भगतसिंह व गांधी जी इतिहास में दर्ज हैं-उनके नामों को न प्रचार की आवश्यकता है न ही स्मरण के लिये भीड़ एकतित्र करने की। दोनों ही गरीबी, बेबसी और गुलाम अभिव्यक्ति हटाने के लिये संघर्ष रत रहे। वह अमर है और उनके नामों को बार बार प्रचारित कर हमारा बौद्धिक समाज राज्य प्रबंध में अक्षम पर पदासीन शोभायमान खलनायकों की चर्चा से बचता है। वह इन्हीं पदासीन खलनायकों के सहारे जीवित है और नहीं चाहता कि जनमानस में उनकी चर्चा हो इसलिये कोई गांधीजी तो कोई भगतसिंह के नाम पर झंडा बुलंद किये हैं-वैसे तो चंद्रशेखर आजाद, अशफाकुल्ला, लोकमान्य तिलक, सुभाषचंद्र बसु तथा खुदीराम बसु जैसे महानायकों ने भी देश की आजादी की लड़ाई लड़ी पर राज्य प्रबंध में पदासीन खलनायकों ने अपनी छवि बचाने के लिये भगतसिंह और गांधीजी के नाम को ज्यादा प्रधानता दी। उनसे प्रायोजित बौद्धिक समाज भी इन दोनों महानुभावों की जयंती और पुण्यतिथि पर सक्रिय होकर समाज का ध्यान इतिहास के पीछे ले जाता है। वर्तमान में जहां उच्च पदों पर प्रबंध कौशल के सिद्धहस्त लोगों की आवश्यकता है वहां मूर्तिमान लोग बिठा दिये जाते हैं-जो अपना न सोचें, अपना न बोले, अपना न देखें-जो केवल अपने अनुचरों के मार्गदर्शन में अपनी सक्रियता सीमित रखें।
आजादी के बाद भी कथित रूप से अनेक अर्थशास्त्री और कुशल प्रबंधक हुए हैं पर राज्य की कार्यप्रणाली वही रही जो अंग्रेजों की थी-जिसमें निचले कर्मचारी को गुलाम और जनता को गुंगी असहाय मानकर व्यवहार करने का सिद्धांत अपनाया गया। आजादी के समय एक डॉलर की कीमत एक रुपया थी पर आज 70 के आसपास है-अब हम कैसे मान लें कि देश में कुशल राज्य प्रबंध तथा अर्थप्रणाली रही है। अब यह कह सकते हैं कि उस समय तो लोगों के पास साइकिल नसीब नहीं थी पर आज तो कारें भी है-जवाब में हम आपको बतायेंगे यह विकास तो विश्वव्यापी है वैसे ही जैसे भ्रष्टाचार। अनेक देश ऐसे हैं जो हमसे बाद में आजादी इतनी ही तरक्की कर गये हैं कि हम उनके आगे अभी भी पानी भरते हैं। दूसरी बात यह कि हमारे देश में प्राकृत्तिक साधनों के साथ ही मानवश्रम की प्रचुरता रही है ऐसे में वर्तमान विकास एक स्वाभाविक प्रक्रिया के तहत हुआ। अगर कोई इसका श्रेय ले रहा है तो उसे बताना होगा कि अंग्रेजों की स्थापित व्यवस्था से अलग उसने स्वयं क्या सोचा और किया।
अर्थशास्त्र में भारत की समस्याओं में अकुशल प्रबंध भारी मानी जाती है। इस पर एक भी अर्थशास्त्री अपनी कलाकारी नहीं दिखा पाया। इधर हम पढ़ते रहते हैं कि अमुक महान अर्थशास्त्री ने यह योगदान दिया उसने वह दिया पर अकुशल प्रबंध के लिये किसे क्या किया कोई बताने वाला नहीं है। हर दिन किसी जन्मतिथि या पुण्यतिथि मनाकर प्रचार माध्यम अपने विज्ञापनों की सामग्री जुटाते हैं। इतिहास को चूसकर देश की जनता को भ्रमित करने का प्रयास अब भी जारी है। वर्तमान में समाज की स्थिति जटिल हो गयी है। हम अगर उसकी व्याख्या करने बैठें तो इतनी कहानियां हो जायेंगी कि हम लिखते लिखते थक जायेंगें। बेहतर हो कि वर्तमान पर ज्यादा ध्यान लगायें। देश के हालात देखकर नहीं लगता कि आजादी के पास कोई ऐसा महानायक हुआ जिसने समाज में संतोष रस का लंबे समय तक प्रवाह किया हो। तात्कालिक रूप से कुछ महान प्रयास करके अनेकों ने नाम बटोरे पर उससे समाज में लंबे समय तक सामान्य स्थिति रही हो ऐसा नहीं लगा-वरना हमने तो देश में आर्थिक, नैतिक और वैचारिक पतन की बहती धारा ही देखी है। यही कारण है कि हमें इतिहास सुहाता नहीं है।
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