भारतीय दर्शन के अनुसार देवी सरस्वती तथा देवी लक्ष्मी का बैर है। वह दोनों एक जगह एक साथ नहीं रहती। इसे कोई अंधविश्वास कहे या विश्वास पर हमारी नज़र से यह एक प्रकृति सिद्धांत है कि जिनके पास ज्ञान बुद्धि अधिक है वह माया का संग्रह अधिक नहीं करते हैें और जो करते हैं भले ही ज्ञान के विक्रेता हों पर बुद्धि के खजांची नहीं हो सकते।
हमारे देश के प्राचीन ग्रंथों की सरस कथायेंए महान ऋषितुल्य लेखकों की पवित्र रचनायें तथा धार्मिक नायकों की भूमिकायें अध्यात्मिक ज्ञान के प्रचार के लिये महान संदर्भ का कार्य करती हैं। हमारा योग साहित्य तथा श्रीमद्भागवत गीता का ज्ञान इतना सरस है कि जितना पढ़ो उतनी ही जिज्ञासा बढ़ती जाती है। शर्त यही है कि सुनकर गुनो और पढ़कर समझो। बौद्धिक अनुसंधान कर अपने चिंत्तन से से निष्कर्ष निकालो। मगर पेशेवरों ने ऐसा जादू इस समाज पर किया है कि वह ग्रंथों का रटकर गुरु पदवी धारण करते हुए शिष्य संग्रह दक्षिणा की राशि के लिये करने मे लगे रहते है। कहने का अभिप्राय यह है कि भारतीय दर्शन विश्व में सबसे श्रेष्ठ व पूर्ण है। मजे की बात यह है कि भारतीय ज्ञान का विक्रय ही सबसे ज्यादा होता है। ज्ञान की पुस्तकें रटकर काम क्रोध तथा मोह त्यागने का नारे लगाने वाले मायापति हो जाते हैं। जिस तरह कलाए साहित्यए फिल्म तथा पत्रकारिता के शीर्ष पुरुष अपनी छवि के नकदीकरण के लिये समाजसेवा में आते हैं उसी तरह धार्मिक शिखरों के स्वामी भी नकदीकरण के मोह से नहीं बच पाते। इस प्रयास में उनकी छवि का रूप बदलता है इसका अहसास तक उनको नहीं होता। अनेक बुद्धिमान जन इनके प्रति अपनी धारणा बदलने लगते हैं.यह अलग बात है कि उनको पता नहीं होता।
सरस्वती पुत्र लक्ष्मीपति होकर भी इतराते हैं पर यह ज्ञान साधक वह सिद्ध जानते हैं कि इन देवियों का बैर अत्यंत वैज्ञानिक सिद्धांत है जिसे बदलने की क्षमता बड़े से बड़े योगी में नहीं होती।
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नोट.कृपया इसे किसी परम सिद्ध योगचार्य तथा उसके प्रबंधक से न जोड़ें जो कभी योग के स्तंभ माने जाते थे और अब उनके उद्योग प्रबंधन तथा की संग्रहीत माया की चर्चा होने लगी है। योगाचार्य की छवि बदल कर उद्योगपति जैसे उनका प्रचार हो रहा है। हमने उनकी प्रशंसा में अपने ब्लॉग पर अनेक पाठ डाले जिसके लिये आलोचनात्मक टिप्पणियां भी झेलनी पड़ी। स्थिति यह है कि योग के प्रवर्तक महर्षि पतंजलि अब दवाओं के प्रचार नायक बना दिये गये हैं। टीवी पर पतंजलि का नाम जोड़कर दिखाये जा रहे विज्ञापनों यह अहसास होने लगा है कि अभी तक ज्ञान ही विक्रय योग्य था पर योग तो उससे अधिक दाम दिलाने वाला विषय बन गया है। बहरहाल उन दोनों की आलोचना करना उद्देश्य नहीं है पर अगर कोई करता है तो हम उसके जिम्मेदार नहीं है।
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