महाराष्ट्र के नगर निकायों के चुनाव परिणाम का विचाराधारा के आधार पर शायद ही मूल्यांकन कोई करे क्योंकि दक्षिणपंथी (राष्ट्रवादी) जहां जीत के नशे में डूब जायेंगे वहीं प्रगतिशील तथा जनवादी विद्वान अपना मुंह फेर लेंगे। हम जैसे स्वतंत्र लेखकों के लिये चुनाव का विषय इसलिये दिलचस्प होता है क्योंकि विचाराधाराओं के संवाहक इन्हें केवल वहीं तक ही सीमित रखते हैं। चुनाव तक लेखक विद्वान अपनी सहविचारधारा वाले संगठनों को बौद्धिक सहायता देते हैं और बाद में फिर उसी आधार पर उन्हें सम्मान आदि भी मिलता है। यह चुनाव राज्य प्रबंध के लिये होता है पर उसका संचालन अंग्रेजों की पद्धति से स्वाचालित है जिसमें कभी परिवर्तन नहीं आता भले ही चुनाव में उसका दावा किया जाये। जो चुनाव लड़ते हैं उनका विचाराधारा से लगाव तो दूर उसकी जानकारी तक उन्हें नहीं होती। जिन विद्वानों को जानकारी है वह केवल प्रचार तक ही सीमित रहते हैं। चुनाव बाद राज्य प्रबंध का रूप बदलने की बजाय उसके उपभोग में सब लग जाते हैं।
बहरहाल महाराष्ट्र के चुनाव परिणाम समाजवाद और वामपंथियों के लिये भारी झटका है। एक तथा दो नंबर के दोनों दल दक्षिणपंथ के संवाहक मान जाते हैं। मुंबई शहर में सभी विचारधाराओं के विद्वानों के जमावड़ा रहता है। प्रगतिशील तथा जनवादी देश की आर्थिक राजधानी में रहकर गाहेबगाहे धर्मनिरपेक्षता के लिये सेमीनार करते हैं जिनका दक्षिणपंथी लोग विरोधी करते है। तब जनवादी व प्रगतिशील लोग भी आकर डटते हैं। देखा जाये तो नगर निकायों के चुनाव ने समाजवाद तथा वामपंथ विचाराधारा को मरणासन्न हालत में पहुंचा दिया है। कथित धर्मनिरपेक्षता, समाजवाद और गरीबों के लिये उद्धारक विचाराधारा के संवाहकों के लिये अब वहां सांस लेना मुश्किल होगा। दक्षिणपंथी अब संख्या में दोगुने हो गये हैं तो समाजवादी और जनवादियों नगण्य रह गये हैं। मूलतः जनवादियों को समाजवादियों का ही कहार कहा जाता है। जनवादियों का देश में वर्चस्व अधिक नहीं है पर समाज को गरीबों, मजदूरों, नारियों, बच्चों तथा वृद्धों के वर्गों में बांटकर उससे बहलाकर राज्यप्रबंध हासिल करने में वह समाजवादियों के सहायक रहे हैं। हम मानते हैं कि वैसे तो हमारे देश आम जनमानस कभी वर्गों में बंटकर मतदान नहीं करता पर प्रचार माध्यमों में भी इन विचाराधाराओं के विद्वानों का वजूद अधिक है इसलिये यह सच कोई नहीं बताता-यहां तक दक्षिणपंथी भी इससे बचते हैं क्योंकि कहीं न कहीं क्षेत्र, भाषा तथा धर्म की आड़ में वह भी अपने संगठन चलाते हैं, जबकि इनका मुख्य साथी मध्यम वर्ग हैं जिसे कोई भी विचाराधारा अपनत्व नहीं दिखाती।
एक स्वतंत्र लेखक के रूप में अब हमारे सामने दक्षिणपंथी (राष्ट्रवादी) संगठन हैं जिनसे हम यह पूछना चाहते हैं कि कथित रूप से देश में हिन्दूओं की संख्या घट रही है तो फिर उन्हें चुनावों में लगातार कैसे इतनी सफलता मिल रही है? जवाब भी हम देते हैं कि वह भी जनवादियों और समाजवादियों की तरह भ्रमित न रहें-जिन्होंने हमेशा ही समाज को वर्गो में बांटकर उसका भला करने का ढोंगे किया। देश सदियों तक गुलाम रहने का इतिहास तो यह दक्षिणपंथी बताते हैं पर यह समझें कि यह तत्कालीन अकुशल राज्य प्रबंध के अभाव के कारण हुआ था। अंग्रेजी पद्धति से चल रहा शासन देश के अनुकूल नहीं है इसलिये एक नये प्रारूप का राज्य प्रबंध होना चाहिये-यही महाराष्ट्र के निकाय चुनावों का संदेश है। यह लेखक मूलतः भारतीय अध्यात्मिकवादी विचाराधारा का है फिर भी यह मानता है कि लोग चाहे किसी वर्ग या धर्म से हो वह बेहतर राज्य प्रबंध के लिये मतदान करता है। यह जातपात या भाषा का आधार ढूंढना ठीक नहीं है। यह भी साफ कहना चाहते हैं कि अभी भी दक्षिणपंथियों (राष्ट्रवादी) को अपनी कुशलता राज्य प्रबंध में दिखानी है-उन्हें यह नहीं समझना चाहिये कि वह अपने लक्ष्य मध्यम वर्ग की सहायता के बिना इस तरह प्राप्त कर लेंगे। साथ ही यह भी कि उनकी राज्य प्रबंध में नाकामी भारतीय संस्कृति, धर्म तथा कला को भारी हानि पहुंचायेगी।
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