हमारे ब्लॉगों पर हमारी रचनायें देखकर अनेक पाठक सवाल करते थे कि आप इतना अच्छा लिखते हैं पर अपनी रचनायें हिन्दी समाचार पत्र पत्रिकाओं में क्यों नहीं भेजते? अपनी किताब क्यों नहीं प्रकाशित करवाते? हमसे जवाब देते नहीं बनता था। अपनी रचनायें डाक से भेजते। फिर ईमेल से भी भेजीं। कुछ छपीं तो कुछ नहीं छपीं! हैरानी की बात यह रही कि यह रचनायें ऐसी हैं कि जिन्हें ब्लागों पर लाखों लोग पढ़ चुके हैं। इधर जब इंटरनेट पर लिखना प्रारंभ किया तो बाहर फिर निकले ही नहीं।
बैठकर सारे तमाशे देखें। साफ हो गया कि किताबें लिखने और छपवाने के लिये अधिक पैसा, उच्च पद या फिर अच्छी या बुरी प्रतिठा होना जरूरी है। एक लिपिक को एक लेखक के रूप में मान्यता नहीं मिल सकती। मैक्सिम गोर्की की एक कहानी है‘एक क्लर्क की मौत’। वह हृदय पटल पर अंकित है। उनका एक व्यंग्य भी है ‘गिरगिट’। जिस तरह अध्यात्मिक विषयों पर हमारा दर्शन प्रमाणिक है उसी तरह मैक्सिम गोर्की की रचनायें सांसरिक विषयों का वास्तविक रहस्य बता देती हैं।
एक क्लर्क की मौत तो हमने रोज देखी है। गिरगिट की तरह रंग बदलना तो हम अपने लोकतांत्रिक पुरुषों से सीख सकते हैं। जब केंद्र में हिन्दूवादी सरकार आयी तो देश में असहिष्णुता बढ़ने पर एक अघोषित आंदोलन चला। अनेक सम्मानित लोग अपने सम्मान लौटाने लगे। बिहार चुनाव समाप्त होते ही सब बंद हो गया। उत्तरप्रदेश चुनाव से पहले फिर एक ऐसा ही आंदोलन चला पर उसका दांव फैल हो गया।
अब आजकल फिर कुछ लोग कह रहे हैं कि उनकी आवाज कुचली जा रही है। यह कौन लोग हैं? जिन पर सरकार जांच एजेंसियों की छापे पड़ रहे हैं। उच्च पदों पर बैठने के कारण इनकी अभिव्यक्ति बुलंद रही है। इनके रहन सहन तथा चाल चलन से ही यह सिद्ध होता है कि उच्च पद के बाद इनका स्तर गुणात्मक रूप से बढ़ा है। जार्ज बर्नाड शा का कहना है कि बिना बेईमानी के कोई अमीर बन ही नहीं सकता। इन बड़े लोगों के पद छिन गये तो तय बात है कि सरकारी जांच एजेंसिया उनसे मुक्त हो गयी है। अब यह लोग कह रहे हैं कि ‘हमारी अभिव्यक्ति कुचली जा रही है।’ रोज इनके नाम अखबारों में छपते हैं। टीवी पर इनके फोटो आते हैं। इनकी अभिव्यक्ति इतनी बुलंद है कि आम लेखक या बुद्धिजीवी की आवाज नकारखाने मे तूती की तरह हो जाती है। यह बड़े लोग उच्च पद पर जाकर रंग बदलते हैं। जब नीचे आते हैं तो सरकारी संस्थायें रंग बदलती हैं। अभिव्यक्ति का सवाल बस तभी उठता है जब भ्रष्टाचारी पकड़ा जाता है या फिर वह विद्वान रोते हैं जो मुफ्त में पलते हैं।
लगता है कि लोकतंत्र बिना भ्रष्टाचार के चल ही नहीं सकता। साथ ही यह भी भ्रष्टाचार के विरोध के बिना भी नहीं चल सकता। गिरगिट का रंग बदलना लोकतंत्र में प्रतिदिन देखा जा सकता है।
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