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Saturday, March 30, 2013

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-अपने से बड़े आदमी पर प्रहार करने पहले अपनी शक्ति पर विचार करें(kautilya ka arthshastra-apne se bade aadmi par prahar karne se pahale apni shakti par vichar karen)

    जहां तक हो सके अपने जीवन में शांति तथा प्रेम के साथ रहना चाहिये।  समय पड़ने पर दूसरे की सहायता करना भी मनुष्य का धर्म है। अपने हृदय में हमेशा दूसरों के प्रति सम्मान तथा प्रेम का भाव रखना जरूरी है पर इस संसार में आसुरी प्रवृत्ति के लोग भी हैं जिनका उद्देश्य दूसरों पर शारीरिक, वैचारिक तथा शाब्दिक प्रहार कर अपना स्वार्थ सिद्ध करना होता है।  ऐसे लोग न धर्म जानते हैं न उनके आचरण में कभी मानवीयता के दर्शन होते हैं।  उनसे सामना हो जाये तो फिर कदम पीछे नहीं हटाना चाहिये।  इतना जरूर है कि उन पर प्रहार करने से पूर्व अपनी शक्ति, पराक्रम तथा मनोबल का ध्यान रखना आवश्यक है। वर्तमान युग में तो अनेक बार ऐसा लगता है कि बंदर का स्वभाव रखने वाले मनुष्यों के पास उस्तरा आ गया है।  जिन लोगों के पास पद, प्रतिष्ठा और पैसा अधिक आ गया है उनमें कुछ लोगों की बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है।  वह अपनी शक्ति होने की अनुभूति दूसरे पर प्रहार कर देखना चाहते है।  उनका यह शक्ति परीक्षण अपराध के रूप में प्रकट होता है।  दरअसल ऐसे लोगों अपने से पद, प्रतिष्ठा और पैसे में कमतर लोगों को कमजोर मानते हुए उन्हें अनावश्यक रूप से परेशान कर आनंद लेते हैं।  ऐसे लोगों पर एकदम प्रहार करना ठीक नहीं है पर उनके कमजोर पड़ने पर उन्हें दंड देना चाहिये।  यह दंड शाब्दिक या व्यवहार के रूप में होना चाहिये।  हिंसा कर अपने लिये संकट बुलाने से अच्छा है चालाकी से अहिंसापूर्वक अपना बदला लिया जाये।
कौटिल्य का अर्थशास्त्र में कहा गया है कि
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स्वोत्साहशक्तिमुद्वीक्ष्य विगृण्हीयान्महतम्।
केसरीव द्विपमिति भारद्वाज प्रभषते।।
           हिन्दी में भावार्थ-अपने उत्साह तथा शक्ति का सही आंकलन कर अपने से शक्तिशाली व्यक्ति के विरुद्ध उसी तरह विद्रोह करें जैसे सिंह हाथी पर आक्रमण करता है।
एकोऽपि सिंहः साहस्र थ मथ्नाति दन्तिनः।
तस्मात्सिंह इवोदग्रमात्मानां वीक्ष्णसम्पतेत्।।
    हिन्दी में भावार्थ- एक अकेला सिंह हजार हाथियों के यूथ को मसल डालता। इस कारण सिंह के समान शत्रु पर आक्रमण करें।
      कहने का अभिप्राय यह है कि अपने जीवन में हमेशा हर स्थिति के लिये तैयार रहना चाहिये।  अपने जीवन के उत्थान के लिये दूसरों की चाटकुरिता करने के अच्छा है सिंह की तरह स्वतंत्र जीवन जीने का संकल्प धारण करना ही श्रेयस्कर उपाय है। एक बात स्पष्ट रूप से समझ लें कि पद, पैसे और प्रतिष्ठा के शिखर पर बैठे लोगों की यह प्रवृत्ति रहती है कि छोटे लोगों का उपयोग करते हैं।  जब उनका काम निकल जाता है तो फिर साथ छोड़ने में देरी भी नहीं करते।
दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 



Monday, March 25, 2013

चाणक्य नीति-साधु स्वभाव के लोगों को कोई नहीं पूछता (chankya neeti-sudhu swabhav wale ko koyee nahin poochta)

          हमारे देश में लोग आमतौर से पहुंच वाले या पहुंचे हुए लोगों से अपने संबंध की  चर्चा  करते हुए अत्यंत प्रसन्न होते हैं।  सच बात तो यह है कि आज के युग में बिना छल कपट या धोखे को कोई पहुंचा हुआ बन सकता है न किसी की पहंुच हो सकती है।  आजकल के युग में जब राज्य का हस्तक्षेप समाज में अधिक हो गया है तब लोगों की मानसिकता यह हो गयी है कि उन्हें किसी न किसी तरह से समाज में राज्य की शक्ति के सहारे प्रतिष्ठा बनें।  खासतौर से जब प्रचार माध्यम अपराधियों के इतिहास के बखान के साथ उनके प्रभावशाली व्यक्तित्व  महिमामंडन अवश्य करते हों। इससे  आमजनो का यह लगता है कि राज्य के अंदर से कोई ज्ञात या अज्ञात शक्ति उनके साथ होने से किसी भी प्रकार का अपराध करने के बावजूद वह दंड से  बच जाते हैं।  ऐसे में समाज के युवा वर्ग के मन में  किसी न किसी तरह से उनको छोटे मोटे अपराध करने पर दंड से बचने के लिये पहुंच वाले या पहुंचे हुए लोगों से संपर्क बढ़ाने की  आकांक्षा  पनपती है।  अपराध न करने की इच्छा करने के बावजूद यदि कोई त्रुटि हो जाये तो उसे पहुंच वाले या पहुंचे हुए आदमी से संरक्षण मिल सकता है यह सोचकर लोग अपने आपको सुरक्षित अनुभव करते हैं। 
यजुर्वेद में कहा गया है कि
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साधुभ्यस्ते निवर्तन्ते पुत्र मित्राणि बान्धवाः।
य च तैः गन्तारस्तद्धर्मात्सकुकृतं कुलम!।।
हिन्दी में भावार्थ- जो साधु बन जायें या जिन मनुष्य का स्वभाव
साधु हो जाये अपने परिवार के लोग ही उसकी उपेक्षा करने लगते हैं।  मगर जो लोग साधुओं की संगत करते हैं उनका आचरण स्वतः अनुकूल हो जाता है और वह प्रतिष्ठा अर्जित करते हैं।
       
                             इस प्रवृत्ति ने समाज में ऐसे लोगों की छवि को कमतर बना दिया है जो ईमानदारी, आदर्श चरित्र तथा सरलता के साथ जीवन जीते हैं।  अब तो केवल उन लोगों की छवि उज्जवल हो गयी है जो अपराध के दंड से बचाने के लिये समर्थ होते हैं।  साधु स्वभाव का आदमी समाज के लिये किसी काम का नहीं है।  ज्ञानी वही है जो उसे बखान करने के साथ ही पर्दे के पीछे गलत काम वाले लोगों को सरंक्षण देने का माद्दा रखता है। इसके बावजूद यह भी सच है कि कोई आदमी तभी तक ही अपराध कर बचा रह सकता है जब तक पानी सिर के ऊपर तक नहीं निकल जाये।  अगर इस धरती पर अपराधी को राज्य से दंड नहीं मिलता तो सर्वशक्तिमान अपनी ताकत दिखाता है।  जिन लोगों ने असाधु पर शक्तिशाली लोगों से संपर्क बनाकर अपराध किये हैं अंततः समय आने पर उनको दंड मिल ही जाता है।  जब काठ की हांडी चौराहे पर फूटती है तो शाक्तिशाली लोग अपने प्यादों को फंसा ही देते हैं।  इसलिये जहां तक हो सके साधु स्वभाव के लोगों से संपर्क रखना चाहिये। 
दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 



Sunday, March 17, 2013

यजुर्वेद के आधार पर चिंत्तन-सोने के पात्र में सच छिप जाता है (yajurved ke aadhar par chittan-sone ke paatra mein sach chip jaata hai)

       पूरे विश्व समाज  में सोने  को अत्यंत महंगी धातु माना जाता है। हैरानी की बात यह है कि सोना किसी का पेट न भर सकता है न गले की प्यास  बुझा सकता है फिर भी  लोग उसे पाने को आतुर रहते है।  खासतौर से महिलाओं को सोने के आभूषण पहनने का शौक रहता है।  अपने आप में यह आश्चर्य की बात है कि जिस अन्न से मनुष्य का पेट भरता है उसे कोई सम्मान से नहीं देखता।  इतना ही नहीं जिस अन्न को प्रसाद मानकर खाना चाहिये लोग उसे मजबूरी समझ कर खाते हैं क्योंकि उसके बिना शरीर नहीं चल सकता।   अधिकतर मनुष्य भोजन कर शरीर इसलिये चलाना चाहते हैं कि अधिक से अधिक दैहिक रूप सक्रिय होकर धन संचय कर सकें। इस द्रव्य धन का सर्वश्रेष्ठ भौतिक रूप सोना ही है।  आज के विश्व समाज में सोने  का उपयोग कागजी मुद्रा को भौतिक रूप में स्थिर रखने के लिये किया जाता है।  इसी सोने के पात्र में जीवन का सच छिप जाता है।  यह संसार बिना अधिक धन संपदा, भूमि तथा अन्य भौतिक साधनों के भी स्वर्ग हो सकता है यह तथ कोई सिद्ध या ज्ञान साधक ही समझ सकता है।  
यजुर्वेद में कहा गया है कि
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हिरण्मपेन पवित्र सत्यस्थापिहितं सुखम्।
हिन्दी में भावार्थ-सोने के पात्र से सत्य ढका हुआ है।
वापुरनिलमृतथेदं भस्मान्थमशरीरम्।
क्रततो स्मद।।
क्लिवे स्मर।
कृथ्स्मर।।
हिन्दी
में भावार्थ-प्राण अपार्थिव अमृत हैं जबकि यह शरीर अंततः भस्म हो जाता है। अतः सर्वरक्षक आत्मा का स्मरण कर। अपनेअंदर स्थित कर्म करने वाला पुरुष का स्मरण कर।
       हमारी देह में विराजमान ही आत्म ही वास्तविक स्वर्ण है। यही वह अमृत है जिसका स्मरण करना चाहिये।  निरंतर बहिर्मुखी होने से मनुष्य बाह्य विषयों में सिद्धहस्त हो जाता है पर आंतरिक विषयों के बारे में उसका अज्ञान अंततः उसके लिये घातक होता है। आजकल लोगों के पास भौतिक साधनों का जमावड़ा तो हो गया है पर फिर भी कोई खुश नहीं दिखता। मानसिक तलाव के चलते लोग राजरोगों का शिकार होते जा रहे हैं।  समस्या यह भी है कि शारीरिक रूप से लोग अपने विकारों की चर्चा तो कर सभी को बता देते हैं पर उससे उनकी मानसिकता में  जिंदगी के प्रति उत्पन्न  नकारात्मक  भाव की  अनुभूति प्रत्यक्ष नहीं दिखती पर उनका आचरण तथा व्यवहार पर उसका दुष्प्रभाव अवश्व ही पड़ता है।  यही कारण है कि लोगों को दूसरों के द्वंद्व में मनोरंजन, पीड़ा में सनसनी और व्यसनों में ताजगी का अनुभव हेाता है।  आध्यात्कि विषय पर चर्चा उनके लिये केवल समय नष्ट करना ही होता है।  अपने मन के वेग से भौतिक संपदा के पीछे भाग रहे लोग अपनी आत्मा से साक्षात्कार तो दूर उसका विचार तक नहीं करते।
      जिन लोगों के हृदय में  शारीरिक तथा मानसिक रूप से स्वस्थ् रहने की इच्छा है उनको अंतमुखर््ी होकर योगासन, प्राणायाम, ध्यान और मंत्र जाप में अवश्य लगना चाहिये।  अंतमुर्खी  होकर अध्ययन करने से संसार के विषयों में स्वतः प्रवीणता आती हे पर बहिमुर्खी रहकर सांसकिर विषयों में लिप्त रहने से अध्याित्मक ज्ञान नहीं आ सकता।  जब भौतिकता से मोहभंग होता है तब अध्यात्मिक ज्ञान के अभाव  में मनुष्य निराशा, हताशा और मानसिक विकृतियों का शिकार होकर अपना जीवन दाव पर लगा देता है।
दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 



Sunday, March 10, 2013

सामवेद के आधार पर संदेश-शुद्ध वायु का सेवन स्वास्थ्यवर्द्धक(samved ke aadhar par sandesh-shuddh vayu ka sewan swasthyavarddhak)


        हमारे अध्यात्मिक ग्रंथ जहां इस देह को पांच तत्व-जल, प्रथ्वी, आकाश, वायु और अग्नि-को न केवल जीवन निर्माता वरन् स्वास्थ्य रक्षक भी मानते हैं।  यही कारण है कि शुद्ध जल और वायु के सेवन के साथ ही सूर्य की किरणों को भी बीमारियों में एक दवा की तरह उपयोगी माना जाता है। कहा जाता है कि मनुष्य अगर शुद्ध जल का सेवन करे तो वह जीवन भर बीमार न पड़े उसी तरह प्रातः अगर वह शुद्ध वायु का सेवन करे तो हमेशा स्वस्थ बना रहेगा।  सर्दियों में सूर्य का सेवन करना अनेक शारीकिर और मानसिक   व्याधियों को  दूर रखता है।
        हमारे देश के प्राचीन ग्रंथ योग विद्या को जीवन जीने की कला मानते हैं।  श्रीमद्भागवत् गीता में तो स्पष्ट रूप से शुद्ध स्थान पर आसन लगाना और प्राणायाम करना यज्ञ-हवन के समान बताया गया है। श्रीमद्भागवत गीता में कहा गया है कि  गुण ही गुणों को बरतते हैं।  इस सिद्धांत को हम आज प्रथ्वी के प्रदूषित वातावरण के साथ ही समाज में व्याप्त अनेक व्याधियों के प्रकटीकरण के रूप में देख सकते हैं। कहा जाता है कि इस समय पूरे विश्व में  गैसों की वजह से ओजोन पर्त में छेद हो गये जिनसे पार होकर सूर्य की किरणें सीधे जमीन पर आती हैं। इससे गर्मी बढ़ रही है। मौसम अप्रत्याशित रूप से बदलकर विश्व के अनेक भूभागों पर संकट पैदा कर रहा है। इसका दुष्प्रभाव इस धरती पर विचरने वाले हर जीव पर बुरा पड़ रहा है। पशु, पक्षियों तथा जलचरों पर पड़ने वाले प्रभावों को हम नहीं देख सकते पर मनुष्यों की देह और और दिमाग जिस तरह विकृतियों का शिकार हो रहे हैं उससे तो यही लगता है कि विश्व का भविष्य भारी संकट में है।
        सबसे बड़ी बात यह है कि लोगों को रहन सहन का स्वरूप बदल गया है। शहरी क्षेत्रों में  अधिकतर लोग सूरज उगने के बाद उठते हैं जबकि कहा जाता है कि सूर्योदय से पहले उठने वाले से नब्बे फीसदी बीमारियां दूर रहती हैं।  हम यह भी देखते हैं कि ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले या वहां के परिवेश में पले मगर अब  शहर में रहने वाले लोग अपनी प्रातः जल्दी उठने की पुरानी  आदत के चलते कम ही बीमार देखे जाते हैं।  इससे साफ जाहिर होता है कि प्रातः सुबह उठकर शुद्ध वायु का सेवन करना एक तरह से देवता की प्रार्थना करना ही है।  यह तो आधुनिक  विज्ञान भी मानता है कि शुद्ध जल और वायु का सेवन  स्वास्थ्य के लिये लाभदायक है।
सामवेद की एक प्रार्थना में लिख गया है कि
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आषुरर्ष बृहहन्मते परि प्रिवेण धामना।
             प्रार्थना का हिन्दी में भावार्थ-हे बुद्धिमान वायु देवता! अपने गुणों सहित विचरण कर।
सुत एति पवित्र आ त्विषिं दधान ओजसा
विचक्षाणे विरोचयन्।
           हिन्दी में प्रार्थना-ज्ञान शक्ति स्वयं का हित करने के साथ ही निजी व्यक्तित्व को यशस्वी बनाती है।
            अध्यात्मिक ज्ञान को लेकर केवल सन्यासियों के लिये ही मानना अज्ञान का प्रमाण है। दरअसल अध्यात्मिक ज्ञान मनुष्य को मानसिक रूप से अत्यंत दृढ़ बनाता है। सच बात तो यह है कि हम अपनी दैहिक हलचलों को ही नहीं समझ पाते तो उसमें विराजमान अहंकार, बुद्धि और मन जैसी प्रकृतियों को पहचानना भी कठिन है।  यह शक्ति केवल तत्वज्ञान के अध्ययन से ही मिलती है।  जब आदमी को तत्वज्ञान मिल जाता है तब वह इस संसार के सत्य और असत्य को समझ लेता है।  तब वह न केवल अपने निजी काम सहजता से करता है बल्कि दूसरे का भी मददगार बनता है जिससे उसका समाज में यश बढ़ता है।

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 



Sunday, March 3, 2013

ऋग्वेद के आधार पर सन्देश-अपने तन का पोषण कर उसका सम्मान करें (rigved ke adhar par sandesh-apne tan ka poshan ka uska samman karen)

              हम अपनी इस देह की शक्ति के माध्यम से ही संसार को देखते, सुनते और अनुभव करते हैं।  यह सही है कि हर मनुष्य को अध्यात्मिक ज्ञान के इस सूत्र का अनुभव होना चाहिये कि हम आत्मा हैं पर साथ ही इसे धारण करने वाली देह तथा उसकी इंद्रियों पर ध्यान करना जरूरी है। हमारे अध्यात्मिक ज्ञान में योगासन, प्राणायाम और ध्यान के रूप में ऐसी विधाओं का सृजन किया गया है जिससे शरीर के साथ मन तथा बुद्धि जैसी अनियंत्रित प्रकृत्तियों को नियंत्रत कर जीवन गुजारने की सुविधा मिल जाती है।  संसार के मायावी विषयों का प्रभाव मनुष्य पर इतना बुरा पड़ता है कि उसकी बुद्धि केवल भौतिक संग्रह तक ही काम करती है। अनेक लोगों के पास तो इतना समय भी नहीं रहता कि वह अपनी देह के लिये हितकर विषय पर विचार करें।
          खाने के समय भी लोग सांसरिक विषय पर ही विचार करते हैं।  जहां चार लोग बैठकर खा रहे हों वहां बातचीत का दौर भी  चलता है।  संसार के मायावी विषयों में गहराई तक डूबे लोगों के लिये अपने पद, धन और और दैहिक शक्ति का बखान करना ही ज्ञान की परिधि में आता है और शांति से भोजन करना उनके लिये एक बेकार विषय है। हमारे अध्यात्मिक दर्शन में खाने को लेकर भी अनेक नियम हैं पर उन नियमों पर अब कोई ध्यान नहीं देता।
ऋगवेद में कहा गया है कि
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यजस्व तन्त्रं त्वस्वाम्।
हिन्दी में भावार्थ-अपने तन का भी पोषण कर उसका सत्कार करें।
     मूल बात यह है कि खाना खाते समय मन में पवित्रता होना चाहिये। भोजन को प्रसाद की तरह ग्रहण करने से वह सहजहता से पच जाता है।  खाने का मतलब केवल पेट भरना ही नहीं होता बल्कि वह प्रक्रिया भी उस देह की पूजा करना है जो परमपिता परमात्मा की कृपा से प्राप्त हुई है।  खाते समय यह अनुभूति करना चाहिये कि मुंह में जाता हुआ भोजन हमारे शरीर को एक नई ऊर्जा दे रहा है।  उससे हमारे शरीर की शिथिल इंद्रियों को राहत अनुभव हो रही है। यह संसार संकल्प का खेल है जब हम इस तरह पवित्र विचार करते हुए अपनी दैहिक क्रियाओं में लिप्त रहेंगे तो हमारे कर्मो के फल भी पवित्र होंगे।  भोजन इस तरह न करें कि वह तो मजबूरी में करना ही है वरना हमारी देह को कष्ट होगा।  हमें यह सोचते हुए खाना चाहिये कि इससे हमारी देह पुष्ट होकर सांसरिक विषयों में हमें विजय दिलायेगी।
दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 



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