जिंदगी में मनुष्य स्वयं अपना कोई मार्ग नहीं चुनता। बस चला जाता है। लक्ष्य तय तो कर लेता है पर मार्ग जो मिल जाये उसी पर चलता है। यह भाग्य है कि किसी को मार्ग सही मिलता है किसी को नहीं! अनेक बार कोई निर्धारित लक्ष्य का निर्धारित मार्ग पर मानकर चलता है पर जब अंतिम सिरे पर पहुंचता है तो पता लगता है कि वहां तो कोई दूसरा लक्ष्य मौजूद है। वह उसे अपना लेता है और दावा यह कि उसने यही चुना था। कर्मवीर मनुष्य का स्वभाव होता है संघर्ष करना और जो हार्दिक भाव से करता है वह विजेता होता है ,नहीं करता वह हार जाता है। जीतने वाले का दावा यह कि मैं जीता और जो हारा वह दूसरे पर ठीकरा फोड़ता है।
कभी कभी आत्ममंथन करने से मन की पीड़ा दूर होती है-उस समय यह मान लेना चाहिये कि हमने जो खोया उसके पीछे हमारी त्रुटियां थीं और जो पाया वह तो भगवत्कृपा थी वरना हम किस योग्य थे? निर्वस्त्र पैदा हुए। मुट्ठी बंद थी पर खाली थी। हाथ से पाया तो खोया भी। पांवों से अनगिनत लंबाई का मार्ग तय किया। आगे भी जीवन है तो यही करना है पर हर पल आनंद लेना है। पीछे छूटा वह इतिहास था और आगे हैं वह भविष्य है पर आनंद तो केवल वर्तमान में ही लिया जा सकता है।
दरअसल मनुष्य प्रवृत्ति यह है कि वह बुद्धि विलास से घबड़ाता है। अगर बुद्धि विलास करना है तो निरर्थक हास्य तथा कष्टकर प्रमाद में गुजराना उसे पंसद होता है। दूसरे की निंदा करना सहज लगता है जबकि प्रशंसा में प्राण सूखते हैं। सबसे बड़ी बात यह कि सभी का मन बुझा है क्योंकि सभी अहंकार के दायरे में सिमट गये हैं। एक दूसरे का मनोबल बढ़ाने का कोई प्रयास नहीं करता जबकि आज सबसे ज्यादा इसकी जरूरत है। हर मनुष्य आत्मविज्ञापन के लिये तर्क गढ़ता है। किसी दूसरे की प्रशंसा कर उसे कृतार्थ करने की प्रवृत्ति समाप्त हो गयी है। यह समाज का संकट है। जिससे निपटने का एकमात्र उपाय यह है कि सभी आत्ममंथन करें क्योंकि अपनी इंद्रियों को सिकोड़ने की बजाय उनको व्यापक क्षेत्र में सक्रिय करने की आवश्यकता है।
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