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Sunday, April 12, 2009

रहीम संदेश: नाले का पानी समुद्र से अधिक सम्मान पाता है (rahim ke dohe)

धनि रहीम जल पंक को, लघु जिय पियत अघाय
उदधि बड़ाई कौन है, जगत पिआसौ जाय

कविवर रहीम कहते हैं कि गंदे स्थान पर पड़ा जल भी धन्य है जिसे छोटे जीव पीकर तृप्त तो हो जाते हैं। उस समंदर की प्रशंसा कौन करता है जिसके पास जाकर भी कोई उसका पानी नहीं पी सकता।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-अगर आज के संसार में सामाजिक तथा आर्थिक ढांचे को देखें तो समाज में अमीर और गरीब का अंतर बहुत बढ़ गया है। इसके साथ ही धनियों और समाज के श्रेष्ठ वर्ग के लोगों की संवेदनायें भी एक तरह से मर गयी हैं। वह अपने आत्म प्रचार के लिये बहुत सारा धन व्यय करते हैं पर अपने निकटस्थ अल्प धन वालों के साथ उनका व्यवहार अत्यंत शुष्क रहता है। श्रमिक,गरीब, मजदूर तथा मध्यम वर्ग के बुद्धिजीवी लोग दिखने के लिये समाज का हिस्सा दिख रहे हैं पर उनके मन के आक्रोश को धनिक तथा श्रेष्ठ वर्ग के लोग नहीं समझ सकते । क्रिकेट और फिल्मी सितारों पर अनाप शनाप खर्च करने वाला श्रेष्ठ वर्ग अपने ही अधीनस्थ कर्मचारियों के लिये जेब खाली बताता है। विश्व भर में आतंकवाद फैला है। जिसके पास बंदूक है उसके आगे सब घुटने टेक देते हैं। आपने सुना होगा कि कई बड़े शहरों में अपराधी सुरक्षाकर वसूल करते हैं। फिल्मी सितारों, क्रिकेट खिलाडि़यों और कथित संतों के साथ अपने फोटो खिंचवाने वाले धनिक और श्रेष्ठ वर्ग के लोग इस बात को नहीं जानते कि उनके नीचे स्थित वर्ग के लोगों की उनसे बिल्कुल सहानुभूति नहीं है। प्रचार माध्यमों में निरंतर अपनी फोटो देखने के आदी हो चुके श्रेष्ठ वर्ग के लोग भले ही यह सोचते हों कि आम आदमी में उनके लिये सम्मान है पर सच यह है कि आर्थिक और सामाजिक रूप से कमजोर लोग उनसे अब बहुत चिढ़ते हैं। वह उनके लिये उस समंदर की तरह है जिसके पास जाकर भी दया रूपी पानी मिलने की आस वह नहीं करते।

पहले जो अमीर थे वह धार्मिक स्थानों पर धर्मशालाएं बनवाते थे ताकि वहां आने वाले गरीब लोग रह सकें। अब बड़े बड़े होटल बन गये हैं जिनके पास से गरीब आदमी गुजर जाता है यह सोचकर कि वहां रुकने लायक उसकी औकात नहीं है। गर्मियों में अनेक स्थालों पर धनिक और दानी लोग प्याऊ खुलवाते थे पर अब पुराने प्याऊ सभी जगह बंद हो गये हैं। उनकी जगह पानी के कारखानों की बोतलों और पाउचों को महंगे दामों पर खरीदना पड़ता है। हर चीज का व्यवसायीकरण हो गया है। इससे गरीब,मजदूर,श्रमिक तथा मध्यम वर्ग के बौद्धिक वर्ग में जो विद्रोह है उसे समझने के लिये विशिष्ट वर्ग तैयार नहीं है। सभी हथियार नहीं उठाते पर कुछ युवक भ्रमित होकर उठा लेते हैं-दूसरे शब्दों में कहें तो आतंकवाद भी समाज से उपजी निराशा का परिणाम है।
प्रयोजन सहित दया कर प्रचार करने में अपनी प्रतिष्ठा समझने वाले विशिष्ट वर्ग अध्यात्म में भी बहुत रूचि दिखाते हुए कथित साधु संतों की शरण में जाकर अपने धार्मिक होने का प्रमाण अपने ये निचले तबके को देता है पर निष्प्रयोजन दया का भाव नहीं रखना चाहता।

इसके बावजूद कुछ लोग हैं जो अधिक धनी या प्रसिद्ध नहंी है पर वह समाज के काम आते हैं। भले ही अखबार या टीवी में उनका नाम नहीं आता पर अपने क्षेत्र में निकटस्थ लोगों में लोकप्रिय होते हैं। उनका सम्मान करने वालों की संख्या बहुत कम होती है पर वह विशिष्ट वर्ग के लोगों के मुकाबले कहीं अधिक हृदय में स्थान बनाते हैं।
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संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

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