अंग्रेजी में मु्फ्त के माल उड़ायें, हिन्दी में पराये शब्द जुड़ायें।
‘दीपकबापू’ तोतलों की संगत में, अच्छा है वाणी से मौन जुडायें।
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चारों तरफ शांति का शोर मचा है, बेजुबानों में ही अब मौन बचा है।
मन के मीत करें धन से प्रीत, साहुकार वही जिसे काला धन पचा है।।
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असल के नाम पर नकल मिलाया है, अमृत कहकर विष खिलाया है।
‘दीपकबापू’ गम करना बेकार माने, सभी ने खुशी से दर्द पिलाया है।।
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भीड़ में बहुत मिले लोग, मगर दोस्त अब भी दिल में छाये हैं।
तन्हाई नहीं अब सताती इतना, अच्छी यादें जो साथ लाये हैं।
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दिन में राम का नाम जापें, रात को रम में गला तापें।
‘दीपकबापू’ खड़े दरबार में, भक्त अपना ही भाव नापें।।
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नाम के त्यागी सिंहासन पर विराजे, बजवा रहे प्रशंसा में बाजे।
‘दीपकबापू’ पकड़े वैभव मार्ग, भक्तों को दिखाते स्वर्ग के दरवाजे।
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नारे लगाकर वह लूट जाते, वादे निभाने से भी छूट जाते।
‘दीपकबापू’ शिष्टाचारी ठग बने, भले लोग झूठ से टूट जाते।।
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मौसम बदलने के अहसास नहीं होते, जज़्बात सामानों का बोझ ढोते।
‘दीपकबापू’ दिल के अंदाज से अनजान, अपने लिये ही अकेलापन बोते।।
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शांति की बात कातिलों से करते, भलमानसों में अपने लिये शक भरते।
‘दीपकबापू’ चला रहे बहसों का दौर, लाशों की तरफ देखने से डरते।।
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पहले पांच बरस बीते, अगले भी बीत जायेंगे।
‘दीपकबापू’ बनाये नये नारे, नयी फसल लायेंगे।।
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