समस्त ब्लॉग/पत्रिका का संकलन यहाँ पढें-

पाठकों ने सतत अपनी टिप्पणियों में यह बात लिखी है कि आपके अनेक पत्रिका/ब्लॉग हैं, इसलिए आपका नया पाठ ढूँढने में कठिनाई होती है. उनकी परेशानी को दृष्टिगत रखते हुए इस लेखक द्वारा अपने समस्त ब्लॉग/पत्रिकाओं का एक निजी संग्रहक बनाया गया है हिंद केसरी पत्रिका. अत: नियमित पाठक चाहें तो इस ब्लॉग संग्रहक का पता नोट कर लें. यहाँ नए पाठ वाला ब्लॉग सबसे ऊपर दिखाई देगा. इसके अलावा समस्त ब्लॉग/पत्रिका यहाँ एक साथ दिखाई देंगी.
दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका
-------------------------


Monday, June 29, 2009

चाणक्य नीति-खोखले पेड़ पर हवा का प्रभाव नहीं होता

नीति विशारद चाणक्य जी का मानना है कि
-----------------------------

अंतःसारविहनानामुपदेशो न जायते।
मलयाचलसंसर्गान् न वेणुश्चंदनायते।।

मलयाचल पर्वत से प्रवाहित वायु के देह के स्पर्श से ही सामान्य पेड़ भी चंदन जैसे सुगंधित हो जाते हैं। एक मात्र बांस का पेड़ ही खोखला होता है जिस पर कोई हवा अपना प्रभाव नहीं डालती।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-यहां महात्मा चाणक्य ने मनुष्य के गुणों पर प्रकाशा डाला है। जिस मनुष्य में उत्साह और विश्वास है वह कहीं थोड़ा ज्ञान अपने कान से सुनता या पढ़ता है तो उसे आत्मसात कर लेता है। उसे धारण कर वह अपना जीवन प्रसन्नता से व्यतीत करने मेें समर्थ होता है। इसके विपरीत जिन लोगों के अहंकार है वह ज्ञान चर्चा को एक व्यर्थ की चर्चा समझते हैं। इसके अलावा वह धनहीन ज्ञानी का मजाक उड़ाते हैं। उनके लिये धन संपदा और कथित सामाजिक प्रतिष्ठा ही जीवन का सार है। ऐसे लोगों को कितना भी ज्ञान दिया जाये पर प्रभाव नहीं पड़ता। जिस तरह मलयाचल पर्वत की वायु के स्पर्श से कोई भी हरा भरा पेड़ चंदन की खुशबु बिखरने लगता है पर बांस का पेड़ अपने खोखले पन के कारण ऐसा नहीं कर पाता। अहंकार और बुद्धिरहित व्यक्ति की भी यही स्थिति होती है। वह चाहे दिखावे के लिये अध्यात्मिक चर्चा करे लों या सत्संग में चले जायें पर उनका अज्ञान और अहंकार जा नहीं सकता।

इसलिये ज्ञान प्राप्त करने के लिये आवश्यक है कि पहले मन में मौजूद अहंकार पर नियंत्रण किया जाये। इसके अलावा मन में यह संकल्प करना भी जरूरी है कि हम ज्ञान चर्चा और सत्संग से अपने मन को शांत करेंगे। तभी अपने जीवन का आनंद उठाया जा सकता है।
...............................
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्दलेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

Sunday, June 28, 2009

विदुर नीति-भले आदमी के निवेदन से दुष्ट फूल जाता है (vidur niti)

असन्तोऽभ्यार्थितताः सद्भिः क्वचित्कायें कदाचन।
मन्यन्ते स्न्तमात्मानमसन्तमपि विश्रुतम्।
हिंदी में भावार्थ-
किसी विशेष कार्य के लिये जब कोई सज्जन पुरुष किसी दुष्ट से मदद की याचना करता है तो अपने को प्रसिद्ध दुष्ट जानते हुए वह अपने को सज्जन समझने लगते हैं।

विद्यामदो धनमदस्तृतीयोऽभिजनो मदः।
मदा एतेऽवलिपतनामेत एवं सतां दमः।।
हिंदी में भावार्थ-
विद्या, धन, और ऊंचे कुल का मद अहंकार पुरुष के लिए तो व्यसन के समान है पर सज्जन पुरुषों के लिये वह शक्ति होता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-विश्व में असत्य (माया) के विस्तार के साथ धनाढ्य लोगों की संख्या के साथ आधुनिक शिक्षा से संपन्न बुद्धिमानों की संख्या भी बेतहाशा बढ़ रही है पर उसी अनुपात में अन्याय और हिंसा की वारदातों की संख्या भी बढ़ी है। वजह साफ है कि विद्या और धन वह शक्ति है जो किसी को भी भ्रमित कर सकती है। धन की प्रचुरता जिनके पास है वह उसकी शक्ति दिखाने के लिये ऐसे अनैतिक काम करते हैं जो एक सामान्य आदमी नहीं करता। उसी तरह जिन्होंने तकनीकी ज्ञान-जिसे विद्या भी कहा जाता है-प्राप्त कर लिया है उनमें बहुत कम ऐसे हैं जो उसका रचनात्मक उपयोग करते हैं। अधिकतर तो ऐसे हैं जो उसके सहारे दूसरे को हानि पहुंचाकर अपनी शक्ति दिखाना चाहते हैं। इंटरनेट पर बढ़ते अपराध और ठगी इसी का प्रमाण है कि शिक्षा या विद्या का अहंकार आदमी की बुद्धि भ्रष्ट कर देता है।
यही स्थिति दुष्ट लोगों की है। सज्जन लोगों का समूह नहीं बन पाता पर दुष्ट लोग जल्दी ही समूह बनाकर समाज में वर्चस्व स्थापित कर लेते हैं। वह ऐसी जगहों पर अपना दबदबा बना लेते हैं जहां सज्जन लोगों को अपने काम से जाना ही पड़ता है। ऐसे में दुष्ट लोगों से अपने काम के लिये वह सहायता की याचना करते हैं पर अपनी प्रसिद्धि के अहंकार में दुष्ट लोग उनको कीड़ा मकौड़ा मान लेते हैं। आप अगर प्रचार माध्यमों को देखें तो वह भी सज्जनों की सक्रियता पर कम दुष्ट लोगों की दुष्टता का प्रचार इस तरह करते हैं जैसे कि वह नायक हों। यही कारण है कि विश्व में अपराध और हिंसा का पैमाना दिन प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है।
..............................
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

Saturday, June 27, 2009

भर्तृहरि नीति शतक-प्रतिष्ठत आदमी हो जाता है घमंड के बुखार का शिकार

न नटा न विटा न गायकाः न च सभ्येतरवादचंचवः।
नृपमीक्षितुमत्र के वयं स्तनभारानमिता न योषितः।।
हिंदी में भावार्थ-
महाराज भर्तृहरि कहते हैं कि न तो हम नट हैं न गायक न असभ्य ढंग से बात करने वाले मसखरे और न हमारा सुंदर स्त्रियों से कोई संबंध है फिर हमें राजाओं से क्या लेना देना?

स जातः कोऽप्यासीनमदनरिमुणा मूध्निं धवलं कपालं यस्योच्चैर्विनहितमलंकारविधये।
नृभिः प्राणत्राणप्रवणमतिभिः कैश्चिदधुना नमद्धिः कः पुंसामयमतुलदर्प ज्वर भरः।
हिंदी में भावार्थ-
महाराज भर्तृहरि कहते हैं कि भगवान शिव ने अपने अनेक खोपड़ियों की माला सजाकर अपने गले में डाल ली पर जिन मनुष्यों को अहंकार नहीं आया जिनके नरकंकालों से वह निकाली गयीं। अब तो यह हालत है कि अपनी रोजी रोटी के लिये नमस्कार करने वाले को देखकर उससे प्रतिष्ठित हुआ आदमी अहंकार के ज्वर का शिकार हो जाता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जिसे देखो वही अहंकार में डूबा है। जिसने अधिक धन, उच्च पद और अपने आसपास असामाजिक तत्वों का डेरा जमा कर लिया वह अहंकार में फूलने लगता है। अपने स्वार्थ की वजह से सामने आये व्यक्ति को नमस्कार करते हुए देखकर कथित बड़े, प्रतिष्ठित और बाहूबली लोग फूल जाते हैं-उनको अहंकार का बुखार चढ़ता दिखाई देता है। यह तो गनीमत है कि भगवान ने जीवन के साथ उसके नष्ट होने का तत्व जोड़ दिया है वरना वह स्वयं चाहे कितने भी अवतार लेते ऐसे अहंकारियों को परास्त नहीं कर सकते थे।
अधिक धन, उच्च पद और बाहूबल वालों को राजा मानकर हर कोई उनसे संपर्क बढ़ाने के लिये आतुर रहता है। जिसके संपर्क बन गये वह सभी के सामने उसे गाता फिरता है। इस तरह के भ्रम वही लोग पालते हैं जो अज्ञानी है। सच बात तो यह है कि अगर न हम अभिनेता है न ही गायक और न ही मसखरी करने वाले जोकर और न ही हमारी सुंदर स्त्रियों से कोई जान पहचान तब आजकल के नये राजाओं से यह आशा करना व्यर्थ है कि वह हमसे संपर्क रखेंगे। बड़े और प्रतिष्ठित लोग केवल उन्हीं से संपर्क रखते हैं जिनसे उनको मनोरंजन या झूठा सम्मान मिलता है या फिर वह उनके लिये व्यसनों को उपलब्ध कराने वाले मध्यस्थ बनते हों। अगर इस तरह की कोई विशेष योग्यता हमारे अंदर नहीं है तो फिर बड़े लोगों से हमारा कोई प्रयोजन नहीं रह जाता।
......................................
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

Friday, June 26, 2009

विदुर नीति-दूसरों की मजाक उड़ने वाला होता है गरीब

1.दूसरों से न तो अपशब्द कहे न किसी का अपमान करें, मित्रों से विरोध तथा नीच पुरुषों की सेवा न करें।सदाचार से हीन एवं अभिमानी न हो। रूखी तथा रोष भरी वाणी का परित्याग करं।

2.दूसरों के अभद्र शब्द सुनकर भी स्वयं उन्हें न कहे। क्षमा करने वाला अगर अपने क्रोध को रोककर भी बदतमीजी करने वाले का नष्ट कर और उसके पुण्य भी स्वयं प्राप्त कर लेता है।
3.इस जगत में रूखी या शुष्क वाणी, बोलने वाले मनुष्य के ही मर्मस्थान हड्डी तथा प्राणों को दग्ध करती रहती है। इस कारण धर्मप्रिय लोग जलाने वाली रूखी वाणी का उपयोग कतई न करें।
4.जिसकी वाणी रूखी और शुष्क है, स्वभाव कठोर होने के साथ ही वह जो दूसरों के मर्म कटु वचन बोलकर दूसरों के मन पर आघात और मजाक उड़ाकर पीड़ा पहुंचाता है वह मनुष्यों में महादरिद्र है और वह अपने साथ दरिद्रता और मृत्यु को बांधे घूम रहा है।
5.कोई मनुष्य आग और सूर्य के समान दग्ध करने वाले तीखे वाग्बाणों से बहुत चोट पहुंचाए तो विद्वान व्यक्ति को चोट खाकर अत्यंत वेदना सहते हुए भी यह समझना चाहिए कि बोलने वाला अपने ही पुण्यों को नष्ट कर रहा है।
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्दलेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

Thursday, June 25, 2009

संत कबीर के दोहे-नर को ही नारायण जान

नर नारायन रूप है, तू मति जाने देह।
जो समझे तो समझ ले, खलक पलक में खेह।।

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि मनुष्यों तुम अपने को देह मत समझो बल्कि स्वयं को परमात्मा ही समझो। यह शरीर तो जड़ है और उसमें सांस प्रवाहित कर रहा आत्मा है वही स्वयं को समझो। यह समझ लो यह शरीर एक दिन माटी हो जायेगा पर आत्मा तो अमर है।
आंखि न देखि बावरा, शब्द सुनै नहिं कान।
सिर के केस उज्जल भये, अबहुं निपट अजान।।

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि संसार के लोग आंख से देखने और कान से ज्ञान समझने सुनने का काम नहीं कर पाते। उनके सिर के बाल सफेद हो जाते हैं पर फिर भी अज्ञानी बने रहते हैं।

वर्तमान सदंर्भ में संपादकीय व्याख्या-हमारा अध्यात्मिक दर्शन स्पष्ट करता है कि यह शरीर पंच तत्वों से बना है और उसमें मन, बुद्धि और अहंकार की प्रवृति स्वाभाविक रूप से विद्यमान रहती हैं। आंख हैं तो देखती है, कान हैं तो सुनते हैं, नासिका है तो सुगंध ग्रहण करती है, मुख है तो भोजन ग्रहण करता है और मस्तिष्क है तो विचार करता है। कहने का तात्पर्य यह है कि गुण ही गुणों को बरत रहे हैं पर हम सोचते हैं कि यह सभी हम कर रहे हैं हृदय में दृष्टा भाव होने की जगह कर्तापन का अहंकार आ जाता है। इसी अहंकार में मनुष्य के बाल सफेद हो जाते हैं पर वह अज्ञान के अंधेरे में ही अपना जीवन गुजार देता है।
हम आत्मा हैं और परमपिता का अंश है। यह आत्मा अनश्वर है पर हम अपने नष्ट होने के भय में रहते हैं। कर्तापन का अहंकार हमें माया का गुलाम बनाकर रख देता है। संत कबीर दास जी के मतानुसार सत्य का ज्ञान प्राप्त कर हमें अपने अंदर आत्मविश्वास पैदा करना चाहिये कि हम परमात्मा का अंश या स्वरूप हैं। जिस परमात्मा को हम दर दर ढूंढते हैं वह हम स्वयं ही हैं या कहें कि वह हमारे अंदर ही हैं। जरूरत है तो बस शब्द ज्ञान को समझने की है। इस संसार में आकर अपने दैहिक कर्तव्य पूरा तो करना चाहिये पर अपनी बुद्धि और मन को उसमें अपनी संलिप्पता की अनुभूति से परे रखें।
...........................................
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

Wednesday, June 24, 2009

चाणक्य नीति-दूसरों की तरक्की देखकर जलने वाला विद्वान पशु समान

चापी-कूप-तडागानामाराम-सुर-वेश्मनाम्।
उच्छेद निरऽऽशंकः स विप्रो म्लेच्छ उच्यते।।
हिंदी में भावार्थ-
जो मनुष्य बावड़ी, कुआं तालाब, बगीचे और धर्म स्थानों में तोड़फोड़ और उनको नष्ट करने से जो डरते नहीं है वह भले ही विद्वान हों म्लेच्छ कहलाता है।

परकार्यविहन्ता च दाम्भिकः स्वार्थसाधकः।
छली द्वेषी मृदः क्रूरो विप्रो मार्जार उच्यते।।
हिंदी में भावार्थ-
जो मनुष्य दूसरे के कार्यों को बिगाड़ने वाला, पाखंडी, अपना मतलबी साधने वाला, छलिया, दूसरों की उन्नति देखकर जलने वाला तथा बाहर से कोमल और अंदर कपट भाव रखने वाला है वह भले ही विद्वान क्यों न हो पशु के समान है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-सभी को अपने जीवन में अपना स्वयं के धर्म और कर्म केंद्रित करना चाहिये। कुछ ऐसे मनुष्य भी हैं जो केवल धर्म का दिखावा करते हैं पर उनका लक्ष्य उसकी आड़ में व्यवसाय या उसके सहारे अपना समाज पर वर्चस्व स्थापित करना है। ऐसे लोग धर्म के आधार पर निकृष्ट कर्म करते हैं जो केवल पाप की श्रेणी में आते हैं। हालांकि कहा जाता है अशिक्षित और गंवार लोग ही ऐसे हैं जो धर्म की आड़ में पाप काम करते हैं पर चाणक्य महाराज की बात को देखें तो यह काम पहले भी विद्वान और शिक्षित लोगों के द्वारा होता रहा है। बस अंतर इतना है कि अब यह काम केवल विद्वान आर शिक्षित लोग ही कर नजर आते हैं। कथित अशिक्षित और गंवार लोगों को तो अपनी रोजी रोटी कमाने से ही आजकल फुरसत कहां मिल पाती है?
देश, प्रदेश, और शहर की संपत्ति और धार्मिक स्थानों पर तोड़फोड़ करने वाले भारी पाप करते हैं और उनको एक तरह से म्लेच्छ कहा जाता है। चाहे अपने धर्म का हो या दूसरे धर्म का उसमें तोड़फोड़ करने वाले महापापी हैं और उनका कभी समर्थन न करे। ऐसे लोग धर्म के नाम पर विवाद कर समाज का ध्यान अपनी ओर ध्यान आकर्षित कर उसका लाभ उठाते हैं। अगर हम उनकी तरफ देखें तो भी समझ लेना चाहिये कि पाप हो गया।
................................
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

Tuesday, June 23, 2009

भर्तृहरि नीति शतक-सज्जन लोगों को प्रणाम

वांछा सज्जनंगमे परगुणे प्रीतिर्गुरो नम्रता विद्यायां व्यसनं स्वयोषिति रतिर्लोकापवादाद्भयम्
भक्तिः शूलिनि शक्तिरात्मदमने संसर्गमुक्तिः खले येष्वते निवसन्ति निर्मलगुणास्तेभ्यो नरेभ्यो नमः

हिंदी में भावार्थ- अच्छे लोगों से मित्रता का की कामना, गुरुजनों के प्रति नम्रता, विद्या और ज्ञान प्राप्ति में रुचि, स्त्री से प्रेम, लोकनिंदा से डर,भगवान शिव की भक्ति,अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण और दुष्ट लोगों की संगत का त्याग-यह सभी गुण सज्जन पुरुषों के प्रमाण है। ऐसे सज्जनों को प्रणाम।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-आधुनिक युग में लोगों का न केवल नैतिक पतन हुआ है बल्कि उनके विचार करने की शक्ति का भी ह्रास हुआ है। सज्जन पुरुषों से मित्रता की बजाय लोग दादा टाईप लोगों के साथ मित्रता इस आशा से करते हैं कि वह भविष्य में उनको सुरक्षा प्रदान करेंगे। शांति से साधना करने वाले गुरुओं की बजाय पहुंच वाले गुरुओं की शरण लेते हैं । आम लोगों की इस प्रवृति ने समाज के हर क्षेत्र में दलाली को प्रोत्साहन दिया है। छल कपट से स्वयं को शक्तिशाली प्रमाणित करने वाले लोग समाज में सम्मान पा रहे हैं फिर यह कहना कि जमाना खराब हो गया है-बेकार का प्रलाप है। जिसे धन या सम्मान पाना है वह ‘बदनाम हुए तो क्या नाम तो है’ का नारा लगाते हुए ऐसे कामों में लग जाता है जो दो नंबर का होता है-जिसमें उसे दलाली मिलती है। लोकनिंदा का भय तो कदाचारी लोगों में कतई नहीं है। अब तो लोकनिंदा की कोई परवाह नहीं करता।

हम इसके लिये किसी एक व्यक्ति या समाज को उत्तरायी ठहरायें तो आत्ममंथन की प्रक्रिया से भागने जैसा होगा। हम लोग कहीं न कहीं अपनी निष्क्रियता से ऐसे दुष्ट लोगों को प्रोत्साहन दे रहे हैं जो विश्वसनीय और भरोसेमंद दिखते हैं पर होते नहीं हैं। समाज सेवा और जन कल्याण के नाम भ्रष्टाचार करने वालों की हम उपेक्षा करने की बजाय उनकी उपलब्धियों पर उनको बधाई देते हैं। उनके यहा आयोजित कार्यक्रमों में भाग लेकर उनको अनुग्रहीत करते हैं। किसी को उसके कटु सत्यों का बयान करने का साहस नहीं होता। अगर हम चाहते हैं कि समाज शुरु रहे तो पहले हमें अपने अंदर शुद्धता का भाव लाना होगा जिसके लिय यह जरूरी है कि सज्जन लोगों से संपर्क करें और दुष्टों के प्रति उपेक्षा का भाव प्रदर्शित करें।
.................................

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्दलेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

अध्यात्मिक पत्रिकाएं