33 वर्ष केंद्रीय सेवा से कल हमने स्वेच्छा से निवृत्ति ले ली। कार्यालय महालेखाकार (लेखा व हकदारी-प्रथम) मध्यप्रदेश नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक के अधीनस्थ एक संगठन है जिसमें राज्य सरकार का लेखा रखा जाता है। जनता से इसका सीधा जुड़ाव नहीं है इसलिये वेतन के अलावा कोई अन्य राशि हमारे खाते में कभी नहीं जमा हुई। सेवा के प्रारंभिक वर्षों में पहले लगता था कि दुर्भाग्य से ईमानदारी अपने हिस्से आयी, पर बाद के वर्षों में लगा कि यह हमारा सौभाग्य ही है कि कोई हमारी आर्थिक ईमानदारी पर संदेह नहीं कर सकता। समय पूर्व सेवा से हटने के कारणों पर अनेक बातें हो सकती हैं। मूल बात हमारे साथ यह थी कि आर्थिक रूप से हमारी स्थिति ठीकठाक थी। उसके बाद हमें लगा कि अब जीवन में कुछ सार्वजनिक रूप से कार्य करना चाहिये। पिछले 16 वर्षों से योग साधना अभ्यास, 12 वर्षों से श्रीमद्भागवत गीता का अध्ययन तथा 10 वर्षों से अंतर्जाल पर अध्यात्मिक लेखन के लिये चाणक्य, विदुर, कबीर, गुरुवाणी, तुलसीदास, रहीम तथा अन्य अनेक महान विभूतियों की रचनाओं के संपर्क ने हमारे अंदर के एक ऐसे लेखक को जिंदा रखा जो चिंतन करने का आदी हो गया है। अनेक लोग अंतर्जाल पर संदेश देकर सामाजिक तथा अध्यात्मिक विषयों के सम्मेलनों के लिये व्याख्यान देने का आमंत्रण देते पर हम कार्यालयीन दबावों के चलते स्वीकार नहीं कर पाये। अब सोचा कि योग, गीता तथा भारतीय अध्यात्मिक विषयों को वर्तमान संदर्भों से जोड़ने के अभियान पर मुक्त भाव से विचरेंगे।
नौकरी चाहे बुरी हो या अच्छी वह नौकरी होती है। बंधा हुआ धन मिलता है पर अनेक प्रकार के बंधनों की शर्त भी जुड़ी होती है। नौकरी ऐसा सुविधाभोगी जीव बना देती है कि मामूली दुविधा भी विकट लगती है। जिन लोगों को जीवन गुजारने के लिये संघर्ष करना पड़ता है वह सोचते हैं कि नौकरी वाला सुखी है-इस भ्रम के कारण बाबू जाति बदनाम भी हुई है। इतनी कि जिन बाबूओं को वेतन के अलावा अन्य परिलब्धि नहीं होती सामान्यजन उनको भी संदेह की दृष्टि से देखते है। कोई यकीन ही नहीं करता कि बाबू होकर भी हम कमाई नहीं कर रहे।
हमारा कार्यालय एक बृहद भवन में स्थित है। जब हम प्रारंभ में आये तो चार से पांच हजार कर्मचारी काम करते थे। अब संख्या हजार भी नहीं है। अनेक लोगों को सेवा में आते और जाते देखा। हमारे अनेक मित्र सेवानिवृत्त हो गये। नये आये मित्र बने। जीवन के साथ सेवा भी काफिले की तरह चलती रहीं। अंततः हम भी निकल आये। अनेक प्रकार के अनुभव तथा कहानियां जेहन में है जो समय आने पर लिखते रहेंगे। कुछ लोगों की याद हमेशा सतायेगी तो कुछ का हम अब भी पीछा करेंगे। जब सेवा में गये तो जीवन के प्रति उत्साह था तो छोड़ते समय भी सार्वजनिक रूप से कुछ करने का विचार जोर मार रहा है। निश्चित रूप से इस सेवा ने हमें जीवन में एक ऐसा आर्थिक संबल प्रदान किया जिससे समाज की बौद्धिक सेवा सहजता से की जा सकती है। हम नौ वर्ष से अंतर्जाल पर सक्रिय है तब अनेक मित्र पूछते थे कि तुम्हें वहां कौन पढ़ता है? हम मुस्कुराकर रह जाते थे। हैरानी इस बात की है कि सेवा से प्रथक होने से चार पांच माह पूर्व ही कार्यालय के अनेक परिचित ही फेसबुक पर मित्र बनते गये। स्मार्टफोन ने अंतर्जाल का उपयोग बढ़ाया है। कुछ लोग कहते हैं कि सोशल मीडिया ने आपसी संपर्क कम किया है पर सच यह है कि फेसबुक हमारे साथ ऐसे मित्रों को जोड़े रखेगा जिन्हें अब हम सहजता से नहीं मिल पायेंगे।
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