जो लोग मजाक में मजदूर दिवस को पुरुष दिवस का पर्याय मान रहे हैं उनकी दिव्य दृष्टि केवल भारत के वर्तमान सभ्रांत समाज तक जा रही है या फिर वह उलटपंथियों के विचार प्रवाह में ही बह रहे हैं जिसमें नारी को अबला ही माना जाता है-उन्हें बालक और नारी के विषय प्रथक रूप से विमर्श के लिये लगते हैं। सभ्रांत वर्ग की अपेक्षा श्रमशील का जीवन संघर्ष बहुत अधिक होता है-पुरुष हो या महिला संयुक्त रूप से परिवार चलाने-या कहें बचाने-के लिये संघर्षरत रहते हैं । श्रमशील परिवार के पुरुष का संघर्ष जहां कठिन होता है तो वहीं महिला का तो अति कठिन होता है। वह न केवल कमाने में पति की मदद करती है वरन उसके लिये खाना पकाने के साथ ही बच्चे संभालने का काम भी करती है। अतः मजदूर दिवस पर नारियों को अलग देखना एक भद्दा मजाक लगता है।
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अध्यात्मिक ज्ञान बाज़ार में नहीं मिलता
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लोग अध्यात्मिक ज्ञान पाने के लिये इधर उधर फिरते हैं। अनेक लोग हैं तो आकंठ सांसरिक विषयों में डूबे हैं पर उनके मन में भी यह उत्कण्ठा रहती है कि कहीं ऐसी जगह जायें जहां शांति मिले-यह कहीं न कहीं विरक्ति का भाव रहता है जो ऊब से पैदा होता है। ज्ञान के व्यवसायी इसका भरपूर लाभ उठाते हें और उन्हें अपने पास बुंलाकर कहीं न कहीं उनका आर्थिक दोहन करते हैं। आदमी कुछ देर की शांति के बाद वापस लौटता है और फिर वही अशांति उसे तत्काल घेर लेती है। अध्यात्मिक ज्ञान का मूल सिद्धांत यह है कि हम स्वयं को दृष्टा समझें न कि कर्ता। किसी दृश्य को देखें तो उस पर विचार कर अपनी राय कायम करें। बोलने से पहले सोचें। व्यवहार में इस बात का ध्यान रखें कि समय कभी एक जैसा नहीं रहता। समय की छोड़िये हमारा मन ही एक राह नहीं चलता। ऐसे में दोस्त भी सावधानी बनाना चाहिये वरना दुश्मन भी ज्यादा होते हैं। संगत की रंगत से बचना संभव नहीं है इसलिये यह देखना चाहिये कि इसलिये व्यक्ति के गुण दुर्गुण देखकर किसी से संबंध कायम करें। वरना अंदर के भटकाव को बाहर रास्ता दिखाने का कोई भी व्यक्ति नहीं है-यही सच्चाई है।
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