17 महीने पूर्व ही सेवा से प्रथक होने का निर्णय करना आसान नहीं होता पर हमारे लिये एकदम सहज था। इसकी पृष्ठभूमि पिछल दस वर्षो में बन रही थी। हमें लगने लगा था कि अब इस नौकरी नाम के राग से मुक्त होकर उन्मुक्तता से विचरण करना चाहिये। पतंजलि योग के सिद्धांतों के अनुसार ‘क्लेश का जनक राग है’। सोलह वर्ष पूर्व जब उच्चरक्तचाप तथा वायुविकार का शिकार हुए थे तब लगने लगा था कि हमारा जीवन अब पतन की तरफ जा रहा है। उसी दौरान ही भारतीय योग संस्थान के शिविर में योग साधना का प्रशिक्षण लिया। वहां आसन, प्राणायाम व ध्यान का अभ्यास करने लगे। उसके बाद आया अंतर्जाल का युग जिसने हमारे जीवन की धारा बदल दी। हिन्दी व अंग्रेजी टंकण के अभ्यास ने यहां ब्लॉग लेखन में भारी मदद की। लिखने के लिये हमने चाणक्य, कबीर, तुलसी, रहीम तथा अन्य संतों के दर्शन से जुड़ी सामग्री का अध्ययन किया। कहा जाता है कि ‘करत करत अभ्यास, मूर्ख भये सुजान’। अपने बारे में हम कह सकते हैं कि ‘लिखत लिखत दिखत दिखत, अहंकारी भये निरंकारी’। दस वर्ष पूर्व जब श्रीमद्भागवत गीता का अध्ययन का पाठ करना तो दंग रह गये। इस सृष्टि का सत्य जिस तरह सामने आया उसे देखकर लगा कि जैसे यह एकदम नया है। महापुरुषों के दर्शन की आधुनिक संदर्भ में व्याख्या करने के अभ्यास ने श्रीगीता के अध्ययन में सुविधा प्रदान की। हमारे एक सहकर्मी मित्र अजय गौड़ हैं। उन्होंने यह सुझाव दिया कि श्रीगीता के हम उस संस्करण का अध्ययन करें जिसमें महात्मय बताने वाली कथायें न हों वरन् सीधे संस्कृत के श्लोक हिन्दी में अनुवादित हों उसे पढ़ें और समझें।
श्रीमद्भागवत गीता के अध्ययन ने ध्यान की क्रिया के लिये प्रेरित किया। कार्यालय परिसर में ही स्थित श्रीहनुमान के मंदिर में हमने जब ध्यान लगाने का अभ्यास प्रारंभ किया तो उसने अंतर्चक्षु खोल दिये। पतंजलि योग साहित्य में राग व क्लेश के सहसंबंध के सिद्धांत की व्याख्या जब हमने अंतर्जाल पर लिखी तो वह आत्मसात हो गयी। उसके बाद लगने लगा कि जीवन का नष्टप्रायः होना तय है पर उससे पहले उन्मुक्त भाव से जीने के लिये रागों का त्याग करना आवश्यक है। यह सत्य है कि जब तक जीवन है काम, क्रोध, मोह, लोभ तथा अहंकार जैसे राग नहीं छूटते पर योग साधना तथा ज्ञान के अभ्यास से इनकी समय समय पर धारा अवरुद्ध की जा सकती है। ध्यान इसमें ब्रह्मास्त्र का काम करता है। यह अनुभव हुआ कि गरीब हो या अमीर सभी धन कमाते हैं पर पूरा उपयोग नहीं कर पाते-भविष्य में धनाभाव का संकट न हो इसलिये जूझते रहते हैं। हमसे लोगों ने पूछा था कि ‘सेवानिवृत्ति के बाद क्या करोगे? हम कहते थे कि ‘मौज करेंगे’। लोगों को इस बात पर यकीन नहीं हुआ।
हमारे बड़े मामाजी श्री मैहरसिंह कुर्सीजा विद्युत विभाग से अधीक्षण यंत्री पद से निवृत्त हुए हैं। जब हम छोटे थे तब वह नवयुवक थे और चंदामामा तथा नंदन किताबें अपने घर पर लाते थे। अक्षरज्ञान होने पर हम नानी के घर जाकर पढ़ते थे। वहां अंतर्मन में लेखक पैदा हुआ। उसके बाद मामा हनुमान चालीस पढ़ने लगे। उनकी देखादेखी हमारे अंदर भी अध्यात्मिक भाव पैदा हुआ। हम जब किराये के मकान में रहते थे हमारी माताजी ने तब एक ंपंडित जी से तुलसीदास का रामचरित मानस पढ़ने के लिये लिया। हमने भी उसे पढ़ा। हमारे अंदर एक लेखक ने तब युवा रूप लिया। मामाजी के निरंतर संपर्क के कारण हमारे अंदर अध्यात्मिक तत्व हमेशा रहे। उसके योग साधना तथा श्रीगीता के अभ्यास ने उसे बृहत रूप दे दिया।
सेवा का त्याग कोई त्याग नहीं है। हमारा उद्देश्य अपने व्यक्तित्व को एक स्थान पर केंद्रित करना है ताकि कोई रचनात्मक कार्य कर सकें। यही रचनात्मकता हमें मौज प्रदान करती है। हम अपने माता पिता तथा मामा का इस बात के लिये आभार व्यक्त करते रहें हैं कि उन्होंने हमारे अंदर जीवन से संघर्ष तथा अध्यात्म के जो गुण स्थापित किये वही हमारी शक्ति है। हमारा मानना है कि जिसके अंदर बालपन में ही अध्यात्म का तत्व स्थापित हुआ वही सुखी है वरना बड़ी उम्र में तो भटकाव से बचना मुश्किल है। केवल मंदिर में घूमने या भजन की चौपाल में बैठकर समय पास हो सकता है पर हृदय में अपनी ही आयु का बोझ उठाना कठिन लगता है। हमने तो यह भी देखा है कि सेवानिवृत्ति के बाद भी लोग एक बार फिर दूसरी सेवा ढूंढतें हैं। पुरुष के लिये कमाते रहना जिंदा रहने का सबसे सरल बहाना है। कहते हैं कि समय पास करना जरूरी है। समय तो पास होता ही है चाहें हम करें या नहीं। प्रश्न यह है कि हम उसे आनंद से पास कर रहे हैं या तनाव से। तय बात है कि जहां राग होगा वहां क्लेश होगा। राग सीमित होेंगे तो क्लेश भी कम होगा-यह बात पढ़ने सुनने में अजीब लगे पर यही सच भी है।
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