनंद उठाते हैं।
        दरअसल प्राचीन ग्रंथों का अध्यात्मिक अध्ययन प्रारंभ में विषतुल्य प्रतीत होता है पर कालांतर में उसके आधार पर इस मायावी संसार के नाटकीय दृश्य देखकर उनका विश्लेषण करने की सुविधा मिलती है जो अत्यंत मनोरंजक होती है।  हमारे अध्यात्मिक दर्शन में भाव के त्याग का अत्यंत महत्व प्रतिपादित करने के साथ ही यह भी बताया गया है कि भोग का सुख क्षणिक होने के साथ कालांतर में उसका  प्रभाव विकार के रूप में प्रकट होता है।  अज्ञान के अभाव में लोग भोग के स्वरूप को ही जीवन का आनंद समझते हैं।  इतना ही नहीं लोगों में सबसे बड़ा भोगी बनने की होड़ लगी है।  यही कारण है कि देश में दैहिक, मानसिक तथा वैचारिक रोगियों की संख्या बढ़ी है।
      आज के समय हम प्राचीन शिक्षा पद्धति की बात तो कर ही नहीं सकते।  कारण यह है कि भारत में मानव श्रम अधिक मात्रा में है और उसका निर्यात भी होता है।  हम जिन लोगों को विदेशों में नोक्री करते देखते हैं वह मानव श्रम के निर्यात का ही रूप है।  अंग्रेजी भाषा का इसलिये अपनाये रखा गया है ताकि श्रम निर्यात करने की सुविधा बनी रहे।  ऐसे में शिक्षा के पाठयक्रम में भारतीय ग्रंथों को समाहित करने का विचार प्रकट करने पर सामान्य व्यक्ति भी हंसेगा तब अंग्रेजी शिक्षा से उच्च पद पर लोगों से समर्थन की आशा करना भी व्यर्थ है। 
      यह अलग बात है कि समाज में नैतिक, भावनात्मक तथा वैचारिक पतन का रोना सभी होते हैं। हमारे प्राचीन ऋषियों, मुनियों और तपस्वियों ने अपने परिश्रम से जीवन के सत्य की खोज कर प्रस्तुत कर दी है।  नया कोई सत्य दृष्टिागोचर नहीं होता।  ऐसे में जिन लोगों को ज्ञान के आधार पर जीवन का आंनद उठाना है उन्हें प्राचीन ग्रंथों का अध्ययन करते रहना चाहिये।

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

Saturday, August 9, 2014

सार्वजनिक स्थानों पर कचरा करना दण्डनीय अपराध-मनुस्मृति के आधार पर चिंत्तन लेख(sarvjanik sthanon par kachra karna dandneeya apradha-a Hindu hindi religion thought article on manu smriti)




            हमारे देश में सार्वजनिक स्थानों, मार्गों तथा उद्यानों में भारी गदंगी होने के समाचार आते हैं। अनेक पुराने लोग यह शिकायत करते मिलते हैं जो राजतंत्र के समय शहर के साफ होने की बात कहते हुए आधुनिक लोकतंत्र में व्यवस्था चौपट होने का दावा करते हैं पर सच यह है कि उस समय उपभोग की ऐसी प्रवृत्ति नहीं थी जैसी कि आज है।  लोगों का खान पान अब घर से अधिक बाहर हो गया है।  अंडे, मांस, सिगरेट, शराब, तथा तैयार  खान पान के सामानों का उपभोग बाजारों में धड़ल्ले से होने लगा है जिससे कचरे का भंडार कहीं भी देखा जा सकता है।  ऐसा नहीं है कि बाजारों में ऐसी वस्तुओं का उपभोग बढ़ा हो वरन् लोग घरों में मंगवाकर भी इन्हें सड़क पर ही फेंकते हैं।
            वर्षा ऋतु में पिकनिक मनाने की परंपरा बन गयी है, यह अलग बात है कि यही ऋतु भोजन के पाचन की दृष्टि से संकटमय मानी जाती है।  आजकल पंचसितारा निजी चिकित्सालयों में इसी ऋतु में भीड़ लगती है।  हर जगह कचरा कीचड़ में तब्दील हो जाता है और इससे महत्वपूर्ण जलस्थल तथा उद्यान सामान्य पर्यटकों के सामने बुरे दृश्य लेकर उपस्थित रहते हैं।  कहा जाता है कि प्लास्टिक कभी नष्ट नहीं होती मगर सभी वस्तुओं को इसी में बांधकर उपभोक्ता को दिया जाता है। अनेक शहरों में  इस प्लास्टिक ने सीवर लाईनों को अवरुद्ध करने के साथ ही नदियों और नालों को प्रदूषित कर दिया है।  हमारे यहां पर्वतों तथा नदियों को पूज्यनीय बताया जाता है पर हिमालय और उससे निकलने वाली नदियों पर जाने वाले कथित भक्तों ने किस तरह वहां अपनी उपभोग प्रवृत्तियों से प्रदूषण फैलाया है उस पर अनेक पर्यावरण विशेषज्ञ नाखुशी जताते रहते हैं।
मनुस्मृति में कहा गया है कि
-----------
समुत्सृजेद्राजमार्गे यस्त्वऽमध्यमनापदि।
स द्वौ कार्यापर्णे दद्यादमेध्यं चाशुशेधयत्।।
            हिन्दी में भावार्थ-सार्वजनिक मार्ग पर कूड़ा फेंकने वाले ऐसे नागरिक जो अस्वस्थ न हों उन पर अर्थ दंड देने के साथ ही उसकी सफाई भी करवाना चाहिये।
आपद्गतोऽधवा वृद्धो गर्भिणो बाल एव वा।
परिभाषणमर्हन्ति तच्च शोध्यमिति स्थितिः।।
            हिन्दी में भावार्थ-यदि कोई संकट ग्रस्त, वृद्ध, गर्भवती महिला तथा बालक सड़क पर कचरा फैंके तो उसे धमकाकर सफाई कराना चाहिये।
            हमारे देश में मनस्मृति का विरोध एक बुद्धिमानों का समूह करता है। यह समूह कथित रूप से आम आदमी की आजादी को सर्वोपरि मानता है।  उस लगता है कि मनुस्मृति में जातिवादी व्यवस्था है जबकि सच यह है कि इसमें ऐसे अनेक महत्वपूर्ण संदेश है जो आज के समय भी अत्यंत प्रासांगिक हैं। एक तरफ समाज प्लास्टिक के रंग बिरंगे रूपों में बंधे सामानों को देखकर विकास पर आत्ममुग्ध हो रहा है  जबकि अनेक प्रकार के विषाक्त, मिलावटी तथा सड़े खानपान से जो बीमारियां पैदा हो रही हैं उस पर किसी का ध्यान नहीं है।  उससे अधिक यह महत्वपूर्ण बात है कि अनेक लोग सार्वजनिक स्थानों को स्वच्छ रखने की बजाय वहां कचरा डालकर न केवल अपने लिये वरन् दूसरों को भी कष्ट देते हैं।  इसलिये जागरुक लोगों को इस बात पर ध्यान देना चाहिये कि वह कचरा उचित स्थान पर डालकर पुण्य का काम करें।

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

Sunday, August 3, 2014

प्रजा का शोषण अधिक न करे वही श्रेष्ठ राज्य-मनुस्मृति के आधार पर चिंत्तन लेख(praja ka shoshan nahin kare vahi shrehshth rajya-A hindu hindi religion based on manu smriti)



      हमारे देश में लोकतांत्रिक प्रणाली अवश्य है पर यहां की राज्य प्रबंध व्यवस्था वही है जो अंग्रेजों ने प्रजा को गुलाम बनाये रखने की भावना से अपनायी थी। उन्होंने इस व्यवस्था को इस सिद्धांत पर अपनाया था कि राज्य कर्मीं ईमानदार होते हैं और प्रजा को दबाये रखने के लिये उन्हें निरंकुश व्यवहार करना ही  चाहिये।  राजनीतिक रूप से देश स्वतंत्र अवश्य हो गया पर जिस तरह की व्यवस्था रही उससे देश में राज्य प्रबंध को लेकर हमेशा ही एक निराशा का भाव व्याप्त  दिखता रहा है।  इसी भाव के कारण  देश में अनेक ऐसे आंदोलन चलते रहे हैं जिनके शीर्ष पुरुष देश में पूर्ण स्वाधीनताा न मिलने की शिकायत करतेे है।


मनुस्मृति में कहा गया है कि
-------------
शरीकर्षात्प्राणाः क्षीयन्ते प्राणिनां यथा।
तथा राज्ञामपि प्राणाः क्षीयन्ते राष्ट्रकर्षणात्।।
     हिन्दी में भावार्थ-जिस प्रकर शरीर का अधिक शोषण करने से प्राणशक्ति कम होती उसी तरह जिस राज्य में प्रजा का अधिक शोषण होने वहां अशांति फैलती है।
राज्ञो हि रक्षाधिकृताः परस्वादयिनः शठाः।
भृत्याः भवन्ति प्रायेण तेभ्योरक्षेदियाः प्रजाः।।
     हिन्दी में भावार्थ-प्रजा के लिये नियुक्त कर्मचारियों में स्वाभाविक रूप से धूर्तता का भाव आ ही जाता है। उनसे निपटने का उपाय राज्य प्रमुख को करना ही चाहिए।

      देश की अर्थव्यवस्था को लेकर अनेक विवाद दिखाई देते हैं।  यहां ढेर सारे कर लगाये जाते हैं।  इतना ही नहीं करों की दरें जिस कथित समाजवादी सिद्धांत के आधार पर तय होती है वह कर चोरी को ही प्रोत्साहित करती है।  इसके साथ ही  कर जमा करने तथा उसका विवरण देते समय करदाता  इस तरह  अनुभव करते हैं जैसे कि उत्पादक नागरिक होना जैसे एक अपराध है।  देश के कमजोर, गरीब तथा अनुत्पादक लोगों की सहायता या कल्याण करने का सरकार को करना चाहिये पर इसका यह आशय कतई नहीं है कि उत्पादक नागरिकों पर बोझ डालकर उन्हें करचोरी के लिये प्रोत्साहित किया जाये।      यह हैरानी की बात है कि कल्याणकारी राज्य के नाम करसिद्धांत अपनाये गये कि गरीब लोगों की भर्लाइै के लिये उत्पादक नागरिकों पर इतना बोझ डाला जाये कि वह अमीर न हों पर इसका परिणाम विपरीत दिखाई दिया जिसके अनुसार  पुराने पूंजीपति जहां अधिक अमीर होते गये वहीं मध्यम और निम्न आय का व्यक्ति आय की दृष्टि से नीचे गिरता गया।  इतना ही नहीं  ऐसे नियम बने जिससे निजी व्यवसाय या लघु उद्यमों की स्थापना कठिन होती गयी।
            हालांकि अब अनेक विद्वान यह अनुभव करते हैं कि राज्य प्रबंध की नीति में बदलाव लाया जाये। इस पर अनेक बहसें होती हैं पर कोई निर्णायक कदम इस तरह उठाया नहीं जाता दिख रहा है जैसी कि अपेक्षा होती है।  हालांकि भविष्य में इसकी तरफ कदम उठायेंगे इसकी संभावना अब बढ़ने लगी है।  एक बात तय है कि कोई भी राज्य तभी श्रेष्ठ माना जाता है जहां प्रजा के अधिकतर वर्ग खुश रहते हैं।

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

अध्यात्मिक पत्रिकाएं