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Friday, July 29, 2011

चाणक्य नीति-नकारा लोग दूसरों की आलोचना करते हैं

         मनुष्य का धर्म है कि वह अपना कर्म निरंतर करता रहे। अपनी वाणी और विचार पर नियंत्रण रखे। भगवान का स्मरण करते हुए अपनी जीवन यात्रा सहजता से पूर्ण करे। जहां तक हो सके अपने ही काम से काम रखे न कि दूसरों को देखकर ईर्ष्या करे। आमतौर से इस विश्व में लोग शांति प्रिय ही होते हैं इसलिये ही मानव सभ्यता बची हुई। यह अलग बात है कि शांत और निष्कर्मी मनुष्य की सक्रियता अधिक दिखती नहीं है इसलिये उसकी चर्चा सार्वजनिक रूप से नहीं होती जबकि अशांति, दुष्टता और परनिंदा में लगे लोगों की सक्रियता अधिक दिखती है इसलिये आमजन उस पर चर्चा करते हैं।
     हम लोग परनिंदकों की बातें सुनकर मजे लेते हैं जबकि दूसरों की तरक्की से ईर्ष्या के साथ उसकी निंदा करने वालों की बातें सुनना भी अपराध है। ऐसे लोग पीठ पीछे किसी आदमी की निंदा कर सामने मौजूद आदमी को प्रसन्न अवश्य करते हैं पर सुनने वाले को यह भी सोचना चाहिए कि उसके पीछे वही आदमी उसकी भी निंदा कर सकता है।
       आचार्य चाणक्य कहते हैं कि
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       दह्यमानाः सुतीत्रेण नीचा पर-यशोऽगिना।
           अशक्तास्तत्पदं गन्तुं ततो निन्दां प्रकृर्वते।।
     ‘‘दुर्जन आदमी दूसरों की कीर्ति देखकर उससे ईर्ष्या करता है और जक स्वयं उन्नति नहीं कर पाता तो प्रगतिशील आदमी की निंदा करने लगता है।’’
       यदीच्छसि वशीकर्तु जगदकेन कर्मणा।
            परापवादस्सयेभ्यो गां चरंतीं निवारथ।।
       ‘‘यदि कोई व्यक्ति चाहता है कि वह समस्त संसार को अपने वश में करे तो उसे दूसरों की निंदा करना बंद कर देना चाहिए। अपनी जीभ को वश में करने वाला ही अपना प्रभाव समाज पर रखता है।
           इस संसार में कुछ लोग ऐसे भी दिखते हैं जिनका उद्देश्य अपना काम करने अधिक दूसरे का काम बिगाड़ना होता है। सकारात्मक विचाराधारा से अधिक उनको नकारात्मक कार्य में संलिप्त होना अधिक अच्छा लगता है। रचना से अधिक विध्वंस में उनको आनंद आता है। अंततः वह अपने लिये हानिदायक तो होते हैं कालांतर में अपने सहयेागी की भी लुटिया डुबो देते हैं।
        जो लोग सोचते हैं कि उनको समाज में सम्मान प्राप्त हो उनके लिये यह जरूरी है कि वह अपनी ऐसी संगत बदल दें जिसके साथ रहने पर लोग उनसे भी हानि होने की आशंका से ग्रस्त रहते हैं। यह भय सम्मान दिलाने में सबसे अधिक बाधक है। इसके अलावा किसी की निंदा तो बिल्कुल न करें क्योंकि अगर किसी आदमी के सामने आप अन्य की पीठ पीछे निंदा करते हैं तो सामने वाले के मन में यह संशय भी आ सकता है कि बाद में आप उसकी भी निंदा करे। इससे विश्वास कम होता है।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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Sunday, July 24, 2011

हिन्दी अध्यात्मिक संदेश-शराब पीने से अन्य बुराईयां भी आती हैं (sharab peena buri adat-hindu adhyamik sandesh)

            यह प्रकृति की महिमा है कि मनुष्य का ध्यान व्यसनों की तरफ बहुत आसानी से चला जाता है। इसमें मद्यपान तथा जुआ दो ऐसे व्यसन हैं जो आदमी के तन, मन और धन की क्षति करते हैं पर फिर भी वह इसे अपनाता है। यह सही है कि सारे संसार में लोग एक जैसे नहीं होते पर प्रवृत्ति तो सभी की एक जैसी है। जिनके पास धन आता है उनका ऐसी राह पर चले जाना सहज होता है। जिनके पास धनाभाव है वह ऐसी प्रवृत्तियों में लिप्त इसलिये नहीं होते क्योंकि उनके पास अवसर नहीं होता।
          आर्थिक विशेषज्ञ अपने आंकड़े बताते हैं कि भारत में धनिकों की संख्या बढ़ी है तो सामाजिक विशेषज्ञ भी यह रेखांकित करते हैं कि देश में खतरनाक प्रवृत्तियों वाले लोग भी बढ़ते जा रहे हैं। शराब और जुआ के प्रति लोगों का रूझान बढ़ रहा है। स्थिति यह है कि धनिकों की संगत वाले युवा अपनी जरूरतों के लिये अपराध की तरफ अपने कदम बढ़ाते जा रहे हैं।
पानझिप्तो हि पुरुषो यत्र तत्र प्रवर्तते।
वात्यसंव्यवहारर्यत्वै यत्र तत्र प्रवर्त्तनात्।।
                ‘‘मद्यपान का आदी पुरुष हर जगह अपना मुंह डालते हैं। मद्यपान के आदी पुरुष व्यवहार के योग्य नहीं रह जाते।’’
कामं स्त्रियं निषेवेत पानं वा साधुमात्रया।
न युतमृगये विद्वान्नात्यंव्यसने हि ते।।
             ‘‘भले ही कोई पुरुष स्त्रियों से अधिक संपर्क रखता हो और थोड़ी मात्रा में मद्यपान भी करे पर द्युतक्रीड़ा और शिकार में लिप्त होना तो बहुत बुरा व्यसन है।’’
          भारतीय समाज में अनेक विरोधाभास हैं जिनमें एक यह भी है कि जहां धर्म कर्म के नाम पर शोरशराबा बढ़ रहा है वही शराब और जुआ को सामाजिक शिष्टाचार माना जाने लगा है। अब तो यह संभव ही नहीं है कि कोई व्यक्ति यह कहे कि मैं शराबी से अपने संपर्क नहीं रखूंगा। पहले जिन रिश्तों के सामने शराब की बात तक कहना भी कठिन था उनके पास बैठक बड़े मजे से सेवन किया जाता है।
              इस तरह विचार परिवर्तन से सत्य नहीं बदल जायेगा। शराब शनै शनै मनुष्य की मानसिकता को प्रभावित करती है। उसके व्यवहार में विश्वास की कमी आने लगती है। इस बात को केवल तत्वज्ञानी ही अनुभव कर सकते हैं। वैसे आज तो यह स्थिति है कि मित्रता और व्यवहार के समूह बनते ही ऐसी आदतों पर हैं जिनको वर्जित माना जाता है। जुआ या सट्टा तो इस तरह आम हो गया है कि प्रसिद्ध खेल, धारावाहिक और चुनावों में इसका प्रभाव देखा जाता है। ऐसे में समाज के बिगड़ने की शिकायत करना बेमानी लगता है। यहां तो पूरी दाल ही काली है और जब हम समाज के बिगड़ने की बात कहते हैं तो अपनी मान्यताओं का भी विचार करना चाहिए। स्वयं तथा निकटस्थ लोगों को शराब और जुआ जैसे व्यवसनों से दूर रहने के लिये प्रेरित करना चाहिए।शराब पीने के बाद आदमी की बुद्धि नियंत्रण में नहीं रहती और वह अन्य अपराध करने के लिये प्रेरित भी होता है।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
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Friday, July 22, 2011

हिन्दू धर्म संदेश-मन पवित्र न हो तो भक्ति से कोई लाभ नहीं (man pavitra hone par hi bhakti se labh-hindu relgiion thought)

               हमारे अध्यात्मिक दर्शन मे भक्ति के प्रकारों को लेकर कोई विवाद नहीं है यह अलग बात है कि कुछ लोग अनावश्यक रूप से इस पर विवाद होता दिखाते हैं। हमारे वेदशास्त्रों में अस्सी फीसदी से ज्यादा सकाम भक्ति पर लिखा गया है तो बीस फीसदी निष्काम भक्ति पर चर्चा की गयी है। श्रीगीता चूंकि समस्त वेदों का सार माना जाता है इसलिये उसका महत्व बहुत है। उसमें स्पष्ट रूप से निराकार तथा निष्काम भक्ति को श्रेष्ठ बताया गया है पर सकाम और साकार भक्ति की महत्ता को भी स्वीकार किया गया है। यही कारण है कि हमारे यहां भक्तों में परमात्मा के स्परूप को लेकर विवाद नहीं होता। अनेक इतिहासकारों के साथ विदेशी संस्कृति और धर्म के देशी समर्थक भारतीय अध्यात्मिक दर्शन का मखौल उड़ाते हुए कहते हैं कि उनका कोई एक ग्रंथ या भगवान नहीं है। उनकी इस आलोचना का भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान समर्थक अधिक प्रतिकार नहीं करते हुए समाज में एकरसता लाने की वकालत करते हैं। दरअसल ऐसे लोगों ने श्रीमद्भागवत गीता का अध्ययन नहीं किया होता। यदि अध्ययन किया होता है तो समझा नहीं होता।
हमारे अध्यात्मिक दर्शन में सकाम तथा सगुण भक्ति का महत्व स्वीकार किया गया है पर भाव निष्काम होने की बात कही गयी है। इस विषय पर हमारे ग्रंथो में कहा गया है कि--
सम्प्रीतिभोज्यान्यन्ननि आपभ्दोन्यानि वा पुनः।
न च सम्प्रीयस राजन् न चैवायद्गता वयम्।।
                    पूर्णकाम होने के कारण भगवान किसी भी वस्तु की चाहत नहीं रखते। वह तो प्रेम के भूख हैं। भगवान कहते हैं कि पत्र, पुष्प, फल अथवा जल जैसी वस्तुऐं मनुष्यों को बिना परिश्रम के बड़ी सरलता से मिल जाती हैं इसलिये उनको मुझे अर्पण करना कोई बड़ी बात नहीं है। इस अर्पण में प्रेम का भाव होना चाहिए। जो भक्त प्रेम से यह वस्तुऐं अर्पण करता है उसके निष्काम भाव को देखकर में सगुण रूप में प्रकट होकर खाता हूं।
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो में भक्तया प्रयच्छति।
तदहं भवत्युपतमनश्नामि प्रयतात्मनः।।
             "जिस मनुष्य का हृदय शुद्ध न हो तो वह चाहे बाहर से कितना भी शिष्टाचार दिखाते हुए पत्र, पुष्प, फल तथा जल जैसे वस्तुऐं प्रदान करे उसे भगवान स्वीकार नहीं करते"
                   श्रीमद्भागवत गीता में भगवान श्रीकृष्ण योगासन, प्राणयाम तथा मंत्र जाप करने वाले भक्त को सर्वश्रेष्ठ बताते हैं पर साथ ही सकाम भक्ति को राजस भाव से उत्पन्न होने के कारण स्वभाविक भी मानते हैं। निष्काम तथा निर्गुण भक्ति में व्यक्ति को अंतर्मुखी होना पड़ता है जो कि कठिन होता है क्योंकि उससे बाहर प्रतिक्रिया दिखाई नहीं देती जबकि सकाम तथा सगुण भक्ति में लोगों को उसका बाहरी प्रदर्शन बहुत अच्छा लगता है। इसलिये सामान्य लोग उसी तरफ आकर्षित होते है। यह भी बुरा नहीं है पर उसमें भाव निष्काम होना चाहिये यही हमारे धर्मग्रंथों का कहना है।

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
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Sunday, July 17, 2011

वेद शास्त्र-पाप को न रोकना भी उसमें सहभागी होना है

         स्वयं पाप न करना ही धर्म का परिचायक नहीं है वरन् जिस पाप को रोकना संभव है उसका प्रतिकार न करना भी अधर्म है। हम अपने मित्रों, रिश्तेदारों या परिवार के सदस्यों के पाप में स्वयं लिप्त न हों पर उनको दुष्कर्म करते देख मौन रहना या उनको न रोकना भी अधर्म की श्रेणी में आता है। चूंकि मनुष्य को प्रकृति ने हाथ पांव, वाणी, तथा आंखें दी हैं और उसके साथ ही बुद्धि भी प्रदान की है तब यह उसके लिये आवश्यक है कि वह अपने समूहों को पाप कर्म से रोके। अगर कोई ऐसा सोचता है कि वह स्वयं पाप नहीं कर रहा है इसलिये वह धर्मभीरु है तो गलती पर है। यह उदासीनता अधर्म का ही एक बहुत बड़ा भाग है।
           हमारे वेद शस्त्रों में कहा गया है कि
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          धर्मादयेतं यत्कर्म यद्यपि स्यान्महाफलम्।
            न तत् सेवत मेधावी न तद्धिमिहोच्यते।।
               ‘‘इस धर्म का अर्थ बहुत व्यापक है। जहां विद्वान लोग न्याय का समर्थन नहीं करते वह अधर्मी ही कहे जाते हैं।
           यत्र धर्मोह्य्मेंण सत्यं यत्रानृतेन च।
          हन्यते प्रेक्षामाणानां हतास्तत्र सभासदः।।
       ‘‘जहां अधर्म को देखते हुए भी सभासद चुप रहते हैं और उसका प्रतिकार नहीं करते वह भी पाप के भागी हैं।’’
                 कहते हैं भी अन्याय करने से अधिक पाप अन्याय पाप सहना है। उतना ही पाप है अपने सामने अन्याय, व्याभिचार, भ्रष्टाचार और बेईमानी होते देखना। वैसे धर्म साधना एकाकी होती है पर उसका निर्वहन करना सामूहिक गतिविधियों में ही होता है। परमार्थ, दान तथा धर्म की रक्षा का दायित्व बोध बाहरी गतिविधियों से प्रमाणित होता है। जब कोई आदमी अपनी जाति, परिवार और मित्र समुदाय के पथभ्रष्ट होने पर यह सोचकर चुप रहता है कि वह अपना धर्म निभा रहा है तो उसे बताना चाहिए कि यह भी अधर्म का ही एक भाग है। धर्म का आशय यह है कि आप स्वयं पाप न करें तो दूसरे को भी करने से रोकें।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
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Wednesday, July 13, 2011

ऋग्वेद से संदेश-मूढ़ लोग अपने को हानि पहुंचाते हैं (rigved se sandesh-moorkh log swyan ki hani karte hain)

           इस भौतिकवादी युग ने लोगों को अंधा कर दिया है। वह अपनी संपत्ति संचय के लिये अनेक लोग किसी भी हद तक चले जाते हैं। वह यह नहीं सोचते कि कालांतर में न केवल समाज बल्कि उनकी आने वाली पीढ़ियों को भी हानि होगी। हम देख रहे हैं कि देश के अनेक धनपति लोग अपने ही देश से कमाकर विदेशों में भेज रहे हैं तो अनेक उच्च पदस्थ लोग भ्रष्टाचार में लिप्त होकर देश की व्यवस्था को छिन्न भिन्न कर देते हैं। ऐसे लोग अपने परिवार की वर्तमान पीढ़ी का ही विचार करते हैं। उनको यह ज्ञान नहीं है कि समय एक जैसा कभी नहीं रहता और लक्ष्मी अत्यंत चंचल है और एक दिन उनके परिवार का पतन होना ही है और अंततः उनकी भावी पीढ़ी को भी बिगड़ी व्यवस्था के दुष्परिणाम भोगने होंगे। इसके बावजूद वह समाज का आर्थिक, सामाजिक तथा राजनीतिक शोषण करने के लिये किसी भी हद तक चले जाते हैं चाहे भले ही भविष्य में वह सब स्त्रोत सूख जायें जिससे वह धन कमा रहे हैं।
         यह अनैतिकता इस हद तक हो गयी है कि लोग अपने पद के अभिमान के साथ ही धर्म को भी बेच देते हैं। अपनी सात पीढ़ियों के लिये कमाने वाले लोग यह विचार नहीं करते कि जब यह भी तय है कि उनकी भावी पीढ़ी तक उनकी संपत्ति पहुंचेगी कि नहीं। संचय की प्रवृत्ति नें लोगों को हिंसक और दृष्ट प्रवृत्ति बना दिया है।
             ऋग्वेद में कहा गया है कि 
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               दुराध्यो अदिति स्त्रेवयन्तोऽचेतसो विजगृभे परुणीम्।।
               ‘‘दुष्ट बुद्धि वाले मूढ़ लोग अन्नदायी परुष्णी नदी के तट को तोड़ते रहे।
दुष्ट व्यक्ति मूर्ख भी होते हैं और सदैव विनाश के लिये प्रयत्नशील रहते हुए सभी के हित में आने वाली वस्तुओं को नष्ट करते हैं। 
              ऐसे दुष्ट, हिंसक और मूर्ख लोग समाज की बजाय अपने स्वार्थ को ही सर्वोपरि मानते हैं। अनेक लोग अंततः वह समाज के विद्रोह का शिकार भी हो जाते हैं। इसी कारण कहा जाता है कि धनवान को दानी भी होना चाहिए। यह दान पुण्य देने के साथ ही सुरक्षा देता है। उसी तरह बड़े आदमी को उदार तथा सदाचारी होना चाहिए। ऐसा होने पर उसके विराट व्यक्तित्व की रक्षा होती है। सदाचार और उदारता एक तरह किले की दीवार है जिसमें आदमी आराम से रह सकता है।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
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Friday, July 8, 2011

स्वार्थी लोग ही सम्मान और प्रशंसा करते हैं-संत कबीर वाणी (sarth,samman aur man-sant kabir wani)

         आजकल प्रचार का ज़माना है, कई बार लोग अपने काम के प्रचार के लिए ऐसे व्यावसायिक संगठनो का सहारा लेते है जो उनसे पैसा लेकर प्रशंसा अभियान चलते हैं। इसके अलावा कई बार ऐसा भी होता है की कोई दूसरे के काम की प्रशंसा इसलिए करता है कि समय आने पर वह उसका बदला उसी तरह चुकाए। यह अलग बात है कि यह दिखावा होता है वरना तो कोई किसी कि मन से प्रशंसा नहीं करता है।
         सामने झूठी प्रशंसा करने और पीठपीछे निंदा करने वालों के लिये क्या कहा जाय? आजकल लोग आपस में तपाक से मिलते हैं पर मन में किसी के प्रति कोई स्नेह नहीं है। सब स्वार्थ के कारण मिलते हैं। जिसमें स्वार्थ न हो तो उसे जानते हुए भी मुंह फेर लेते हैं। अगर आदमी के पस धन, पद और बाहूबल है तो उसके दस प्रशंसक हो जाते हैं-‘आप जैसा कोई नहीं’, ‘आपके पहले तो यहां कुछ नहीं था’, ‘आप आये तो बहार आयी’, और ‘आप बहुत स्मार्ट हैं’ जैसे वाक्य सुनकर जो लोग फूल जाते हैं उन्हें यह समझ लेना चाहिए कि वह चाटुकारों से घिरे हैं। इस हाड़मांस के पुतले में ऐसा कुछ भी नहीं होता जो किसी अन्य से अलग हो सिवाय दिमागी ज्ञान के। निष्काम प्रेम पाना तो आज एक दिवास्वप्न हो गया है जो मिल रहा है उसे सच समझना मूर्खता है। चाटुकारिता का जमाना है। जिनके पास आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक शक्ति है उन तक हर कोई पहुंचना चाहता है। उन पर हर कोई लिखना चाहता है। ऐसे कथित बड़े लोगों को मिलने वाली प्रशंसा से जो लोग अपने को उपेक्षित अनुभव करते हैं उन्हें अपने अंदर कोई मलाल नहीं करना चाहिए। उन बड़े लोगों को मिलने वाला प्रेम और सम्मान झूठा है। ऐसे सम्मान और प्रेम के मिलने से तो न मिलना अच्छा। कितना बड़ा भ्रम है यह लोगों का। वास्तव में वह सम्मान तो धन, पद और अनैतिक बल का है उसके धारक का नहीं।
     इस विषय पर संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि
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        स्वारथ कुं स्वारथ मिले, पडि पडि लूंबा खूंब।
           निस्प्रेही निरधार को, कोय न राखै झूंब।।
         "सभी लोग अपने स्वार्थ को लेकर एकदूसरे से मिलते हैं तो एक दूसरे की मुंहदेखी प्रशंसा करते हैं परंतु निष्कामी और निर्लिप्त भाव से रहने वाले सज्जन लोगों का इसीलिये सम्मान नहीं करते क्योंकि उनमें कोई स्वार्थ नहीं होता।"
           जिन लोगों को सत्संग मिलता है और वहां उनको अपने जैसे निष्काम भक्त मिलते हैं उनको अपने आपको धन्य समझना चाहिए। हालांकि यह सत्संग ढूंढना भी कठिन काम है पर अगर हम ढूंढे तो कहीं न कहीं तो मिल ही जाता है। हालांकि ज्ञानी लोग कभी इन चीजों की परवाह नहीं करते पर देह में मन है तो कभी न कभी विचलित तो होता है तब उन्हें यह समझना चाहिए कि उनमें किसी का सांसरिक स्वार्थ नहीं फंसता इसलिये लोग उनके प्रति प्रेम और सम्मान प्रदर्शित करने नहीं आते पर जब कहीं चर्चा होती है तो उनका नाम लेकर प्रशंसा करते हैं। फर्क यही है कि स्वार्थ की वजह से लोग सामने झूठी प्रशंसा करते हैं पर उसके न होने पर पीठ पीछे ही करते हैं। इसलिए ज्ञानी लोगों को मान सम्मान और प्रशंसा के लोभ से बचना चाहिए।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
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Saturday, July 2, 2011

दक्ष स्मृति-योग शक्ति के प्रभाव अत्यंत व्यापक (daksh smriti-yoga shakti atayant vyapak)

       जब हम योग साधना के विषय से संबंधित ग्रंथों की सामग्री पर दृष्टिपात करते हैं तो ऐसा लगता है कि जैसे कोई विज्ञान हो। हालांकि उसके सूत्र अत्यंत सूक्ष्म हैं पर उनका अर्थ अत्यंत गूढ़ है।अनेक योग प्रचारक अपने शिष्यों को तात्कालिक दैहिक प्रभाव दिखाने वाले आसनों तथा प्राणायामों के बारे में सिखाते हैं जबकि योग विधा के आठ अंग होते हैं जिनका ज्ञान होने पर आदमी ज्ञानी हो जाता है।
      इसमें कोई संशय नहीं है कि योगासन तथा प्राणायाम का बहुत महत्व है पर यह भी जरूरी है कि पतंजलि योग के मूल तत्वों का भी ज्ञान प्राप्त किया जाये। योगासन और प्राणायाम से शरीर में स्फूर्ति और स्थिरता आती है तब मानव मन कोई अच्छा विचार करना चाहता है। मन में बेहतर विषयों के अध्ययन के प्रति रुचि उत्पन्न होती है। ऐसे में भारतीय अध्यात्म ग्रंथों का अध्ययन करना एक महत्वपूर्ण कार्य साबित हो सकता है। पतंजलि योग में वर्णित आठों भागों का ज्ञान प्राप्त होने पर हमारे अंदर योग शक्ति का निर्माण होता है। मन के उतार चढ़ाव, इंद्रियों की गतिविधियों तथा देह के अंदर चल रही प्रक्रिया को हम अपनी अंतदृष्टि से देखते हैं। इससे हमारे अंदर संसार के व्यवहार का ज्ञान आता है।
                दक्षस्मृति में कहा गया है कि
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         लोको वशीकृतों येन यन चात्मा वशीकृतः।
         इन्द्रियार्थो जितोयने ते योग प्रब्रवीम्यहम्।।
               ‘‘योग से मनुष्य सारे संसार को वश में कर सकता है। बिना योग शक्ति के किसी को भी वश में करना संभव नहीं है। बिना योग के व्यवहार का भी ज्ञान नहीं होता न ही इंद्रियों की गतिविधियों को नियंत्रित किया जा सकता है।’’
                सच बात तो यह है कि बोलते, सुनते, स्पर्श करते, सूंघते और देखते हुए केवल एक प्रयोक्ता की तरह हो जाते हैं। अपने अंदर के स्वामित्व का आभास तनिक भी नहीं रहता। हमारी इंद्रियां कार्यरत हैं पर उन पर हमारी नज़र नहीं रहती। हमें लगता है कि सारे काम हम कर रहे हैं पर यह भूल जाते हैं कि यह सब इंद्रियों की गतिविधियों का परिणाम है। हम इंद्रियों के प्रयोक्ता हैं पर यह अहसास नहीं होता। यही अहसास अपने स्वामित्व होने का परिचय देता है और आदमी दृष्टा की तरह हो जाता है। तब वह संसार के व्यवहार के सिद्धांतों को अच्छी तरह समझता है। इसी कारण योग साधना तथा ध्यान में हमेशा तत्पर रहना चाहिए। इससे जो ज्ञान प्राप्त होता है वह आदमी को विश्व विजयी बना सकता है।
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