भारत पाकिस्तान और चीन तीनों के बीच साठ बरस से द्वंद्व चलता रहा है। बचपन से लेकर इन तीनों के बीच विवादों की चर्चा सुनते आ रहे हैं। एक प्रश्न हमारे दिमाग में आता है कि प्रारंभ से तीनों देशों के राजप्रमुख आपस में बड़े आराम से मिलते रहे हैं। तीनों देशों के जनमानस का आपस में कोई सीधा संबंध रहता नहीं है। तब सवाल आता है कि देशभक्ति के नाम पर इन तीनों देशों की जनता एक दूसरे के प्रति संशंकित क्यों रहती है? राजप्रमुखों के आपस में मधुर संबंध और जनता एक दूसरे को जानती नहीं। फिर वह मध्य में कौन लोग हैं जो इस तरह की दुश्मनी निभाते हैं।
हम अगर अब भी देखें तो भारतीय प्रधानमंत्री तो पाकिस्तान के प्रधानमंत्री की नातिन की शादी में पहुंच गये। चीन के राष्ट्रपति जब भारतीय प्रधानमंत्री के साथ फोटो में ऐसे खड़े होते हैं जैसे शैक्षणिक काल के मित्र हों। चीन से नाराजगी के बाद भारत में उसकी सामग्री की मांग मेें 20 से 60 प्रतिशत गिरावट की बात कही गयी है-हम आधा ग्लास खाली की बजाय आधा भरा कहने के सिद्धांत पर चलें तो यह तय है कि फिर भी उसकी सामग्री बिक रही है। मांग में गिरावट का कारण नाराजगी या क्रय क्षमता में कमी है-इस पर अलग से बहस करने की आवश्यकता है।
हमने अपने एक पाठ में हिन्दी चार ‘प’-पंूजीपति, प्रचार स्वामी, प्रबंधन तथा पकड़बाजों ( अंग्रेजी में चार ‘एम’-मनीमेकर, मीडिया, मैनेजमेंट तथा माफिया)- के संयुक्त उद्यम के सक्रिय होने की बात कही थी। यही समूह समाज के आम जनमानस पर नियंत्रण करने की योजना बनाकर उन पर अमल करता है। प्रबंधन और जनमानस के बची बाकी तीनों अपना काम करते हैं। पूंजीपति, प्रचार स्वामी तथा पकड़बाजों के आपसी संपर्कों का सहजता से पता लगाना संभव नहीं पर प्रत्यक्ष यह लगता है कि सभी आपस में जुड़े हुए हैं-प्रचार समूह अपने लाभ के अनुसार ही समाचार और बहसें चलाते प्रतीत होते हैं। जब प्रचार माध्यमों में देशभक्ति पर बहस होती है तो ऐसा लगता है कि यह विषय भी विक्रय योग्य हो गया है। दो महीने पहले चीन और पाकिस्तान के प्रति कोई ऐसी घृणा नहीं थी पर प्रचार माध्यमों से ऐसा जादू चलाया कि सभी लोग देशभक्ति का राग सुनकर हैरान हैं। पाकिस्तानी कलाकारों को यहां लाया कौन? वही लोग जो अब देशभक्ति के नाम पर उनको भगा रहे हैं।
सामान्य जनमानस हमेशा ही प्रचार माध्यमों के प्रभाव में बना रहता है पर हम जैसे चिंत्तक कभी कभी इस बात पर विचार करते हैं कि जिस तरह आज भौतिकतावादी युग में अर्थ की प्रधानता है उसमें देश की कला, राजनीति, अर्थ, साहित्य, पत्रकारिता के क्षेत्र में सौ फीसदी शुचिता तो छोड़िये पचास की राह पर चले यह संभव नहीं है। जब से हमने क्रिकेट में फिक्सिंग का भूत देखा है हमारी स्थिति यह है कि सभी जगह वही दिखाई देता है। हमारे पास सूचना के ज्यादा साधन नहीं है पर अतर्जाल पर इतने मित्र हैं कि उनके पाठों से कई ऐसी बातें मिलती हैं जिनको पढ़कर यही कहते हैं कि ‘यहां सब चलता है’ तथा ‘बिकने की कला आ जाये तो अपना चेहरा दिखाने के लिये कई आकर्षक स्थान मिल जाते हैं। बस, अपना चेहरा आईने और चरित्र ज्ञान से दूर रखना चाहिये।
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