हमें लगता है तमिलनाडु की कथित परंपरा जल्लीकुट्टू पर भक्त समूह दिखावे की सहानुभूति दिखा रहा है। उच्चतम न्यायालय ने जल्लीकुट्टु पर रोक लगायी है तो तमिल नेता भक्तों के इष्ट से आशा कर रहे हैं कि वह अध्यादेश लाकर बैलों पर अनाचार की परंपरा जारी रखने में सहयोग करें। भक्त चाहते हैं कि यह मामला लटका रहे क्योंकि आगे भी न्यायालय के कुछ निर्णय ऐसे आ सकते हैं जिसे लेकर धर्म और जातियों की रक्षा का विवाद सामने आ जाये तब उन पर अध्यादेश लाने का दबाव पड़ सकता है उस समय उन्हें अपनी इच्छा के विपरीत फिर अध्यादेश लाना पड़ें, उससे बचने के लिये यह विवाद चलता रहे तो ठीक ही है। मान लीजिये कुछ धार्मिक विषयों पर कोई निर्णय आ गया तब धर्मनिरपेक्ष हाहाकर करेंगे-जैसे एक बार कर चुके है-तब भक्त तर्क देंगे कि हम तो न्यायालय के निर्णय को बदलने वाला कोई अध्यादेश नहीं लायेंगे न ही कानून बनायेंगे। जज्लीकुट्टी पर अध्यादेश लाने को मजबूर किया गया तो उसमें कुछ ऐसा पैंच फंसा देंगे कि धर्मनिरपेक्ष उसका विरोध जरूर करेंगे। अब बैल बचाने के लिये मजबूर करोगे तो गाय का विषय भी जोड़ देंगे। बैलों को खेलने की इजाजत तो देंगे पर चोट पहुंचाने या काटने पर रोक लगा देंगे। फिर बैल के साथ गाय और बकरा भी जोड़ देंगे। मूलत तीनों गाय प्रजाति में ही मान जाते हैं।
तमिलनाडू की राजनीति भक्तों के लिये कभी उत्साहवर्द्धक नहीं रही। वहां से हिन्दी, हिन्दू और हिन्दुस्तान शब्द का ही विरोध होता रहा है। वहां के जनमानस में अंग्रेजी से प्रेम तो हिन्दी से चिढ़ भरने के साथ ही हिन्दू शब्द को आर्य सभ्यता से जोड़कर भ्रम फैलाया गया है। अंग्रेजी के इंडिया शब्द को संयुक्त राष्ट्र में हटाकर हिन्दुस्तान या भारत शब्द लिखवाने का भी वहां विरोध होता है। भक्तों न तमिल भाषा और संस्कृति से लगाव है पर जिस तरह उन्हें हिन्दी प्रतीकों के प्रति वहां उपेक्षा का भाव दिखता है उससे वह उदासीन हो जाते है। ऐसे में जलीकुट्टु के विवाद में भक्त समूह अपनी रणनीति इस तरह रखेगा कि धर्मनिरपेक्षों में ही झगड़ा हो जाये ताकि उनके हृदय को ठंडक मिले।
भक्तों के इष्ट तथा उसके रणनीतिकारों का समूह इतना सीधा नहीं है कि वह अपने राजनीतिक लाभ के बिना कोई काम करे। तमिलनाडू में अपने लिये जगह तलाश रहा भक्त समूह अगर सरलता से जलीकूट्टू पर विरोधियों की सब मान लेता है तो कहना पड़ेगा कि उनके सूझबूझ की कमी है। शायद यही कारण है कि विवाद को बीच में ही लटका रखा है। परंपरा से सहमति दिखाकर शाब्दिक सहायता तो दी है पर भारतीय अध्यात्मिक दर्शन के अनेक पुरोधाओं से सुशोधित यह समूह उपेक्षासन भी करना जानता है। इसलिये उसने अपने दोनों हाथों में लड्डू रखे हैं। अध्यादेश लागू करने के लिये बाध्य किया तो ऐसा करेंगे कि तमिलनाडू वाले खुश होंगे पर उनके धर्मनिरपेक्ष साथी उत्तेजित हो जायेंगे। नहीं किया तो भविष्य में किसी अन्य मसले पर यह कहते हुए नहीं थकेंगे कि हम तो संविधान के अनुसार चलने वाले हैं-न्यायालय के निर्णय को पलटने वाला कोई अध्यादेश नहीं लायेंगे। इस तरह आगे रोचक घटनायें हो सकती हैं जब भक्त अपने पुराने हिसाब चुकाने का अवसर पा जायें। भारतीय समाज के लिये दक्षिण दिशा तथा द्रविड़ सभ्यता का बहुत महत्व है पर बाहरी प्रभावों ने उसे उत्तर सभ्यता का विरोधी बना रखा है ऐसे में जल्लीकुट्टू की परंपरा पर भक्त समूह राजनीतिक दांवपैच जरूर खेल सकता है और उसमें गलत भी नही है।
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