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Friday, December 28, 2012

विदुर नीति-मूढ़ता की प्रवृत्ति से बचना चाहिये(vidur neeti-murkhta ki privritti se bachna chahiye)

                    जब तक कोई मनुष्य   नित्य आत्ममंथन न करें तब तक उसे इसका आभास नहीं हो सकता है कि वह  दिन में कितनी बार मूढ़ता का प्रदर्शन करता हैं।  अनेक बार किसी का यह पता होता है कि अमुक आदमी उसके प्रति सद्भावना न रखता है न आगे ऐसी कोई संभावना  है तब भी यह कामना करता है कि शायद स्थिति पलट जाये।  इतना ही नहीं कुछ लोग तो ऐसे भी हैं जो अपने हित की कामना करने वालों को संदेह की दृष्टि से देखता है और जो संदेहपूर्ण है उसके हितचिंतक होने की कामना करता है। 
     समाज में सभी लोग मूर्ख नहीं होते पर सभी ज्ञानी भी नहीं होते।  कुछ लोगों में किसी के लक्ष्य का विध्वंस करने या देखने की अत्यंत उत्कंठा होती है।  वह हर समय किसी न किसी की हानि का कामना करते हैं।  ऐसे मनुष्य के साथ संपर्क रखना भी अत्यंत खतरनाक हो सकता है। किसी का बनता काम बिगाड़ने और बिगाड़ कर बदनाम करने की प्रवृत्ति अनेक लोगों में होती है।  ऐसे लोगों से यह अपेक्षा करना कि वह कभी सुधर जायेंगे एकदम व्यर्थ है।  अगर कोई ऐसी अपेक्षा करता है तो वह स्वयं महामूर्ख है।
विदुर नीति में कहा गया है कि
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अकामान् कामयनि यः कामयानान् परित्यजेत्।
बलवन्तं च यो द्वेष्टि तमाहुर्मुढचेतसम्।।
           हिन्दी में भावार्थ-जो मनुष्य अपने से प्रेम न करने वाले को प्रेम करता है और प्रेम करने वाले को त्याग देता है वह मनुष्य मूढ़ चेतना वाला कहलाता है।
अमित्रं कुरुते मित्रं मित्रं देष्टि हिनस्ति।
कर्म चारभते दुष्टं तमाहुर्मुढचेतसम्।।
     हिन्दी में भावार्थ-जो मनुष्य शत्रु को मित्र और मित्र को शत्रु बनाने का प्रयास करता है वह मूढ़ प्रवृत्ति का होता है।
संसारयति क1त्यानि सर्वत्र विचिकित्सते।
चिरं करोति क्षिप्रार्थे स मूढो भरतर्षभ।।
       हिन्दी में भावार्थ-जो मनुष्य अपने काम को व्यर्थ ही फैलाता है। सर्वत्र ही संदेह करता है और शीघ्र होने वाले काम मे विलंब करता है वह अत्यंत मूढ़ है।
       अपने काम को लापरवाही या बेईमानी से करना भी मूढ़ प्रवृत्ति का प्रमाण है।  कबीर दास जी भी कह गये हैं कि ‘‘कल करे सो आज कर, आज करे सो अब,
पल में परलय हो जायेगी बहुरि करेगा कब’’।  कुछ लोग अपना काम अनावश्यक रूप से फैला लेते हैं। कुछ अपने काम में यह सोचकर विलंब करते हैं कि करना तो हमें ही है। यह प्रवृत्ति पतन की ओर धकेलने वाली है।
     कहने का अभिप्राय यह है कि हमें दिन प्रतिदिन अपने कार्य, व्यापार और आचरण पर दृष्टिपात रखते हुए दूसरों की भी प्रकृत्ति, लक्ष्य और स्वभाव का अध्ययन करते रहना चाहिये।  ऐसा न कर हम स्वयं को धोखा देंगे और यही मूढ़ प्रवृत्ति है जो घातक कहलाती है।
संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
writer and editor-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep', Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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Tuesday, December 25, 2012

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-जो सद्व्यवहार करे वही सच्चा बंधु (kautilya ka arthshastra-jo sadvyavahar kare vahi sachcha bandhu)

             इस संसार में कोई मनुष्य अकेला नहीं रह सकता।  उसे समय समय पर बंधु बांधव और मित्रों की सहायता की आवश्यकता होती है।  इसके साथ ही यह भी सत्य है कि सभी बंधु या मित्र समय पड़ने पर सहायता करने वाले नहीं होते।  आजकल विद्यालयो, महाविद्यालयों तथा कार्यालयों में अनेक लोगों के बीच मैत्री और प्रेम भाव पनपता है और सभी लोग इस भ्रम में रहते हैं कि आपत्तकाल में वह मदद करने वाले हैं।  अनेक लोगों को तो ऐसा लगता है कि  ऐसे मित्र जीवन भर निभायेंगे। इतना ही नहीं आपस में एक दूसरे की परीक्षा किये बिना लोग बंधु या मित्र का रिश्ता कायम कर लेते हैं।  यह अलग बात है कि समय आने पर उनको पता चलता है कि कोई उनकी सहायता करना नहीं चाहता या वह उतना क्षमतावान नहीं है जितना वह दावा करता है।  इसके अलावा  अपने रिश्तों नातों में आदमी यह सोचकर लिप्त रहता है कि समय आने पर वह निभायेंगे।  यह अलग बात है कि समय आने पर कोई सीधे मुंह फेर लेता है या मदद न करने के लिये कोई  बहाना बना देता है। ऐसा नहीं है कि संसार में सभी बुरे लोग हैं क्योंकि देखा यह भी गया है कि समय पड़ने पर ऐसे लोग भी मदद करते हैं जो न तो बंधु होते हैं न मित्र।  यह सत्य है कि अध्यात्मिक रूप से ज्ञान होने पर मनुष्य  किसी का न मित्र रहता न शत्रु बल्कि वह निष्काम भाव से दूसरे की मदद करता है।  ज्ञानियों को न मित्र चाहिये न शत्रु पर वह ऐसे लोगों को बंधु मानते हैं जो इस भौतिक संसार से जुड़े विषयों पर बिना किसी प्रयोजन के उनकी मदद करते हैं।
कौटिल्य का अर्थशास्त्र में कहा गया है कि
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सा बन्धुर्योऽनुबंधाति हितऽर्वे वा हितादरः।।
अनुरक्तं विरक्त वा तन्मित्रमुपकरि यत्।।
              हिन्दी में भावार्थ-इस संसार में वही बंधु है जो अपने प्रयोजन को सिद्ध करता हो।  अनुरक्त होकर विरक्त भाव से जो उपकार करे वही सच्चा बंधु है।
मित्रं विचार्य बहुशो ज्ञातदोषं परित्यवेत्।
तयजन्नभूतदोषं हि धर्मार्थदुपहन्ति हि।।
        हिन्दी में भावार्थ-अपनी मित्र मंडली के बारे में विचार करते रहना चाहिए। जब किसी मित्र के दोष का पता चले तब उससे दूरी बना लें। अगर दोष युक्त मित्र या पूरी मंडली का त्याग न किया तो अनर्थ होने की संभावना प्रबल रहती है।
     इतना ही नहीं अपने बंधुओं या मित्रों में अनेक ऐसे भी होते हैं जिनके अंदर अनेक प्रकार के दोष होते हैं।  उनके मुख में कुछ मन में कुछ होता है।  ऐसे लोगों की पहचान होने पर उनका साथ त्याग देना ही श्रेयस्कर है।  समय समय पर एकांत में हर आदमी को अपने मित्र तथा बंधुओं की स्थिति और विचारों पर दृष्टिपात करना चाहिये।  मनुष्य गुणों का पुतला है। समय और स्थिति के अनुसार उसकी सोच बदलती रहती है।  संभव है कि वह वफादार दिखते हों पर जब हमें हानि पहुंचाने पर उनको लाभ होता है तब वह गद्दारी करने में संकोच न करें।  इसलिये हमेशा सतर्क रहते हुए अपने बंधु और मित्रों की भाव भंगिमाओं पर दृष्टिपात रखना चाहिये।
संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
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Saturday, December 22, 2012

मनुस्मृति से संदेश-सत्कर्म करने से इच्छित फल न मिले तो भी निराश न हों (Manu smriti se sandesh-satkarma karne se ichchhit fal n mile to bhi nirash n hon)

     यह संसार अत्यंत विचित्र है कुछ लोगों को धन संपदा पैतृक रूप से प्राप्त होती है तो कुछ अपने कर्मों से उसे प्राप्त करते हैं।  यह अलग बात है कि दुष्कर्मों से धन संपदा अत्यंत सहजता से मिलती है पर अंततः वह कष्टकारक होती है।  सत्कर्म करते हुए एक तो परिश्रम करना पड़ता है दूसरा इच्छित लक्ष्य विलंब से मिलने की भी संभावना रहती है।  अनेक बार यह विलंब इतना हो जाता है कि आदमी का मन दुष्कर्म के मार्ग पर चलकर सफलता पाने के लिये लालायित हो उठता है। उस समय मनुष्य को अपने मन पर नियंत्रण कर अपने आसपास के वातावरण पर विचार करना चाहिये।  अनेक ऐसे लोग हैं जो संक्षिप्त मार्ग पर चलकर अमीर बन जाते हैं पर उसके दुष्परिणाम के रूप में उनको अपना जीवन तक की आहुति देनी पड़ती है।   विपत्ति के समय उनका कोई साथी नहीं बनता।  ऐसा नहीं है कि सत्कर्मी पर संकट  नहीं आता पर धर्म पर दृढ़ हैं उनको पूरे समाज की सहानुभूति मिल जाती है। सत्कर्म के बावजूद अगर सफलता न मिले तो भी यह नहीं मानना चाहिये कि हम भाग्यहीन हैं।  समय आने पर इच्छित फल मिलेगा यह विश्वास धारण करते हुए अपने कर्म में लिप्त रहना ही मनुष्य का धर्म है।
मनुस्मृति में कहा गया है कि
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नात्मात्नमवमन्येत पूर्वाभिरसमृद्धिभिः।
आमृत्यो श्रियमन्विच्छेनैनां मन्येत दुर्लभाम्।।
             हिन्दी में भावार्थ-अपनी समृद्धि के लिये पूरा प्रयास करने पर भी इच्छित लक्ष्य प्राप्त न हो तो भी स्वयं को कुंठित करते हुए भाग्यहीन नहीं मानना चाहिए। प्रयत्न करते रहना मनुष्य का धर्म है और संभव है कभी भाग्य साथ दे तो इच्छित लक्ष्य चाहे वह कितना भी दुर्लभ क्यों न हो मिल ही सकता है।

न सीदन्नपि धर्मेण मनोऽधर्मे निवेशयेत्।
अधार्मिकारणां पापनामशुः पश्यन्विपर्ययम्।।
      हिन्दी में भावार्थ-धर्म का आचरण करने पर संकट भले ही झेलना पड़े पर उससे विचलित नहीं होकर   अधर्म में लिप्त लोगों को अपने अपराध का किस तरह दंड भोगना पड़ता है यह देखकर अधर्म के माग पर चलने का विचार ही त्याग देना चाहिये।
         आजकल लोगों में ऐसी प्रवृत्ति आ गयी है कि हर कोई जल्दी से जल्दी धन, प्रतिष्ठा और उच्च पद पाना चाहता है।  इतना ही नहीं लोगों में अध्यात्मिक ज्ञान का इस कदर अभाव आ गया है कि धर्म और नैतिकता उनके लिये कोई अगेय विषय हो गया है। जिन लोगों के अंदर ज्ञान और विवेक है वही केवल यह देख पाते हैं कि अधर्म पर चलने वाले अंततः शीघ्र ही पतन की तरफ जाते हैं।  धर्म और नैतिकता का मार्ग दुरुह अवश्य है रक्षित है।
संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
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Tuesday, December 18, 2012

पतंजलि योग साहित्य-कूर्माकार नाड़ी में संयम रखने से स्थिरता आती है (patanjali yoga sahitya-koormakar nadi par mein sanyam rakhne se sathirta aate hai)

        भारतीय अध्यात्म दर्शन में योगासन, प्राणायाम और ध्यान ऐसे साधन माने गये हैं जिससे मनुष्य अपने जीवन को कलात्मक रूप से व्यतीत कर सकता है।  आधुनिक संसार में भौतिकतावाद से उकताये और सुस्ताये लोगों को अनेक कथित योग शिक्षकों ने अपने पेशेवराना अंदाज से आकर्षित किया है  पर सच तो यह है कि योग विद्या में पारंगत लोगों की कमी ही दिखती है।  आसन और प्राणायाम से देह और मन को लाभ होता है पर ध्यान से जो मनुष्य में पूर्णता आती है इसका ज्ञान अभी पूरी तरह प्रचारित नही किया गया है। 
         आजकल हम देखते हैं कि लोग भारी मानसिक तनाव से गुजर रहे हैं।  जीवन पहले से कहीं अधिक संघर्षमय हो गया है।  आज के आधुनिक बुद्धिजीवी तो पतंजलि योग को विज्ञान मानने से ही इंकार करते हैं।  उनकी नज़र में पश्चिमी विचारधाराओं में भी व्यायाम का महत्व बताया गया है उसके कारण यह भारतीय योग विद्या कोई अनोखा विषय नहीं है।  यह अलग बात है कि हम पश्चिम के अंधानुकरण करते हुए यह भूल रहे हैं कि यूरोप और अमेरिका में भी लोगों के अंदर भारी मानसिक कुंठायें व्याप्त हो गयी हैं।  सबसे बड़ी बात यह है कि भारतीय अध्यात्म की घ्यान पद्धति को अब पश्चिम के लोग भी मानने लगे हैं। 
         जिस व्यक्ति के पास  ध्यान लगाने की कला होती है वह दूसरे का उद्धार करने वाला सिद्ध भले न हो पर उसमें कई ऐसी विशेषतायें आ ही जाती हैं जो उसे आम मनुष्य से अधिक प्रतिभाशाली बना देती हैं।  बहुत सहज लगने वाली यह कला तभी आ सकती है जब आदमी का संकल्प पवित्र होने के साथ ही उसे पाने के लिये दृढ़प्रतिज्ञ हो।
पतंजलि योग में कहा गया है कि
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नाभिचक्रे कायव्यूहज्ञानम्।
       हिन्दी में भावार्थ-नाभिचक्र में ध्यान या संयम करने से पूरे शरीर का ज्ञान हो जाता है।
कण्ठकूपे क्षुत्पिपासानिवृत्ति।
        हिन्दी में भावार्थ-कण्ठकूप  (जिव्हा के नीचे एक तालू है जिसे जिव्हा मूल भी कहते हैं) में ध्यान या संयम करने से भूख और प्यास की निवृत्ति हो जाती है।
कूर्मानाडयां स्वैर्यम्।
        हिन्दी में भावार्थ-कूर्माकार नाड़ी ( वक्षःस्थल के नीचे एक कछूए की आकार वाली नाड़ी होती है) में ध्यान या संयम करने से मन और देह में स्थिरता आती है।
मूर्धज्योतिषि सिद्धदर्शनम्।
           हिन्दी में भावार्थ-मूर्धा की ज्योति (सिर के कपोल में एक छिद्र है जिसे बृह्मारन्ध भी कहते है तथा जिसमें प्रकाशमयी ज्योति प्रज्जवलित है) में ध्यान या संयम करने से प्रथ्वी और स्वर्ग लोक में विचरने वाले सिद्ध पुरुषों के दर्शन होते हैं।
प्रातिभद्वा सर्वम्।
             हिन्दी में भावार्थ-पूर्ण ज्ञान होने पर ध्यान या संयम के भी सारी बातों का ज्ञान होता है।
        नियमित योग साधना करने वालों को ध्यान के लिये अधिक से अधिक समय निकालना चाहिये। ध्यान कहीं और कभी भी लगाया जा सकता है।  अपने ध्यान को स्थापित करने करने के लिये पहले भृकुटि पर प्राण केंद्रित करें। नाक  के   ऊपर  भृकुटि के साथ ही आज्ञा चक्र भी जुड़ा हुआ है उसके बाद सहस्त्रात चक्र, विशुद्धि चक्र, अनाहत  चक्र, मणिपुर चक्र, स्वाधिष्ठान चक्र तथा मूलाधार चक्र की तरफ ध्यान को घुमाते रहना चाहिये।  इसे हम संयम करना भी मान सकते हैं।  इन चक्रों पर ध्यान या संयम करने से अंतर्मन में प्रकाश का अनुभव होता है। हम अपने अंदर देह के अंगों की क्रिया और प्रतिक्रिया को तब अच्छी तरह से समझ सकते हैं जब नियमित रूप से ध्यान लगायें।  ध्यान लगाने वाले लोग क्षेत्रज्ञ हो जाते हैं और किसी आधुनिक चिकित्सक से अधिक अपने विकार और उनके प्रतिकार का ज्ञान रखते हैं।
     यहां यह स्पष्ट कर दें कि हृदय में संकल्प धारण करना उतना सहज नहीं है जितना कुछ लोग मानते हैं।  यह संसार संकल्प का खेल है।  आम मनुष्यों की आदत यह है कि वह स्वयं को विकार रहित मानते हुए अपनी नाकामियों का ठीकरा दूसरों पर फोड़ते हैं जबकि सच्चाई यह है कि हर मनुष्य अपने कर्म फल का उत्तरदायी स्वयं है।  जब कोई मनुष्य कर्तापन का त्याग कर ध्यान लगाता है तब वह दृष्टा हो जाता है और अपने जीवन को कलात्मक ढंग से बिताता है।  इसके लिये सबसे बड़ा महत्व संकल्प का है जो स्वयं धारण करना होता है। इसके लिये प्रेरणा स्वध्याय से ही जाग सकती है।
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Saturday, December 15, 2012

विदुर नीति-कोई धन में तो कोई गुण में धनी है (vidur neeti-koyee dhan mein to gun mein dhani hai)

       पूरे विश्व में आर्थिक एवं वैज्ञानिक विकास की बात खूब होती है पर चारित्रिक विकास  का कोई प्रश्न नहीं उठाता। अगर विश्व के भौतिक विकास को ही सत्य माना जाये तो फिर हमें यह मानना चाहिए समूचे मानव सभ्यता में जो भयंकर वैचारिक दोष आ गये हैं उन पर अधिक चिंता करने की आवश्यकता व्यर्थ है ।  यह अलग बात है कि पूरे विश्व के प्रचार माध्यम एक तरफ से विश्व समुदाय के भौतिक विकास को सभ्य मानव सभ्यता का प्रमाण प्रचारित कर रहे हैं तो दूसरी तरफ उन्हीं में नित प्रतिदिन हिंसा, अपराध और संवदेनहीन समाज को लेकर अनेक प्रकार की बहस भी होती है।  इस धरती पर विचरने वाले जीवों में मनुष्य एक ऐसा जीव है जिसकी बुद्धि अधिक है और जहां वह भौतिक विकास पर प्रसन्न है वहीं चारित्रिक, वैचारिक तथा आचरण में हुए हृास पर  चिंतित भी है।  संसार का बौद्धिक समाज असमंजस में है।  इस भौतिक विकास ने एक तरह से मनुष्य समुदाय की बुद्धि का ह्रास  इस कदर किया है कि समझ में नहीं आता कि पशु और मनुष्य में अंतर क्या रह गया है?
         अध्यात्मिक विकास की बात करना एक तरह से बकवाद करना लगता है।  यह कहना गलत होगा कि पूरा मनुष्य समुदाय मूर्ख है पर इतना तय है कि ज्ञानियों की संख्या अब नगण्य रह गयी है।  आर्थिक विकास और मनोरंजन के नये साधनों में मगजपच्ची लोगों को यह आभास नहीं है कि इनसे उनकी बुद्धि के साथ आयु का भी क्षय हो रहा है।  देह और मन के साथ विचारों में विकार इतने भर गये हैं कि आदमी विष को भी अमृत समझ कर सेवन कर रहा है। 
विदुरनीति में कहा गया है कि
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न च क्षयो महाराज यः क्षयो शुद्धिभावहेतु।
क्षयः सत्विह मन्तव्यो यं लब्धवां बहुनाशयेत्।।
         हिन्दी में भावार्थ-किसी हानि या क्षय से अगर वृद्धि या लाभ होता है तो उसकी परवाह नहीं करना चाहिये पर अगर किसी लाभ से बाद में हानि या क्षय हो उस पर अवश्य विचार कर कोई काम करना चाहिए।
समृद्धा गुणतः केचित भवन्ति धनतोऽपरे।
धनवृद्धान् गुणंहींनान् धृतराष्ट्र विवर्जय।
        हिन्दी में भावार्थ-इस संसार में कुछ लोग धन के तो कुछ गुणों में धनी होते हैं। जो धनी होते हुए भी गुणों से हीन हैं उनका त्याग करना ही श्रेयस्कर है।
         समाज में धनवान को गुणवान मानने की प्रवृत्ति बढ़ रही है।  गुणवान अगर अल्पधनी है तो उसका सम्मान कोई नहीं करना चाहता। स्थिति यह है कि समाज सेवा, राजनीति, कला, साहित्य, तथा धार्मिक क्षेत्र में जो लोग सक्रिय हैं उनके छोटे और बड़े होने की पहचान केवल उनके पास उपलब्ध  धन की मात्रा रह गयी है।  इधर उधर से धन के साथ शिष्यों का संग्रह कर कोई अपना रटा रटाया अध्यात्मिक ज्ञान सुनाता है तो वह ज्ञानी है पर धारण करने वाला जो त्यागी है उसे कोई ज्ञानी नहीं मान सकता।  दान लेकर समाज सेवा करने वाले सम्मानीय और स्वतः दान देने वाला मूर्ख मान जा रहा है।  धर्म और समाज सेवा में व्यवसायिकता का इतना बोलबाला है कि जिसे अध्यात्म का ज्ञान नहीं है वह उन्हीं लोगों को महान समझता है जो कमाने के लिये सेवा करते हैं।  सेवा कर जो न कमाये उसे तो एक तरह से मूर्ख माना जाता है।
        समाज की इस प्रवृत्ति के बावजूद ज्ञानी और  साधकों का एक ऐसा समूह है जो निष्काम भाव से सक्रिय है।  वह यह सच जानते हैं कि समाज में लोगों का एक बहुत बड़ा वर्ग मानसिक, शारीरिक और बौद्धिक विकारों से जूझ रहा है।  हमारे देश में संपन्नता बड़ी है पर लोगों में उसी अनुपात से  प्रसन्नता का भाव कम हो गया है।  मूल बात यह है कि हम दूसरों की तरफ देखने की बजाय आत्ममंथन करें कि कहां खड़े हैं। भीड़ में भेड़ की तरह एकांत में ध्यान साधना करने पर इसका आभास हो सकता है कि एक ज्ञानी या साधक और आम मनुष्य में क्या अंतर है? साथ ही जिन लोगों को बड़ा माना जाता है उनकी स्थिति वाकई क्या है?        
संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
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