हिन्दी भाषा में किसी भी संज्ञा के तीन अर्थ होते हैं। किसी भी शब्द का अर्थ तथा भाव प्रसंग की अनुसार लिया जाता है। हम यहां उत्तरप्रदेश में चल रहे एंटी रोमियो अभियान का मजाक उड़ाने वाले प्रगति तथा उलटपंथियों के हिन्दी ज्ञान पर ही सवाल उठा रहे हैं क्योंकि वह शेक्सिपियर को अपना आदर्श मानते हैं और उनके एक पात्र का अपमान सहन नहीं कर रहे। विश्व में हिन्दी एकमात्र ऐसी भाषा है जो जैसी बोली जाती है वैसी लिखी जाती है यह कहा जाता है पर हमारा मानना है कि इसमें शब्दों के भाव वैसे नहीं होते जैसे बोले जाते हैं वरन् यह उन प्रसंगों का संदर्भ तय करता है।
हम अपनी दृष्टि से रोमियो ही नहीं वरन् मजनूं और रांझा के परिप्रेक्ष्य में भी इन्हें मान सकते हैं। हम रोमियो का शाब्दिक आशय लें तो वह शेक्सिपियक के नाटक का एक पात्र है जिसने जूलियट से प्रेम किया था।
लाक्षणिक अर्थ तब आता है जब कोई प्रेमिका अपने प्रेमी से कहे-‘वाह रे मेरे रोमियो।’ यहां उसके प्रेमी का नाम रोमियो नहीं है पर वह लक्षणों से उसकी पहचान बता रही हैं।
तय बात है कि व्यंजन विधा में उस तरफ इशारा किया जाता है जहां किसी के प्रेम का मजाक उड़ाना हो। प्रेमी तब तक प्रेमी नहीं माना जा सकता जब तक प्रेमिका ने उसका प्रणय निवेदन स्वीकार नहीं किया है। ऐसे में उसका नाम न रोमियो है न ही उसके लक्षण प्रेमी जैसे हैं तब उस पर रोमियो की ताना जड़कर मजाक उड़ाया जा रहा है। हमारे यहां साहित्य विधा में व्यंजना शैली का बहुत महत्वपूर्ण हैं। संस्कृति तथा हिन्दी में अनेक महान लेखक तो ऐसे हैं कि उनकी हर रचना तीनों विधाओं में एक साथ पूर्ण लगती है। यह पढ़ने वाले पर है वह कितना प्रखर है? सजग पाठक हमेशा व्यंजना शैली में अर्थ लेता है क्योंकि वही उसके व्यक्तित्व निर्माण में सहायक होती है। वह इस तरह रचना को पढ़ता है जैसे वह उसमें से अपने लिये ज्ञान बढ़ा सके। जहां हिन्दी, हिन्दू और हिन्दुस्तान की बात करें तो यहां अध्यात्मिक रूप से राधा कृष्ण का प्रेम ही सबसे ज्यादा प्रसिद्ध है। इस प्रेम की व्याख्या तीनों विधाओं में होती है तो अध्यात्मिक ज्ञानी भी इसके पवित्र भाव की व्याख्या करते हैं।
सीधी बात कहें तो उत्तरप्रदेश में रोमियो शब्द से आशय उन लोगों की तरफ है जो इकतरफा प्रेम की चाहत में लड़कियों को परेशान करते हैं और व्यंजना विधा में इसे एंटरोमियो अभियान नाम दिया गया है। इसके शाब्दिक या लाक्षणिक अर्थों पर बहस एक बकवास लगती है। हालांकि इस बहाने प्रगति तथा उलटपंथी यह बताना नहीं भूल रहे कि वह विदेशी साहित्य के महान ज्ञाता है।
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पहले भारत फिर अमेरिका और अब उत्तरप्रदेश में सत्तापरिवर्तन ने पाक के मीडिया को भारी बेचैन कर दिया है। हैरानी इस बात की है कि जिस हिन्दू धर्म या संस्कृति का अपना नंबर एक दुश्मन मानते हैं वह स्वाभाविक रूप से उसका हिस्सा हैं पर स्वयं को अरेबिक संस्कृति से जुड़ा दिखना चाहते हैं। बात धर्म की करते हैं पर उनको यह मालुम नहीं कि एक अरबी और एक हिन्दू जब आपस में कहीं मिलेंगे तो वह धर्म की बजाय अन्य विषयों पर स्वाभाविक विचार विमर्श करते हें। अरब की धार्मिक विचाराधारा के पाकिस्तानी अनुयायी इस भ्रम में है कि उनकी संस्कृति भी अरबी है या होना चाहिये-अरब वाले इनको अरेबिक मानते नहीं और यह स्वयं को हिन्दू कहना नहीं चाहते। इस अंतर्द्वंद्व ने पाकिस्तानियों की मानसिक रूप से वहां के विद्वानों को भी विक्षिप्त कर दिया है। वहां का उदार विचारक भी भी हिन्दू के प्रति सद्भाव दिखाने में हिचकता है्र्र-वह भी हिन्दू संस्कृति के उज्जवल पक्ष को नहीं देखता। पाकिस्तानियों को विचार विमर्श देखकर हमें लगता है कि हमें कभी उनसे सद्भाव की आशा नहीं करना चाहिये।
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