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Saturday, February 14, 2015

संतुष्ट गरीब किसी धनिक से बेहतर-पतंजलि योग साहित्य के आधार पर चिंत्तन लेख(santush garib kisi dhanik se behatar-A Hindu hindu religion thought based on patanjali yog sahitya)



            कहा जाता है कि संतोष सबसे बड़ा धन है पर आज हम जब समाज में इस सिद्धांत के आधार पर दृष्टि डालते हैं तो आभास होता है कि लोग माया की दृष्टि से अधिक धनी जरूर हो गये पर मानसिक रूप से बहुत दरिद्र हैं।  स्थिति यह है कि धन, पद और प्रतिष्ठा के अभाव से त्रस्त अनेक लोग आत्महत्या कर स्वयं को जीवन से मुक्ति दिला देते हैं।  नश्वर देह को समय से पहले ही नष्ट करना अने लोगों को  अच्छा लगने लगा है।
            हमारे एक मित्र ने एक किस्सा सुनाया जो  हमें अत्यंत रुचिकर लगा । वह मित्र अपनी धर्मपत्नी के साथ मंडी गये थे।  वहां उनका एक परिचित दूधिया अपनी साइकिल छायादार स्थान पर खड़ी कर गर्मी में बटी खा रहा था।  उसके पास आठ दस बटियां थीं। सभी जानते हैं कि गर्मी में बटियां खाने से पानी की कमी नहीं होती।  हमारे मित्र ने उस दूधिया से कहा-अरे, इतनी सारी बटियां जमा कर रखी हैं। सभी खाओगे या बचाकर घर ले जाओगे?’’
            उस दूधिया ने कहा कि-‘‘सभी खाऊंगा। मेरा घर यहां से सात  किलोमीटर दूर है। इस गर्मी में साइकिल चलाते हुए यही बटियां मेरे पेट में कूलर का काम करेंगी।’’
            हमारे मित्र ने उसकी आंखों में जो आत्मविश्वास देखा उससे वह आत्मविभोर हो गये।  उन्होंने अपनी पत्नी से कहा-‘‘पता नहीं यह गलतफहमी अनेक समाज सेवकों  को क्यों है कि गरीब और परिश्रमी लोग जीवन में मुश्किलों से हार जाते हैं। ऐस लोगों को देखो तो लगता है कि गरीब होना ही दुःख का प्रमाण नहीं है।  इस लड़के की आंखों में जो आत्मविश्वास था वह हम जैसे सभ्रांत वर्ग के बच्चों के पास कहां होता है? सबसे बड़ी बात यह कि गरीबों को भिखारी मानकर विचार नहीं करना चाहिए।’’

भर्तृहरि नीति शतक में कहा गया है कि
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वयमिह परितृष्टा वल्कलैस्त्वं दुकूलैस्सभ इह परितोषे निर्विशेषो विशेषः।
स तु भवतु दरिद्रो यस्य तृष्णा विशाला मनसि च परितुष्टे कोऽर्थवान् को दरिद्रः।।
            हिन्दी में भावार्थ-हे राजन्! हम पेड़ की छाल के वस्त्र पहनकर संतुष्ट हैं तो तुम रेशमी परिधान पहनकर प्रसन्न हो। संतोष तो हम दोनों को ही है तब विरोध वाली बात कहां है? इसमें विशेष कुछ नहीं है। दोनों ही संतुष्ट है तब अंतर नहीं है। मगर जो दरिद्र है पर जिसकी इच्छायें अधिक है उसका अगर मगर संतोष से भर जाये तो धनिक और दरिद्र में अंतर कहां रह जाता है।

            आधुनिक राज्यव्यवस्थाओं में पूरे विश्व के शिखर पुरुष हमेशा ही गरीबों के मसीहा होने का दावा करते हैं यह अलग बात है कि उनके प्रशासनिक तंत्र की नीतियां और कार्यशैली इसके विपरीत दिखती हैं।  गरीब, बेसहारा, बूढ़े, कमजोर तथा विकलांग की सेवा के नारे पूरे विश्व में लगते हैं।  तब ऐसा लगता है कि बस इस धरती पर देवता प्रकट होने वाले ही है।  ऐसा होता नहीं क्योंकि इस तरह के नारे लगाने वालों का उद्देश्य केवल प्रचार के माध्यम से अपना अर्थ साधने का होता है।  सभी गरीब भीख नहीं मांगते और श्रम से जीने वाले सभी लोग धनिक होने का सपना देखकर अपना समय भी नष्ट नहीं करते।  अभावों में जीने वाले जिंदा हैं तो संपन्न लोगों को अपनी रक्षा की चिंता खाये जाती है।
            इसलिये किसी गरीब को देखकर उस पर हंसना नहीं चाहिये और न ही अपनी संपन्नता के मद में रहकर जीवन बिताना चाहिये। जिसके पास मन का संतोष है वही सबसे बड़ा धनी है। बढ़त राजरोगों के बढ़़ते प्रभाव से तो यही निष्कर्ष निकलता है।


दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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Sunday, February 1, 2015

ध्यान से वृत्तियों पर नियंत्रण पाया जा सकता है-पतंजलि योग साहित्य के आधार पर चिंत्तन लेख(dhayan se vritiyo par niyantran paya ja sakta hai-A Hindu hindi thought article based on patanjali yoga sahitaya)




                                                       यह संसार चक्र अपनी गति से चलता है।  सदियों से अनेक मनुष्य इस धरती पर जन्मे फिर काल कलवित हो गये। यह अलग बात है कि अपने जीवनकाल में हर मनुष्य यही सोचता है कि उसकी सांसे भौतिक वस्तुओं की तरह  संपत्ति है।  जीवन निर्वाह के कर्मो को वह इतनी रुचि के साथ करता है अपने अध्यात्म या आत्म के प्रति लापरवाह हो जाता है। लाभ पर हंसना और हानि होने पर रोकर वह पूरा जीवन बिता देता है।  इसके विपरीत योग तथा ज्ञान साधक जीवन के हर पल का सहजता से आनंद उठाते हैं।  वह जानते हैं कि लोभ से निराशा, राग से द्वेष, मोह से वियोग तथा अविद्या से भय के भाव का स्थायी संयोग है।  जो  घट गया वह  आज स्मृतियों में है  और जो चल रहा है वह भी स्मृतियों का ही भाग हो जायेगा।  इसलिये अपने अंदर राग या कामना का भाव नहीं आने देते क्योंकि बाद के भाव द्वेष और निराशा का भी उनको अनुमान होंता है। इसलिये विषयों में वह सीमित भाव हिन्दी में भावार्थ-अविद्या, मोह, राग, द्वेष तथा अभिनिवेश यह पांच प्रकार के क्लेश हैं।

पतंजलि योग में कहा गया है कि

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अविद्यास्मितारागद्वेषाभिनिवेशाः क्लेशाः।

                                                       हिन्दी में भावार्थ-अविद्या, मोह, राग, द्वेष तथा अभिनिवेश यह पांच प्रकार के क्लेश हैं।

सुखानुशयी राग।



सुखानुशयी राग।

                                                       हिन्दी में भावार्थ-सुख भोगने की जो इच्छा हृदय में रहती है उसे राग कहा जाता है।

दुःखानुशायी द्वेषः।

                                                       हिन्दी में भावार्थ-दुःख के अनुभव के पीछे जो भाव है उसे द्वेष कहते हैं।

ध्याहेयास्तदृवृत्त्यः।

                                                       हिन्दी में भावार्थ-ऐसी वृत्तियों का त्याग ध्यान से ही किया जा सकता है।

                                                       संसार का हर  विषय हमारी देह से जुड़ा है पर वह अंतिम सत्य नहीं है। जिस तरह देह को धारण करने वाला ही अंतिम शक्ति है उसी तरह सांसरिक विषयों से अधिक अध्यात्मिक ज्ञान महत्वपूर्ण है। एक बात तय है कि देह का सांसरिक विषयों से जिस तरह संयोग होता है उसी तरह उसके कर्म के परिणाम अच्छे और बुरे दोनों तरह का संयोजन करते हैं। जहां राग है वहां क्लेश है और जहां कामना है वहां निराशा उत्पन्न होगी यह निश्चित है।  इस तरह के संयोग का ध्यान से ही ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है।  ध्यान और योग में सक्रिय लोग विषयों से जुड़ने के बाद उनसे परिणाम प्रतिकूल होने पर निराशा नहीं होते क्योंकि वह राग से परे होते हैं।  अपनी दैहिक आवश्यकता की पूर्ति के लिये प्रयास रहते हैं पर वस्तुओं में कामना नहीं रखते क्योंकि जानते हैं कि  एक दिन वह पुरानी हो जायेंगी तब निराशा का भाव आयेगा।
            ध्यान से वृत्तियों पर नियंत्रण पाया जा सकता है-पतंजलि योग साहित्य के आधार पर चिंत्तन लेखसे संपर्क रखते हैं ताकि उनसे निराशा या तनाव न हो।
दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
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