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Saturday, November 29, 2014

कांच का महत्व न समझे उसे हीरा दिखाना व्यर्थ-हिन्दी चिंत्तन लेख(kanch ka mahatva n samjhje use heera dikhana vyarth-hindi chinntan article)



            यह आश्चर्य की बात है कि संसार के जितने भी कथित धर्म हैं उनसे जुड़े प्राचीन ग्रंथों के प्रचारक लोगों के बीच ज्ञान इस तरह बेचते हैं जैसे कि धर्म का ज्ञान कोई बाज़ार में बेचने का विषय या वस्तु हो।  हम अगर भारतीय अध्यात्म दर्शन की बात करें तो उसमें ज्ञानी से आशय केवल अच्छे शब्द समूह या वाक्यों से संबद्ध व्यक्ति होना नहीं है।  ज्ञानी वह माना जाता है जिसकी क्रियाओं से यह पता चलता है कि वह ज्ञान पर आधारित हैं।  व्यवहार, विचार, वक्तव्य तथा विचार से यह अपने आप पता चल जाता है कि कोई व्यक्ति ज्ञानी है या नहीं।  इतना ही नहीं ज्ञान भी उस व्यक्ति को दिया जाता है जिसमें गेय करने का सामर्थ्य हो। इसके साथ ही जो इच्छुक हो उसे ज्ञान दिया जाता है।
            भारतीय अध्यात्मिक परंपरा में गुरुकुल और सत्संग परंपरा ज्ञानार्जन का साधन मानी जाती है जिसमें साधक स्वयं उपस्थित होता है।  अब पाश्चात्य पंरपरा अपनाने के चलते हमारे देश में भी अनेक ज्ञान के व्यवसायी सार्वजनिक सभायें करनें लगे हैं।  अपने प्रवचनों में मनोंरजन की भाषा बोलते हैं।  भारत में विदेश से आयातित विचाराधारायें समस्त मनुष्यों को देवता बनाने का ऐसा सपना लेकर आती हैं जो असंभव है। इसमें ज्ञान का विषय व्यक्ति की गेय करने की क्षमता तथा उसकी इच्छा का आंकलन कतई नहीं किया जाता।  इतना ही नहीं अनेक विचाराधाराओं के प्रवर्तक तो व्यक्ति को अपना समूह त्याग कर नये समूह में आने की प्रेरणा यह कहकर देते हैं कि उन्हें सर्वशक्तिमान का सदियों से आकाश या परलोक में  स्थापित   श्रेष्ठ स्थान मिल जायेगा।
संत कबीर दास ने कहा है कि
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जो जैसा उनमान का, तैसा तासों बोल।
पोता को गाहक नहीं, हीरा गांठि न खोल।।
            हिन्दी में भावार्थ-अपने संपर्क में आने वाले मनुष्य की प्रवृत्ति देखकर व्यवहार करना  चाहिये। जिसे कांच की पहचान न हो उसके सामने अपने हीरे का प्रदर्शन करना व्यर्थ है।
एक ही बार परिखए, न वा बारम्बार।
बालू तौहु किरकिरी, जो छानै सौ बार।।
            हिन्दी में भावार्थ-किसी व्यक्ति या विषय की परख एक बार ही करना ठीक है। बार बार किसी को अवसर देना ठीक नहीं है।  रेत को सौ बार छाने पर वह हमेशा किरकिरी ही रहेगी।
            हम देख रहे हैं कि पश्चिम से कोई भी भाषा, संस्कृति, संस्कार तथा सामाजिक विचाराधारा ऐसी नहीं आयी जो दोषमुक्त हो।  यह अलग बात है कि आधुनिक दिखने की चाहत में हमारा सभ्रांत वर्ग उसके पीछे भाग रहा है।  हम देख रहे हैं कि हमारा समाज इसी कारण विरोधाभासी संस्कृति के जाल में फंस गया है। यही कारण है कि हमारे यहां जितना ज्ञान का प्रचार हो रहा है उतना समाज निर्माण होता दिख नहीं रहा।  जिस तरह का धर्ममय वातावरण सतह पर दिख रहा है उस दृष्टि से तो भ्रष्टाचार, अनाचार और व्याभिचार के घटनायें होना ही नहीं चाहिये पर वह तो बढ़ती जा रही हैं।  तय बात है कि हमारे पेशेवर धार्मिक ठेकेदार ऐसे लोगों के सामने ज्ञानं बांच रहे हैं जिनके लिये शब्द केवल क्षणिक मनोंरजन के लिये होते हैं न कि जीवन सुधारने के लिये उपयोग किया जाता है।


दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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Sunday, November 23, 2014

इतिहास बदलता है, अध्यात्मिक ज्ञान के सिद्धांत नहीं-संतों के हिसंक होने पर चिंत्तन लेख(ithas badalta hai,adhnatmik darshan nahin-hindi thoght article)



            विषयों में निर्लिप्त भाव अपनाने से आशय क्या है? हमने आज तक अनेक कथित विद्वानों को सुना पर लगता नहीं है कि वह इसे समझे जो दूसरे को समझा पायें। हमने श्रीमद्भागवत गीता का अध्ययन कर यह समझा है कि किसी व्यक्ति, विषय वस्तु के संपर्क में आना बुरा नहीं है वरन् निरंतर उसका स्मरण करना ही लिप्तता है। श्रीमद्भागवत गीता में गृहस्थ धर्म का पालन करने हुए भी योग प्राप्ति संभव बताई गयी है।  ऐसे में यह संभव नहीं है कि विषयों से संपर्क न रखना ही निर्लिप्त भाव माना जाये। हमारे अनुसार तो लिप्तता का आश लिपटने से है। अपने दैहिक आवश्कता की पूर्ति के बाद संबंधित विषय से विमुख होना ही निर्लिप्पता है।  मुख्य बात यह है कि हम अपनी इंद्रियों का सांसरिक विषयों से संपर्क तो  रोक नहीं सकते  पर हम अपने मस्तिष्क में निरंतर भौतिक संसार के चिंत्तन से परे रहकर निर्लिप्त रह सकते हैं।
            हमने पशु पक्षियों का जीवन देखा होगा।  पेट भरने के बाद बचे भोजन का पशु पक्षी  त्याग कर देते हैं, पर मनुष्य उसे बचाकर रख देता है-यह लिप्तता का भाव है। सिंह एक बार किसी मृग कर शिकार कर लेता है तो उसके पास चाहे कितने भी अन्य मृग विचरण करें वह उनसे मुंह फेर लेता है।  गाय को एक बार रोटी दे दी जाये तो वह उस दरवाजे का त्याग कर चली जाती है।  चिड़िया जमीन पर रखे दानों का सेवन करती है पर पेट भर जाने पर वह उसे छोड़ जाती है।  कोई भी पशु पक्षी संग्रह नहीं करता यही उसका निर्लिप्त भाव है। अनेक पशु पक्षी अपने बच्चे के युवा होने पर उसका त्याग कर देते हैं। कभी कभी तो यह लगता है कि वह बच्चे उनकी स्मृति से ही बाहर हो गये हैं।  मनुष्य ही नहीं वरन् सृष्टि के समस्त जीवों में अपनी संतान के प्रति लगाव देखा जाता है मगर अन्य जीव अधिक समय तक न संतान साथ रखते हैं न वह रहती है।  पशु पक्षियों का यही उन्मुक्त भाव निर्लिप्त भाव है।
            सांसरिक विषयों से देह के भरण पोषण से अधिक संपर्क रखना तो ठीक पर उनका निंरतर चिंत्तन करने से उपभोग के प्रति अनेक प्रकार  की अनेक नयी  कामनायें मन में पैदा होती हैं। इनमें से कई पूर्ण होती है तो कई में नाकामी हाथ आती है।  नाकामी से क्रोध और क्रोध से मूढ़ भाव पैदा होता है। मूढ़ भाव से ज्ञान शक्ति का हृास होता है और उसके बाद मनुष्य अपनी स्थिति से गिर जाता है।
            हम अक्सर यह कहते हैं कि ज्ञानी कभी पतन को प्राप्त नहीं होता पर सच यह है कि भौतिकता या माया का जाल इतना विकट है कि बड़े से बड़ा ज्ञानी भी उसमें फंस सकता है। ज्ञान किसके पास कितना है यह प्रश्न महत्वपूर्ण नहीं है बल्कि यह देखना चाहिये कि उसमें धारणा शक्ति कितनी है।  जब मनुष्य सांसरिक विषयों में अत्यंत रुचि के साथ जुड़ता है तब उसके पास तत्व ज्ञान कितना भी हो धारणा शक्ति के हृास के साथ वह पतन की तरफ जाता ही है।
            अभी हाल ही में एक कथित संत ऐसे ही मायावी जाल में फंस गया।  हमने उसके प्रवचन सुने। सच बात तो यह कि उसमें ज्ञान की कोई कमी नहीं थी।  उसने अनेक प्रकार के उपाय कर बड़ा आश्रम बनाया। उस आश्रम में उसने अपने भक्तों के रहने, खाने और सत्संग के लिये बढ़िया सुविधा बनायी। ज्ञान में कमी नहीं थी पर अपनी या दूसरे की देह का चिंत्तन अंततः एक सांसरिक विषय है।  आश्रम के लिये तमाम चिंत्तायें उन संत के मन में रही होंगी। इतना ही नहीं जब भक्तों के सुविधा के लिये चिंता करेंगे तो अपने लिये भी क्या कम रखते होंगे? न्यायालय के एक प्रकरण में निंरतर उपस्थित नहीं रहे तो उनके विरुद्ध अवमानना का नया विषय उपस्थित हो गया। इधर सांसरिक विषयों में भारी उपलब्धि का अहंकार उनके मन में आने से न्यायालय की शक्ति का ज्ञान लुप्त हो गया होगा।  परिणाम यह हुआ कि न्यायालयीन आदेश पर पुलिस ने आश्रम घेरा।  उनके कथित शिष्यों ने प्रहरियों पर हमला कर दिया।  आपाधापी में छह अन्य लोग भी मर गये। अब उन कथित संत को  पुराने प्रकरण से अधिक तो नये प्रकरण भारी पड़ने वाले हैं। हमारे प्रचार माध्यम संतों के ज्ञान और कार्यों पर प्रश्न उठा रहे हैं।  यह कैसे हुआ? संत ने ही इसका जवाब भी दिया किमेरी बुद्धि भ्रष्ट हो गयी थी?’’
            वास्तव में यह एक ऐसे ज्ञानी की स्वीक्रोक्ति है जिससे लोभ और लालच ने अपराध के मार्ग पर पहुुंचा दिया।  हमारा तो पहले से ही निष्कर्ष था कि उनके पास ज्ञान हमेशा ही रहा है पर लगता है कि सांसरिक विषयों ने उनकी धारण शक्ति को क्षीण कर दिया। इसी घटना के परिप्रेक्ष्य में हमारा यह भी निष्कर्ष है कि प्रथ्वी के भूगोल और जीव की प्रकृत्ति में कोई बदलाव नहीं होता। इतिहास बदल जाता है हम उससे भ्रमित हो जाते है।  रामायण में श्रीसीता ने श्रीराम जी को एक कथा सुनाई थी जो इससे मिलती जुलती है। सतयुग में  एक महान तपस्वी थे।  उनके तप से इंद्र व्यथित हो उठे। उनको लगा कि यह तो उनका सिंहासन ही हर लेगा।  एक दिन वह एक योगी का रूप धर कर उस तपस्वी के पास आये और उन्हें अपना फरसा हाथ में देकर बोले-हम तपस्या करने जा रहे हैं जब तक लौटकर आयें आप इसकी रक्षा करें।’’
            परोपकार में तत्पर रहने वाला वह तपस्वी प्रसन्न हो गया और इंद्र चले गये। अब तपस्वी का मन तो उस फरसे में ही रहने लगा।  स्थिति यह कि ध्यान में भी वह फरसा बसने लगा।  एक दिन जिज्ञासावश उन्होंने अपने हाथ में उठाकर देखा तो उन्हें लगा कि अपनी रक्षा के लिये यह अत्यंत उपयुक्त है। बस फिर क्या तो इस तरह के चिंत्तन में ऐसा फंसे कि  धीमे धीमे हिंसा में ही लीन हो गये और अंततः उनको उसका दंड भोगना ही पड़ा।
            हमने इन कथित संत और रामायणकालीन उस तपस्वी के जीवन में समानता देखी और यह माना कि अध्यात्मिक दर्शन की दृष्टि से प्रथ्वी का भूगोल और जीव की स्वाभाविक प्रकृत्तियां नहीं बदलती यह अलग बात है कि एतिहासिक घटनायें पात्र का नाम बदलकर प्रस्तुत होती हैं।


दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
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Sunday, November 16, 2014

पेशेवर संतों का धर्म से अधिक संबंध नहीं दिखता-विशेष हिन्दी रविवारीय लेख(peshewar santon ka dharm se adhik sambandh nahin dikhta-special hindi ravivariya article or hindi lekh)




           
            भारतीय अध्यात्मिक दर्शन तथा धर्म को  आमजन की निष्क्रियता से अधिक कथित साधु, संतों और योगियों की अति सक्रियता ने किया है। श्रीमद्भागवत गीता के दर्शन से काम, क्रोध , लोभ, मोह तथा अहंकार छोड़ने का उपदेश देने वाले इन पेशेवर अध्यात्मिक ने जितना संसास के विषयों का उपभोग किया है उतना तो आमजन भी नहीं करते।  एक बात यह हम आपको बता दें कि श्रीमद्भागवत गीता में कोई भी चीज छोड़ने या पकड़ने को नहीं कहा गया है।  त्रिगुणमयी माया में बंधी देह के साथ मन, बुद्धि और अहंकार की प्रकृत्तियों का चक्र बताया गया है।  कर्म के भेद बताये गये हैं।  इन कर्मों की प्रकृत्तियां क्या हैं यह तो बताया गया है पर साथ ही यह स्पष्ट कर दिया है कि उनके बिना अपनी इस संसार में कोई गति नहीं है।  दूसरी बात यह कि काम, क्रोध, मोह, लोभ तथा अहंकार जैसे दोष इस देह के रहते छूट ही नहीं सकते। अलबत्ता तत्वज्ञान से उनके जाल में फंसकर संकट से बचने का उपाय किया जा सकता है।  भारत के कथित संत समाज, अर्थ, प्रकृत्ति तथा विज्ञान से भरे श्रीगीता के वचनों को रटते हैं पर स्वयं समझ नहीं पाते। हम अहंकार की बात बता दें। किसी व्यापारी ने दुकान खोली। वह तत्वज्ञानी है पर अपने यहां रखे सामान के स्वामी होने का बोध उसे रखना ही पड़ेगा ताकि उसके लिये वह ग्राहकों से मूल्य ले सके।  स्वामी होने का यह बोध अहं की ऐसी सीमा है जहां तक उसे जाना ही होगा।  ग्राहक से पैसा लेना और उसे वस्तु देना एक सहज सांसरिक प्रक्रिया है। जहां व्यापारी इस प्रक्र्रिया को स्वयं प्रेरणा से संपन्न समझेगा वहां से अहंकार की वह सीमा प्रारंभ होती है जो दोष पैदा करती है।    उसी तरह काम, क्रोध, लोभ तथा मोह भी त्याज्य नहीं वरन् नियंत्रण योग्य हैं।  आप पूरी गीता पढ़ लें वहां कुछ छोड़ने या पकड़ने के लिये नहीं कहा गया।  आप किस कर्म से क्या बनते हैं-इसकी पहचान श्रीगीता के अध्ययन करने पर ही हो सकती है।
            हमारे देश में अनेक व्यवसायिक संत अपने सांसरिक अपराधों की वजह से जेल यात्रा पर जाते हैं तो उनके अनुयायी विलाप करते हैं। आजकल एक संत की चर्चा है।  सरकारी नौकरी से निकाले गये यह संत आजकल अपने तीना लाख भक्तों की वजह से भगवान बने फिर रहे हैं।  पीछे भारतीय संविधान के रक्षक लगे हैं। उनके कुछ ऐसे अपराध हैं जिसकी वजह से उन्हें जेल भेजा जा सकता है। उनके हमने प्रवचन सुने।  मोह, माया, क्रोध, लोभ तथा अहंकार के जाल में आमजन की अपेक्षा अधिक बुरी तरह यह संत फंसे दिखते हैं।  उनके शिष्य अपने भगवान की रक्षा के लिये बंदूकें ताने खड़े हैं। टीवी पर पूरा दृश्य देखकर कहीं से भी भारतीय धर्म और अध्यात्म का संबंध इससे  नहीं दिखाई देता।  टीवी चैनल पर चल रही बहस में अनेक विद्वान इन संत के कृत्यों का भारतीय धर्म तथा अध्यात्म के संदर्भ में इसलिये अध्ययन कर रहे हैं क्योंकि वह प्राचीन ग्रंथों की बात करते हैं।  इस तरह के प्रवचन तो हमारे देश में कदम कदम पर करने वाले मिल जायेंगे।  अनेक लोग तो इन्हीं प्रवचनों से अपनी रोजी रोटी चलाते हैं-कुछ ज्यादा हिट हुए तो महलनुमा आश्रम बनाने के साथ ही अधिकारीनुमा शिष्य उनके संचालन में नियुक्त करते हैं।
            ऐसा सदियों से चल रहा है। अनेक लोग तो केवल इसलिये धर्म व्यवसाय में आ जाते हैं क्योंकि उन्होंने अपने समय में इसके सहारे समाज में चमक कायम करने वाले लोगों की छवि देखकर वैसा बनने का मन बनाया होता है।  धर्म का अर्थ समझने से अधिक उसे विक्रय की वस्तु बनाने की उनकी ही इच्छा होती है।  सभी सफल नहीं होते जो सफल होते हैं वह राजसी ठाठबाट से रहते हैं।  असफल लोग भी अधिक नहीं तो रोज की रोटी का इंतजाम कर ही लेते हैं। मध्यम रूप से सफल लोग सुविधायुक्त आश्रम आदि बनाकर जीवन बिता देते हैं।
            दरअसल हम यहां श्रीमद्भागवत गीता तथा गुरुग्रंथ साहिब दोनों की चर्चा करना चाहेंगें। श्रीकृष्णजी ने अपने अगले जन्म की बात कहीं नहीं कही बल्कि यह कहा कि जो इस ग्रंथ का अध्ययन करेगा वह इस संसार में सहजता से विचरण करेगा। उन्होंने गुरू सेवा की बात कहीं मगर उसके लिये जो अध्यात्मिक ज्ञान दे। वह न मिले तो श्रीगीता का अध्ययन कर भी जीवन संवारा जा सकता है।  उसी तरह सिख पंथ के  दसवें गुरू श्री गोविंद सिंह जी ने भी गुरूग्रंथ साहिब को ही  गुरु मानने की प्रेरणा दी। उन्होंने एक तरह से गुरू की दैहिक पंरपरा का समापन किया।  गुरूग्रंथ साहिब भी श्रीगीता की तरह एक दैवीय ग्रंथ है-यह भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान साधक मानते हैं।  इधर जब हम अपने देश विशेषतः पंजाब तथा हरियाणा के क्षेत्र की अध्यात्मिक तथा धार्मिक स्थिति की तरफ देखते हैं वहां दैहिक गुरु की पंरपरा बनी हुई है।  अनेक  ऐसे पंथ इसी क्षेत्र से निकलकर आये हैं जो मूलतः सिख धर्म से प्रभावित दिखते हैं पर उनके अनुयायी पवित्र ग्रंथों को गुरु मानकर चलने में असहज अनुभव करते हैं।  उन्हें लगता है कोई दैहिक गुरू उन्हें कर्ण प्रिय शब्द कहकर बहलाये।  ऐसे स्थान बनाये जिसका पर्यटन की तरह इस्तेमाल किया जा सके। सच बात तो यह है कि यह अनुयायी धर्म से अधिक उससे मन बहलाने में अधिक रुचि रखते हैं।  इसी भाव का लाभ पेशेवर संत उठाते हैं।
            इन पेशेवरों से आदर्श स्थापित करने की आशा करना उसी तरह ही व्यर्थ  जैसे किसी दुकानदार से अपनी वस्तु बिना लाभ के मिलने की करते हैं। जो लोग ऐसे गुरुओं के अनुयायी नहीं है वह धर्म के नाम पर तमाशे से दुःखी होते हैं उन्हें ऐसी घटनाओं पर अधिक नहीं सोचना चाहिये।
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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
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Saturday, November 8, 2014

संसार में सभी लोगों की बुद्धि एक समान होती है-श्रीगुरू ग्रंथ साहिब के आधार पर चिंत्तन लेख(sansar mein sabhi logon ki buddhi ek saman hotee hai-A religion thought article based on shri guru granth sahib)



            इस संसार में सभी व्यक्ति एक ही प्रकार के होते हैं। संसार के सभी जीवों की आदते अपनी देह के अनुसार बन ही जाती हैं।  इसका कारण यह है कि हमारी पंचेन्द्रियां रूप, रस, स्पर्श, सुगंध तथा तथा स्वर के साथ समान रूप से संपर्क में आती हैं। यह अलग बात है कि अपने कर्म तथा भक्ति के अनुसार ही मनुष्य सात्विक, राजसी तथा तामसी प्रवृत्तियों का हो जाता है। आमतौर से तामसी प्रवृत्ति से निष्क्रियता और सात्विक प्रकृत्ति से सीमित सक्रियता  का भाव आता है जबकि राजसी प्रकृत्ति के लोग अधिक सक्रिय दिखते हैं।  कि कोई  व्यक्ति सात्विक प्रकृत्ति का है इसका प्रमाण केवल एक ही बात हो सकती है कि उसके आचरण में अधिक उपभोग का अभाव दिखता हैं।  ऐसे लोग संख्या में अत्यंत कम होते हैं।
            वरना तो अधिकतर लोगों मे काम, का्रेध, लोभ, मोह तथा अहंकार का भाव अधिक रहता है।  विद्वान अक्सर कहते हैं कि इन दोषों का त्याग किया जाना चाहिये पर सत्य यह भी है कि जब तक यह पांचों क्रियायें देह से जुड़ी हैं  इनके साथ सीमित संपर्क रखा जाये तो ये ही गुण  अधिक  सक्रियत से दोष बन जाते हैं।

श्रीगुरुग्रंथ साहिब में कहा गया है कि
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एक सुरति जेते है जीअ।
सुरति विहूणा कोइ न कीअ।
जेहि सुरति तेहा तिन राहु
लेखा इको आवहु जाहु।।
काहे जीअ करहि चतुराई।
लेवैं देवैं न ढिल न पाई।।
तेरे जीअ जीआ का तोहि।
कित कउ साहिब आवहि रोहि।
जे तू साहिब आवहि रोहि।
तू ओना का तेरे ओहि।।

            हिन्दी में भावार्थ-संसार के सभी जीव एक ही तरह सूझ के साथ जीते हैं। कोई बिना सूझ के नहीं बना है।  जिस तरह की जैसी सूझ है वैसे ही कर्म करता है। सभी जीव लेनदेन में चतुंराई दिखाते हैं। एक पैसा लेने में ढील नहीं दिखाते। ऐसे में हे परमात्मा आप उन पर उन पर क्यों क्रोध करोगे? आप तो उनके भी स्वामी हो।

            अनेंक लोग यह कहते हैं कि इस संसार में कामी, का्रेधी, लालची, मोह तथा अहंकारी समाज के शिखर पर पहुंुच जाते हैं तो सरल भाव का आदमी हमेशा ही पिछड़ा रहता है।  अनेक लोग तो परमात्मा पर आक्षेप करते हुए भ्रष्टाचार, अपराध और आचरणहीन व्यापार करते हुए धनवान हो जाते जबकि सज्जन आदमी हमेशा ही संषर्घ करता रहता है।  यह उनका अज्ञान है।  इस ंसंसार के सभी लोग परमात्मा की कृपा से मनुष्य योनि में हैं।  देव और दैत्य उसी के बनाये हैं।  अपने कर्मों के अनुसार ही सभी सुख दुःख भी भोगते हैं।   
              धनी कहें निर्धन सुखी और निर्धन कहे धनी सुखी है पर सच यह है कि जिसने जीवन में परमात्मा के नाम का स्मरण करना सीख लिया वह हर स्थिति में प्रसन्न चित रहता है।  सभी लोग एक दूसरे के बाह्य रूप देखकर अपनी राय बनाते हैं पर अंतर्मन की हलचल किसी को दिखाई नहीं देती। आचरणहीनता से धन कमाने वालों के महल भी नरक तो ईमानदारी से कमाने वाले की कुटिया भी स्वर्ग जैसी बन जाती है। यही ईमानदारी सात्विकता की पहचान है।
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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
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