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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका
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Wednesday, May 10, 2017

अशोक के बौद्ध धर्म अपनाने की बात अतार्किक लगती है-हिन्दी लेख (Chenge of religion by The Great Ashoka is Inlogicable-Hindi Article)

                                      कथित राष्ट्रवादियों से कभी कभी तो चिढ़ आती हैं। यह भले ही दावा हिन्दूत्व की विचारधारा पर चलने का हों पर इनमें से एक भी ऐसा नहीं लगता जिसके पास तार्किक ज्ञान हो।  इतिहास में पढ़ाया जाता है कि अशोक ने हिन्दू धर्म छोड़कर बौद्ध धर्म अपनाया था। कुछ राष्ट्रवादी इसका ढंग से खंडन भी नहीं कर पाते। दरअसल भारत में धर्म शब्द आचरण से ही रहा है। भक्ति के प्रकारों को लेकर विवाद रहे हों पर यहां कभी उसे धर्म का हिस्सा नहीं माना गया। पूजा धर्म का प्रतीक कभी नहीं रही।  संभवतः यह समाज में धार्मिक विभाजन प्रारंभ हुआ जब  अकबर के काल से जिसने बड़ी चालाकी से दीन-ए-इलाही चलाकर समाज को यह जताने की कोशिश की धर्म का भी नाम या संज्ञा होती हैं। ंभारत के धर्म कभी संगठित या संस्थागत नहीं रहा पर अकबर अपने मूल धर्म के दीन-ऐ-इलाही के  रूप को यहां लाना चाहता होगा। जहां तक हमारी जानकारी है हिन्दू धर्म की तरह शब्द का उपयोग अंग्रेजों के काल में प्रारंभ हुआ है। उसके इतिहास पर हम अलग से चर्चा करेंगे।
                  कलिंग विजय के बाद वहां की दुर्दशा देखकर अशोक के हृदय में हिंसा के प्रति घृणा उत्पन्न हुई। अतः उसने अहिंसा का मार्ग अपनाने का निश्चय किया जोकि महात्मा बुद्ध ने दिखाया था। इसका यह आशय कतई नहीं है कि अशोक के हृदय में भारत के प्राचीन धार्मिक प्रतीकों या मूल अध्यात्मिक विचारधारा के प्रति कोई अरुचि पैदा हुई होगी। उसने महात्मा बुद्ध के संदेशों को पूरे विश्व में फैलाने का निश्चय किया पर इसे धर्म अपनाना या बदलना नहीं कहते।  हम बार बार कहते हैं कि धर्म की संज्ञा या नाम नहीं होता। सनातन धर्म भी कोई समाज की इकाई नहीं था।  सनातन  का आशय प्राचीन या अक्षुण्ण होता है। इससे आशय यही है कि संसार के अक्षुण्ण सत्य को समझना तथा उसके अनुसार ही आचरण करना। समस्या यह है कि सत्ता मे आने के बाद भी राष्ट्रवादी या हिन्दुत्व वादी उसमें ऐसे मस्त हो गये हैं कि उन्हें लगता है कि हमें अब किसी की जरूरत नहीं है। हम विद्वान हैं हम जो कहें वही ब्रह्म वाक्य है।  उन्होंने भारतीय धर्म ग्रंथों का अभ्यास नारे लगाने तक ही किया है। तीन साल निकल गये और हम जैसे ज्ञान साधक के साथ संपर्क नहीं किया। इनके अज्ञान का हम खूब मजा लेते हैं। पहले पांच सो हजार जनवादी व प्रगतिशील मिलकर सम्मानों की बंदरबांट करते थे और अब पचास सौ हिन्दुत्वादी भी यही कर रहे हैं। हमारे एक पुराने राष्ट्रवादी तो प्रधानमंत्री के साथ भी मिलकर फोटो खिंचवा चुके हैं पर उसके बाद उन्हें पूछा तक नहीं गया जबकि बड़ी शिद्दत से वह अब भी हिन्दुत्व विचाराधारा का प्रचार कर रहे हैं।  अगर यह राष्ट्रवादी या हिन्दुत्व वादी गंभीर होते तो पद्मश्री या पद्मविभूषण पुरस्कार उनको जरूर देते।
                               ऐसे अनेक विषय है जिसमें हिन्दुत्वादी अपनी बात चीख चिल्लाकर कहते हैं। कुछ तो गंभीरता भी ओढ़ लेते हैं। तर्क के नाम पर वही शून्य दिखता है।  फिर इधर कहते हैं कि इतिहास तोड़ा मोड़ा गया पर उधर किताबों में कोई बदलाव नहीं है।  ऐसे में समय इनके हाथ से जा रहा है। ऐसा लगता है कि हिन्दुत्व विचाराधारा का संघर्ष पहले से ज्यादा लंबा होने वाला है।

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