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Tuesday, April 27, 2010

विदुर नीति-धर्म का दिखावा करना अहंकार का प्रमाण (dharma aur ahnakar-hindi sandesh)

इन्याध्ययनदानादि तपः सत्यं क्षमा घृणा।
अलोभ इति मार्गोऽयं धर्मस्याष्टविधः समृतः।।
हिन्दी में भावार्थ-
नीति विशारद विदुर का कहना है कि यज्ञ, अध्ययन, दान, तप, सत्य, क्षमा, दया और अलोभ वह गुण है जो धर्म के मार्ग भी हैं। 


तत्र पूर्वचतुर्वर्गो दम्भार्थमपि सेव्यते।
उत्तरश्च चतुर्वर्गो नामहात्मसु तिष्ठति।।
हिन्दी में भावार्थ-
इनमें पहले चार का तो अहंकार वश भी पालन किया जाता है जबकि आखिरी चार के मार्ग पर केवल महात्मा लोग ही चल पाते हैं।  


वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-ऐसा नहीं है कि किसी मनुष्य में कोई गुण नहीं होता और न ही कोई बिना भला काम किये रह जाता है।  अलबत्ता उसकी मूल प्रकृत्ति के अनुसार ही उसके पुण्य या भले काम का मूल्यांकन भी होता है।  देखा जाये तो दुनियां के अधिकतर लोग अपने  धर्म के अनुसार यज्ञ, अध्ययन, दान और परमात्मा की भक्ति सभी करते हैं पर इनमें कुछ लोग दिखावे के लिये अहंकार वश करते हैं।  उनके मन में कर्तापन का अहंकार इतना होता है कि उसे देखकर हंसी ही आती है।  हमारे देश के प्रसिद्ध संत रविदास जी ने कहा है कि ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’ जिसका आशय यही है कि अगर हृदय पवित्र है तो वहीं भगवान का वास है।  लोग अपने घरों पर रहते हुए हृदय से परमात्मा का स्मरण नहीं कर पाते जिससे उनके मन में विकार एकत्रित होते हैं।  फिर वही लोग  दिल बहलाने के लिये पर्यटन की दृष्टि से धार्मिक यात्राओं पर जाते हैं यह दिखाने के लिये कि वह धार्मिक प्रवृत्ति के हैं।  फिर वहां से आकर सभी के सामने बधारते हैं कि ‘मैंने यह किया’, ‘मैंने वह किया’ या ‘मैंने दान किया’-यह उनकी अहंकार की प्रवृत्ति का परिचायक है। इससे यह भी पता चलता है कि उनके मन का विकार तो गया ही नहीं।
इतना ही नहीं कुछ लोग अक्सर यह भी कहते हैं कि ‘हमारे धर्म के अनुसार यह होता है’, या ‘हमारे धर्म के अनुसार ऐसा होना चाहिये’।  इससे भी आगे बढ़कर वह खान पान, रहन सहन तथा चाल चलन को लेकर अपने धार्मिक ग्रंथों के हवाले देते हैं।  उनका यह अध्ययन एक तरह से अहंकार के इर्दगिर्द आकर सिमट जाता है।  सत्संग चर्चा होना चाहिये पर उसमें अपने आपको भक्त या ज्ञानी साबित करना अहंकार का प्रतीक है।  कहने का तात्पर्य यही है कि यज्ञ, अध्ययन, तप और दान करना ही किसी मनुष्य की धार्मिक प्रवृत्ति होने का प्रमाण नहीं है जब तक उसके व्यवहार में वह अपने क्षमावान, दयालु, सत्यनिष्ठ, और लोभरहित नहीं दिखता।  यह चारों गुण ही आदमी के सात्विक होने का प्रतीक हैं। जिन लोगों के मन में सात्विकता का भाव है वह कभी दिखावा
नहीं करते और उनकी भक्ति का तेज उनके चेहरे पर वैसे ही दिखता है।
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Saturday, April 24, 2010

मनुस्मृति-श्रमिक का हाथ सदैव पवित्र रहता है (worker is hollyman-hindu dharma sandesh)

नित्यमास्यं शुचिः स्त्रीणां शकुनि फलपातने।
प्रस्त्रवे च शुचर्वत्सः श्वा मृगग्रहणे शुचिः।।
हिन्दी में भावार्थ-
नारियों का मुख, फल गिराने के लिये उपयोग  में लाया गया पक्षी, दुग्ध दोहन के समय बछड़ा तथा शिकार पकड़ने के लिये उपयोग में लाया गया कुत्ता पवित्र है।
नित्यं शुद्धः कारुहस्तः पण्ये यच्च प्रसारितम्।
ब्रह्मचारिगतं भैक्ष्यं नित्यं मेध्यमिति स्थितिः।
हिन्दी में भावार्थ-
शास्त्रों के अनुसार कारीगर का हाथ, बाजार में बेचने के लिये रखी गयी वस्तु तथा ब्रह्मचार को दी गयी भिक्षा सदा ही शुद्ध है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-हमारे देश में पाश्चात्य सभ्यता के अनुसरण ने लोगों के दिमाग में श्रम की मर्यादा को कम किया है। आधुनिक सुख सुविधाओं के उपभोग करने वाले धनपति मजदूरों और कारीगरों को हेय दृष्टि से देखते हैं। उनके श्रम का मूल्य चुकाते हुए अनेक धनपतियों का मुख सूखने लगता है। जबकि हमारे मनु महाराज के अनुसार कारीगर का हाथ हमेशा ही शुद्ध रहता है। इसका कारण यह है कि वह अपना काम हृदय लगाकर करता है। उसके मन में कोई विकार या तनाव नहीं होता। यह शुद्ध भाव उसके हाथ को हमेशा पवित्र तथा शुद्ध करता रहता है। भले ही सिर पर रेत, सीमेंट या ईंटों को ढोते हुए कोई मजदूर पूरी तरह मिट्टी से ढंक जाता है पर फिर भी वह पवित्र है। उसी तरह मैला ढोले वालों का भले ही कोई अछूत कहे पर यह उनका नजरिया गलत है। मैला ढोले वाले के हाथ भले ही गंदे हो जाते हैं पर उसके हृदय की पवित्रता उनको शुद्ध रखती है।
जो लोग मजदूरों, कारीगरों या मैला ढोले वालों को अशुद्ध समझते है वह बुद्धिहीन है क्योंकि श्रमसाध्य कार्य करना एक तो हरेक के बूते का नहीं होता दूसरे उनको करने वाले अत्यंत पवित्र उद्देश्य से यह करते हैं इसलिये उनके हाथों को अशुद्ध मानना या उनकी देह को अछूत समझना अज्ञानता का प्रमाण है।
यहां बाजार में रखी वस्तु के शुद्ध होने से आशय यह कतई न लें कि हम चाहे जो भी वस्तु रखें वह पवित्र ही होगी। दरअसल इसका यह भी एक आशय है कि आप जो चीज बेचने के लिये रखें वह पवित्र और शुद्ध होना चाहिये। इसके अलावा इस बात का ध्यान रखें कि जो लोग अपने हाथों से कुशल या अकुशल श्रम करते हैं उनको हेय दृष्टि से न देखों तथा उनके परिश्रम का उचित मूल्य चुकायें।
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Thursday, April 22, 2010

संत कबीर दास के दोहे-परोपकार पर ही यश मिलना संभव (kabir ke dohe-paropkar aur yash)

धन रहै न जोबन रहे, रहै न गांव न ठांव।
कबीर जग में जस रहे, करिदे किसी का काम।
संत कबीर दास जी कहते हैं कि एक दिन यह न धन रहेगा न यह यौवन ही साथ होगा। गांव और घर भी छूट जायेगा पर रहेगा तो अपना यश, यह तभी संभव है कि हमने किसी का काम किया हो।
स्वारथ सूका लाकड़ा, छांह बिहना सूल।
पीपल परमारथ भजो, सुख सागर को मूल।।
संत कबीरदास जी का कहना है कि स्वार्थ तो सूखी लकड़ी के समान हैं जिसमें न तो छाया मिलती है और न ही सुख। एक तरह से वह कांटे की तरह है। इसके विपरीत परमार्थ पीपल के पेड़ के समान हैं जो सुख प्रदान करता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-यह लोगों की गलतफहमी है कि वह भौतिक उपलब्धियों के कारण सम्मान पा रहे हैं। लोग अपनी आर्थिक उपलब्धियों, परिवार की प्रतिष्ठा और अपने कर्म का बखान स्वयं करते हैं। मजा तो तब है जब दूसरे आपकी प्रशंसा करेें और यह तभी संभव है कि आप अपने काम से दूसरे की निस्वार्थ भाव से सहायता कर उसको प्रसन्न करें।
आप कहीं किसी धार्मिक स्थान, उद्यान या अन्य सार्वजनिक स्थान पर जाकर बैठ जायें। वहां आपसे मिलने वाले लोग केवल आत्मप्रवंचना में लगे मिलेंगे। हमने यह किया, वह किया, हमने यह पाया और हमने यह दिया जैसे जुमले आप किसी के भी श्रीमुख से नहीं सुन पायेंगे।
दरअसल बात यह है कि सामान्य मनुष्य पूरा जीवन अपने और परिवार के लिये धन का संचय कर यह सोचता है कि वह सामाजिक प्रतिष्ठा अर्जित कर रहा है और परमार्थ करना उसके लिये एक फालतू विषय है। जब उससे धन और यौवन विदा होता है तब वह खाली बैठे केवल अपने पिछले जीवन को गाता है पर सुनता कौन है? सभी तो इसमें ही लगे हैं। इसलिये अगर ऐसा यश पाना है जिससे जीवन में भी सम्मान मिले और मरने पर भी लोग याद करें तो दूसरों के हित के लिये काम करें। जब समय निकल जायेगा तब पछताने से कोई लाभ नहीं होगा। अतः समय रहते हुए ज्ञान प्राप्त करने के साथ ही परोपकार भी करना चाहिये
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Saturday, April 17, 2010

विदुर दर्शन-सत्संग से बुद्धि प्राप्त करे वही पण्डित (satasang kare vahi pandit-hindu dharma sandesh)

प्रज्ञामेवागमयति यः प्राज्ञेभ्यःस पण्डितः।
प्राज्ञो ह्यवापप्य धर्मार्थौं शक्नोति सुखमेधितम्।।
हिन्दी में भावार्थ-
नीति विशारद विदुर जी के मतानुसार जो मनुष्य बुद्धिमानों की संगत कर सद्बुद्धि प्राप्त करता है वही पण्डित है। बुद्धिमान पुरुष ही धर्म और अर्थ को प्राप्त कर अनायास ही अपना विकास करता है।

अन्नसूयुः कुतप्रज्ञः शोभनान्याचरन् सदा।
न कृच्छ्रम् महादाप्नोति सर्वत्र च विरोचते।।
हिन्दी में भावार्थ-
जिसकी बुद्धि दोषदृष्टि से रहित है वह मनुष्य सदा ही पवित्र और शुभ करता हुआ जीवन में महान आनंद प्राप्त करता है। जिससे उसका अन्य लोग भी सम्मान करते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-इस जीवन का रहस्य वही समझ सकते हैं जिनकी बुद्धि दूसरे में दोष नहीं देखती। जीवन भर आदमी सत्संग सुने या ईश्वर की वंदना करे पर जब तक उसमें ज्ञान नहीं है तब तक वह भी यह जीवन प्रसन्नता से व्यतीत नहीं कर सकता। सच बात तो यह है कि जैसी अपनी दृष्टि होती है वैसा ही दृश्य सामने आता है और वैसी ही यह दुनियां दिखाई देती है। इतना ही नहीं जब हम किसी में उसका दोष देखते हैं तो वह धीरे धीरे हम में आकर निवास करने लगता है। जब हम अपना समय दूसरो की निंदा करते हुए बिताते हैं तो यही काम दूसरे लोग हमारी निंदा करते हुए करते हैं। यही कारण है कि अक्सर लोग यही कहते हैं कि ‘इस संसार में सुख नहीं है।’
सच्चाई तो यह है कि इस संसार में न तो कभी सतयुग था न अब कलियुग है। यह बस बुद्धि से देखने का नजरिया है। जिन लोगों की बुद्धि दोष रहित है वह प्रातःकाल योगसाधना, ध्यान तथा मंत्रोच्चार करते हुए अपना दिन प्रारंभ करते हैं। उनके लिये वह काल स्वर्ग जैसा होता है। मगर जिनकी बुद्धि दोषपूर्ण है वह सुबह उठते ही निंदात्मक विचार व्यक्त करना प्रारंभ कर देते हैं। कई लोग तो प्रातःकाल ही चीखना चिल्लाना प्रारंभ करते हैं और उनको भगवान के नाम जगह अपने कष्टों का जाप करते हुए सुना जा सकता है। सुबह उठते ही अगर मनुष्य में प्रसन्नता का अनुभव न हो तो समझ लीजिये वह नरक में जी रहा है। यह तभी संभव है जब आदमी अपनी बुद्धि को पवित्र रखते हुए दूसरे में दोष देखना बंद कर दे। दूसरे के दोषों को देखना तो क्या उन्क्स स्मरण तक नहीं करना चाहिए क्योंकि वह अपने अन्दर आ जाते हैं।
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Friday, April 16, 2010

चाणक्य दर्शन-आमदनी से अधिक खर्च मुसीबत का कारण (amdani aur kharcha-chankya niti)

अनालोक्य व्ययं कर्ता ह्यनाथःः कलहप्रियः।
आतुर सर्वक्षेत्रेपु नरः शीघ्र विनश्चयति ।।
हिंदी में भावार्थ-
नीति विशारद चाणक्य कहते हैं कि बिना विचारे ही अपनी आय के साधनों से अधिक व्यय करने वाला सहायकों से रहित और युद्धों में रुचि रखने वाला तथा कामी आदमी का बहुत शीघ्र विनाश हो जाता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय-आज समाज में आर्थिक तनावों के चलते मनुष्य की मानसिकता अत्यंत विकृत हो गयी है। लोग दूसरों के घरों में टीवी, फ्रिज, कार तथा अन्य साधनों को देखकर अपने अंदर उसे पाने का मोह पाल लेते हैं। मगर अपनी आय की स्थिति उनके ध्यान में आते ही वह कुंठित हो जाते हैं। इसलिये कहीं से ऋण लेकर वह उपभोग के सामान जुटाकर अपने परिवार के सदस्यों की वाहवाही लूट लेते हैं पर बाद में जहां ऋण और ब्याज चुकाने की बात आयी वहां उसके लिये आय के साधनों की सीमा उनके लिये संकट का कारण बन जाती है। अनेक लोग तो इसलिये ही आत्महत्या कर लेते हैं क्योंकि उनको लेनदार तंग करते हैं या धमकी देते हैं। इसके अलावा कुछ लोग ठगी तथा धोखे की प्रवृत्ति अपनाते हुए भी खतरनाक मार्ग पल चल पड़ते हैं जिसका दुष्परिणाम उनको बाद में भोगना पड़ता है। इस तरह अपनी आय से अधिक व्यय करने वालें जल्दी संकट में पड़ जाने के कारण अपने जीवन से हाथ धो बैठते हैं। समझदार व्यक्ति वही है जो आय के अनुसार व्यय करता है। आय से अधिक व्यय करना हमेशा ही दुःख का मूल कारण होता है।
यही स्थिति उन लोगों की भी है जो नित्य ही दूसरों से झगड़ा और विवाद करते हैं। इससे उनके शरीर में उच्च रक्तचाप और हृदय रोग संबंधी विकास अपनी निवास बना लेते हैं। अगर ऐसा न भी हो तो कहीं न कहीं उनको अपने से बलवान व्यक्ति मिल जाता है जो उनके जीवन ही खत्म कर देता है या फिर ऐसे घाव देता है कि वह उसे जीवन भर नहीं भर पाते। अतः प्रयास यही करना चाहिये कि शांति से अपना काम करें। जहाँ तक हो सके अपने ऊपर नियत्रण रखें।
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Wednesday, April 14, 2010

कबीर के दोहे-दुष्टों कि निंदा कि बजाय साधुओं के प्रशंसा में वक्त बिताएं (kabir ke dohe-ninda aur prashansa)

काहू को नहिं निन्दिये, चाहै जैसा होय।
फिर फिर ताको बन्दिये, साधु लच्छ है सोय।।
संत कबीरदास का कहना है कि चाहे व्यक्ति अच्छा हो या बुरा उसकी निंदा न करिये। इसमें समय नष्ट करने की बजाय उस आदमी की बार बार प्रशंसा करिये जिसके लक्षण साधुओं की तरह हों।
सातो सागर मैं फिर, जम्बुदीप दै पीठ।
परनिंदा नाहीं करै, सो कोय बिरला दीठ।।
संत कबीरदास जी कहते हैं कि मैं सारा संसार फिरा पर ऐसा कोई नहीं मिला जो परनिंदा न करता हो। ऐसा तो कोई विरला ही होता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-मनुष्य का स्वभाव है परनिंदा करना। सच बात तो यह है कि हर मनुष्य अपने घर संसार के कामों में व्यस्त रहता है पर यह चाहता है कि लोग उसे भला आदमी कहें। ऐसा सम्मान तभी प्राप्त हो सकता है जब अपने जीवन से समय निकालकर कोई आदमी दूसरों का काम करे और सुपात्र को दान देने के साथ ही असहाय की सहायत के लिये तत्पर रहे। यह काम विरले ही लोग करते हैं और सामान्य मनुष्य उनको फालतु या बेकार कहकर उनकी अनदेखी करते हैं अलबत्ता उनको मिलने वाली इज्जत वह भी पाना चाहते हैं। ऐसे में होता यह है कि लोग आत्मप्रचार करते हुए दूसरों की निंदा करते हैं। अपनी लकीर खींचने की बजाय थूक से दूसरे की लकीर को छोटा करते हैं। दुनियां में ऐसे लोग की बहुतायत है पर संसार में भले लोग भी कम नहीं है। सच बात तो यह है ऐसे ही परोपकारी, दानी, ज्ञान और कोमल स्वभाव लोगों की वजह से यह संसार भले लोगों की भलाई के कारण चल रहा है। सामान्य मनुष्य तो केवल अपना घर ही चला लें बहुत है।
अधिकतर मनुष्य अपने काम में व्यस्त हैं पर सम्मान पाने का मोह किसे नहीं है। कहीं भी किसी के सामने बैठ जाईये वह आत्मप्रवंचना करता है और उससे भी उसका मन न भरे तो किसी दूसरे की निंदा करने लगता है। कबीरदास जी के कथनों पर विचार करें तो यह अनुभव होगा कि हम ऐसी गल्तियां स्वयं ही करते हैं। अतः अच्छा यही है कि खाली समय में कोई परोपकार करें या अध्ययन एवं भक्ति के द्वारा अपना मन शुद्ध करें। दूसरों की निंदा से कुछ हासिल नहीं होने वाला। हां, अगर कोई भला काम करता है तो उसकी प्रशंसा करें। एक बार नहीं बार बार करें। संभव है उसके गुण अपने अंदर भी आ जायें। याद रखिये दूसरे के अवगुणों की चर्चा करते हुए वह हमारे अंदर भी आ जाते हैं।  शायद इसलिए ही कहा जाता है कि बुरा मत कहो,बुरा मत देखो और बुरा मत सुनो।  साथ ही यह भी कहा जाता है कि सबसे अच्छा बर्ताव करो पता नहीं कब किसकी जरूरत पड़ जाए।
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Sunday, April 11, 2010

संत कबीर के दोहे-धामिक व्यक्ति दूसरे जीवों का कल्याण कर अपना धर्म प्रमाणित करता है (Dhamik vyakti ki pahachan-kabir ke dohe)

फलं कतकवृक्षस्य यद्यप्यम्बुप्रसादकम्।
न नामग्रहणादेव तस्य वारि प्रसीदति।।
हिन्दी में भावार्थ-
निर्मली का वृक्ष जल को शुद्ध करता है भले ही उसकी जानकारी सभी को नहीं है। उसका नाम लेने से जल शुद्ध नहीं होता बल्कि वह स्वयं उपस्थित होकर जल शुद्ध करता है। उसी प्रकार धर्म की जानकारी होना ही पर्याप्त नहीं बल्कि उसे अन्य जीवों का कल्याण कर प्रमाणित करना चाहिए। नाम लेने से आदमी धार्मिक नहीं हो जाता।
दुषितोऽपि चरेद्धर्म यत्रतत्राश्रमे रतः।
समः सर्वेषु भूतेशु न लिंगे धर्मकारणम्।।
हिन्दी में भावार्थ-
चाहे घर में हो या आश्रम में शास्त्रों के ज्ञाता को चाहिए कि सामान्य प्राणियों के दोषों से ग्रसित होने पर भी सभी को समान दृष्टि से देखे। वह धर्म का अनुसरण करते हुए अपना व्यवहार हमेशा शुद्ध रखे पर उसका प्रदर्शन न करे-अभिप्राय यह है कि धर्म का वह पालन करे पर और उसका दिखावा करने से दूर रहे।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-हमारे समाज में धर्म का दिखावा करने वालों की संख्या बहुत है पर उस अमल कितने लोग करते हैं यह केवल ज्ञानी लोग ही देख पाते हैं। अगर समूचे भारतीय समाज पर दृष्टिपात करें
तो पूजा, पाठ, तीर्थयात्रा, सत्संग तथा दान करने वाले लोगों की संख्या बहुत दिखाई देती है पर फिर नैतिक और सामाजिक आचरण में निरंतर गिरावट होती दिख रही है। लोग धार्मिक पुस्तकों के ज्ञान की चर्चा करते हुए एक दूसरे को सिखाते खूब हैं पर सीखता कोई दृष्टिगोचर नहीं होता। लोग दान करते हैं पर कामना के भाव से-उनका उद्देश्य समाज में प्रतिष्ठा अर्जित करना होता है या फिर प्राप्तकर्ता के कथित आशीर्वाद की चाहत उनके मन में होती है और इसी कारण कारण कुपात्र को भी दान देते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि धर्म का दिखावा कोई धार्मिक व्यक्ति होने का प्रमाण नहीं है।
उसी तरह धर्म के रक्षा के नाम पर विश्व में अनेक लोग तथा संगठन बन गये हैं-उनका उद्देश्य केवल अपने लिये धन तथा प्रतिष्ठा अर्जित करना होता है न कि वास्तव में सामाजिक कल्याण करना। धर्म नितांत एक निजी विषय है न कि अपने मुंह से कहकर सुनाने का। जिस व्यक्ति को यह प्रमाणित करना है कि वह धार्मिक प्रवृत्ति का है उसे चाहिये कि वह दूसरों की सहायता कर उसे प्रमाण करे। कुछ लोग धर्म के नाम हिंसा को उचित ठहराने का प्रयास करते हैं। अपने घर की रक्षा करने की कर्तव्य क्षमता तक उनमें होती नहीं और धर्म के नाम पर धन और अस्त्र शस्त्र के संचय में लगकर वह हिंसा के व्यापारी बन जाते हैं- राम तथा बगल में छुरी रखने वालों की पहचान इसी तरह की जा सकती है कि कौन आदमी वास्तव में किसका भला करता है और कौन कितना उसकी आड़ में अपना व्यापार करता है। सच्चा धामिक व्यक्ति वही है रो अपने करम तथा व्यवहार से दूसरों को शान्ति तथा सुख प्रदान करता है। इसके विपरीत पाखंडी लोग धर्मं कि बातें बहुत करते हैं पर उनके हाथ से किसी की भला हो यह संभव नहीं होता क्योंकि उनकी ऐसी नीयत भी नहीं होती।
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Saturday, April 10, 2010

रहीम दर्शन-सज्जन लोग समाज सेवा के लिए संपत्ति संचय करते हैं

तरुवर फल नहिं खात है, सरवर पियहि न पान।
कहि रहीम पर काज हित, संपति संचहि सुजान।।
कविवर रहीम कहते हैं कि जिसत तर पेड़ कभी स्वयं अपने फल नहीं खाते और तालाब कभी अपना पानी नहीं पीते उसी तरह सज्जनलोग दूसरे के हित के लिये संपत्ति का संचय करते हैं।
तन रहीम है कर्म बस, मन राखो ओहि ओर।
जल में उल्टी नाव ज्यों, खैंचत गुन के जोर।
कविवर रहीम कहते हैं कि अपना शरीर तो कर्म के फल के नियंत्रण में है पर मन को भगवान की भक्ति में लीन रखा जा सकता है। जैसे जल में उल्टी नाव को रस्सी से खींचा जाता है वैसे ही मन को भी खींचना चाहिए।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय-सामान्य मनुष्य स्वभाव का यह मूल स्वभाव होता है कि वह अपने लिये आवश्यक वस्तुओं का संग्रह करता है पर जो दूसरे के हित का विचार करते हैं उनका उद्देश्य दूसरों का हित भी करना होता है। अपने अपने सोचने का तरीका है। कुछ लोग अपने लिये धन संचय करते चले जाते हैं यह सोचकर कि उनकी सात पीढ़ियां उनको याद करेंगीं। समाज में वैमनस्य फैल रहा है तो उसकी वह परवाह नहीं करते। गरीब के साथ अन्याय और मजदूरी के शोषण से धन संचय करने में उनको हिचक नहीं होती। वह सोचते हैं कि उनका और आने वाली पीढ़ियाों का जीवन इसी तरह ही चलता रहेगा। उनके कृत्यों से समाज में जो विद्रोह फैलता है उसकी आशंका से परे होकर वह केवल अपने स्वार्थ पूरे करने में लगते हैं। मगर जब उनके पापों और कृत्यों की अति हो जाती है तब वह उसका परिणाम भोगते हैं और कभी कभी यह दुष्परिणाम उनकी पीढ़ियों को भोगना पड़ता है।
समझदार मनुष्य समाज को देखभाल कर ही आगे बढ़ते हैं। मिल बांटकर खाओ की नीति अपनाकर न केवल वह अपने लिये सुविधायें जुटाते हैं बल्कि उसके उपभोग में समाज को भागीदार बनाकर यश प्राप्त करते हैं। एक बात तय है कि शरीर की आवश्यकता भौतिक पदार्थों से ही पूरी होती है अतः यह समझना चाहिये कि किसी दूसरे को भी ऐसी सुविधा देकर ही उसका हृदय जीता जा सकता है।
यह शरीर तो सांसरिक कर्म फल के अधीन है। इसकी पूर्ति के लिये भौतिक वस्तुओं को प्राप्त करना जरूरी है पर भगवान भक्ति और परोपकार से जो आत्मिक सुख मिलता है उसकी अनुभूति अगर नहीं की तो यह जीवन व्यर्थ है। मन तो केवल साधनों के संग्रह में ही रहना चाहता है और उस पर नियंत्रण तभी किया जा सकता है जब हम अपने अंदर दृढ़ता पूर्वक संकल्प लेकर भक्ति तथा परोपकार के काम करें। हम जितना ही सात्विक कर्म करेंगे उतना ही हमारा मन शांत रहेगा।
 
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Wednesday, April 7, 2010

भर्तृहरि नीति शतक-जागरुक लोग अपनी बेइज्जती नहीं सहते

सवल्पस्नायुवशेषमलिनं निर्मासमप्यस्थिगोः श्वा लब्ध्वा परितोषमेति न तु तत्तस्य क्षुधाशान्तये।

सिंहो जम्बुकंकमागतमपि त्यकत्वा निहन्ति द्विपं सर्वः कृच्छ्रगतोऽप वांछति जनः सत्तवानुरूपं फलम्।।

हिन्दी में भावार्थ-
जिस तरह कुत्ता थोड़े रस और चरबी वाली हड्डी पाकर प्रसन्न हो जाता है किन्तु सिंह समीप आये भेड़िए को छोड़कर भी हाथी के शिकार की मानता करता है। हाथी का शिकार करने पर ही उसे संतुष्ट प्राप्ति होती है।

यद चेतनोऽपिपादैः स्पृष्टः प्रज्वलित सवितुरिनकान्तः।

तत्तेजस्वी पुरुषः परकृत निकृतिं कथं सहते?।।

हिन्दी में भावार्थ-
जैसे सूर्य की किरणों से जड़ सूर्यकांतमणि जल जाती वैसे ही चेतन और जागरुक पुरुष भी दूसरे लोगों के अपमान को सहन न कर उसका प्रतिकार करते हैं।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-हर व्यक्ति अपनी क्षमता और बुद्धि के अनुसार अपने लक्ष्य तय करता है। जिन लोगों की  अध्यात्मिक ज्ञान में रुचि नहीं होती वह केवल धन और माया के फेर में ही अपना जीवन व्यतीत करते हैं। दान, धर्म परोपकार तथा सभी जीवों के प्रति उदारता के भाव का उनमें अभाव होता है। उनका एक ही छोटा लक्ष्य होता है अधिक से अधिक धन कमाना।  इसके विपरीत जो ज्ञानी और बुद्धिमान पुरुष होते हैं वह सांसरिक कार्य करते हुए न केवल अध्यात्मिक ज्ञान तथा सत्संग से अपने हृदय की शांति का प्रयास करते हैं तथा  साथ ही दान और परोपकार के कार्य कर समाज को भी संतुष्ट करते हैं।  उनका लक्ष्य न केवल धन कमाना बल्कि धर्म कमाना भी आता है।  उनकी रुचि अपने नियमित व्यवसायिक कार्यों के अलावा ज्ञान अर्जित करना भी होती है।  देखा जाये तो धन तो हरेक कोई कमा रहा है। हर कोई खर्च भी करता है पर फिर भी कुछ लोग अपने व्यवहार की वजह से समाज में लोकप्रिय होते हैं और कुछ अपने स्वार्थों के कारण बदनाम हो जाते हैं।

अक्सर वार्तालाप में लोग एक दूसरे को अपमानित करते हैं। यह अच्छी बात नहीं है।  एक बात याद रखें कि कोई व्यक्ति अगर अपमानित होकर चुप हो गया तो यह नहीं समझ लेना चाहिये कि वह डर गया।  हो सकता है कि वह आंतरिक रूप से गुण धारण करता हो और समय आने पर अपना बदला ले।  तेजस्वी पुरुष ज्ञानी होते हैं। अपमानित किये जाने पर समय और हालात देख चुप हो जाते हैं पर समय आने पर अपने विरोधी को चारों खाने चित्त करते हैं।  यह बात भी याद रखने लायक है कि यह प्रक्रिया केवल तत्वज्ञानियों द्वारा ही अपनायी जा सकती है।  अल्पज्ञानी तो थोड़ी थोड़ी बात पर उत्तेजित होकर अपने गुस्से को ही नष्ट करते हैं जबकि ज्ञानी समय आने पर अपने तेज को प्रकट करते हैं।  इसलिये अपने संपर्क में आने वाले व्यक्तियों के गुण अवगुण देखकर व्यवहार करना चाहिए। इसके अलावा समय आने पर अपने अपमान का बदला अवश्य लेना चाहिए। 

संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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Thursday, April 1, 2010

श्रीगुरुवाणी-भक्ति से शक्ति प्राप्त होती है (adhyamik gyan sandesh-bhakti se shakti)

मैंने मुहि चोटा न खाई
मैंने जम क साथ न जाइ।।
हिन्दी में भावार्थ-
भक्ति से मनुष्य को इतनी शक्ति मिल जाती है कि वह कहीं भी मुंह की नहीं खाता और न यमराज उसे ले जा सकते हैं-अर्थात उसकी आत्म तो परमात्मा स्वरूप को प्राप्त हो जाती है।
तीरथ नावा जे तिस भावा।’
हिन्दी में भावार्थ-
जिस भक्त ने परमात्मा का स्मरण कर उसे पा लिया समझो उसने तीर्थ में स्नान कर लिया
‘मैंने सुरति होवै मनि बुद्धि।
मैंन संगल भवण की सुधि।।
हिन्दी में भावार्थ-
मनुष्य की मन और बुद्धि में परमात्मा का नाम यदि स्थापित हो गया तो फिर वह इस संसार के भंवर की परवाह से मुक्त हो जाता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-सांसरिक भव सागर से पार होने से आशय केवल यही नहीं होता कि मनुष्य को मृत्यु के बाद मोक्ष प्राप्त हो जाए बल्कि इस संसार में रहते हुए आनंद से जीवन व्यतीत करना भी है। अध्यात्मिक ज्ञान के बिना यह संभव नहीं है। आजकल हम अनेक लोगों को अनाप शनाप हरकतें या बकवास करते हुए देखते हैं। उनमें यह दोष आध्यात्मिक ज्ञान के अभाव के कारण ही उत्पन्न होता है। कहने को अनेक लोग धर्म में आस्था होने या पवित्र ग्रंथों को पढ़ने की बात करते जरूर हैं पर उनका आचरण इस बात का प्रमाण नहीं होता है। उनका यह दावा केवल अपनी छबि बनाने के लिये होता है ताकि वह लोगों के जज़्बातों का दोहन कर सकें।
किसी भी मनुष्य के भक्त होने का सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि वह जिंदगी के प्रति लापरवाह हो जाता है। दुःख सुख में समान रहता है। जिसने घर में रहते हुए शांति प्राप्त कर ली समझ लो उसने तीर्थ नहा लिया। वरना चाहे जितने जतन कर लो अगर हृदय में परमात्मा का नाम नहीं धारण किया मन को शांति नहीं मिल सकती। दरअसल भक्ति करने का मतलब भले ही भगवान को प्रसन्न करना न हो पर निच्छल हृदय से करने पर मन को शांति तथा बुद्धि को तीक्ष्णता प्राप्त होती है।
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