हमारा एक मित्र नास्तिकतावादी है। हमारे साथ कहीं घूमने चला तो एक मंदिर देखकर अपने उसके अंदर चलने का आग्रह किया। वह बोला-‘तुम जाओ, मैं तो बाहर बैठकर ठेले पर चाय पीऊंगा। मैं तुम्हारी तरह अंधविश्वासी नहीं हूं।’
हमने कहा’ठीक है! मैं अंदर जाकर ध्यान लगाता हूं। पंद्रह मिनट बाद लौट आऊंगा।’
वह बोला-‘तुम उस पत्थर की मूर्ति पर जाकर ध्यान क्यों लगाते हो? यहां इतने सारे पत्थर रखे हैं। किसी पर भी ध्यान लगा लो।’
हमने कहा-‘मैं लगा लेता, पर यहां न शांति है न सफाई! मंदिर में सेवक सफाई रखते हैं।’
थोड़ी देर बाद लौट तो वह इधर उधर घूमता दिखाई दिया। हमसे कहने लगा-‘यार, तुमने आधा घंटा लगा दिया। मैं यहां इंतजार कर रहा हूं।’
हमने कहा-‘अंदर आ जाते। हमारा ध्यान भंग कर देते।’
वह बोला-‘नहीं, मैं नास्तिक हूं। पत्थर के भगवान के मंदिर में नहीं आ सकता।’
मैंने हंसते हुए कहा-‘‘कमाल है! मैं तुम्हारे कहने से बाहर रखे पत्थर पर भी ध्यान लगाने को तैयार था। श्रद्धा होने पर मेरे लिये वहां अपना इष्ट प्रकटतः होता। अब तुम मुझे जवाब दो बाहर रखा पत्थर अगर तुम्हारे लिये पत्थर है तो अंदर भगवान को भी पत्थर मान लेते। कहा भी जाता है कि ‘मानो तो भगवान नहीं मानो तो पत्थर’। अपने नास्तिक होने का भय तुम्हें इतना है कि पत्थर का भगवान भी तुम्हें चिंता में डाल देता है।’’
वह नास्तिकतवादी मित्र हमारे लिये लिखने के अच्छी सामग्री प्रदान करता है। उसी की वजह से हम आस्तिक नास्तिक की बहस बचते हैं। उस पर पिछले 20 वर्ष की योग साधना की ध्यान क्रिया ने अध्यात्म विषय पर हमें इतना परिपक्व बना दिया है कि नास्तिक तो छोडि़ये आस्तिक भी ज्ञान चर्चा में हावी नहीं हो पाते। हमने उस नास्तिकतावादी मित्र से पूछा था कि ‘जब कोई किसी पत्थर में भगवान देखता है तो तुम उससे चिढ़ते की बजाय उसकी पत्थर मानकर उपेक्षा क्यों नहीं करते? वहां जाने से तुम बिदकते क्यों हो?’
हमारा मानना है कि नास्तिकतावाद नैराश्य, कुंठा तथा निष्क्रियता को बढ़ावा देता है। मजे की बात यह नास्तिकवादी व्यसनों में ज्यादा फंसे दिखते हैं-कम से कम हमारे चार ऐसे मित्र हैं जो बेहतर इंसान होना भक्त से बेहतर मानते हैं पर वह व्यसनों के दास हैं।
हमारा अध्यात्मिक दर्शन कहता है कि ‘परमात्मा का रूप अनंत और अचिंत्तन्य हैं।’ सीधी बात यह कि इंसान की यह स्वयं की समस्या है कि वह आस्तिक बने या नास्तिक। जैसा उसका संकल्प होगा वैसा ही यह संसार उसके लिये बन जायेगा-हमारा दर्शन ज्ञान और विज्ञान पर आधारित है, जिसमें मनुष्य को जीवन के प्रति सकारात्मक भाव अपनाने को कहा जाता है। आस्तिकता से सकारात्मक भाव बढ़ता है और नास्तिकता से नकारात्मकता बढ़ती है। नास्तिकों को इसी से भी मूढ़ मान सकते हैं कि वह मृत व्यक्ति की कब्र पर बने ताजमहल में प्रगतिशीलता और संगमरमर की बनी भगवान की प्रतिमा में पिछड़ापन देखते हैं। हमने अपनी राय बता दी थी कि प्रतिमायें पत्थर की होती है भगवान तो उसमें हमारी श्रद्धा से आते हैं और उससे हमारे अंदर आत्मविश्वास आता है कि कोई हमारे साथ है।
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