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Saturday, July 28, 2012

पतंजलि योग विज्ञान-आत्मा और संसार का संबंध दृश्य से है (patanjali yog vigyan-atma aur sansar ka sanbandh)

            देह और आत्मा को लेकर हमारे समाज में अनेक विचार प्रचलन में है पर पतंजलि योग सूत्र के अनुसार आत्मा जहां देह के लिये प्राण धारण करता है वहीं देह में कार्यरत इंद्रियों के अनुसार सक्रिय रहता है। इसके लिये यह जरूरी है कि योग के माध्यम से इसे समझा जाये। हमारे अध्यात्मिक दर्शन के कुछ विद्वान आत्मा को परमात्मा का अंश मानते हैं तो कुछ आत्मा को ही परमात्मा मानते हैं। इस तरह की राय में भिन्नता के बावजूद यह एक सत्य बात है कि आत्मा अत्यंत शक्तिशाली तत्व है जिसे समझने की आवश्यकता है। दरअसल जो लोग के माध्यम से इंद्रियों और आत्मा का संयोग करते हैं वही जानते हैं कि तत्पज्ञान क्या है और उसको सहजता से कैसे जीवन में धारण किया जा सकता है। आत्मा और परमात्मा में भेद करने जैसे विषयों में अपना दिमाग खर्च करने से अच्छा है कि अपनी आत्मा को पहचानने और उसे अपनी इ्रद्रियों को संयोजन का प्रयास किया जाये।
            पतंजलि योग साहित्य में कहा गया है कि
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            द्रष्टा दृशिमात्रः शुद्धोऽपि प्रत्ययानुपश्यः।।
          ‘‘चेतनमात्र दृष्ट (आत्मा) यद्यपि स्वभाव से एकदम शुद्ध यानि निर्विकार तो बुद्धिवृति के अनुरूप देखने वाला है।
           तदर्थ एवं दृश्यस्यात्मा।।
         ‘‘दृश्य का स्वरूप उस द्रष्टा यानि आत्मा के लिये ही है।’’
          पंचतत्वों से बनी इस देह का संचालन आत्मा से ही है मगर उसे इसी देह में स्थित इंद्रियों की सहायता चाहिए। आत्मा और देह के संयोग की प्रक्रिया का ही नाम योग है। मूलतः आत्मा शुद्ध है क्योंकि वह त्रिगुणमयी माया से बंधा नहीं है पर पंचेंद्रियों के गुणों से ही वह संसार से संपर्क करता है और बाह्य प्रभावों का उस पर प्रभाव पड़ता है।
           आखिर इसका आशय क्या है? पतंजलि विज्ञान के इस सूत्र का उपयोग क्या है? इन प्रश्नों का उत्तर तभी जाना जा सकता है जब हम इसका अध्ययन करें। अक्सर ज्ञानी लोग कहते हैं कि ‘किसी बेबस, गरीब, लाचार, तथा बीमार या बेजुबान पर अनाचार मत करो’ तथा ‘किसी असहाय की हाय मत लो’ क्योंकि उनकी बद्दुआओं का बुरा प्रभाव पड़ता है। यह सत्य है क्योंकि किसी लाचार, गरीब, बीमार और बेजुबान पशु पक्षी पर अनाचार किया जाये तो उसका आत्मा त्रस्त हो जाता है। भले ही वह स्वयं दानी या महात्मा न हो चाहे उसे ज्ञान न हो या वह भक्ति न करता हो पर उसका आत्मा उसके इंद्रिय गुणों से ही सक्रिय है यह नहीं भूलना चाहिए। अंततः वह उस परमात्मा का अंश है और अपनी देह और मन के प्रति किये गये अपराध का दंड देता है।
         कुछ अल्पज्ञानी अक्सर कहते है कि देह और आत्म अलग है तो किसी को हानि पहुंचाकर उसका प्रायश्चित मन में ही किया जा सकता है इसलिये किसी काम से डरना नहीं चाहिए। । इसके अलावा पशु पक्षियों के वध को भी उचित ठहराते हैं। यह अनुचित विचार है। इतना ही नहीं मनुष्य जब बुद्धि और मन के अनुसार अनुचित कर्म करता है तो भी उसका आत्मा त्रस्त हो जाता है। भले ही जिस बुद्धि या मन ने मनुष्य को किसी बुरे कर्म के लिये प्रेरित किया हो पर अंततः वही दोनों आत्मा के भी सहायक है जो शुद्ध है। जब बुद्धि और मन का आत्मा से संयोग होता है तो वह जहां अपने गुण प्रदान करते हैं तो आत्मा उनको अपनी शुद्धता प्रदान करता है। इससे अनेक बार मनुष्य को अपने बुरे कर्म का पश्चाताप होता है। यह अलग बात है कि ज्ञानी पहले ही यह संयोग करते हुए बुरे काम मे लिप्त नहीं होते पर अज्ञानी बाद में करके पछताते हैं। नहीं पछताते तो भी विकार और दंड उनका पीछा नहीं छोड़ते।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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Saturday, July 7, 2012

भगवान से मित्र दृष्टि मांगें-यजुर्वेद से संदेश

           हमारे अध्यात्मिक दर्शन में निष्काम तथा सकाम भक्ति दोनों को समान महत्व दिया गया है।  निष्काम भक्त जहां बिना किसी कामना के भक्ति करते हैं वहीं सकाम भक्त भी हृदय में कामना लेकर उपासना करते हैं। मंदिर या घर में पूजा करते हुए अधिकतर लोग भगवान से अपनी अभीष्ट वस्तु प्रदान करने या फिर कोई अन्य सांसरिक होने की इच्छा मन में करते हैं। यह मनुष्य का अज्ञान ही है कि वह अपने सांसरिक उद्देश्य के लिये पराशक्ति की तरफ अपना मुख ताकता है जबकि परमात्मा ने उसे अपना काम करने के लिये हाथ, चलने के लिये पांव, देखने के लिये आंख, सूंघने के लिये नाक तथा सुनने के लिये कान दिये हैं। अपना लक्ष्य तय करने तथा योजना बनाने के लिये बुद्धि दी है। फिर भी अधिकतर लोग याचक बनकर जीने की आदी होते हैं। वैसे हमारे अध्यात्मिक ज्ञान के अनुसार भक्त चार प्रकार के होते हैं-आर्ती, अर्थार्थी, जिज्ञासु तथा ज्ञानी। इनमें सबसे अधिक संख्या अर्थार्थी लोगो की है जो सकाम भक्ति मे विश्वास करते है।
यजुर्वेद में कहा गया है कि
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मसि त्यांदिन्द्रियं बृहन्मयि दक्षो मयि क्रतुः।
              ‘‘मेरे अंदर महान् शक्ति का निर्माण हो। कार्य दक्षता और कर्तव्यनिष्ठा बढ़े। हम इंद्रियों को वश में करके महाशक्तिशाली बने।’’
मनसः कांममाकूतिं वाचः सत्यमशीप।
             ‘‘मननशील, अंतःकरण की इच्छा और अभिप्राय जानने की शक्ति करने के साथ सत्य भाषण करने का भाव बना रहे।’’
दुते छंह या। ज्याक्ते संदृशि जीव्यासं ज्योक्तो सदृशि जीष्यासम।।
            ‘‘हे शक्तिशाली परमात्मा मुझे बलवान बनाओ। सब मुझे मित्र दृष्टि से और मैं सब को मित्र दृष्टि से देखूं।’’
                हमारे अध्यात्म ग्रंथों के अनुसार नाम स्मरण करते समय ऐसी प्रार्थना करना चाहिए कि हमारे अंदर ही मन और बुद्धि की शुद्धि हो। अपने कर्तव्य के प्रति निष्ठ बढ़े। कहने का अभिप्राय यह है कि जब हम मानसिक रूप से स्वस्थ तथा गतिशील होंगे तो सांसरिक कार्य वैसे ही सिद्ध होंगे। इसके विपरीत मन में कलुषिता और स्वार्थ का भाव रखने पर हम चाहे कितनी भी परमात्मा से याचना करें हमारा कोई भी काम सिद्ध नहीं हो सकता। हमें नाम स्मरण करते समय परमात्मा से काम में सफलता नही बल्कि उसे संपन्न करने के लिये बल और बुद्धि की याचना करना चाहिए। वैसे ज्ञानी लोग तो निष्काम भाव से ही भगवान का स्मरण यह जानते हुए करते हैं कि संसार चलाने वाला भी वही है इसलिये यहां होने वाले समस्त काम उसकी इच्छा के अनुरूप स्वयं ही सिद्ध होते हैं। कुछ ज्ञानी तो भारी प्रयास के बावजूद अपना काम सिद्ध न होने पर यह मानते हैं कि उसमें भी कोई अच्छाई होगी।
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संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
writer and editor-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep', Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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